पानी की समस्या कोई नई नहीं है। हर साल गर्मियों में काफी मंथन किया जाता है जो आमतौर पर मानसून के भारत में प्रवेश के साथ खत्म हो जाता है। अगर हम परिवार या समाज को एक इकाई मानें तो सबसे अधिक पानी की कमी होने की मार किस पर पड़ती है या कहें कि पानी की कमी होने पर सबसे अधिक प्रभावित कौन होता है? पानी की कमी से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला वर्ग है समाज की महिलायें।
शहरों में या तो पानी के स्रोत नजदीक होते हैं या फिर सरकारी इंतजाम भी इस समस्या के निदान में मदद करते हैं। लेकिन गांवों में इस समस्या को अपने विकट स्वरूप में देखा जा सकता है। कई गांवों में यह समस्या वर्ष भर बनी रहती है, हालांकि शासकीय योजनाओं के तहत लगे हैण्डपंपों और कुंओं से कुछ फायदा अवश्य हुआ है। लेकिन उन स्रोतों का भूजल स्तर ज्यों-ज्यों गिरता जा रहा है, महिलाओं पर इसका भार बढ़ता जा रहा है। हमारे सामाजिक ढांचे में महिलाओं को ही यह जिम्मेदारी दी गयी है, यह तय कर दिया गया है कि घरेलू उपयोग के लिये पानी का इंतजाम महिलायें ही करेंगी। चाहे यह काम कितना भी दुष्कर क्यों न हो। देश के गांवों में सिर पर घड़ा रखे हुए पानी के इंतजाम के लिये महिलाओं के दूर जाने वाले दृश्य आम हैं। निरंतर गिरता भूजल स्तर पानी की कमी और उससे जुड़ी समस्याओं को आने वाले समय में और भी भयावह बना देगा।
नारीवादी आंदोलनों और सरकारी प्रयासों में महिलाओं के लिये सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आजादी की पैरवी की जाती है। यह संपूर्ण सशक्तिकरण की अवधारणा के लिये सर्वथा उचित भी है, लेकिन पानी के लिये संघर्ष में महिलाओं की भूमिका को अब तक समझा नहीं गया है। प्रखर नारी आंदोलनों ने अब तक वैवाहिक जीवन में स्त्री के अधिकार, महिला शिक्षा, राजनीति में भूमिका, आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता जैसे विभिन्न बुनियादी पहलुओं पर जनमानस को बदलने का काम किया है। आने वाले समय में पानी भी एक ऐसा मुद्दा होगा जो महिला सशक्तिकरण आंदोलन को सीधे तौर पर प्रभावित करेगा, क्योंकि ग्रामीण परिवेश में घरेलू उपयोग और पीने के पानी के इंतजाम की जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं और बच्चियों पर होती है। यह कारक बच्चियों के स्कूल छोड़ने के लिये भी कुछ हद तक जिम्मेदार है।
असल में पानी के इंतजाम में महिलाओं की भूमिका अकेला मुददा नहीं है। इसमें लगने वाला कठोर श्रम, उत्पादकता के लिहाज से महत्त्वपूर्ण समय, महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्यगत मुद्दे भी इस समस्या से सीधे तौर पर ही जुड़े हुये हैं। इसके अलावा महिलाओं पर सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाले प्रभाव में उनके आत्मसम्मान से जुड़े मुद्दे भी शामिल हैं। महिलाओं के लिये वातावरण निर्माण के पैरोकार पानी को अगले पड़ाव का विषय मानकर रणनीति निर्माण करते हैं। लेकिन आज इस मुद्दे को प्राथमिकता में शामिल करना होगा। समय आ गया है कि भोजन, शिक्षा, समानता, सूचना आदि के अधिकार को अमली जामा पहनाने के बाद पानी के अधिकार पर भी पूरी संजीदगी के साथ विचार किया जाये, क्योंकि इसके मूल में प्राकृतिक संसाधनों के असमान वितरण, कुप्रबंधन, दुरुपयोग और संवेदनहीनता हैं।
Source
जनसत्ता, 28 अप्रैल 2011