दार्चुलाःअतीत के आईने में

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पहाड़,पिथौरागढ़-चम्पावत अंक (पुस्तक) 2010
एलिजाबेथ स्टाइनर की कब्रएलिजाबेथ स्टाइनर की कब्रसत्तर के दशक में जब सीमान्त इलाकों में रह रहे समुदायों पर अध्ययन आरम्भ हुए, तब राष्ट्रीय सीमाओं को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा रहा था और न ही विश्लेषणों मेें सीमान्त की भूमिका की गम्भीरता को समझा जा रहा था। लेकिन हाल के वर्षों में यह स्थिति तेजी से बदली और सीमाओं व सीमान्त इलाकों का अध्ययन एक स्वायत्त विषय के रूप में उभरा। दरअसल पश्चिमी शोधकर्ताओं के लिए एक देश के रूप में बहुभाषाई, बहुसांस्कृतिक और खासकर सीमाई इलाकों में रहने वाला भारतीय समाज हमेशा ही कौतूहल का विषय रहा है। सीमान्तो की गत्यात्मकता को समझने के आकर्षण ने भारत, तिब्बत व नेपाल की सीमा पर बसे कस्बों खास तौर पर दार्चुला को नये सन्दर्भों में समझने को हमें प्रेरित किया। लगातार रूपान्तरित हो रहे इस कस्बे से जुड़ी बचपन की स्मृतियाँ अभी मस्तिष्क में शेष थीं जिन्हें आज के सन्दर्भों से जोड़ कर बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।

साठ के दशक के शुरुआती वर्षों में पहली बार देखे इस छोटे से कस्बे में दो देशों की सीमा निर्धारित करने वाली काली के बहाव का शोर समूची घाटी को अपने में समाता सा लगता था। वर्तमान दार्चुला से पहले प्रशासनिक गतिविधियाँ कस्बे के एक छोर पर बसे बगीचा द्योलगाँव से संचालित होती थीं। आरम्भ से ही अस्कोट रियासत के अधीन रहे इस इलाके में रजबार का आना-जाना था। अपने ऐशोआराम व प्रशासनिक नियंत्रण के लिए रजबार ने द्योल गाँव में आम का एक बगीचा लगवाया था। वहीं से वह अपनी गतिविधियाँ संचालित करता रहा। 1962 में खण्ड विकास कार्यालय वर्तमान दार्चुला में आने से बगीचा द्यो’ का महत्व कम होता चला गया। एक समय में कैलास-मानसरोवर यात्रा व तिब्बत व्यापार के आधार शिविर के रूप में हर किसी आगन्तुक का स्वागत करने वाली इस कस्बे में अब बिना अनुमति पत्र के पहुँचना सम्भव न था। 1962 के भारत-चीन युद्ध ने स्थितियाँ बदल डाली थीं। दार्चुला के आस-पास फौजी ठिकाने और तम्बुओंं के समूह देखे जा सकते थे। काली व गोरी गंगा के संगम पर स्थित जौलजीवी वह अन्तिम पड़ाव था जहाँ से आगे प्रतिबन्धित क्षेत्र आरम्भ हो जाता। यहाँ पुलिस चौकी पर आवश्यक जाँच पड़ताल के बाद ही आगे बढने की अनुमति थी। पिथौरागढ़ में जिला प्रशासन से इनर लाइन परमिट लेकर ही दार्चुला में प्रवेश किया जा सकता था। हाल के वर्षों में बनी सड़क के अभी संकरा होने के कारण ओगला स्थित गेट से समयबद्ध व नियंत्रित संचालन द्वारा वाहन दार्चुला पहुँचते हैं।

शीतकाल में कुछ एक दुकानों की कतार से घिरे बस स्टेशन में हाड़ कंपाती ठंड के बीट वाहनों के ईधन टैकों को आग से गर्म करते ड्राइवरों और चाय की इक्का-दुक्का दुकानों में खड़े यात्रियों के शोरगुल से इस उनीदे पहाड़ी कस्बे के दैनन्दिन जीवन की शुरुआत होती जान पड़ती थी। हाँ काली के उस पार नेपाल के दार्चुला में जनजीवन दोपहर से पहले शुरू होता नहीं लगता था। नेपाल को जोड़ने वाला झूला पुल हो या तारों में टिकी गरारी दार्चुला की जीवन रेखा सी प्रतीत होते थे। 1906 में दार्चुला पहुँचा शेरिंग काली पर बने रस्सियों के पुल का जिक्र करते हुये लिखता है कि स्थानीय लोग बन्दरों की भाँति उल्टा लटक कर नदी के आर-पार आते-जाते थे। वह कहता है कि लौंगस्टाफ और मैं एक दूसरे को इस पुल को पार करने के लिए उकसाते रहे लेकिन हम दोनों में से कोई भी इसके लिए हिम्मत नहीं जुटा सकें। गर्मियों में काली का पानी उतर जाने पर लठ्ठों व तख्तों से बनाया जाने वाला अस्थाई पुल, झूला पुल के भय से मुक्ति दे आवाजाही सरल कर देता था।

दार्चुला का एक और चित्र बार-बार आँखों में तैरता है। अनाज के बदले नमक या अन्य तिब्बती उत्पादों को बेचते शौका व्यापारी हों या फिर आवाजाही के लिए तिब्बती दर्रों के बन्द हो जाने के बावजूद हाथों में मणिचक्र लिए पवित्र मंत्रों को गुनगुुनाते भिक्षावृत्ति के लिए निकले तिब्बती लामा, अभी भी घर-घर आने का क्रम बदस्तूर बनाए हुए थे। गर्मियाँ आते ही खेतों में खाद डालने या काम की तलाश में घूमते तिब्बती दार्चुला में देखे जा सकते थे। नेपाल के दूरस्थ दुर्गम इलाकों तक कपड़े का कारोबार कर रही ऐजेन्सियाँ यथा मैं प्रेमबल्लभ खर्कवाल एण्ड सन्स, मोहन सिंह कुन्दन सिंह गर्ब्याल एण्ड सन्स या फिर किराना व्यापारी चिन्तामणी बहुगुणा एण्ड सन्स हो या सेनो सीपाल जरनल मर्चेंट की दुकान, आर्थिक व व्यापारिक दृष्टि से दार्चुला की भौगोलिक स्थिति के महत्व को उजागर करते थे। आजादी के बाद हर वर्ष 15 अगस्त व 26 जनवरी को आयोजित होने वाले किसान मेले और खेलकूद प्रतियोगिताएँ स्थानीय समाज की जीवन्ता के साथ-साथ बदलते परिदृश्य और मनोरंजन के विकल्प थे। सैनिक मनोरंजन के लिए छावनी में दिखाया जाने वाला सिनेमा यदा-कदा स्थानीय नागरिकों के लिए भी उपलब्ध था।

1962 के बाद से अपने भू-राजनैतिक व रणनीतिक महत्व के कारण दार्चुला कई तरह की गतिविधियों का केन्द्र बनता चला गया। 69 माउण्टेन ब्रिगेड मुख्यालय, सीमा सड़क संगठन, गुप्तचर संगठनों, प्राइमरी स्कूल, कन्या जूनियर हाईस्कूल व इण्टर कॉलेज जैसे अन्य अनेक संस्थाओं के उभर आने से नया स्वरूप लेता जा रहा यहाँ का कस्बाई जीवन हालाँकि अभी भी अनेक परम्पराओं को अपने में समेटे हुए था। साठ के दशक के दार्चुला की सामाजिक मनःस्थिति का अन्दाजा इससे लगाया जा सकता है। कि भूकम्पीय हलचलों पर अनेक परिवार शंख बजाकर उस आपदा से उबरने की कोशिश करते दिखते, जो हिमालय में भूगर्भीय हलचलो के अपेक्षाकृत सक्रिय केन्द्र, पड़ोस से लगे पश्चिमी नेपाल के बजांग इलाके से जन्म ले काली घाटी को प्रायः थर्राया करती थी। हाँ यह परम्परा दार्चुला के शौका समाज में नही थी। 1971 मेें बरसाती मौसम ने एक और आपदा का कहर दार्चुला में बरपाया था। सप्ताह भर चली मूसलाधार बारिश से टूट कर आये पहाड़ और गलाता गाड़ का बाढ़ ने समूचा सीपाल खेड़ा लील लिया था, साथ ही बह कर फैला मलवा सैनिक छावनी में घुस आया था। सौभाग्यवश यहाँ रह रहे परिवारों के प्रवजन मेें सीपू की ओर चले जाने से कोई जनहानि नहीं हुई थी, बाद में नई बस्ती में ये परिवार पुनर्वासित किए गए।

दार्चुला तीन उच्च हिमालयी घाटियों-दारमा, ब्यांस और चौंदास तथा नेपाल के तिंकर तथा छांगरू गाँवों का प्रवेश द्वार है। ये उच्च हिमालयी इलाकों और निचली घाटियों के बीच प्रवर्जन करने वाले रंङ शौकाओं, जो 50 के दशक तक भारत तिब्बत व्यापार के प्रमुख वाहक थे, का सबसे बड़ा और स्थाई शीतकालीन प्रवास स्थल है। लोक मानस में दार्चुला नाम को लेकर एक किंवदन्ती आज भी प्रचलित है। स्थानीय विश्वास के अनुसार ऋषि ब्यास ने अपना भोजन बनाने हेतु आस-पास की तीन पहाड़ियों धारों का चूल्हा बनाया। इसी कारण यह स्थान दार्चुला कहलाया।

यह कस्बा मूलतः ब्यांस घाटी के लोगों की बसासत है। दारमा और चौंदास के लोगों ने दक्षिण की ओर अपने गाँव बसाये हैं। काली के उस पार नेपाल का दार्चुला है। नदी के दोनों छोरों पर रहने वाले समाजों के घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। स्थानीय जनजातीय या गैर जनजातीय समुदाय, एक दूसरे से रंङ, नेपाली, कुमाऊँनी और हिन्दी में वार्तालाप करने में दक्ष हैं। ग्रियर्सन ने यहाँ की शौका बोली को तिब्बती-बर्मी श्रेणी के अन्तर्गत हिमालयी परिवार की उप भाषा के रूप मे वर्गीकृत किया है।

भाषी विविधता के अतिरिक्त हिन्दू तिब्बती बौद्ध और बोन प्रभावों ने बड़ी सीमा तक दार्चुला के सामाजिक-सांस्कृतिक व्यक्तित्व को आकार दिया है। दरअसल इस सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता को स्थानीय समाज ने अपने दैनन्दिन जीवन निर्वाह रणनीति के रूप में बखूबी इस्तेमाल किया है।

सर्दियों से कैलास के यात्रापथ पर होने के कारण पवित्र क्षेत्र के बीच दार्चुला एक दोसांत ही नहीं बल्कि स्थानीय व्यवस्थाओं की एक ऐसी शक्ति ज्यामिती का प्रतीक था जो कुमाऊँ, डोटी और तिब्बत की मध्ययुगीन राजनैतिक शक्तियों के अंतर्सम्बन्धों को सामने रखता है। दरअसल यह एक ऐसा स्थान है जो इन राजनैतिक शक्तियों को न केवल सीमा पर होने वाली आवाजाही और हिमालयपार व्यापार पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए प्रेरित करता वरन इससे इतर अतिरिक्त करों का लाभ लेने के लिए भी आकर्षित करता था। यही कारण था कि 1898 में अंग्रेजी हकमत ने कुछ सिपाहियों के साथ एक अंग्रेज अधिकारी को कर वसूली को लेकर तिब्बती और भारतीयों के बीच उपजे असंतोष को नियंत्रित करने के लिए दार्चुला भेजा था। कुमाऊँ और पश्चिमी नेपाल के विभिन्न कोटों की भाँति कस्बे के उत्तरी छोर पर स्थित दार्चुला कोट सम्भवतः इसी रणनीति का हिस्सा था। 1790 में कुमाऊँ पर नेपाली सत्ता के आधिपत्य से औपनिवेशिक शक्तियों के आगमन तक यह कोट गोरखाओं के नियंत्रण में बना रहा। आज इस कोट पर छिपलाकेदार का मन्दिर स्थापित है। कुमाऊँ में अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ इस इलाके में भी राजनैतिक और रणनैतिक लाभों के आकलन का सिलसिला शुरू हुआ। यह महत्त्वाकांक्षा पहली बार सीमाओं के निर्धारण, सुरक्षा और तिब्बत सहित मध्य एशिया से व्यापार गतिविधियों पर एकाधिपत्य स्थापित करने की कोशिशों पर केन्द्रित थीं।19वीं सदी के अन्त तक यहाँ से परम्परागत तिब्बत व्यापार को और बढ़ावा देने की कोशिशें होती रहीं। फलस्वरूप दार्चुला ऊन, सुहागा और नमक के व्यापार के एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र के रूप में उभर कर आया। इस बदलाव ने परम्परागत तिब्बत व्यापार से जुड़े शौका परिवारों की आर्थिकी को गति देने के साथ समृद्धि के नये धरातल पर ला खड़ा किया। फलस्वरूप इन परिवारों ने जमीन, पशु व मकानों में बड़ा निवेश करना आरम्भ किया। तिब्बत की यात्रा पर निकला लेण्ड अपने संस्मरणों में 1890 के आस-पास पहाड़ी पर बने बंगले और पक्के मकानों की बारह कतारों में बसे दार्चुला का जिक्र करता है।

औपनिवेशिक विस्तार के साथ मिशनरी संगठन इस घाटी की ओर भी रुख करने लगे थे। हिमालय के पूर्वोत्तर क्षेत्र की भाँति ये इलाके भी अमरीकी मेथोडिस्ट इपिस्कोपल मिशन की गतिविधियों का केन्द्र बनने लगा। 1892 में डायोसिनस होम मथुरा से पिथौरागढ़ स्थानान्तरित हुई डॉ. मार्था एय शेल्डन, जिन्हें इस इलाके में मिशन का कार्य सौंपा गया था, के आगमन के साथ यहाँ मिशनरी गतिविधियों का सिलसिला तेज होना शुरू हुआ। अगले ही वर्ष अप्रैल 1893 को डॉ. शेल्डन अपनी सहयोगी मि. बेडन के साथ शौकाओं के बीच मिशन स्थापना की सम्भावना तलाशने दार्चुला जा पहुँची और मिशन हेतु बेहतर स्थितियाँ देखते हुये उन्होंने इस इलाके में गर्मियों और जाड़ों के लिए अलग-अलग केन्द्रों की स्थापना की। दार्चुला, तरकोट और गर्मियों के लिए सिर्खा इस घाटी में मिशनरी गतिविधियों के केन्द्र बने। दार्चुला के बाहरी हिस्से में पत्थर आदि स्थानीय सामग्री का उपयोग कर दो भवन निर्मित किए गए। विलियम ई. ब्लेकस्टोन ने इस हेतु आर्थिक सहयोग दिया था। यूँ तो चिकित्सा और शिक्षा सम्बन्धी गतिविधियाँ मिशन का मुख्य लक्ष्य थीं लेकिन इसके पीछे कहीं न कहीं तिब्बत तक पहुँचने की मंशा भी छुपी थी। 1895 में नार्थ इण्डिया कान्फ्रेंस द्वारा डॉ. शेल्डन की फ्लोर डायोसिस होम में विधिवत नियुक्ति की गई। फ्रांसिस बेकर ने अपने विवरणों में लिखा है कि डॉ. शेल्डन ने देशी ईसाई महिलाओं की सहायता से शौकाओं के बीच कार्य करना शुरू किया था। इन्हीं में से एक महिला आगे चलकर पहली हिन्दुस्तानी डायोसिस बनीं। डॉ. शेल्डन ने इस घाटी में लड़कियों हेतु चार स्कूलों का संचालन किया जिसमें उस समय लगभग बीस लड़कियाँ पढ़ रही थीं। इससे पहले यहाँ 1862 में पहला स्कूल खुल चुका था और नैन सिंह रावत, जो बाद में अन्वेषक के रूप में चर्चित हुए, इस विद्यालय के पहले अध्यापक नियुक्त किए गए थे।

डॉ.शेल्डन पिथौरागढ़ में मिस बेडन के स्कूल में पढ़ने वाली एक तिब्बती लड़की को भी अपने साथ लेकर आई थीं। उनका मानना था कि एक दिन यह लड़की प्रतिबन्धित तिब्बत तक पहुँचने की महत्त्वपूर्ण कुंजी साबित होगी। इस दौरान डॉ. शेल्डन ने कई बार तिब्बत में मिशनरी गतिविधियाँ आरम्भ करने की कोशिश भी की लेकिन उनके प्रयास सफल नहीं हो सके। अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी। यही नहीं उन्होंने मिशनरी संगठनों को तिब्बत अभियानों के लिए हतोत्साहित करना भी शुरू कर दिया था। यद्यपि अंग्रेज तिब्बत में चीनी प्रभुत्व को स्वीकार कर रहे थे लेकिन उन्होंने ल्हासा की सरकार के साथ सीधा संवाद स्थापित किया था।

1920 के बाद घोषित रूप से भारतीय व तिब्बतियों को छोड़ अन्यों के सीमा पार करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। 1922 के एक पत्र मेें तत्कालीन विदेश सचिव ने स्पष्ट निर्देश दिया था कि खिलाड़ियों, अवांछित व्यक्तियों और मिशनरी संगठनों को तिब्बत में प्रवेश न करने दिया जाय। दरअसल उन्हें इसका भय था कि मिशनरी गतिविधियों के कारण कहीं आंग्ल-तिब्बती सम्बन्ध खराब न हो जाएँ। 1912 में डॉ.शेल्डन की मु्त्यु के बाद दार्चुला में मिशनरी गतिविधियाँ ठप्प सी पड़ गई। ये गतिविधियाँ पुनः सोलह वर्ष बाद 1928 में इर्जा स्टाइनर व एलिजाबेथ स्टाइनर जो स्वयं भी नर्स थी, के आने के बाद ही शुरू हो सकीं। अपने दार्चुला प्रवास के दौरान स्टाइनर दम्पति ने 1930 व 1942 में दो बार तिब्बत की यात्रा की। 1949 में एलिजाबेथ स्टाइनर की हृदयाघात से मृत्यु हो जाने के बाद एक बार फिर इस मिशन की गतिविधियाँ कमजोर पड़ गई। हालाँकि यह मिशन आजादी के बाद कुछ समय तक काम करता रहा लेकिन वह इस घाटी में स्थाई प्रभाव नहीं छोड़ सका था।

बीसवीं सदी की शुरुआत में घाटी की यात्रा पर निकले चार्ल्स शेरिंग के विवरण बताते हैं कि इस समय तक दार्चुला पॉलिटिकल पेशकार का शीतकालीन मुख्यालय बन चुका था और नदी के उस बीसवीं सदी की शुरुआत में घाटी की यात्रा पर निकले चार्ल्स शेरिंग के विवरण बताते हैं कि इस समय तक दार्चुला पॉलिटिकल पेशकार का शीतकालीन मुख्यालय बन चुका था और नदी के उस पार नेपाल में भी कोर्ट हाउस व नेपाल सरकार के लेफ्टीनेंट, जो दीवानी तथा फौजदारी मामलों को देखता था, का आवास बन चुका था। 5 जुलाई 1931 को दार्चुला पहुँचे महाराजा मैसूर की कैलास मानसरोवर यात्रा विवरण देते हुये शमा राव लिखता है कि महाराजा के दार्चुला प्रवास पर स्थानीय स्कूल में रहने की व्यवस्था की गई थी और सहयोगियों के लिए तम्बू गाढ़े गये। स्कूल के पास नेपाल जाने के लिए घास की पाँच-छः रस्सियों पर व्ही आकार की लकड़ी जिसे स्थानीय भाषा मेें तांगुला कहा जाता था, लटका कर नदी को पार करने की व्यवस्था थी। उसके विवरण इस घाटी मेें लहलहाती धान, मक्का की फसल और ढेरों आम, सन्तरे और नींबू के पेड़ों का भी उल्लेख करते हैं। दरअसल बगीचा द्योल से प्रशासनिक गतिविधियाँ दार्चुला में लाये जाने से पहले आज के बाजार का समूचा इलाका लहलहाती फसलों वाला उपजाऊ क्षेत्र था।

इस दौर में दार्चुला में बसी जनजातीय आबादी के साथ-साथ व्यापार हेतु बाहर से आए गैर जनजातीय समाज ने स्थानीय आर्थिकी को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1891 में चम्पावत से आए युवा व्यवसायी प्रेमबल्लभ खर्कवाल ने दार्चुला में जिस युवा कपड़ा व्यवसाय की शुरुआत की थी, वह धीरे-धीरे तिब्बत के साथ ऊनी कारोबार करने तक फैल चुका था। 20वीं सदी के आरम्भिक वर्षों के आते-आते प्रेमबल्लभ खर्कवाल एण्ड सन्स न केवल ब्रिटिश सरकार को तिब्बती ऊन की आपूर्ति करने वाली अग्रणी ऐजेन्सी बन चुकी थी बल्कि कानपुर वूलन मिल्स और प्रकारान्तर में लाल इमली, धारीवाल जैसी भारतीय कम्पनियाँ भी उनकी ग्राहक बन गई थीं।अपने कारोबार को बढ़ाने के उद्देशय से प्रेमबल्लभ खर्कवाल ने नेपाल से कुछ एक गोरखा परिवारों को लाकर दार्चुला में अपने निवास के समीप बसाया। कुछ समय बाद इस बस्ती को सरकार द्वारा ग्वाल गाँव के नाम से मान्यता दी गई। आज भी यहाँ 36 गोरखा परिवार देेेेखे जा सकते हैं। इस एजेन्सी की आर्थिक सफलता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता था कि 1928 में अठारह हजार रूपये की लागत से आठ मील लम्बी पाइप लाइन बिछा कर श्री खर्कवाल ने पिथौरागढ़ नगर में पानी की समस्या को दूर करने की कोशिश की थी और 1930 में इसी नगर के किंग ज्यौर्ज हाईस्कूल को एक हजार रुपये देकर पुस्तकालय स्थापना प्रयास भी किया। सामाजिक सक्रियता व बेहतर कारोबार के लिए 12 मई 1934 को दार्चुला के इस व्यवसायी को रजत पदक से सम्मानित किया गया और इसी वर्ष 4 जून 1934 को ब्रिटिश सरकार द्वारा रायबहादुर की उपाधि भी प्रदान की गई। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय रायबहादुर खर्कवाल ने ब्रिटिश सरकार को दस हजार रुपए का सहयोग देकर ब्रिटिश राज के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की थी। देश की आजादी के अगले वर्ष दार्चुला में जूनियर हाईस्कूल खोलने के उद्देश्य से उन्होंने भूमि सहित बारह हजार रुपए का सहयोग कर इस स्कूल की स्थापना में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस दौर में दार्चुला में आ रहे बदलावों को कुमाऊँ में औपनिवेशिक प्रशासन की प्राथमिकताएँ निरन्तर प्रभावित करती रहीं। जैव-प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से मिल रहे लाभ ने तिब्बत व्यापार के औपनिवेशिक आकर्षण को धीरे-धीरे कम करना शुरू कर दिया था। साथ ही भूमि बन्दोबस्त, गाँवों व वन क्षेत्र की सीमाओं के अंकन ने अपने पशुओं के साथ प्रव्रजन पर रहने वाले शौकाओं के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी। परिणामतः इस कस्बे में स्थाई रूप में रहने वालो की संख्या बढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ। इतना ही नहीं अब अस्कोट के रजवार सहित स्थानीय कुलीनों ने दार्चुला के आस-पास की खेती योग्य जमीनोंं में मालिकाना हक स्थापित कर कास्तकारों से भूराजस्व लेना भी आरम्भ कर दिया था।

1962 के भारत-चीन युद्ध के कारण सीमा पर व्यापार की सम्भावनाओं के पूर्णतः समाप्त हो जाने के कारण दार्चुला के महत्व और स्वरूप में एक बार फिर मोड़ आना शुरू हुआ। धार्मिक और व्यापारिक गतिविधियों से जुड़ा यह कस्बा सैन्य हलचलों का केन्द्र बनता चला गया। आजीविका की तलाश में ऊँचे इलाकों में रह रहे अनेक शौका परिवार दार्चुला या फिर मैदानी इलाकों की ओर पलायन करने को बाध्य हुए। 1967 में शौकाओं के जनजाति श्रेणी के अन्तर्गत आ जाने से इस प्रक्रिया को और गति मिली क्योेंकि अब जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक शिक्षा व सरकारी नौकरियों के नए द्वार खुलने लगे थे।

2001 की जनगणना के अनुसार दार्चुला की आबादी 6324 हो चुकी थी। पिछले चार दशकों में दार्चुला में बदल रही जनसंख्या का परिदृश्य निम्न तालिका में दिया है।
 

 

दार्चुला

1961

1971

1981

1991

2001

देहात

2383

4131

-

-

-

नगर पंचायत

-

-

3068

4475(+45.01)

6324(+41.32)

 

बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में दार्चुला के कस्बाई जीवन में एक बार फिर बदलाव की प्रक्रिया शुरू हुई। 1992 में जिस घटना की ओर पश्चिमी शोधकर्त्ताओं का बिल्कुल ध्यान नहीं गया वह थी इस घाटी के दर्रों से तिब्बत व्यापार व कैलास यात्रा की शुरुआत। इससे दार्चुला वासियों के बीच नई सम्भावनाओं की आस जगाई। भारतीय तथा विदेशी पर्यटकों के लिए इनर लाईन के प्रतिबंध चौदांस घाटी तक हटा लिए गए। 1981 में फिर से समूहों में आरम्भ हुई कैलास यात्रा के साथ-साथ छोटा कैलास व नारायण आश्रम पर्यटक आकर्षण के केन्द्र बनने लगे। कुछ एक होटल भी अब दार्चुला में उभर आए हैं। कुमाऊँ मण्डल विकास निगम ने एक स्थानीय संस्था के साथ मिल इस इलाके में पर्यटन गतिविधियों की शुरुआत की है। लेकिन दूसरी ओर नेपाल मेें माओवादी आन्दोलन के कारण परम्परागत व्यावसायिक गतिविधियाँ प्रभावित हुई हैं। सीमा के खुले होने से पहली बार सम्भावित आतंकी घुसपैठों पर निगरानी हेतु एस.एस.बी जैसे अर्धसुरक्षा बलों की गतिविधियाँ आज यहाँ देखी जा सकती हैं।

आज दार्चुला तिब्बत व्यापार या फिर कैलास यात्रा से ही नहीं जुड़ा है बल्कि सरकारी-गैरसरकारी निवेशक संस्थानों के लिए भी यह आकर्षण का क्षेत्र बन गया है। खासतौर पर जल ऊर्जा के क्षेत्र में एन.एच.पी.सी., रिलायंस आदि बड़ी परियोजनाओं पर काम करने वाली कम्पनियों के साथ डेवू, सैमसंग जैसी उनकी उपयोगी विदेशी कम्पनियाँ भी यहाँ आई हैं। इनके साथ ही एक नई कार्य व समाज संस्कृति का आगमन हुआ है। भारी भरकम परियोजनाओं में काम की तलाश में आई आबादी के दबाव व ठेकेदार संस्कृति के साथ इस इलाके में जहाँ अपराधों की संख्या बढ़ी, वहीं उनका स्वरूप भी बदला है। एन.एच.पी.सी. द्वारा 2001 मेें 280 मे.वा. की धौलीगंगा परियोजना का प्रथम चरण शुरू किया जा चुका है और कुछ एक परियोजनाएँ निर्माणाधीन हैं। यहाँ नियुक्त सुरक्षा बलों, केन्द्रीय संगठनों के कर्मियों की सुविधा हेतु इधर एक केन्द्रीय विद्यालय भी अस्तित्व में आ चुका है। दार्चुला के समीप शिवालय व गरम पानी के स्रोत के कारण कभी धार्मिक आस्था का केन्द्र रहे तपोवन में आज एन.एच.पी.सी कार्यालय सहित आवासीय परिसर भी बन चुके हैं।

नए बदलावों ने हाल के वर्षों में दार्चुला के सामाजिक-सांस्कृतिक व आर्थिक ढाँचे को बड़ी सीमा तक प्रभाविक किया। सामुदायिक प्रतिद्वन्दिवता के कारण स्थानीय राजनीति के समीकरण नए ढँग से परिभाषित हुए हैं। परिणामस्वरूप राजी जैसी घाटी की अल्पसंख्य व सर्वाधिक पिछड़ी जनजाति के युवक को प्रदेश विधान सभा में इस इलाके का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला है।

इधर वैश्वीकरण और बाजारवाद की लहर भी दार्चुला सरीखे दूरस्थ-दुर्गम सीमावर्ती कस्बे तक पहुँच चुकी है। हाल के वर्षों में सीमा के आरपार शराब व नशीले पदार्थों के गैरकानूनी व्यापार सहित तस्करी कर ले जाई जा रही वनौषधियों, वन्यजीव अंगों के कारोबार का जाल गहराई तक जड़ें जमा चुका है। यारसागम्बू, शहतूश (तिब्बती एंटीलोप) व जानवरों की खालें इस कारोबार के मुख्य घटक हैं। वर्ष 2003 में दार्चुला में पकड़ा गया 215 किग्रा.शहतूश का ऊन इस बदलते परिदृश्य का एक उदाहरण है। तस्करी का यह जटिल तंत्र नेपाल, तिब्बत से होकर अन्तरराष्ट्रीय बाजार तक फैला है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से लेकर चीनी उत्पाद स्थानीय कारोबार का बड़ा हिस्सा है। इस परिवर्तन ने परम्परागत व्यवसायों को हाशिये पर खड़ा किया है।

दरअसल दार्चुला, के उत्तराखण्ड के दूरस्थ-दुर्गम सीमावर्ती इलाके में बसे कस्बों में पिछले 150 वर्षों में आए बदलाव की प्रक्रिया का बेहतर उदाहरण है। दो देशों के बीच सम्बन्धों में हुए परिवर्तनों के फलस्वरूप समूचे स्थानीय समाज की जीवन निर्वाह पद्धति में हुई रूपान्तरण की प्रक्रिया को यहाँ सहजता से समझा जा सकता है। यही नहीं, सीमाओं के आर-पार रह रहे समुदायों के सहजीवी परम्परागत सम्बन्धों, विशेषकर बाजारवाद और उदारीकरण की बयार मे सामाजिक -सांस्कृतिक मूल्यों में आ रहे परिवर्तन व समुदायों की बदलती आर्थिक प्राथमिकताएँ दार्चुला जैसे सीमान्त कस्बों में देखी जा सकती है।

सन्दर्भ

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7. शमाराव,एम 1936, मार्डन मैसूर, बंगलुरु:367, 370,371
8. शेरिंग चार्ल्स ए.1906, वेस्टर्न तिब्बत एण्ड ब्रिटिश बौडरलैण्ड, द सेक्रेड कन्ट्री ऑफ हिन्दूज, एण्ड बुद्धिस्ट विद एन एकाउण्ट ऑफ गवर्नमेंट, रिलीजन एण्ड कस्टम्स ऑफ इट्स पीपुलः21-22
9. गिरिजा पाण्डे 2008, अस्कोट-आराकोट अभियान 1994,2004 की डायरी