मगध क्षेत्र के लिए प्रस्तावित जलनीति

Submitted by admin on Mon, 03/08/2010 - 22:42

जमीन एवं जल स्रोतों की स्थिति


‘‘जल ही जीवन है’’ यह उक्ति मगध क्षेत्र के लिए भी उतनी ही सच है जितनी दुनिया के अन्य क्षेत्रों के लिए मगध क्षेत्र से हमारा तात्पर्य उस भौगोलिक क्षेत्र से है जिसके उत्तर में गंगा नदी है और दक्षिण में झारखंड, पूर्व में क्यूल नदी है और पश्चिम में सोन नदी अर्थात संपूर्ण मगही भाषी क्षेत्र।

भौगोलिक बनावट के लिहाज से मगध क्षेत्र की स्थिति काफी विविधतापूर्ण है। इसका दक्षिणी भाग पठारी है, जिसकी तीखी ढाल उत्तर, कहीं-कहीं पूर्वाभिमुख उत्तर की ओर है। उत्तरी भाग मैदानी है। इसकी ढाल भी इसी दिशा की ओर है, लेकिन ढाल कम (लगभग 1.25 मीटर प्रति किलोमीटर) है। उत्तरी भाग में ढाल नहीं के बराबर है। फलतः इस भाग की जमीन लगभग समतल है। पठारी इलाकों में लम्बी घाटियाँ हैं जो मैदान का आकार लिए हुए हैं। सोन एवं पुनपुन के द्वारा बनाया गया मैदान है। इसमें कहीं कम, तो कहीं अधिक गहराई में बालू है जो मुख्य जल स्रोत है। कहीं-कहीं यह जल प्रवाह ऊपर में भी है। यह स्थिति मुख्यतः औरंगाबाद, अरवल और पटना जिले में है।

इस पूरे क्षेत्र में वर्षा जल का वार्षिक औसत 100 सेंटीमीटर है लेकिन तीखी ढाल के कारण पठारी क्षेत्र में जल का संग्रह कठिन हो जाता है। मगध के पठारी क्षेत्र के लोक जीवन पर इस भौगोलिक बनावट का गहरा असर है। फलतः मक्का, अरहर आदि भदई फसलें यहाँ की प्रमुख फसलें हैं। जहाँ पानी रोकना संभव है, वहाँ धान की खेती भी कहीं-कहीं होती है। उत्पादन की कमी के कारण यहाँ आबादी विरल है। दूसरी ओर इस क्षेत्र के वर्षा जल का उपयोग बीच के मैदानी भागों में पइन-आहर की व्यवस्था के जरिए लंबे समय से हो रहा है। जल निकासी की पर्याप्त गुंजाइश नहीं होने के कारण मगध क्षेत्र का उत्तरी भाग बरसात और उसके बाद के दो-एक महीनों तक डूब क्षेत्र में तब्दील हो जाता है और रबी की फसल ही मुख्य रूप से हो पाती है। इस प्रकार क्षेत्र का मध्यवर्ती भाग ही धान और रबी दोनों फसलों का भरपूर लाभ ले पाता है। तीन साल बाद प्रायः सुखाड़ की आवृत्ति होने लगी है।