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जनसत्ता (रविवारी), 16 मार्च 2014
भारत में सुपरबग्स के जो दावे किए जा रहे हैं, उन पर बाजार का दबाव है। दवाओं के खुले बाजार में मौजूद फार्मा कंपनियों को अपने खाते में नई दवाएं चाहिए और इसके लिए खतरे को भरपूर प्रचार मिलना जरूरी है, लिहाजा जब कोई नया खतरा भारत की जमीन पर पैदा होगा, तो उससे उनके कारोबार में इजाफा होना तय है। पर बात सिर्फ इतनी नहीं है। इधर जिस तरह भारतीय अस्पताल विश्व स्तर पर अपनी मौजूदगी बढ़ा रहे हैं, उससे सेहत के नाम पर चलाया जा रहा एक बड़ा धंधा पश्चिम को अपनी पकड़ से बाहर जाता दिख रहा है। पश्चिम की नजरों में भारत पहले सांप-सपेरों, झाड़-फूंक करने वालों और मदारियों का देश था तो अब विकसित मुल्कों को यहां की नदियों-अस्पतालों में सुपरबग्स यानी ऐसे नुकसानदेह बैक्टीरिया नजर आते हैं, जिनका इलाज मुमकिन नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से मौके-बेमौके यहां की आबोहवा में बेहद हानिकारक सुपरबग्स होने की बातें कही गई हैं। उन सुपरबग्स के नाम में राजधानी दिल्ली तक का नाम जोड़ा गया। अब एक बार फिर वैसी ही तोहमत हमारी नदियों के माथे मढ़ी जा रही है। इससे इनकार नहीं कि यूरोप-अमेरिका के मुकाबले हिंदुस्तान में लोगों को न साफ हवा-पानी मुहैया है और न अस्पतालों में सही इलाज, पर पश्चिमी देश जब-तब इन बातों के लिए भारत को कठघरे में खड़ा करते हैं, उससे उनके इरादों पर भी शक होने लगता है।
ताजा चर्चा देश के तीर्थस्थलों पर नदियों के जल में सुपरबग्स की सक्रियता संबंधी दावे की है, जिसे ब्रिटेन की न्यू कैसल यूनिवर्सिटी और आईआईटी दिल्ली के वैज्ञानिकों के एक संयुक्त अध्ययन का नतीजा बताया जा रहा है। इस अध्ययन में कहा गया है कि बनारस, हरिद्वार और ऋषिकेश जैसे तीर्थों पर जब कोई बड़ा स्नान पर्व आयोजित होता है, तो वहां सुपरबग्स की तादाद साठ गुना तक बढ़ जाती है। वैसे सुपरबग्स का खतरा पूरी दुनिया में बताया गया है, क्योंकि व्यापार और नौकरी के सिलसिले में लोगों का एक से दूसरे मूल्कों मे काफी आना-जाना होने लगा है, पर भारत जैसे देश में, जहां नदियों में सीवेज और कारखानों का विषैला कचरा बिना शोधन के छोड़ा जा रहा है, यह खतरा काफी ज्यादा है। पर यह बात गले नहीं उतर रही।
करीब साढ़े चार बरस पहले अगस्त, 2010 में भी ऐसा ही एक दावा अंतरराष्ट्रीय स्तर के हेल्थ जर्नल-लांसेट में दिल्ली की आबोहवा को लेकर किया गया था। लांसेट ने अपनी एक स्टडी का हवाला देकर सुपरबग को एक नया नाम-न्यू डेल्ही मेटालो बीटा लैक्टामेज (एनडीएम-1) दिया था। किसी खूंखार बैक्टीरिया को देश या राजधानी का नाम दे दिया जाए, तो उसे लेकर दुनिया भर में जैसी सनसनी फैलनी चाहिए थी, उस वक्त फैली। हालांकि भारत ने इसे देश के मेडिकल कारोबार को तबाह करने की एक साज़िश करार देते हुए इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन से शिकायत भी की थी, लेकिन इसे लेकर भारत की जो नकारात्मक छवि अंतरराष्ट्रीय मंच पर बननी थी, सो बन कर रही।
अगर किसी संस्था संगठन ने यह आकलन उस घटना के बाद किया होता कि एनडीएम-1 के हादसे के बाद भारत के पर्यटन पर कितना बुरा असर पड़ा और हमारे स्वास्थ्य पर्यटन उद्योग ने इस दौरान कितना घाटा उठाया, तो पता चलता कि ऐसी तोहमतें हमारी विकास दर को किस हद तक प्रभावित करती हैं।
कोई शक नहीं कि विज्ञान की तरक्की के बावजूद हम इंसानों को आज भी सबसे ज्यादा खतरा अदृश्य और हानिकारक बैक्टीरिया का ही है। हर साल लाखों लोग ऐसे बैक्टीरिया के कारण सामान्य सर्दी-जुकाम और वायरल बुखार की चपेट में आते हैं और एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुध इस्तेमाल से इन मर्जों से छुटकारा पाने की कोशिश करते हैं। उनकी यह कोशिश एंटीबायोटिक दवाओं के कारोबार को कितने अरब डॉलर का फायदा कराती है यह दवा कंपनियां बखूबी जानती होंगी। अगर बात सवा अरब की आबादी वाले भारत जैसे मुल्क की हो, तो वहां न्यू डेल्ही वायरस की कीमत शायद खरबों डॉलर में बैठेगी। गौरतलब है कि 2010 में लांसेट में एनडीएम-1 संबंधी जो रिपोर्ट छपी थी, उसे एक दवा कंपनी ने प्रायोजित किया था, तो सारा माजरा समझ में आ जाता है। हम पहले से अपनी हवा-पानी को लेकर आशंकित हों तो दवा कंपनियों के लिए एक नया भय पैदा करके अरबों रुपए का खेल कर बहुत आसान होता है।
लेकिन क्या सुपरबग सिर्फ हमारी जमीन पर उगते हैं? ध्यान दें कि ये पूरी दुनिया में पाए जाते हैं और कुछ तो हम इंसानों की आंत पर सतत् मौजूद रहते हैं। देर सिर्फ उन्हें उनके मुताबिक माहौल मिलने की है, फिर वे फौरन सक्रिय हो उठते और विकट समस्या खड़ी कर देते हैं। अगर अस्पतालों में पाए जाने वाले सुपरबग्स की बात करें, तो ऐसे समुदायजनित बैक्टीरिया मसलन, एमआरएसए (मेथिसिलीन रेजिस्टेंस स्टेफाइलोकॉकस ऑरस) पिछले दशकों से अमेरिका के लिए मुसीबत बने हुए हैं। बताया जाता है कि हर साल अठारह हजार अमेरिकी इसकी चपेट में आने से मरते हैं और लाखों प्रभावित होते हैं। एनडीएम-1 जैसे जीन्स वाले ई-कोलाई (बैक्टीरिया ) अमेरिका, ब्रिटेन समेत यूनान, इजराइल और तुर्की के अस्पतालों में भी पाए गए हैं, पर कभी यह सुनने को नहीं मिला कि वहां इन सुपरबग्स में उन देशों या उनके शहरों का नाम जोड़ दिया गया।
भारत में सुपरबग्स के जो दावे किए जा रहे हैं, उन पर बाजार का दबाव है। दवाओं के खुले बाजार में मौजूद फार्मा कंपनियों को अपने खाते में नई दवाएं चाहिए और इसके लिए खतरे को भरपूर प्रचार मिलना जरूरी है, लिहाजा जब कोई नया खतरा भारत की जमीन पर पैदा होगा, तो उससे उनके कारोबार में इजाफा होना तय है। पर बात सिर्फ इतनी नहीं है। इधर जिस तरह भारतीय अस्पताल विश्व स्तर पर अपनी मौजूदगी बढ़ा रहे हैं, उससे सेहत के नाम पर चलाया जा रहा एक बड़ा धंधा पश्चिम को अपनी पकड़ से बाहर जाता दिख रहा है।
भारतीय अस्पतालों की श्रृंखलाओं-अपोलो और फोर्टिस के विदेशी जमीनों पर अधिग्रहण से यह बेचैनी पश्चिम में फैली है। फोर्टिस पहले ही मॉरिशस का एक बड़ा अस्पताल खरीद चुका है और कुछ ही साल पहले उसने सिंगापुर के मशहूर अस्पताल पार्कवे को खरीदने की कोशिश की थी, जो किसी कारणवश नाकाम हो गई. इसी तरह अपोलो समूह ने भी मॉरिशस के एक अस्पताल में निवेश किया था और वह कई अन्य मूल्कों में करार करके अस्पताल चला रहा है। एशिया-अफ्रिका के कई अस्पतालों को खरीद कर वहां तिरंगा लहराने की उनकी कोशिशें पश्चिमी देशों के पेट में मरोड़ पैदा करने के लिए काफी हैं।
सुपरबग का ज्यादा खतरा भारत में बताने का एक मकसद और है। भारत ने पिछले अरसे में अंतरराष्ट्रीय चिकित्सीय धुरी बनने में कामयाबी हासिल की है। अब से एक डेढ़ दशक पहले जटिल सर्जरी के लिए जो लोग ब्रिटेन या अमेरिका का रुख करते थे, अब अपोलो, फोर्टिस, एस्कॉर्ट्स जैसे अस्पतालों की पांचतारा सुविधाओं की बदौलत वहीं इलाज भारत में कम पैसों में मुमकिन होने लगा है। मध्य-पूर्व एशिया और अफ्रीका से ही नहीं, ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी से भी वे लोग यहां इलाज और सर्जरी के लिए आने लगे हैं। इस बदलाव को ब्रिटिश और अमेरिकी इंश्योरेंस कंपनियों ने पढ़ लिया है और अब वे अपने पैनल में भारतीय अस्पतालों को शामिल करने लगी हैं। नतीजतन भारत ने चिकित्सा पर्यटन सालाना बीस-पच्चीस फीसद की दर से बढ़ रहा है, जो पश्चिम के लिए चिंता का विषय बन गया है।
ऐसे में बैक्टीरिया का नाम दिल्ली से जोड़ कर और भारत के हवा पानी में सुपरबग की मौजूदगी बता कर पश्चिमी देश असल में चिकित्सा उद्योग का अपना किला बचाने की कोशिश कर रहे हैं।
जाहिर है, सुपरबग के नाम पर जो खतरा हमारे देश में बताया जा रहा है, वह यह नहीं है कि उससे लोगों के बीमार होने की आशंका है, बल्कि यह है कि इससे पश्चिमी फार्मा कंपनियों का धंधा चमकाने की कोशिश हो रही है।
ईमेल : abhi.romi20@gmail.com
ताजा चर्चा देश के तीर्थस्थलों पर नदियों के जल में सुपरबग्स की सक्रियता संबंधी दावे की है, जिसे ब्रिटेन की न्यू कैसल यूनिवर्सिटी और आईआईटी दिल्ली के वैज्ञानिकों के एक संयुक्त अध्ययन का नतीजा बताया जा रहा है। इस अध्ययन में कहा गया है कि बनारस, हरिद्वार और ऋषिकेश जैसे तीर्थों पर जब कोई बड़ा स्नान पर्व आयोजित होता है, तो वहां सुपरबग्स की तादाद साठ गुना तक बढ़ जाती है। वैसे सुपरबग्स का खतरा पूरी दुनिया में बताया गया है, क्योंकि व्यापार और नौकरी के सिलसिले में लोगों का एक से दूसरे मूल्कों मे काफी आना-जाना होने लगा है, पर भारत जैसे देश में, जहां नदियों में सीवेज और कारखानों का विषैला कचरा बिना शोधन के छोड़ा जा रहा है, यह खतरा काफी ज्यादा है। पर यह बात गले नहीं उतर रही।
करीब साढ़े चार बरस पहले अगस्त, 2010 में भी ऐसा ही एक दावा अंतरराष्ट्रीय स्तर के हेल्थ जर्नल-लांसेट में दिल्ली की आबोहवा को लेकर किया गया था। लांसेट ने अपनी एक स्टडी का हवाला देकर सुपरबग को एक नया नाम-न्यू डेल्ही मेटालो बीटा लैक्टामेज (एनडीएम-1) दिया था। किसी खूंखार बैक्टीरिया को देश या राजधानी का नाम दे दिया जाए, तो उसे लेकर दुनिया भर में जैसी सनसनी फैलनी चाहिए थी, उस वक्त फैली। हालांकि भारत ने इसे देश के मेडिकल कारोबार को तबाह करने की एक साज़िश करार देते हुए इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन से शिकायत भी की थी, लेकिन इसे लेकर भारत की जो नकारात्मक छवि अंतरराष्ट्रीय मंच पर बननी थी, सो बन कर रही।
अगर किसी संस्था संगठन ने यह आकलन उस घटना के बाद किया होता कि एनडीएम-1 के हादसे के बाद भारत के पर्यटन पर कितना बुरा असर पड़ा और हमारे स्वास्थ्य पर्यटन उद्योग ने इस दौरान कितना घाटा उठाया, तो पता चलता कि ऐसी तोहमतें हमारी विकास दर को किस हद तक प्रभावित करती हैं।
कोई शक नहीं कि विज्ञान की तरक्की के बावजूद हम इंसानों को आज भी सबसे ज्यादा खतरा अदृश्य और हानिकारक बैक्टीरिया का ही है। हर साल लाखों लोग ऐसे बैक्टीरिया के कारण सामान्य सर्दी-जुकाम और वायरल बुखार की चपेट में आते हैं और एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुध इस्तेमाल से इन मर्जों से छुटकारा पाने की कोशिश करते हैं। उनकी यह कोशिश एंटीबायोटिक दवाओं के कारोबार को कितने अरब डॉलर का फायदा कराती है यह दवा कंपनियां बखूबी जानती होंगी। अगर बात सवा अरब की आबादी वाले भारत जैसे मुल्क की हो, तो वहां न्यू डेल्ही वायरस की कीमत शायद खरबों डॉलर में बैठेगी। गौरतलब है कि 2010 में लांसेट में एनडीएम-1 संबंधी जो रिपोर्ट छपी थी, उसे एक दवा कंपनी ने प्रायोजित किया था, तो सारा माजरा समझ में आ जाता है। हम पहले से अपनी हवा-पानी को लेकर आशंकित हों तो दवा कंपनियों के लिए एक नया भय पैदा करके अरबों रुपए का खेल कर बहुत आसान होता है।
लेकिन क्या सुपरबग सिर्फ हमारी जमीन पर उगते हैं? ध्यान दें कि ये पूरी दुनिया में पाए जाते हैं और कुछ तो हम इंसानों की आंत पर सतत् मौजूद रहते हैं। देर सिर्फ उन्हें उनके मुताबिक माहौल मिलने की है, फिर वे फौरन सक्रिय हो उठते और विकट समस्या खड़ी कर देते हैं। अगर अस्पतालों में पाए जाने वाले सुपरबग्स की बात करें, तो ऐसे समुदायजनित बैक्टीरिया मसलन, एमआरएसए (मेथिसिलीन रेजिस्टेंस स्टेफाइलोकॉकस ऑरस) पिछले दशकों से अमेरिका के लिए मुसीबत बने हुए हैं। बताया जाता है कि हर साल अठारह हजार अमेरिकी इसकी चपेट में आने से मरते हैं और लाखों प्रभावित होते हैं। एनडीएम-1 जैसे जीन्स वाले ई-कोलाई (बैक्टीरिया ) अमेरिका, ब्रिटेन समेत यूनान, इजराइल और तुर्की के अस्पतालों में भी पाए गए हैं, पर कभी यह सुनने को नहीं मिला कि वहां इन सुपरबग्स में उन देशों या उनके शहरों का नाम जोड़ दिया गया।
भारत में सुपरबग्स के जो दावे किए जा रहे हैं, उन पर बाजार का दबाव है। दवाओं के खुले बाजार में मौजूद फार्मा कंपनियों को अपने खाते में नई दवाएं चाहिए और इसके लिए खतरे को भरपूर प्रचार मिलना जरूरी है, लिहाजा जब कोई नया खतरा भारत की जमीन पर पैदा होगा, तो उससे उनके कारोबार में इजाफा होना तय है। पर बात सिर्फ इतनी नहीं है। इधर जिस तरह भारतीय अस्पताल विश्व स्तर पर अपनी मौजूदगी बढ़ा रहे हैं, उससे सेहत के नाम पर चलाया जा रहा एक बड़ा धंधा पश्चिम को अपनी पकड़ से बाहर जाता दिख रहा है।
भारतीय अस्पतालों की श्रृंखलाओं-अपोलो और फोर्टिस के विदेशी जमीनों पर अधिग्रहण से यह बेचैनी पश्चिम में फैली है। फोर्टिस पहले ही मॉरिशस का एक बड़ा अस्पताल खरीद चुका है और कुछ ही साल पहले उसने सिंगापुर के मशहूर अस्पताल पार्कवे को खरीदने की कोशिश की थी, जो किसी कारणवश नाकाम हो गई. इसी तरह अपोलो समूह ने भी मॉरिशस के एक अस्पताल में निवेश किया था और वह कई अन्य मूल्कों में करार करके अस्पताल चला रहा है। एशिया-अफ्रिका के कई अस्पतालों को खरीद कर वहां तिरंगा लहराने की उनकी कोशिशें पश्चिमी देशों के पेट में मरोड़ पैदा करने के लिए काफी हैं।
सुपरबग का ज्यादा खतरा भारत में बताने का एक मकसद और है। भारत ने पिछले अरसे में अंतरराष्ट्रीय चिकित्सीय धुरी बनने में कामयाबी हासिल की है। अब से एक डेढ़ दशक पहले जटिल सर्जरी के लिए जो लोग ब्रिटेन या अमेरिका का रुख करते थे, अब अपोलो, फोर्टिस, एस्कॉर्ट्स जैसे अस्पतालों की पांचतारा सुविधाओं की बदौलत वहीं इलाज भारत में कम पैसों में मुमकिन होने लगा है। मध्य-पूर्व एशिया और अफ्रीका से ही नहीं, ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी से भी वे लोग यहां इलाज और सर्जरी के लिए आने लगे हैं। इस बदलाव को ब्रिटिश और अमेरिकी इंश्योरेंस कंपनियों ने पढ़ लिया है और अब वे अपने पैनल में भारतीय अस्पतालों को शामिल करने लगी हैं। नतीजतन भारत ने चिकित्सा पर्यटन सालाना बीस-पच्चीस फीसद की दर से बढ़ रहा है, जो पश्चिम के लिए चिंता का विषय बन गया है।
ऐसे में बैक्टीरिया का नाम दिल्ली से जोड़ कर और भारत के हवा पानी में सुपरबग की मौजूदगी बता कर पश्चिमी देश असल में चिकित्सा उद्योग का अपना किला बचाने की कोशिश कर रहे हैं।
जाहिर है, सुपरबग के नाम पर जो खतरा हमारे देश में बताया जा रहा है, वह यह नहीं है कि उससे लोगों के बीमार होने की आशंका है, बल्कि यह है कि इससे पश्चिमी फार्मा कंपनियों का धंधा चमकाने की कोशिश हो रही है।
ईमेल : abhi.romi20@gmail.com