भारत में भी समुद्र तटीय विकास को लेकर नई चेतना और दृष्टि की आवश्यकता है, क्योंकि सुनामी की विभीषिका हमसे भी अपरिचित नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि जापानी सुनामी को महज परमाणु त्रासदी मानने की भूल न की जाए।
समुद्र तटीय क्षेत्रों के संवेदनशील पर्यावरण को बचाने की चर्चा तो पहले ही जोर पकड़ रही थी, परंतु जापान में आए जलजले के बाद इस ओर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है कि सुनामी व चक्रवात की स्थिति में समुद्र तटीय क्षेत्रों के जल-जीवन और पर्यावरण की रक्षा कैसे की जाए। समुद्र तटों के पर्यावरण व जैव-विविधता को बचाने के लिए मैंग्रोव वनों व मूंगे की चट्टानों की रक्षा महत्त्वपूर्ण मानी गई है, क्योंकि ये सुनामी से रक्षा में भी सहायक हैं। अतः इस संदर्भ में इनका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। जापान में आई सुनामी ने एक बार पुनः समुद्र तटीय विकास के बारे में नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है। जापान में आई सुनामी ने वहां के नागरिकों को समुद्र के तल के भी दर्शन करा दिए हैं। अपने प्रबंधन के लिए विख्यात जापान भी इस बार किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर विनाश को देखता रहा। भारत में भी समुद्र तटीय विकास को लेकर नई चेतना और दृष्टि की आवश्यकता है, क्योंकि सुनामी की विभीषिका हमसे भी अपरिचित नहीं है।
आवश्यकता इस बात की है कि जापानी सुनामी को महज परमाणु त्रासदी मानने की भूल न की जाए। सवाल उठता है कि इस तरह के संवेदनशील ईको-सिस्टम की रक्षा के महत्त्व पर व्यापक सहमति के बावजूद वे नष्ट क्यों होते जा रहे हैं? इसकी वजह यह है कि बाहरी तौर पर तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण की रक्षा के बारे में चाहे कुछ भी कहा जाए, पर समुद्र तट की मूल्यवान भूमि का प्रबंधन बड़े व्यावसायिक हितों द्वारा ही प्रभावित हो रहा है। इसमें एक ओर बड़े होटल व रिजॉर्ट तो दूसरी ओर निर्यात बाजार में बड़ी कीमत दिलाने वाली झींगा मछली के एक्वाकल्चर फार्म भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त समुद्र तटीय क्षेत्रों में अधिक प्रदूषण वाली अनेक औद्योगिक व खनन परियोजनाओं का प्रवेश भी तेजी से हुआ है। यहां बड़े बांधों व ताप बिजलीघरों का निर्माण भी जोर पकड़ रहा है। यहां सबसे अधिक विवादास्पद मुद्दा तो परमाणु संयंत्रों के निर्माण का है, जिनका भारत में महाराष्ट्र के जैतापुरा जैसे स्थानों पर स्थानीय गांववासी जमकर विरोध कर रहे हैं।
इन सब गतिविधियों के बीच यह आश्चर्य की बात नहीं है कि तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण को बचाने के मुद्दे प्राथमिकता खोते जा रहे हैं। इसके साथ ही तटीय क्षेत्रों का चक्रवातों व सुनामी का सामना करने का जो सुरक्षा कवच मैंग्रोव वनों, मूंगे की चट्टानों आदि के रूप में मौजूद था, वह भी अब कमजोर पड़ता जा रहा है। इतना ही नहीं, यहां के लोग यह भी पूछ रहे हैं कि खतरनाक उद्योगों के बढ़ती संख्या में आने से क्या प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली संभावित क्षति भी बढ़ जाएगी? प्रायः इन परियोजनाओं का आकलन सामान्य स्थिति के संदर्भ में होता है। यदि चक्रवात व सुनामी जैसी आपदाओं के संदर्भ में यह आकलन किया जाए, तो कहीं अधिक चिंताजनक संभावनाएं उत्पन्न होंगी। जापान के हालिया जलजले के समय देखा गया कि सुनामी के आरंभिक दौर में ही जितनी चिंता भूकंप व सुनामी के बारे में प्रकट की गई उतनी ही चिंता इस बारे में प्रकट की गई कि इसका परमाणु संयंत्रों पर क्या असर होगा? हालांकि जापान के पास इस संदर्भ में आधुनिकतम तकनीक उपलब्ध थी, जिससे भूकंप व सुनामी के समय परमाणु संयंत्र स्वतः बंद भी हुए, लेकिन गंभीर खतरे की संभावना बनी रही। भारत के संदर्भ में जहां हाल में परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा के बारे में व विदेशी आपूर्तिकर्ताओं के दायित्व के बारे में कई गंभीर सवाल उठाए गए हैं। वहीं यह संभावना और विकट हो जाती है कि कहीं सुनामी या चक्रवात से परमाणु संयंत्रों पर हुए असर के कारण रेडिएशन रिसाव जैसा कोई बड़ा हादसा न हो जाए।
समुद्र तटीय क्षेत्रों में स्थापित हो रहे अन्य जोखिम भरे, खतरनाक रसायनों या ज्वलनशील उत्पादों के पदार्थों के प्रयोग व भंडारण से जुड़े उद्योगों के बारे में भी यही सवाल उभरता है। बंदरगाहों के बारे में कई बार शिकायत मिली है कि यहां खतरनाक व विस्फोटक साज-सामान बहुत समय तक पड़ा रहता है। भारत एक बड़ा तेल आयातक देश है व इसका अधिकांश आयात समुद्री मार्ग से ही होता है। हाल के समय में तेल-रिसाव की घटनाएं भी बढ़ गई हैं। इन सब सवालों को अनेक जन-संगठन व पर्यावरणविद प्रायः किसानों व मछुआरों की आजीविका पर प्रतिकूल असर के संदर्भ में या जैव-विविधता पर प्रतिकूल असर के संदर्भ में उठाते रहे हैं। जापान के हादसे के बाद यह जरूरी हो गया है कि इन सब सवालों को सुनामी व चक्रवात के संदर्भ में भी उठाया जाएगा। सुनामी तो खैर समुद्री क्षेत्रों में आए भूकंप से उत्पन्न होता है, पर जहां तक सामान्य चक्रवातों का सवाल है, जलवायु बदलाव के इस दौर में उनकी संभावना व विनाशक क्षमता बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त जलवायु बदलाव के दौर में समुद्र का जल-स्तर भी बढ़ रहा है और यदि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को समय रहते न थामा गया, तो समुद्रों का जलस्तर इतना बढ़ सकता है कि समुद्र तटीय क्षेत्रों का एक बड़ा भाग जलमग्न हो जाएगा। अतः यह बहुत जरूरी है कि जलवायु बदलाव व बढ़ती आपदाओं के दौर में समुद्र तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण व जलजीवन की रक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाए।
(लेखक, प्रसिद्ध पर्यावरणविद् हैं)