नाना के बाद अब मामा के तालाब पर ‘रार’

Submitted by Hindi on Fri, 07/01/2016 - 16:10

सिमटता जा रहा मामा का तालाबप्रशासन की भली आई, चित भी मेरी पट भी मेरी अंटा मेरे बाप का! प्रशासन की जमीनों पर किसका कब्ज़ा है, किसके नाम अभिलेखों में दर्ज है और असलियत में मालिक कौन है उसे स्वयं मालूम नहीं है। लेखपाल ने जमीनों को कब और कैसे किसके आदेश से अभिलेखों में फेर बदल कर दिया उसे नहीं मालूम, फिर भी प्रशासन दावा करता है कि वह जाँच कर कार्यवाही करेगा। नाना के तालाब के बाद अब मामा तालाब पर ‘रार’ शुरू हो गई है। तालाब कानपूर विकास प्राधिकरण का है या आवास विकास का, और यदि दोनों में से किसी एक का है तो फिर भू-माफियाओं ने इसे बेच कैसे दिया!

11 मई 2016 को हिन्दुस्तान की पहल पर जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने प्रशासन द्वारा मुहैया कराये गए मसवानपुर स्थित में नाना के तालाब नाम की जगह पर श्रमदान कर तालाबों की खुदाई का शुभारम्भ करवाया था लेकिन दूसरे ही दिन उस जगह पर मालिकाना हक़ जताते हुए आवास विकास परिषद ने काम रुकवाने का दावा किया था और बताया था कि यह जमीन जिस पर खुदाई की जा रही है ये जमीन अधिगृहीत की गई जमीन है।

मामा के तालाब पर भी अब यही ‘रार’ है। नगर निगम ने कुछ समय पूर्व मामा के तालाब की जमीन को सौन्दरीकृत बनाने की योजना बनाई। जिसके लिये नगर निगम के अधिकारिओं ने कानपूर विकास प्राधिकरण को एक अनापत्ती प्रमाण पत्र देने के लिये एक पत्र लिखा क्योंकि जब प्राधिकरण का निर्माण हुआ नगर निगम की यह जमीन प्राधिकरण को हस्तांतरित हो गई थी। नगर निगम के इस पत्र को संज्ञान में लेते हुए जब प्राधिकरण ने तहसीलदार को भेजा तो अभिलेखों में आवास विकास को दर्ज पाया। प्राधिकरण यह घालमेल देख चुप बैठ गया। पत्र का जवाब न पाकर नगर निगम भी चुप बैठ गया और उसने कार्ययोजना ठंडे बस्ते में डाल दी।

वास्तविकता में तो इस जमीन पर मालिकाना हक प्राधिकरण का ही होना चाहिए लेकिन माफियाओं ने अभिलेखों में आवास विकास दर्ज करवा कर अपना खेल शुरू कर दिया जिससे उनके काम में कोई दख़लअंदाज़ी न कर सके। तालाब की जमीन वर्ष 1978 में नगर निगम ने प्राधिकरण को दे दी थी वो जमीन रहस्यमय ढंग से आवास विकास के नाम बदल दी गई। इसे नाम दर्ज कराने में कब्जे की योजना पर काम करना था। एक तो प्राधिकरण किसी तरह की दखलंदाजी न कर सके और दूसरा आवास विकास परिषद के अधिकारिओं से मिलकर काम किया जा सके और हुआ भी वही। वर्तमान में उस जमीन पर आठ मकान बने है। प्रशासन का मानना है कि प्राधिकरण को अपनी जमीन की रखवाली स्वयं करनी चाहिए थी। जिलाधिकारी ने उस जमीन की नाप जोख करवा कर जाँच की बात कही है।

रफ्ता-रफ्ता बिका तालाब


सिमटता जा रहा मामा का तालाब, (27 मई 2016)
मामा का तालाबमसवानपुर के मामा का तालाब की जितनी ख्याति दो सौ साल पहले थी, आज भी है। अब भी इसके जरिए लोग अपने हित मित्रों तक पहुँचा करते हैं। वहीं, अपने अस्तित्व के लिये तालाब चिल्लाता रहा और अफसर सोते रहे। बिल्डरों ने जो चाहा किया। न केवल यहाँ भूखण्ड काटे बल्कि बेच भी दिए। ग्राम मसवानपुर वार्ड संख्या आठ के मकान नम्बर एक में सहदेव उर्फ सद्धू के बेटे रमेश, छम्मी लाल व मोती लाल रहा करते थे।

वर्ष 1965 तक उनके पास लगभग 80 वर्ग गज जमीन थी जिस पर मकान बना था। परिवार रोजी-रोटी को बनारस और दिल्ली चला गया। रमेश आदि की बहन गाँव के इसी मकान में रही जो आज भी काबिज हैं। यह मकान आबादी अराजी संख्या 520 में है जिसमें लगभग आधा मसवानपुर बसा है। इसके ठीक बगल में मामा का तालाब और पाथा माई का मंदिर जो अराजी संख्या 159 व 160 में है। पूरा तालाब 12 बीघा 19 बिस्वा में स्थित है। बिक्री का गेम प्लान : कुछ बिल्डरों ने सहदेव के बेटों से सम्पर्क साधा और मकान का एग्रीमेंट कराया। खरीदने और बेचने की पावर ऑफ अटार्नी ले ली। सहदेव की 80 वर्ग गज जमीन को पहले 500 वर्ग गज दर्शा दिया गया। 80 के बहाने बिल्डरों ने तालाब की 2000 वर्ग गज जमीन को मिट्टी से पाट दिया। जो विरोध करता उसी की जेब भरने की कोशिश कर दी जाती। वे सरकारी विभागों के आगे चिल्लाते रहे और प्लाटिंग की जाती रही।

15000 रुपए वर्ग गज से हो रही बिक्री


तालाब की इस जमीन की बिक्री 15000 रुपए प्रति वर्ग गज की दर से की जा रही है। प्रापर्टी का काम करने वाले एक ग्रुप ने यहाँ प्लॉट नंबर एक 122.74 वर्ग गज का काटा जबकि अन्य भूखण्ड 50 से 67 वर्ग गज के बीच हैं। लेआउट बनाकर बेचने वाले लोगों से मोबाइल पर बातचीत की गई तो उन्होंने भूमि बेचने की बात भी स्वीकार कर ली। भूखण्ड का नक्शा पास कराने की पूछा तो जवाब मिला कि नहीं।


 

पड़ताल करेंगे तालाब की बिक्री कैसे हुई


शहर के जितने तालाब हैं वो केडीए में निहित हैं। केडीए को ही इसे रोकना चाहिए था। तालाब की जमीन की बिक्री कैसे हुई और कैसे हो रही है इसकी पड़ताल की जाएगी। कब्जे हटाएंगे। केडीए को पत्र भी लिखा है। - कौशल राज शर्मा, जिलाधिकारी

 

‘कागजों में आबादी, मौके पर तालाब


प्रापर्टी का काम करने वालों के एक ग्रुप ने सबसे पहले नौ भूखण्ड यहाँ काटे और लोगों को दिखाने के लिये एक लेआउट प्लान भी बना दिया। यह अलग बात है कि जब भी कोई नक्शे की स्वीकृति के बारे में पूछता था तो कहा करते थे कि आबादी की जमीन पर नक्शा पास नहीं होता। यह बात सिरे से छिपाए रहे कि न तो जमीन उनकी है और न तालाब। जिसे भी रजिस्ट्री की गई उसे वही अराजी दिखाई गई जो आबादी की थी। यानि कागजों में वे आबादी की अराजी संख्या 520 में सहदेव के बेटों की जमीन बेचते रहे और मौके पर तालाब।

इस तालाब में बिना किसी रोक के ही आठ मकान बनकर खड़े हो चुके हैं। वर्ष 2013 से यहाँ की जमीन का सौदा शुरू हुआ जो अभी भी चल ही रहा है। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह कि आरटीआई कार्यकर्ता ने इस मामले को उठाया तो जिला प्रशासन की टीम के साथ केडीए से मुख्य अभियंता सरबत अली भी गए मगर किसी के खिलाफ अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। जिलाधिकारी के निर्देश पर एसडीएम ने मौके पर राजस्व की टीम भेजी तो प्लाटिंग और बिक्री पर रोक लगाने की चेतावनी दे डाली।

80 वर्ग गज में कैसे निकाले 2000 वर्ग गज


जब भी इस मामले की कहीं शिकायत होती तो भूमाफिया यही बताते रहे कि उन्होंने आबादी में रमेश आदि की जमीन बेची है। वे अच्छी तरह जानते थे कि कोई भी रजिस्ट्री नहीं चेक करेगा। जहाँ तक तालाब के अस्तित्व का प्रश्न था, किसी को फिक्र ही नहीं थी कि तालाब बचेगा या बिक जाएगा। यही हुआ भी, बिक्री जारी थी और अभी भी जारी है।

28 मई 2016 हिन्दुस्तान

कागजों में फुटबॉल बना मामा का तालाब


.सूखे की हालत में भी जो मामा का तालाब कभी नहीं सूखा, उसे कागजी तौर पर सुखाने का षड़यंत्र रच दिया गया। अभिलेखों में इसे फुटबॉल बना दिया गया। इसके पीछे वजह थी करोड़ों की जमीन पर गिद्धदृष्टि। 12 बीघा 19 बिस्वा में फैले इस तालाब को पाटने के लिये इसका अभिभावक ही बदल दिया गया। जो तालाब वर्ष 1978 में केडीए में निहित कर दिया गया था उस पर रहस्यमय ढंग से आवास विकास का मालिकाना हक हो गया। सबसे मुख्य बात यह कि जिस ऐतिहासिक महत्व के तालाब का नाम रिकॉर्ड में तालाब के रूप ही था, वो बाद में आवास विकास का हो गया। राजस्व अभिलेखों में फसली वर्ष 1385 (सन 1978) में यह तालाब कानपुर विकास प्राधिकरण के में निहित था। इससे पहले नगर पालिका के पास इसका रख-रखाव था जो तालाब के रूप में ही था। इसके दस्तावेज केडीए में आज भी मौजूद हैं। केडीए के तहसील जोन के नक्शे में भी तालाब अंकित है। यह अलग बात है कि फसली वर्ष 1385 के बाद इस पर से केडीए का हक रहस्यमय ढंग से समाप्त कर दिया गया। फसली वर्ष 1412 (सन 2005) में केडीए के रजिस्टर में इस तालाब की अराजी संख्या 159 के आगे आवास विकास की योजना संख्या तीन का नाम चढ़ गया। यह नाम चढ़ाने के पीछे भी कब्जे की मानसिकता काम कर रही थी। पहला यह कि प्रवर्तन का अधिकार केडीए का न रह जाए और दूसरा यह कि आवास विकास के अफसरों को मिलाकर काम किया जाए। हुआ भी यही। धीरे-धीरे इस पर कब्जे की योजना परवान चढ़ती रही और आवास विकास के अफसर आँख मूँदे रहे।

कानपुर। पिछले तहसील दिवस में नर्वल तहसील में पूर्व जिला पंचायत सदस्य समर सिंह और यादव ने बौसर गाँव के तालाब पर कब्जों की शिकायत की थी। उन्होंने कहा था कि दबंगों के कब्जों से तालाब गुम हो गया है, इस पर डीएम ने जाँच के आदेश और तत्काल कार्रवाई को कहा था। डीएम ने कब्जे हटाकर तालाब की खुदाई कराने का भी आदेश दिया था लेकिन तहसील कर्मी डीएम का आदेश भूल गए। तहसीलदार विनीत मिश्र का कहना है कि मामला उनके संज्ञान में नही है, जबकि लेखपाल राम सजल मिश्र ने कहा कि कब्जेदारों को नोटिस दी गई है।

इसी मामा का तालाब पर कब्जे को लेकर हो रहा है खेल। केडीए में मौजूद तालाब का नक्शा

.. तब नगर निगम भी रह गया अवाक
कुछ समय पूर्व नगर निगम ने इस तालाब के सुंदरीकरण की योजना बनाई थी। केडीए को पत्र लिख यह सोचते हुए अनापत्ति प्रमाण पत्र मांगा क्योंकि नगर पालिका से यह तालाब केडीए के पास ही चला गया था। जब केडीए उपाध्यक्ष जयश्री भोज ने एनओसी देने के लिये तहसीलदार बीएल पाल को निर्देश दिया तो रिकॉर्ड में यह तालाब केडीए के नाम रह ही नहीं गया था। हिन्दुस्तान की पड़ताल में इसका खुलासा हुआ है कि नगर निगम ने इस घटना के बाद जहाँ कदम पीछे खींच लिये वहीं केडीए भी चुप्पी साध गया। दूसरी ओर आवास विकास ने तालाब के सुंदरीकरण में कोई रुचि ही नहीं दिखाई। इनमें सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा है कि रिकॉर्ड में तालाब को गायब कैसे कर दिया गया जबकि इसका वजूद अभी बड़े आकार में मौजूद है।

केडीए के रजिस्टर में तालाब, खतौनी में आवास विकास।

 

‘इसकी पड़ताल की जाएगी कि राजस्व अभिलेखों में तालाब का मद कैसे गायब किया गया। यह भी जानकारी की जाएगी कि यह तालाब आवास विकास के नाम कैसे हो गया। अगर ऐसा हुआ तो आवास विकास ने इसकी सुध क्यों नहीं ली। - शत्रुघ्न सिंह एडीएम वित्त एवं राजस्व