महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) रोजगारपरक होने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण और धरोहर सहेजने का प्रतीक भी बन सकती है। दुनिया की सबसे बड़ी सर्वसमावेशी विकास वाली इस महत्वाकांक्षी परियोजना को सहेजने और इसके विस्तार की जरूरत है, ताकि दूर-दराज के इलाकों का भी समग्र विकास किया जा सके। पर तसवीर तभी बदलेगी, जब केंद्र सरकार इसकी निगरानी के लिए मुकम्मल नीति बनाए। यह योजना हाल में सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में भी पहुंची थी, जिस पर उसने गंभीर चिंता जताते हुए कहा था कि कोई एक नीति न होने के कारण कई योजनाएं विफल हो रही हैं। आबंटित राशि का बेजा इस्तेमाल और रकम का गलत हाथों में पहुंचना भी चिंता का विषय है। इसका सीधा तात्पर्य है कि राज्य इस मामले में अपनी जिम्मेदारी निभाने में कोताही बरत रहे हैं।
केंद्र सरकार ने २००५ में जब इस योजना को लागू किया, तब सबने इसका स्वागत किया था, क्योंकि इसके मूल में अंतिम पायदान पर रहने वाली आबादी की चिंता थी। लेकिन काम की गारंटी के साथ ही श्रम को उत्पादक कार्यों में लगाने से ही रोजगार की समस्या हल होगी। सबसे बड़ा संकट पर्यावरण का है, जिसका दुष्प्रभाव केवल शहरों पर ही नहीं, बल्कि गांव पर भी पड़ रहा है। गांवों के परिवेश पर ध्यान देना जरूरी है, क्योंकि देश की करीब दो-तिहाई आबादी गांवों में बसती है। गांवों में तालाबों के साथ-साथ नदियों की सफाई व सघन वृक्षारोपण वगैरह पर भी योजना में सघन विचार होना चाहिए। गांवों में सीमित सामूहिक संसाधन बचे हैं। इसलिए योजना का दायरा बढ़ना जरूरी है। पर्यावरण के साथ-साथ मिट्टी के संरक्षण आदि पर गंभीरता से विचार होना चाहिए।
सालाना चालीस हजार करोड़ रुपये वाली इस योजना को कई राज्यों ने अभी तक गंभीरता से नहीं लिया है। इसके क्रियान्वयन में सबसे ज्यादा विफलता उत्तर प्रदेश में देखने को मिल रही है। बुंदेलखंड से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक यह योजना भ्रष्टाचार के कारण जानी जाती है। इसके अलावाइस योजना की राशि का दुरुपयोग गैरजरूरी चीजों के लिए भी किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ने मनरेगा की निगरानी के लिए डिजिटल कैमरों पर लाखों रुपये व्यय कर दिए थे, जबकि यह रकम विकास के लिए है। टेंट, खिलौनों से लेकर इसकी धनराशि से कैलेंडर तक छपवाए गए। मध्य प्रदेश में मनरेगा की राशि से जिलाधिकारियों के बंगलों की मरम्मत तक के आरोप हैं।
भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए इसका समग्र ऑडिट बहुत जरूरी है। आंध्र प्रदेश ने इस दिशा में जो अनूठी पहल दिखाई है, उस पर राजस्थान आगे बढ़ा। इस राज्य में कोटा स्थित वर्द्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय ने दुनिया की इस सबसे बड़ी रोजगारपरक योजना को अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर ‘महात्मा गांधी मेट प्रमाण पत्र कोर्स’ शुरू किया है। यह अपनी तरह का अनूठा कोर्स है। मनरेगा के लिए लोकपाल की नियुक्ति कर पंजाब ने भी एक दिशा दिखाई है। लेकिन आंध्र प्रदेश में इस योजना पर सबसे गंभीरता से कार्य हुआ है। राज्य ने सोशल ऑडिट की पहल के साथ ही इस योजना को और ज्यादा पारदर्शी बनाने के लिए एक ऐसा सॉफ्टवेयर विकसित किया, जिसकी मदद से मनरेगा में काम करने वालों की पूरी जानकारी किसी भी वक्त ली जा सकती है। राज्य ने एक ऐसी वेबसाइट भी बनाई है, जिससे यह मालूम किया जा सकता है कि राज्य के करीब ७० हजार गांवों में किस मजदूर ने कितने दिनों मनरेगा के तहत काम किया।
विकास से वंचित क्षेत्रों और असंगठित मजदूरों के लिए रामबाण मनरेगा ने ग्रामीण इलाकों का ही नहीं, बल्कि जी-२० देशों का भी ध्यान खींचा है। पिछले दिनों इन देशों के श्रम मंत्रियों की बैठक में ग्रामीण क्षेत्रों में सौ दिन का रोजगार वाली मनरेगा के बारे में काफी विस्तृत चर्चा हुई थी। सबने इस सर्वसमावेशी विकासवाली योजना में काफी रुचि दिखाई। जाहिर है, जब तक समाज के अंतिम पायदान पर रहने वालों का जीवन नहीं बदलेगा, तब तक विकास की बात करना बेमानी है। इसलिए विकास की कुंजी मनरेगा को स्थान व परिवेश के हिसाब से ऐसा बनाया जाए, ताकि उसमें समग्रता का पुट मिले। यह योजना केवल रोजगार की गारंटी ही नहीं, बल्कि सर्वसमावेशी विकास की वह कुंजी है, जिसमें धरोहर व अपने परिवेश को बचाने की क्षमता है।