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जल चेतना तकनीकी पत्रिका, जनवरी 2014
सदियों से नदियाँ मानव का अभिन्न अंग हैं। कई देशों का उद्गम (मूल) स्थान नदी का तट है। भारत का जन्म तथा विकास भी सिन्धु नदी के तट पर शुरू हुआ। अब गंगा, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी आदि नदियों का आसरा हम सभी पर है।
उत्तर से लेकर दक्षिण तथा पूरब से लेकर पश्चिम तक, भारत में अनेक नदियाँ बहती हैं। नदियाँ जीवन के मूल तत्वों में से एक है और उनके बिना कोई जिन्दा नहीं रह सकता। इसलिये नदियों को हम भगवान मानकर पूजते हैं।
अब यह प्रश्न उठता है कि नदियों का एकीकरण क्या है? क्यों जरूरी है? भारत में पिछले कई दशकों से हम देखते आ रहे हैं कि जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है और पीने का पानी, वर्षा तथा स्नो फाल से प्राप्त होता है।
इसलिये भारत सरकार तथा अन्य विदेशों के संगठनों ने विस्तार पूर्वक नदियों के एकीकरण करने से होने वाले परिणामों से अवगत करने के लिये एक कमेटी बना दी है। कई वैज्ञानिकों, इंजीनियरों तथा विदेशी ग्रुपों ने अनेक वर्षों से विश्लेषण करके अपनी सिफारिशें दी हैं। इनमें से कुछ लोग एकीकरण के पक्ष में हैं तो कुछ एकीकरण के विपक्ष में हैं। हर पहलू को हमें देखकर, समझकर सोच विचार करके लोगों तक पहुँचाकर एक निर्णय लेना है।
नदियों का एकीकरण देश की सबसे बड़ी योजना है जहाँ उत्तर भारत की 14 नदियों तथा दक्षिण भारत की 16 नदियों को आपस में जोड़ा जाना है। उत्तर की गंगा, सतलुज, ब्रह्मपुत्र से लेकर मध्य भारत की सरस्वती, महानदी, कृष्णा, नर्मदा, गोदावरी तथा दक्षिण की कावेरी, घाटप्रभा आदि नदियों को जोड़ना है। नालों को खोदना है, करीब 400 डैम बनाने हैं। नदी, उपनदी, तालाब, सरोवर आदि को जोड़ना है। इससे करीब 34000 मेगावाॅट बिजली पैदा होगी।
उत्तर की बाढ़ वाली नदियों के पानी को दक्षिण तथा पश्चिम की सूखाग्रस्त नदियों से जोड़ना है। इससे बाढ़ का प्रभाव भी कम होगा तथा सूखाग्रस्त क्षेत्रों को पानी भी मिलेगा। वैसे यह काम सुनने में तथा देखने में अच्छा तो लगेगा लेकिन बहुत कठिन भी है। काफी पैसे भी खर्च होंगे। करीब 10 लाख करोड़ का खर्च उठाना पड़ेगा। आई.एम.एफ. और वर्ल्ड बैंक से कर्ज लेना होगा। उसकी किश्तों को 20 या 25 सालों तक भरना होगा। इससे लोगों पर अधिक कर लगेगा, कई राज्यों को साथ में काम करना होगा। राजनीति यहाँ नहीं आनी चाहिए वरना पानी के हिस्से के लिये तकरार तथा दंगे होने की भी सम्भावना है। राजनीतिक दल आपस में इन मुद्दों को लेकर झगड़ेंगे तो काम समय पर पूरा न होकर खर्चे भी बढ़ेंगे।
दूसरा पहलू है - प्राकृतिक असर: नदियों को जोड़ने से उत्तर के समुद्रों में मीठा पानी कम होने से समुद्र के तट के जीव-जन्तुओं पर विपरीत असर पड़ेगा और वह लुप्त हो जाएँगे। अनेक जंगल, आरक्षित वन तथा उपजाऊ जमीन पानी के नीचे आकर नष्ट हो जाएगी।
कई विशेषज्ञों का कहना है कि नदी का एकीकरण तो करना ही नहीं चाहिए। नदियों के प्रवाह की दिशा हर 40-50 सालों में बदलती रहती है जो स्वाभाविक है। एकीकरण से कुछ सदियों तक ही नदियाँ जुड़ी रह सकती हैं। अतः एकीकरण नैसर्गिक दृष्टि से ज्यादा नुकसानदायक है। पैसों का भी व्यर्थ खर्चा है। स्थिति बिगड़ भी सकती है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर हम अपने पूर्वजों के पद पर जाकर पानी का बचाव तथा सदुपयोग करें तो बेहतर है।
अगर हम हर पहलू को ध्यान में रखकर सोच विचार करें तो निम्न नतीजों पर पहुँच सकते हैं:-
1. नदियों का एकीकरण एक बहुत बड़ा काम है जिसमें खर्च काफी है, नैसर्गिक हानि भी है, जीवों की हानि भी है।
2. एकीकरण के बाद का असर, बुरा या भला, पूर्ण रूप से मालूम न होने पर, यह निर्णय लेना नामुमकिन है।
3. छोटी-छोटी नदियों को जोड़कर, जो नजदीक में हों, जहाँ विनाश कम हो, उसका प्रभाव देखा जा सकता है।
4. वर्षा के पानी का सदुपयोग करना जरूरी है और शासन से इस पर जोर दिया जाये। दक्षिण के कई शहरों में यह काम शुरू हुआ है और बहुत अच्छा असर भी है।
5. पुनः उपयोग और पुनः स्वच्छीकरण पर भी जोर दिया जाये।
6. उत्तर की नदियों को पश्चिम के रेगिस्तान में लाया जाये, दक्षिण की सूखाग्रस्त नदियों को मध्य भारत की नदियों से जोड़ा जाये। यह काम किस्तों में शुरू करके उसके प्रभाव या कुप्रभावों को ध्यान में रखकर काम को आगे बढ़ाया जाये।
अन्त में यह नदियों का एकीकरण एक जोखिम भरा काम है। विस्तारपूर्वक अध्ययन, भारत पर उसका आर्थिक असर और लोगों की राय लेकर ही उसकी ओर बढ़ना चाहिए।
पानी दे शांति
जल ही जीवन है यह हम सभी जानते हैं। पानी की एक और खूबी अब वैज्ञानिकों ने खोज ली है। एक नए अध्ययन में कहा गया है कि जब आप अपने आपे से बाहर हों तो पानी आपको शान्ति दे सकता है।
यूनिवर्सिटी आॅफ कनेक्टिकट के अनुसन्धानकर्ताओं का दावा है कि शरीर में पानी की थोड़ी भी कमी होने से मिज़ाज पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है और महिलाओं में यह बात खासतौर पर देखी जा सकती है।
डेली मेल की खबर के मुताबिक अध्ययन कहता है कि पानी से किसी का मिज़ाज, ऊर्जा का स्तर और सही तरीके से सोचने की क्षमता बदल सकती है। मुख्य अनुसन्धानकर्ता लारेंस आर्मस्ट्रांग ने कहा, ‘‘हमें प्यास की जरूरत तब तक नहीं महसूस होती जब तक कि शरीर में पानी की कमी एक या दो प्रतिशत नहीं हो।’’ जब तक निर्जलीकरण की स्थिति सम्भलती है, तब तक हमारे दिमाग और शरीर पर असर पड़ना शुरू हो जाता है।
अनुसन्धानकर्ता परीक्षण के नतीजों का विश्लेषण करने के बाद इस नतीजे पर पहुँचे कि इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी व्यक्ति ने ट्रेडमिल पर 40 मिनट की वाॅक की है या आराम से बैठा है। अगर वह थोड़ा भी प्यासा है तो प्रतिकूल प्रभाव दोनों ही स्थिति में समान होते हैं।
संपर्क - संजय गोस्वामी यमुना जी - 13, अणुशक्ति नगर, मुम्बई- 94