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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष
आजादी के बाद प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की सबसे बड़ी चिन्ता देश को आत्मनिर्भर बनाने की थी। खासतौर पर खाद्य सुरक्षा के मामले में। और इसके लिये उनके विश्वस्त विशेषज्ञ सलाहकारों ने बता दिया था कि इसके लिये जल प्रबन्धन सबसे पहला और सबसे बड़ा काम है।
कभी सूखे के मारे अकाल और कभी ज्यादा बारिश में बाढ़ की समस्याओं से जूझने वाले देश में नदियों का प्रबन्धन ही एकमात्र चारा था। नदियों का प्रबन्धन यानी बारिश के दिनों में नदियों में बाढ़ की तबाही मचाते हुए बहकर जाने वाले पानी को रोककर रखने के लिये बाँध बनाने की योजनाओं पर बड़ी तेजी से काम शुरू कर दिया गया था।
वह वैसा समय था जब पूरे देश को एक नजर में देख सकने में सक्षम वैज्ञानिक और विशेषज्ञों का इन्तजाम भी हमारे पास नहीं था। अभाव के वैसे कालखण्ड में पंडित नेहरू की नजर तबके मशहूर इंजीनियर डॉ. केएल राव पर पड़ी थी।
कई बड़ी जिम्मेदारियाँ निभाते हुए डॉ. राव ने देश के हालात को जानने समझने के बाद फौरी तौर पर जो किये जाने की जरूरत थी उसे तो शुरू करवाया ही लेकिन उससे भी बड़ी बात जो डॉ. राव ने समझी थी उसका जिक्र आज बड़ा महत्त्वपूर्ण होगा। ये वही डॉ. राव हैं जिन्हें पंडित नेहरू ने 20 जुलाई 1963 को देश का सिंचाई और बिजली मंत्री बनाया था।
साठ साल पहले डॉ. राव ने कहा था कि भारत के पास अपरिमित जल संसाधन हैं ऐसा सोचना भूल है। महानद ब्रह्मपु़त्र का बहुत सा जल हमारे उपयोग के लिये उपलब्ध नहीं है। इसी तरह कई छोटी नदियों के पूरे पानी का इस्तेमाल सम्भव नहीं है। इसलिये भारतवर्ष में जल संसाधनों के नियोजित और सन्तुलित विकास के लिये गहन अध्ययन की जरूरत है।
डॉ. राव की यह दूरदृष्टि आज भले ही बड़ी सामान्य सी बात लगती हो लेकिन यह कोई साठ साल पहले तबकी कही बात है जब भारत के पास प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष 5000 घन मीटर जल उपलब्ध था। यानी तबकी जरूरत का कोई ढाई गुना पानी हमें मानसून के महीनों में प्रकृति से हर साल मिलता था। हाँ, यह एक बड़ी समस्या सामने जरूर थी कि बारिश के पानी को बाकी आठ महीनों के इस्तेमाल के लिये कैसे रोककर रखें? इसीलिये उसके बाद देश में बाँधों को बनाए जाने का सिलसिला तेजी से शुरू हुआ।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के पक्षधर पंडित नेहरू की सोच पर टीका टिप्पणी करने वाले उनके राजनीतिक विरोधियों ने जनता के बीच कितनी भी मुखालफत की हो लेकिन उनके जीते जी जनता के मन से नेहरू की लोकप्रियता कोई भी कम नहीं कर पाया। आखिर अनाज के मामले में आत्मनिर्भरता के लिये हरित क्रान्ति की सफलता का श्रेय आज भी नेहरू युग के जल प्रबन्धन को दिया जाता है। पंडित नेहरू के बड़े प्रिय विशेषज्ञ इंजीनियर और देश के तत्कालीन सिंचाई और बिजली मंत्री डॉ. राव के दूसरे इस कथन का भी जिक्र आज जरूरी है।
संसार के दूसरे देशों की तुलना में भारत को बहुत जल्द पानी की विकट समस्या का सामना करना पड़ेगा क्योंकि यह घनी आबादी वाला विशाल देश है। भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। परम्परा से चली आ रही यह मान्यता बड़ी भ्रान्ति है कि भारत के पास अपार जल सम्पदा है। जल समस्या के समाधान और राष्ट्रीय स्तर पर जल धाराओं के उपयोग के लिये योजनाबद्ध सन्तुलित विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी वरना जल प्रबन्धन की नाजुक हालत भयावह हो सकती है।
पचास साल के इतिहास को तथ्यपरक नजर से देखने वाले विश्लेषक आज भी याद दिलाते हैं कि आजादी के समय अंग्रेज हमें सिर्फ 340 बड़े बाँध देकर गए थे। आजादी के बाद से आज तक हमने 4517 बड़े बाँध और बनाए। आज देश के पास 4857 बड़े बाँधों की बेशकीमती और संकट मोचक सम्पत्ति है। बड़े बाँध यानी 15 मीटर से ऊँचे। छोटे बाँधों की संख्या हजारों में है।
डॉ. राव के मुताबिक पानी के लिये हाहाकार अस्सी के दशक में मच जानी थी लेकिन इन बाँधों के इन्तजाम होने से ही उस संकट को 30 से 35 साल तक दूर कर दिया गया। हाँ बिल्कुल आज यानी 2015 या अबके बाद की सोचें तो हालात वाकई भयावह लग रहे हैं। इसलिये और भी ज्यादा भयावह लग रहे हैं क्योंकि जल प्रबन्धन के लिये बाँध परियोजनाओं की बात तक नहीं हो रही है।
नदियों के प्रबन्धन की जितनी परियोजनाओं की बात की जा रही हैं मसलन नदियों को जोड़ने या नदियों को यातायात के लिये इस्तेमाल करने की, ये सब सिंचाई या पेयजल के प्रबन्ध को उतना सुनिश्चित नहीं करतीं। नदियों पर बाँध बनाने की जितनी भी मंजूरशुदा परियोजनाएँ हैं सब ठंडे बस्ते में चली गई हैं। जबकि राजनीतिक परिस्थितियाँ पहले से ज्यादा अनुकूल हैं।
पानी के संकट को लेकर परंपरावादी तबका भी आजकल सकारात्मक रवैए वाला हो गया है। अब निर्मलधारा और अविरलधारा के आन्दोलनकारी भी उतने सक्रिय नहीं दिखते। बिल्कुल सिर पर आ खड़ी जल संकट की समस्या का समाधान नदी पर बाँध बनाकर बारिश के पानी को रोककर रखने के अलावा क्या हो सकता है?
इसे परम्परावादी पर्यावरणविद भी नहीं बता पा रहे हैं। इधर हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही आबादी के लिये अलग से चालीस घन किलोमीटर पानी को जमा करके रखने का जिम्मा हमारे ऊपर साल-दर-साल बढ़ना शुरू हो गया है।
इस हफ्ते ही आ रहे नदी दिवस के मौके के लिहाज से अगर सिर्फ नदियों की बात करें तो देश में सबसे बड़ी नदी गंगा और उसकी सबसे बड़ी सहायक नदी यमुना में न्यूनतम प्रवाह के उपाय करने की बजाय इनकी साफ सफाई की बातों का जोर है। चाहे पुराने गंगा एक्शन प्लान हों और चाहे नया नमामि गंगे, ऐसा लगता है कि उन्हें साफ करने का दावा करने वाले मानते हैं कि गंगा यमुना में कई सालों से कूड़ा-कचरा जमा पड़ा है और उसे साफ करने का काम करना है।
इसीलिये जब देखो सफाई अभियान वाले नदी के किनारे फावड़ों से कचरा निकालने लगते हैं। जबकि हर किसी को साफ-साफ दिखता है कि हर साल बारिश के दिनों में नदी के तेज बहाव में एक तिनका भी नदियों में नहीं बचता। गन्दगी का एक-एक कण बहकर समुद्र में चला जाता है। यानी हर साल हर नदी चार महीने के लिये बिल्कुल साफ हो ही जाती है।
नदियों को पुनर्जीवित करने या उनका उद्धार करने या उन्हें निर्मल बनाए रखने का व्यावहारिक हिसाब-किताब। अगर सैद्धान्तिक उपाय की बात करनी हो जिसमें खर्चा कम बैठे और तत्काल प्रभाव से कुछ होता हुआ भी दिखने लगे तो यह सुझाव दिया जा सकता है कि उन उद्योगों पर पाबन्दी लगाने की बात सोची जाये जो अपना माल बनाने के लिये कारखानें से कचरा निकालते हैं। जो आखिर में नदी में जाता है।
यानी जब वास्तविक समस्या नदी में गन्दे नाले गिराए जाने और शहरों का कूड़ा कचरा नदी में डालने की है तो शहरों के तरल और ठोस कचरे के प्रबन्धन की बात की जानी चाहिए। ताकि घरेलू निस्तार और औद्योगिक कचरे वाला गन्दा पानी साफ किये जाने के बाद नदियों में गिरे। नदियों को प्रदूषण मुक्त करने की अवधारणा या संकल्पना के रूप में उसे गंगा एक्शन प्लान या नमामि गंगे का नाम देने का क्या तुक है।जरूरत शहर कस्बों के ठोस और तरल कचरे के प्रबन्धन की है। हाँ यह जरूर है कि गंगा के नाम पर सिर्फ 20 हजार करोड़ के एलान से ही पब्लिक खुश हो सकती है जबकि शहरों की गन्दगी और कचरे को ठिकाने लगाने की योजना का खर्चा तीन लाख करोड़ से कम नहीं बैठता।
यानी न तीन लाख करोड़ रुपए होंगे और न हरिद्वार से बनारस तक गंगा किनारे के शहरों और कस्बों में गन्दे नालों के पानी को साफ करने के लिये छह हजार ट्रीटमेंट प्लांट और यमुना किनारे ताजेवाला से लेकर इलाहाबाद तक चार हजार ट्रीटमेंट लग पाएँगे। सिर्फ गंगा और यमुना को निर्मल बनाने का इरादा जताने वालों को सामने बैठाकर यह भी बता देना चाहिए कि इन ट्रीटमेंट प्लांटों के रखरखाव यानी इन्हें चालू रखने का खर्चा हर साल कम-से-कम तीस हजार करोड़ से कम नहीं बैठेगा। वह भी तब जब भ्रष्टाचार न हो। भ्रष्टाचार को रोकने का खर्चा अलग।
यह तो था नदियों को पुनर्जीवित करने या उनका उद्धार करने या उन्हें निर्मल बनाए रखने का व्यावहारिक हिसाब-किताब। अगर सैद्धान्तिक उपाय की बात करनी हो जिसमें खर्चा कम बैठे और तत्काल प्रभाव से कुछ होता हुआ भी दिखने लगे तो यह सुझाव दिया जा सकता है कि उन उद्योगों पर पाबन्दी लगाने की बात सोची जाये जो अपना माल बनाने के लिये कारखानें से कचरा निकालते हैं। जो आखिर में नदी में जाता है। ये कारखाने चाहे लोहे के हों, चाहे प्लास्टिक का सामान बनाने के हों चाहे कपड़े या चमड़े का सामान बनाने के हों सब कारखानों की मौजूदा हालत ऐसी है कि विश्व बाजार में वे टिक नहीं पा रहे हैं।
उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि औद्योगिक कचरे के निस्तारण का खर्चा उठा लेंगे। अगर उठाने के लिये बाध्य किये गए तो उपभोक्ता सामान की लागत कितनी बढ़ जाएगी इसका हिसाब सुनकर कोई भी चौंक सकता है। औद्योगिक क्षेत्र पर यह जिम्मेदारी सौंपने की बात सोचने का मतलब है कि वैसा सोचने वाली सरकार का चलता हो जाना।
ज्यादा दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि हाल ही में दिवंगत की गई यूपीए 2 की सरकार के खिलाफ जो माहौल बनाया जा रहा था उसमें एक मुद्दा पालिसी पैरालिसिस का भी प्रचारित किया गया था जिसमें औद्योगिक क्षेत्र सबसे ज्यादा नाराज़ पर्यावरण के कानूनों से था जिनके कारण नए उद्योगों से सम्बन्धित फाइलें रुकने लगीं थी। यानी यूपीए 2 की दुर्गति से नया-नया सबक मिला है।
लिहाज साफ-सफाई के चक्कर में जबरदस्त रुतबे वाले औद्योगिक क्षेत्र को तो यह सरकार बिल्कुल भी नाराज नहीं कर सकती। कुल मिलाकर नदियों को साफ रखने का काम भारी भरकम खर्च वाला काम है, इसे सदइच्छा या जागरुकता अभियानों से निपटाना सिर्फ कहने भर की ही बात होगी। लेकिन जब कहने की बातों से ही फिलहाल सरकारों का काम बड़े आराम से चलता दिख रहा हो तो करने के काम में कौन पड़े?