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डाउन टू अर्थ, अक्टूबर 2016
आदिवासी परम्पराओं को आधुनिक समाज पुरातनपंथी, अवैज्ञानिक और बीते समय की बात कहता रहा है। लेकिन, असल में जनजातीय समाज की परम्पराओं, गीतों, त्योहारों, भोजन, वस्त्र, जीवनशैली का गम्भीरता से अध्ययन करें तो हम पाएँगे कि उनकी प्रत्येक परम्परा प्रकृति को उसके मूल रूप में अक्षुण्ण रखने का एक प्रयास है
अपने मानवीय अनुभवों को अगली पीढ़ी तक सहजता से पहुँचाने का सबसे पुराना तरीका है - मौखिक प्रथा। दुनिया में कोई भी ऐसी संस्कृति नहीं है, जहाँ मौखिक साहित्य, लिखित साहित्य से पहले न आया हो। पुरानी पीढ़ी, बड़े-बुजुर्ग, गुनिया-ओझा, पंडे, अपने आजमाए नुस्खों और निरन्तर बढ़ते प्रायोगिक ज्ञान के सागर को नई पीढ़ियों को हस्तान्तरित करते रहे हैं। कई बार यही आधुनिक विज्ञान व ज्ञान का आधार भी होता है। मौखिक परम्परा का ज्ञान-सामाजिक मूल्य और आध्यात्मिक दर्शन, इतिहास, जटिल वैज्ञानिक और पर्यावरणीय ज्ञान का विश्लेषण और संरक्षण के साथ ही आचार-नीति का भी संचारण करता रहा है। पारम्परिक कहानियाँ जिस तरह हमसे और हमारे इर्द-गिर्द की दुनिया से जुड़ी हैं, वे वास्तव में अथाह हैं।
कहानियाँ, प्रकृति के प्रति हमारे नजरिए के पुनर्मूल्यांकन के लिये दरवाजे खोलती हैं। अक्सर ये जटिल पर्यावरणीय और दीर्घकालिक मुद्दों से जुड़ी चुनौतियों के बारे में संकेत दे देती हैं। इस मामले में जनजातीय कहावतों ने हमें बहुत कुछ दिया है। इसमें दुनियाभर के ऐसे देसी समूहों का महत्त्वपूर्ण योगदान है, जो अभी भी झाड़-फूँक और प्रकृति की पूजा में आस्था रखते हैं। उदाहरण के तौर पर, हम पूर्वी हिमालय के लोगों को ले सकते हैं, जो किरांति समूह की भाषा (तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार) बोलते हैं। उनका मौखिक साहित्य पर्यावरण और उसके संरक्षण के प्रति हमारे नजरिए को प्रभावित करता है। जबकि किरांतियों की ज्यादातर पारम्परिक कथाएँ विलुप्त हो चुकी हैं, फिर भी वे अपने पारम्परिक कथा-पाठ, विशेषकर पवित्र शिक्षा, मुंडम और इनसे जुड़ी प्रथाओं के साथ आज भी प्रकृति के साथ सन्तुलन बनाते हुए अपना जीवन बसर कर रहे हैं। मुंडम किरांति जनजाति के ओझाओं द्वारा प्रकृति से जुड़े एक कार्यक्रम या महत्त्वपूर्ण सामाजिक रस्मों के दौरान गाया जाता है।
हर साल अप्रैल-मई के महीने में करीब 15 दिनों तक मनाए जाने वाले उत्सव उभौली (जिसे सकेला या सकेवा भी कहा जाता है) के दौरान किरांति के सदस्य समुदाय के लोगों से कहते हैं कि मछलियाँ मत मारो, क्योंकि पवित्र कथाओं में इस दौरान मछली मारना वर्जित किया गया है। यहाँ यह जानना दिलचस्प है कि इस समय मछलियाँ अंडे देने के लिये नदी की ऊपरी धारा में आ जाती हैं। उभौली के दौरान ओझा ‘पवित्र मुंडम’ का पाठ करते हैं, जिसमें किरांतियों के उद्गम, समृद्ध परम्पराओं, उनके पूर्वजों की कहानी और उनकी प्राकृतिक दुनिया के रीति-रिवाजों आदि के बारे में बताया जाता है। इस दौरान नदियों, पहाड़ों, इन्द्रधनुष, भूमि और जानवरों की प्रार्थना की जाती है।
मुंडम में एक पवित्र कथा के अनुसार कोईंच जनजाति (जोकि किरांति समूह से ताल्लुक रखते हैं) के एक सदस्य को अनुमति दी जाती है कि वह घर बनाने के लिये एक पेड़ को काट सकता है। इसके बदले में मातृभूमि के प्रति आभार जताने के लिये उसे 10 पेड़ लगाने होंगे। उनका मानना है कि जब एक ओझा/पुजारी अपना शरीर त्याग करता है, तो उनका उच्च ज्ञान दिव्य ऊर्जा के रूप में पौधों के विभिन्न प्रजातियों में प्रवेश कर जाता है। इसी विश्वास के चलते आदिवासी फर्न, बाँस और बेंत की कुछ किस्मों की मनमानी कटाई नहीं करते हैं।
कोईंच मुंडम की एक और कहानी शिकार को लेकर नीतिगत चिन्ता को प्रदर्शित करती है। वैसे उनकी परम्परा में ऐसे जानवरों को मारना प्रतिबन्धित किया गया है, जो गर्भ से हो। साथ ही वे शिकार के दौरान घायल हुए जानवरों के लिये माफी भी माँगते हैं। आदिवासी ‘साही’ को अपनी देवमाता मानते हैं- एक और कहानी के अनुसार, वह कोईंच प्रमुख को स्तनपान कराती है। यही वजह है कि आदिवासियों द्वारा साही का शिकार कभी-कभी ही किया जाता है।
तमिलनाडु के नीलगिरी में रहने वाले पनियर आदिवासी, जोकि भारत की सबसे प्राचीन जनजाति मानी जाती है, भी प्रकृति की पूजा करते थे। आदिवासियों के अन्तिम जीवित ओझा अमाली बताते हैं कि कैसे उनके लोग कभी शेरों को नुकसान नहीं पहुँचाते हैं। पनियर महापुरुषों के अनुसार, शेर जंगलों के अभिभावक होते हैं। इस जानवर के प्रति अपना सम्मान जताने के लिये पनियर समुदाय के लोग शेरों द्वारा किए गए शिकार के अवशेष को ग्रहण करते हैं। अमाली आगे बताते हैं कि काली मिर्च के पेड़ उनकी प्रकृति पूजा प्रथा के मूल में है। लोग काली मिर्च के बागान के बीच से नहीं गुजरते हैं, नहीं तो ये पेड़ उनके सपने में आएँगे और उनसे पूछेंगे कि तुम बाग में क्यों आए थे? यदि कोई पनियर आदिवासी पवित्र बागान में चला जाता है, तो उसे क्षमा याचना के तौर पर कुछ न कुछ अवश्य चढ़ाना पड़ता है।
पारम्परिक कहानियों के कथ्य और पर्यावरणीय सामग्री विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग होते हैं। लेकिन इनमें से प्रत्येक कहानियों को सुनने के बाद जो मूल्य उत्पन्न होते हैं, वह शिक्षा का आधुनिक तन्त्र प्रदान नहीं कर सकता है।
लेपचा जनजाति की कहानी कहने की परम्परा ज्ञान व संदेश की दृष्टि से अद्वितीय और अनुकरणीय है। शायद, यह एकमात्र ऐसी जनजाति है, जो पहाड़ों को अर्धमानव, येती के रूप में पूजते हैं। लेपचा की कहानियों में पर्यावरणीय ज्ञान कूट-कूट कर भरा है। इनमें जटिल सामाजिक मुद्दों का समाधान भी प्रकृति के तत्वों का उपयोग करके किया जाता है। कुछ कहानियों में पिस्सू और जूँ को पति और पत्नी बताया गया है। कुछ आख्यान, गीत के रूप में सम्पूर्ण हिमालय के आकार लेने की शुरुआती कहानियों को चित्रित करते हैं। उदाहरण के लिये, कुछ कहानियाँ एक मधुर गीत से शुरू होती हैं, कहती हैं-“यह कहानी उस वक्त की है, जब कंचनजंगा एक कस्तूरी मृग के दाँत के समान छोटा था।”
यह हमारे लिये एक चेतावनी है कि जब तक हम लोगों में इन परम्पराओं को पुनर्जीवित करने और आधुनिक मानसिकता के साथ इनमें बदलाव की प्रक्रिया की समझ विकसित हो, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। वर्तमान में, अधिकांश परम्पराएँ अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रही हैं। इनके लुप्त होने का मतलब है इनकी परख और अनुभवों के वृहद भण्डार का पूरी तरह से खात्मा हो जाना। यह नुकसान और भी गम्भीर हो सकता है, यदि हम समय रहते यह न विचार करने लग जाएँ कि ज्यादातर संस्कृतियों का दस्तावेजीकरण नहीं हो पाया है। दूसरा गम्भीर क्षेत्र एक महत्त्वपूर्ण चुनौती हमारे सामने रखता है, वह है विशिष्ट सांस्कृतिक भाषा की क्षति, जिसमें पारम्परिक कहानियाँ कही गई हैं। जैसा कि शोधकर्ता बताते हैं कि हर घण्टे दो भाषाओं की मौत हो रही है, हमारे हाथ में जो काम है, वह काफी बड़ा है और वास्तव में हम यह जंग हार चुके हैं।
सलिल मुखिया, एकास्टिक ट्रडिशंस (प्राचीन कथाओं के वाचन परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिये एक पहल) के सह-संस्थापक हैं।