नैनीताल के लचीले तथा भंगुर पर्यावरण और स्थानीय विशिष्टताओं के मद्देनजर यहाँ योजनाबद्ध ढंग से एक नगर बसाने के लिए 1845 में स्थानीय सरकार जैसी सांविधिक संस्था बनाने की जरुरत समझी गई। नैनीताल में नगर पालिका कमेटी का गठन करने पर विमर्श तेज हो गया। किसी नगर के सुनियोजित विकास के लिए स्थानीय सरकार का गठन अनुभव सिद्ध प्रयोग था। भारत की भूमि में प्रागैतिहासिक काल से ही स्व सरकार और स्थानीय निकायों की मजबूत जड़े विद्यमान थीं। हड़प्पा सभ्यता के खण्डहर इस बात के प्रमाण हैं
सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान विकसित हड़प्पा-मोहन जोदड़ो नाम के प्राचीन शहरों के खण्डहर इस बात की ओर संकेत करते हैं कि उस काल में यहाँ शहर योजनाबद्ध ढंग से बसाए गए थे। हड़प्पा-मोहन जोदड़ो के शहर सिन्धु घाटी की अत्यन्त विकसित सभ्यता के प्रमाण हैं।
इन शहरों की संरचना बताती है कि उस सभ्यता में कुशल और सुसंगठित नगर निगम जैसी संस्थाएँ मौजूद रही होंगी। इन प्राचीन शहरों में योजनाबद्ध ढंग से बस्तियाँ बसाई गई थी। ज्यादातर मकान आलीशान और बहुमंजिले थे और पक्की ईटों से बने थे। इन मकानों में शौचालय और स्नानागार आदि सभी सुविधाएँ मौजूद थीं। लम्बे-चौडे खुले आँगन होते थे। आँगन में कुआँ होता था। चौड़ी सड़कें थीं, गलियाँ थीं। जल निकास के लिए नालियाँ बनी थीं। गंदगी के निकास के लिए मल कुण्ड बने थे। अनाज भण्डार थे। सार्वजनिक स्नानागार थे। मजदूर और दासों के लिए भी मकान बनाए गए थे।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में नगर निगम के साथ ग्रामीण प्रशासन का जिक्र मिलता है। वैदिक और संगम साहित्य में भी भारत में स्थानीय निकायों जैसी संस्थाओं का उल्लेख है। चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में भारत में नगर शासन की व्यवस्था रही है। उस दौर में नगर शासन की व्यवस्था तीन सदस्यों के जिम्मे होती थी। यह समिति सम्पूर्ण नगर के शासन की देख-रेख करती थी। जनता के सुख एवं समृद्धि का ध्यान रखती थी। नगर के विभिन्न क्रियाकलापों को संचालित करने के लिए इस समिति की देख-रेख में अनेक उप समितियाँ भी बनाई जाती थीं।
मध्ययुगीन यूरोपीय समाजों में भी शहरों की अपनी सरकारें होती थीं। नागरिक अपने अधिकारी चुनते थे। नगरीय सरकारों की अपनी सेना और न्यायालय होते थे। 1845 से पहले भारत के अनेक शहरों में स्थानीय सरकार जैसी संस्थाएं अस्तित्व में आ गई थी। 1687-88 में मद्रास (वर्तमान नाम चेन्नई) और 1726 में कोलकाता तथा बम्बई (वर्तमान नाम मुम्बई) में म्युनिसिपल कोरपोरेशन बन गए थे।
8 मई, 1845 को नैनीताल के दस भवन स्वामियों ने नगर पालिका एक्ट-X, 1842 के तहत नगर पालिका कमेटी बनाने का प्रस्ताव पास कर गवर्नर को भेजा। नगर पालिका एक्ट-1842 के तहत जिस किसी क्षेत्र के निवासी अपने नगर में नगर पालिका कमेटी के गठन के इच्छुक हों तो वहाँ के दो तिहाई भवन स्वामी इस आशय का प्रस्ताव पास कर गर्वनर को भेज सकते थे। नैनीताल में नगर पालिका कमेटी के गठन का प्रस्ताव पास करने वाले भवन स्वामियों की यह संख्या उस समय तक यहाँ बने मकानों के दो-तिहाई से अधिक थी। तब यहाँ करीब एक दर्जन मकान ही बने थे। इनमें से दस भवन स्वामियों ने नैनीताल में नगर पालिका कमेटी गठित करने का प्रस्ताव पास कर सरकार के पास भेज दिया। चूंकि म्युनिसिपल एक्ट-X, 1842 बंगाल प्रोविंस के लिए ही बना था, इसलिए 1845 में नैनीताल में नगर पालिका गठन के इस प्रस्ताव को सरकार से तो स्वीकृति नहीं मिल पाई। पर नैनीताल के निवासियों ने नगर पालिका कमेटी का गठन कर लिया था। इस कमेटी में मेजर जनरल सर डब्ल्यू, रिचडर्स, मेजर जॉर्ज लुशिंगटन, मेजर एच.एच. एरनॉड, कैप्टन डब्ल्यू.पी.वॉग और मिस्टर पीटर बैरन बतौर सदस्य शामिल थे।
नैनीताल को एक नियोजित और आदर्श नगर के रूप में बसाना नव गठित नगर पालिका कमेटी के लिए एक बड़ी और कठिन चुनौती थी। नगर पालिका कमेटी के सामने कामों की लम्बी और अंतहीन फेहरिश्त थी। परन्तु मानव श्रम और दूसरे आवश्यक संसाधनों का घोर अभाव था। नगर पालिका ने नैनीताल को बाहरी क्षेत्रों से जोड़ने के लिए सड़कें बनानी थी। नगर के भीतर सम्पर्क मार्ग बनाने थे। निर्माण कार्यों और सामान ढोने के लिए मजदूरों की फौज जुटानी थी। व्यवस्थित तरीके से भवनों के निर्माण को प्रोत्साहित करना था। सड़क-रास्तों में प्रकाश और साफ-सफाई की व्यवस्था करनी थी। कर निर्धारण प्रणाली बनानी थी। आय-व्यय का हिसाब रखना था। पीने के पानी सहित नगर के लिए अति आवश्यक सभी मूल-भत सुविधाओं का प्रबन्ध करना था। एक सुव्यवस्थित एवं आदर्श नगर बनाने के लिए नैनीताल की भौगोलिक एवं पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल व्यावहारिक एवं प्रभावी उपविधियाँ बनानी थी। कुल मिलाकर स्वयं के प्रयासों से जरूरी संसाधन जुटाकर जंगल में एक शहर का निर्माण करना था।
एक ऐसा शहर, जो हर दृष्टि से ब्रिटेन के शहरों का मुकाबला कर सके। पर करीब एक दर्जन ऐसे लोग, जो प्रजा के साथ शासक, दोनों की भूमिका में थे, ने इन कल्पनातीत चुनौतियों को न केवल स्वीकारा बल्कि इनसे निपटने में बेमिसाल कामयाबी भी हासिल की। अंग्रेजों ने इस अनोखी भूमि के लिए अनूठे नियम बनाए।
नगर पालिका ने स्थानीय प्रशासन के सहयोग से सबसे पहले नैनीताल में आवागमन की व्यवस्था को सुचारु बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया। नैनीताल-कालाढूंगी मार्ग के निर्माण कार्य को वरीयता दी गई तथा कुलियों की व्यवस्था के लिए 1845 में कुली जमादार की नियुक्ति की गई। उसे सुपरिटेडेंट ऑफ कुलीज पदनाम दिया गया। मोतीराम शाह की कर्तव्यनिष्ठा, शालीनता और सज्जनता के अंग्रेज हुक्मरानों को बहुत प्रभावित किया। मोतीराम शाह के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर जनरल डब्ल्यू, रिचडर्स ने 1845 में मोतीराम शाह को सरकारी खजांची नियुक्त कर दिया। नगर की बसावट को गति प्रदान करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने अल्मोड़ा के सम्पन्न साह परिवारों को नैनीताल में इस शर्त के साथ जमीन दी कि वे यहाँ जल्दी मकान बनाएँगे। 1845 की शुरुआत तक मल्लीताल बाजार नहीं बनी थी। तब यहाँ बांस का घना जंगल था। इसमें बाघ, तेंदुए, घुरड़, सांभर तथा दूसरे वन्य जीव विचरण करते थे। 1845 के आखिर में मल्लीताल बाजार के साथ ही नगर के सभी क्षेत्रों में घर बनने लगे थे।
1845 में जिला पोस्ट ऑफिस खुला। नैनीताल से सरकारी विभागों की ही डाक जाती थी। धावक एक पुलिस स्टेशन से दूसरे पुलिस स्टेशन तक डाक लाते और ले जाते थे। 1846 में नैनीताल-कालाढूंगी मार्ग का काम शुरू हुआ। बाजार क्षेत्र में नालियाँ बनाई गई। इसी साल मुरादाबाद से सफाई कर्मचारी यहाँ लाए गए।
1846 में ही झील के चारों ओर सड़क बनाने का काम शुरू कर दिया गया। सूखाताल के पास सेंट जॉन्स इन द विल्डर्नेस चर्च के लिए चुनी गई जगह चर्च के निर्माण के लिए कमिश्नर जी.टी.लुशिंगटन के आदेश पर अधिशासी अभियन्ता कैप्टन यंग ने चर्च की इमारत का नक्शा बनाया। अक्टूबर 1846 को चर्च का नक्शा पास हुआ। बिशप के कार्यकाल के 13वें वर्ष के मौके पर 13 अक्टूबर, 1846 को चर्च की इमारत का शिलान्यास हुआ। चर्च के उद्घाटन की इबारत एक काँच की बोतल में लिखी गई। इस बोतल को इमारत की बुनियाद में रख दिया गया। 1846 में नैनीताल हेड पोस्ट ऑफिस में जन सामान्य के लिए भी डाक सेवा उपलब्ध हो गई। डाक भेजने के लिए दो पैसा प्रति पैकेट देना पड़ता था।
1847 में नैनीताल-खैरना मार्ग का निर्माण प्रारम्भ हुआ। इसी साल यहाँ पुलिस व्यवस्था भी कायम कर ली गई। पुलिस बल में छह पुलिस कर्मियों की तैनाती हुई। 1847 में ही तालाब के किनारे स्थित मैदान को खेल के मैदान के रूप में विकसित करने का काम शुरू हुआ। कुलियों के अभाव में इस काम के लिए कैदियों को लगाया गया।
1847 तक नैनीताल ने एक लोकप्रिय हिल स्टेशन के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली थी। 1847 में यहाँ पर्यटकों का आना प्रारम्भ हो गया था। तब यहाँ 40 घर भवन बन चुके थे। दो भवन निर्माणाधीन थे। बन चुके 40 भवनों में आधे से ज्यादा भवन पीटर बैरन या उनके नजदीकी मित्र और परिचितों के थे। मकान बनाने वाले सभी लोगों को लिखित में यह आश्वासन देना होता था कि मकान बनाने के दौरान जितने पेड़ों की क्षति पहुँचेगी, वे उससे अधिक पौधे लगाएँगे।
1848 तक निहाल पुल से खुर्पाताल तक की सड़क का काम पूरा कर लिया गया था। तालाब के चारों ओर सड़क बना दी गई थी। इस काम के लिए निजी अनुदान से धन जुटाया गया। 2 अप्रैल, 1848 को निर्माणाधीन सेंट जॉन्स इन द विल्डर्नेस चर्च को प्रार्थना के लिए खोल दिया गया।
1850 में भारत में औद्योगिकीकरम की शुरुआत हुई। इसी साल भारत सरकार ने म्युनिसिपल एक्ट-XXVI बनाया, जो कि पूरे देश के लिए था। इस नए एक्ट के प्रभावी होते ही 3 अक्टूबर, 1850 को नैनाताल म्युनिसिपल कमेटी को वैधानिक तौर पर अधिसूचित कर दिया गया। नैनीताल नगर पालिका कमेटी को नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेस (उत्तरप्रदेश) की पहली नगरपालिका होने का गौरव प्राप्त हुआ। तब नगर पालिका कमेटी में छह मनोनीत सदस्य होते थे। कमेटी में अन्य लोगों के अलावा सीनियर डिप्टी कमिश्नर, जिला इंजीनियर समेत कम से कम तीन उच्चाधिकारी पदेन सदस्य मनोनीत किए जाते थे। सीनियर डिप्टी कमिश्नर (अल्मोड़ा) नगर पालिका कमेटी के पदेन अध्यक्ष होते थे। नैनीताल के सहायक कमिश्नर को नगर पालिका का उपाध्यक्ष एवं सचिव का दायित्व सौंपा गया।
1850 में नगर पालिका कमेट को वैधानिक दर्जा हासिल हो जाने के बाद नैनीताल के विकास में एकाएक गति आ गई। 1851 में नगर पालिका कमेटी को 23 सौ रुपए की आमदनी हुई। इसमें से करीब एक हजार रुपए सड़कों के निर्माण में खर्चें गए। कुमाऊँ के सहायक आयुक्त नैनीताल में बैठने लगे थे। शुरुआत मे सहायक आयुक्त का कार्यालय कैलाखान में था। यूरोपियन की दुकानें खुलने लगी थी। अंग्रेज और ज्यादातर व्यापारी अप्रैल से अक्टूबर तक नैनीताल में रहते थे। जाड़ों में यहाँ से चले जाते थे। बरसात के दिनों सूखाताल झील पानी से लबालब भर जाती थी। इसे मल्ला पोखर और नैनी झील को तल्ला पोखर कहा जाता था। गर्मियों के दिनों सूखाताल झील के सूख जाने पर इसका उपयोग सूटिंग रेंज के रूप में किया जाने लगा। नगर पालिका कमेटी ने 1854 में तालाब के किनारे असेम्बली रुम्स बनाने का निर्णय लिया। 1855 में वनों के सुनिश्चित ढंग से प्रबन्धन के लिए वन विभाग की भी स्थापना हुई। इसी वर्ष नैनीताल को कुमाऊँ मंडल का मुख्यालय बनाने का निर्णय ले लिया गया था।
दिसम्बर 1856 में सूखाताल से लगी सेंट जॉन्स इन द विल्डर्नेस चर्च को इमारत बन कर तैयार हो गई थी। चर्च के निर्माण में 15 हजार रुपए खर्च हुए। यह धनराशि चंदे और वहाँ मौजदू कमरों के किराए से जुटाई गई। 1856 में मेजर जनरल सर हैनरी रैमजे कुमाऊँ के कमिश्नर बने। उन्होंने नैनीताल को अपना मुख्यालय बनाया। इसी साल सर हैनरी रैमजे को उत्तराखण्ड का वन संरक्षक का भी दायित्व सौंप दिया गया। यहाँ वन संरक्षक का कार्यालय खुला। यह उत्तर भारत में वन संरक्षक का पहला कार्यालय था।