1880 तक नैनीताल फलता-फूलता और सर्व सुविधा सम्पन्न एक खुशहाल नगर बन चुका था। इस वर्ष 17 सितम्बर तक यहाँ की आबादी 10,054 हो गई थी, जिसमें 2,957 महिलाएँ और 7,097 पुरुष थे। अंग्रेज नैनीताल के मौसम और स्वास्थ्यवर्धक जलवायु से अभिभूत थे। वे नैनीताल के पर्यावरणीय खूबियों से तो भली-भाँति वाकिफ हो चुके थे। उन्हें यहाँ के पारिस्थितिक तंत्र में छेड़छाड़ से हासिल इन खूबियों के लुफ्त उठाने की कीमत का अंदाजा नहीं था। 18 सितम्बर, 1880 को ‘शेर का डांडा’ पहाड़ी में चंद सेकेंड़ों के भीतर घटी विनाशकारी भू-स्खलन की त्रासदी ने न केवल अंग्रेजी शासकों के होश उड़ा दिए, बल्कि उन्हें भीतर तक हिला कर रख दिया। हालांकि ब्रे-साइड का इलाका प्रारम्भ से ही संवेदनशील माना जाता रहा था। 1880 से पहले भी इस क्षेत्र में कई मकान क्षतिग्रस्त हो चुके थे। ब्रे-साइड पहाड़ी को संवेदनशीलता के मद्देनजर 1880 से पूर्व ही यहाँ दार्जिलिंग की तर्ज पर नाला तंत्र विकसित किया जा चुका था, पर दार्जिलिंग का नाला तंत्र नैनीताल के भू-गर्भीय हालातों में कारगर सिद्ध नहीं हुआ।
1880 के सितम्बर महीने के तीसरे सप्ताह के प्रारम्भ में नैनीताल में चार दिन तक मूसलाधार वर्षा हुई। नैनीताल में बंगलों, उद्यान, टेनिस कोर्ट और सड़क आदि के निर्माण कार्यों और यहाँ की पहाड़ियों में अंधाधुंध भू-कटान और वृक्षों के पातन की वजह से नैनीताल की प्राकृतिक भू-व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। पानी के बहाव से नैनीताल के प्राकृतिक मार्ग अवरुद्ध हो गए थे। तेजी से हो रहे विकास ने जल निकास की समस्या को जन्म दिया। बंगलों और दूसरे निर्माण के लिए भूमि समतलीकरण के कारण वर्षा का पानी जमीन के भीतर जमा होने लगा। जमीन में घुसे पानी को बाहर निकालने का उचित मार्ग नहीं मिलने पर पानी जमीन के अंदर खड्डों में जमा हो गया। सड़कें टूट गई थी। रहे-बचे पानी के प्राकृतिक नाले बंद हो चुके थे। जमीन की सहन शक्ति क्षीण हो गई थी। इसी बीच आए भूकम्प के एक हल्के से झटके ने आग में घी का काम किया। परिणामस्वरूप 18 सितम्बर, 1880 को जमीन के भीतर जमा पानी शेर-का-डांडा पहाड़ी के एक बड़े हिस्से को ही अपने साथ तालाब की ओर ले आया।
धूल के एक गुबार के साथ गादगुमा इस मलबे ने आलीशान नए विक्टोरिया होटल और इसके आस-पास के घरों को नेस्तानाबूद कर दिया। विक्टोरिया होटल के मालिक कैप्टन हैरिस थे। मालरोड के समीप स्थित बेल शॉप नामक दुकान, तालाब के किनारे मोतीराम शाह द्वारा बनाया गया माँ नयना देवी का मन्दिर भी इस भू-स्खलन की चपेट में आ गए। असेम्बली रुम्स का एक हिस्सा तालाब में समा गया और बचा हुआ हिस्सा मलबे में दफन हो गया। पहाड़ से आए मलबे ने पहले नए विक्टोरिया होटल को अपनी चपेट में लिया। फिर विक्टोरिया होटल के नीचे की ओर स्थित दुकानें, मन्दिर और असेम्बली रुम्स एक-दूसरे में धंसते चले गए।
कुछ ही पलों में नैनीताल का भौगोलिक नक्शा ही बदल गया। पलक झपकते ही तालाब के किनारे स्थित एक छोटा सा खेतनुमा मैदान मौजूद। फ्लैट्स में तब्दील हो गया। भू-स्खलन के बाद मालरोड स्थित मेयो होटल से सेंट-लू की पहाड़ी में स्थित नवनिर्मित राजभवन तक एक बड़ी दरार आ गई थी। उधर नैनीताल क्लब से नैना पहाड़ी तक भी दरारें देखी गई। इस दर्दनाक हादसे में 108 हिन्दुस्तानियों और 43 यूरोपियन सहित कुल 151 लोग मारे गए। कई लोग बाल-बाल बचे। बचाव और राहत कार्यों में लगे कई सैनिक और भारतीयों को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। बचाव कार्यों के दौरान मजिस्ट्रियल चार्ज ऑफ द स्टेशन मिस्टर लियोनार्ड टेलर सहित कई सैन्य अधिकारी, जवान और दूसरे कारिंदे भी मारे गए। भू-स्खलन में 25 लाख की सम्पत्ति नष्ट हो गई। जिसमें चार लाख की सरकारी सम्पत्ति शामिल थी। बचाव कार्यों के दौरान कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर सर हैनरी रैमजे खुद भी कमर तक मलबे में धंस गए थे। स भू-स्खलन के बाद म्युनिसिपल कमेटी के सभी सदस्यों ने नैतिकता के आधार पर सामूहिक रूप से त्याग-पत्र दे दिए थे। कुछ समय बाद सरकार ने म्युनिसिपल कमेटी में नए सदस्य मनोनीत किए।
कमिश्नर रैमजे ने बचाव और राहत कार्यों की कमान खुद सम्भाली। युद्ध स्तर पर बचाव कार्य किया। हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों को सहायता प्रदान करने के लिए सर हैनरी रैमजे की अध्यक्षता में 60 हजार रुपए का सहायता कोष बनाया गया। ‘द हिमालयन गजेटियर’ के लेखक एडविन टी.एटकिन्सन इस सहायता कोष के सचिव बनाए गए। जे.एम.क्ले ने अपनी किताब ‘नैनीताल हिस्ट्रोरिकल एण्ड डिस्क्रप्टिव एकाउण्ट’ में लिखा है कि इस प्रलयकारी भू-स्खलन में मारे गए 43 यूरोपियन को बोट हाउस क्लब के पश्चिम दिशा में माल रोड और तालाब के बीच स्थित एक भू-खण्ड को पवित्र घोषित कर उसमें दफनाया गया। बाद में इस स्थल को पार्क में तब्दील कर दिया गया। इस पार्क के रख-रखाव की जिम्मेदारी नगर पालिका को सौंप दी गई। हालांकि सेंट जॉन्स इन द विल्डर्नेस चर्च के पुराने दस्तावेज बताते हैं कि 1880 के भू-स्खलन में मारे गए कुछ यूरोपियन को सूखाताल स्थित कब्रिस्तान में भी दफनाया गया है। भू-स्खलन में मौत के मुँह में समा गए यूरोपियन नागरिकों की याद में सेंट जॉन्स चर्च के भीतर पीतल की एक लम्बी पट्टी लगाई गई है। इसमें सभी यूरोपीय मृतकों के नामों का उल्लेख किया गया है। ‘
द हिमालयन गजेटियर’ के लेखक एडविन टी.एटकिन्सन ने भू-स्खलन के बाद के हालातों को स्वयं नजदीक से देखा था। वे भू-स्खलन प्रभावितों के लिए बने सहायता कोष के सचिव भी थे। उन्होंने हिमालयन गजेटियर के खण्ड-3 के भाग-2 में चश्मदीदों के हवाले से इस भू-स्खलन का विस्तृत वर्णन किया है।
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