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विज्ञान गंगा, 2013
पिछले कुछ दशक अनुसंधान संकेतों, प्रौद्योगिकीकरण, और उद्योग के क्षेत्र में जैवप्रौद्योगिकी अनुसंधान एवं उत्पादों को बढ़ावा देने तथा अन्तरराष्ट्रीय सहयोग संबंधित विकास को बढ़ावा देने के साक्षी रहे हैं। अत: जैवप्रौद्योगिकी विज्ञान में अनुसंधान को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग के लिये भारत में कई कार्यक्रमों को कार्यरूप दिया गया। विज्ञान, अनुसंधान एवं उत्पादों की प्रक्रिया के लिये वृहद नीतियों का निर्माण तथा नई टीकाकरण तथा वैक्सीन का अध्ययन, स्वास्थ्य सुधार में बदलाव आदि के लिये कई महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं को अनुदान दिया गया।
पिछले कुछ दशकों में बायोटेक्नोलॉजी (जैवप्रौद्योगिकी) अनुसंधान के द्वारा भारत ने कृषि, उद्योग, पर्यावरण, औषधि निर्माण और चिकित्सा आदि के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। इन क्षेत्रों में उपलब्धता और परिष्कृत तकनीकियों के द्वारा ही आज भारत में शिक्षा और शोध कार्यों के द्वारा महत्त्वपूर्ण उत्पादों, मानव संसाधन विकास एवं आर्थिक निर्माण के योगदान में जैवप्रौद्योगिकी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वर्तमान में जीव विज्ञान क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी विभाग लगभग दो-तिहाई अनुसंधान एवं विकास सहायता प्रदान कर रहा है। देश में अर्थव्यवस्था में सुचारू बदलाव के साथ-साथ विश्व के अनेकों देशों में भारत विज्ञान के क्षेत्र में कम लागत और उन्नत तकनीकी के साथ अनुसंधान व अन्य क्रियाकलापों में सुधार एवं आर्थिक रूप से मजबूती एवं लाभ सुलभ कर रहा है। अत: जैवप्रौद्योगिकी को आज विज्ञान के एक नये आयाम, नई सोच के रूप में देखा जा रहा है। जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान के लिये आण्विक विज्ञान और आनुवंशिक विज्ञान के अध्ययन के द्वारा गहन और सूक्ष्मतम जैविक प्रणालियों एवं क्रियाकलापों को उपलब्ध तकनीकियों के साथ आसानी से समझा जा सकता है तथा जैविक उत्पादों के निर्माण एवं क्रियाकलापों के द्वारा महत्त्वपूर्ण शोध कार्यों से प्राकृतिक संसाधनों के सुचारू रूप से इस्तेमाल और अन्य कारणों से होने वाली हानियों को रोका जा सकता है।आज के इस युग में कोई न कोई सृजन ही हमें मजबूत बनाये रख सकता है, चाहे वह नया विचार, नया प्रयोग या फिर बदलाव की प्रक्रिया हो। चार्ल्स डार्बिन के विकासवाद के सिद्धांत का मूलमंत्र आज भी जिंदा है कौन नहीं जानता कि विज्ञान के जिस सोपान पर आज हम हैं वह नई-नई खोजों, सृजन प्रक्रिया और प्रजातियों के निर्माण में इस हद तक सहायक हो गये हैं कि आज जैवप्रौद्योगिकी विज्ञान के माध्यम से जैविक गुणों की पहचान, गुणसूत्रों का अध्ययन और अनुसंधान न केवल चर्मोत्कर्ष पर पहुँच गया है, बल्कि आज के इस जटिल युग में विकास (इवोल्यूशन) और विलुप्तिकरण (एक्सटिंक्शन) के पहलुओं को भी गम्भीरता से समझा जा सकता है। कृषि जैवप्रौद्योगिकी को पर्यावरणविदों का सामना जरूर करना पड़ा, पर परिणाम यह बताते हैं, कि जैवप्रौद्योगिकी उद्योगों की एक बड़ी जरूरत है, तथा इसके उत्पादन के तरीकों में कम ऊर्जा तथा कम क्षरण भी है।
1953 में वाट्सन और क्रिक के द्वारा डी.एन.ए. की संरचना के आविष्कार के बाद पिछले दशकों में आण्विक जीव विज्ञान में प्रमुख प्रगति हुई है। जीव और जीवन की प्रक्रियाओं के संबंध में बेहतर जानकारी प्राप्त हुई है तथा विभिन्न जीवों में आनुवंशिक सामग्री अर्थात डी.एन.ए. को समझा गया है। पशुओं व पेड़ों में जीनों का हस्तांतरण करना संभव हो सका है। 1953 के बाद, विश्व के वैज्ञानिकों ने आनुवंशिक कोड का सहारा लेकर विशेष जीनों का पता लगाया है, तथा कई रोगों के आनुवंशिक आधार को खोजा है। इस अवधि के दौरान ऐसे मूलभूत अनुसंधान के परिणाम स्वरूप ही कई उद्योग विशेषतौर पर औषधीय निर्माण के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है।
भारत के विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनने के बाद आम समझौते और उरुग्वे दौर की बातचीत के परिणाम स्वरूप प्रतिस्पर्धा की स्थिति से और अधिक समय तक नहीं बचा जा सकता था। अत: रीकम्बिनेंट डीएनए तकनीक और ऊतक संवर्धन तकनीक में हाल में हुए अध्ययनों के द्वारा संपूर्ण पौधों का कायिक जनन के द्वारा ही विश्व में आने वाली सदी की खाद्य समस्या व बढ़ती जनसंख्या से निपटा जा सकता है। खेती के लिये घटती जमीन और बढ़ता शहरीकरण संपूर्ण विश्व के लिये एक चिंता का विषय है। वायुमंडलीय ताप प्रभावित हो रहा है, तथा वर्षा एवं खाद्य उत्पादन कम हो रहा है। अत: जैवप्रौद्योगिकी के माध्यम से इन समस्याओं के निदान की भी काफी संभावनाएं हैं। संपूर्ण विश्व में अब यह पूर्णतया मान लिया गया है, कि जैवप्रौद्योगिकी पर आधारित औद्योगिक विकास होना चाहिये।
अत: यह आवश्यक हो गया है, कि चिकित्सा, जीवविज्ञान, यांत्रिकी (इंजिनियरी) तथा अन्य क्षेत्रों में जैवप्रौद्योगिकी के वृहद दृष्टिकोण को समझा जाय। स्टेम सेल अनुसंधान, नैनोटेक्नोलॉजी, जैवसूचना प्रणाली (बायोइंफार्मेटिक्स), जैवकीटनाशी, जैविक खाद्य, न्यूट्रास्यूटिकल, प्रोबायोटिक, बायोफ्यूल आदि अनेक विषयों को गंभीरता से समझा जाय, जिसमें किसी न किसी रूप में सूक्ष्म जीवाणुओं और जैविक प्रणालियों का योगदान है। विभिन्न जैवप्रौद्योगिकी उद्योगों में नई प्रौद्योगिकी और उच्च तकनीक परियोजनाओं के व्यावसायीकरण को भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिये और जैवप्रौद्योगिकी की पूरी क्षमता का एहसास कराने के लिये तेजी से विकास कार्य किए जा रहे हैं जिससे भारतीय उद्योग वैश्विक बाजार पर कब्जा करने और धन उत्पन्न करने के लिये एक राष्ट्र के रूप में प्रतिस्पर्धा और लाभ सुनिश्चित कर सके। जैवप्रौद्योगिकी उद्योगों में एक और तकनीकी क्रांति लाने के लिये जैवप्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार द्वारा उन्नत कार्य किए जा रहे हैं। निश्चित रूप से नई सहस्त्राब्दी को जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र में शिक्षा, उद्योग और अनुसंधान के रूप में साबित करने के लिये संपूर्ण विश्व में कई तरह से प्रयास जारी हैं।
आज जैवप्रौद्योगिकी अनुसंधान के द्वारा कृषि के क्षेत्रों, मानव और पशुओं के स्वास्थ्य, पर्यावरण, निदान, और एंटीबायोटिक दवाओं, औद्योगिकी एंजाइमों, विटामिन आदि के वैश्विक जैवप्रौद्योगिकी परिप्रेक्ष्य आदि जैसे प्राथमिकताओं वाले क्षेत्रों में देश एक गतिशील एवं परिवर्तन के दौर से गुजर रहा हैं जैवप्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली ने पिछले कुछ दशकों में इन क्षेत्रों में मूलभूत अनुसंधान तथा औद्योगिकीकरण के लिये एक सुदृढ़ आधार तैयार किया है, जिससे विज्ञान के कई नये क्षेत्रों में अनुसंधानों एवं उपलब्धियों को विकास की दर में शामिल किया जा सके, जिससे भविष्य में विभिन्न औद्योगिक उत्पादों के व्यावसायीकरण के लिये विशाल क्षमता पैदा की जा सके। इस प्रयास के तहत प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं को शुरू किया गया है। इसी तरह उद्योगों में नई तकनीकियों और अनुसंधान के विकास के लिये कई-नई योजनाओं के तहत जैसे : जैवप्रौद्योगिकी उद्योग भागीदारिता कार्यक्रम (बीआईपीपी), लघु व्यवसाय नवीन अनुसंधान पहल (एसबीआईआरआई) और जैवप्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (बीआईपीपी) जैसे कार्यक्रमों का शुभारंभ किया गया है।
यह नई योजनाएं जैवप्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान एवं विकास और सार्वजनिक निजी भागीदारी कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिये सर्वाधिक सक्षम तंत्र है। इन महत्त्वपूर्ण योजनाओं के अंतर्गत केवल भविष्योन्मुखी क्षेत्रों, रूपांतरकारी प्रौद्योगिकी और लोकहित हेतु उत्पाद विकास के लिये सहायता प्रदान की जाएगी। विभाग के योगदान को देखते हुए ही पिछले वर्ष 2011-12 में मंत्रिमंडल सचिवालय द्वारा सरकार की निष्पादन समीक्षा में जैवप्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली को सर्वप्रथम तीन मंत्रालयों/विभागों में से एक चिन्हित किया गया है। इसके अलावा सबसे ज्यादा अन्वेषक व्यापारिक उद्यम (Most innovative commercial enterprise) के लिये 2012 का थामसन रयूटर्स इंडिया इनोवेशन अवार्ड (Thomson Reuters India Innovation Awards 2012) से भी जैवप्रौद्योगिकी विभाग नई दिल्ली को सम्मानित किया गया है।
अनुसंधान की दृष्टि से कृषि जैवप्रौद्योगिकी अनुसंधान के शुरुआती चरणों में कुछ विभिन्न तकनीकों जैसे : फसलों को कीटों से बचाने के लिये कीटनाशी प्रोटीन जैसे प्रोटीनेज इन्हीबिटर, लैक्टिन और एल्फा अमाइलेज इन्हीबिटर आदि पर ध्यान देना शुरू हुआ। मृत कवक (माइरोथिसियम वेरूकेरिया) से प्राप्त एंजाइम और एंटोमोपैथोजेनिक कवक (मोटाराइजियम एनीसोप्ली, बीयूवेरिया बेसियाना तथा वर्टीसिलियम लेकानी) की कोनिडियल को अंगूर में मियली कीटों (बग) को नियंत्रित करने में प्रभावकारी पाया गया है। फेरोमोन अवयवों के संश्लेषण प्राप्त किए गये, जिससे सी सेराटास वयस्कों को सफलतापूर्वक पकड़ा (ट्रैप) जा सके। कीटों की बीमारीरोधी पराजीनी चना (चिकपी) लाइनों को उगाने के लिये कानामाइसिन प्रतिरोध हेतु एग्रोबैक्टीरियम मीडिएटेड ट्रांसफार्मेट का चयन किया गया तथा पोषक तत्व समृद्ध मकई के विकास, मूँगफली और अरहर की फसल के जैव समृद्धिकरण संबंधी कई नई परियोजनाओं पर कार्य किए जा रहे हैं। कपास, मक्का, सरसों और सोरघम जैसे चार कृषि उत्पादों को आ.सी.जी.एम. के अंतर्गत खेत परीक्षण के लिये अनुमोदन दिया गया है तथा कृषि दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सूक्ष्मजीवों (एआइएम) से संबंधित परियोजनाओं को क्रियान्वित किया गया है। इसी तरह कई अन्य पौधों और फसलों पर कार्य लिये जा रहे हैं जिसमें जीन हस्तातंरण के द्वारा आलू एवं टमाटर आदि की उन्नत किस्में तथा रख-रखाव के कार्य शामिल हैं। गोभी, पत्ता गोभी और मिर्च के बीजजनित रोगाणुओं के खिलाफ छानबीन की जा रही है। इन क्षेत्रों में अनुसंधान की शृंखला काफी लंबी है।
इसी प्रकार फसलों में चावल के मुख्य रोगों के लिये जिम्मेदार टैगिंग जीनों हेतु आण्विक मार्कर प्रौद्योगिकियों की खोज की गई। लवण और सूखा सहिष्णु (सलाइन एवं ड्राई टालरैंट) मार्कर फ्री चावल के विकास की दिशा में विकास को लक्ष्य बनाते हुए लवण और सूखा सहिष्णु पराजीनी चावल के विकास पर ध्यान दिया गया, जिससे यह संकेत मिला है, कि उच्च सहिष्णुता के एकत्रण से पराजीनी चावल पादपों में सूखा प्रतिबल सहिष्णुता प्राप्त होती है। इसी संबंध में अन्तरराष्ट्रीय आनुवांशिकी एवं इंजीनियरिंग जैवप्रौद्योगिकी केंद्र (आई. सी. जी. ई. बी.) नई दिल्ली में प्रतिबल-उत्प्रेरित हेलीकेस की आण्विक क्लोनिंग और लक्षण-वर्णन तथा इसके कार्यात्मक मान्यकरण संबंधित कार्य किए जा रहे हैं। गेहूँ (ह्वीट क्रोमोसोम 2 ए) की सैंपल फिजिकल अनुक्रमण (सिक्वेंसिंग) संबंधित कार्य जारी रखा गया है। कपास में गुणक (मल्टीपल्स) के उत्पादन हेतु एक तरह का मानकीकरण किया गया, तथा उच्चस्तरीय एक्सप्रेशन के लिये कोडान यूसेज के साथ इंडोटाक्सीन जीन क्राई 1 ए.सी. का रासायनिक संश्लेषण बनाया गया है। इसी प्रकार सोमेटिक एम्ब्योजेनेसिस के माध्यम से आम की किस्मों के ऊतक संवर्धन एवं प्रवर्धन हेतु प्रोटोकॉल विकसित किया गया है। रेशमकीट लार्वा के पालन के लिये कृत्रिम खाद्य मिश्रण तैयार किये गए हैं जिनका प्रयोगशाला स्तर पर परीक्षण किया गया है। इसी प्रकार कृषि जैवप्रौद्योगिकी में अनेकों अन्य अनुसंधान प्रगति में है, जिससे आने वाली सदी में कई समस्याओं से निपटा जा सकता है।
पशु जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रजनक क्षमता (इन बिट्रो नेचुरेशन), कृत्रिम गर्भाधान (इन विट्रोफर्टिलाइजेशन) प्रौद्योगिकियों के परिणाम उत्साह वर्धक रहे हैं भैंस के दूध में चिकित्सीय गुण वाले मानव प्रोटीनों को निष्पीड़ित करने संबंधी प्रयास जारी हैं। भैंस सदृश्य याक और मिथुन परियोजनाओं में भी प्रजनन क्षमता, रख-रखाव तथा चारे आदि संबंधी कई कार्यों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, तथा उद्योग की जरूरत को समझते हुए उनसे प्राप्त औद्योगिक उत्पादों को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। पशुओं में बोविन रिनोट्रैकेटिस (आई. बी. आ.), और मुर्गीपालन में रानीखेत, बर्ड फ्लू आदि बीमारी के लिये विकसित वैक्सीनों का निर्माण और व्यापारीकरण पर ध्यान दिया गया है। मोटापा और मेटाबोलिज्म में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डब्लू डी आर 13 जीन को समाप्त करते हुए एक ‘नॉकआउट चूहा’ मॉडल विकसित किया गया है। हार्मोन जारी करने वाले गोनेडोट्रापिन के दो सिंथेटिक एनालॉग का जब क्षेत्र परीक्षण किया गया, तो मछली पालन में अच्छे परिणाम मिले। जलकृषि चारा, चिकित्सीय चारे का विकास, श्रिंप में उत्प्रेरित परिपक्वन, रोग प्रतिरोध के लिये आण्विक मार्करों का विकास आदि पर कार्य किया जा रहा है।
वाणिज्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्वच्छ जल मछलियों लेबियो रोहिता और क्लेरियस बैट्रिकस के संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण संबंधी एक बहुकेंद्रिक कार्यक्रम संरूपित करने की पहल की गई है। इसी प्रकार पशुओं में जीन सिक्वेन्स को जानने के लिये कई परियोजनाओं को शुरू किया गया है। मनुष्य के साथ-साथ पशुओं तथा मछलियों की प्रजातियों की प्रजातियों में भी भ्रूणीय स्टेम सेल पर भी अनुसंधान प्रस्ताव प्राप्त किए गए हैं। चिकित्सा का क्षेत्र जैवप्रौद्योगिकी अनुसंधान की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिसमें जीवाणु (बैक्टीरिया), विषाणु (वायरस), पैरासाइट्स, कवक (फंजाई) आदि पैथोजोनिक एजेंटों पर काम किया जा रहा है। इन महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों में ट्यूबरक्युलोसिस, कॉलरा, एचआईवी/एड्स, हिपैटाइटिस, इन्फ्लूएंजा, डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया, लेश्मैनियासिस, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू इत्यादि संक्रमित रोगों के लिये सहायक उपचार (प्रिवेन्टिव थिरेप्युटिक) और नैदानिक टूल्स (डाइग्नोस्टिक टूल्स) विकसित करने के लिये सहायता की गई। ओरल कॉलरा वैक्सीन हेतु एक गैर टॉक्सोजेनिक विब्रियो कॉलरा कैंडीडेट विकसित किया गया है।
बच्चों में किसी भी प्रकार के डायरिया को रोकने के लिये किए गये प्रयास सराहनीय है। भारत में ओरल रोटा वाइरस वैक्सीन 116 ई. फेस 3, विकास के लिये परीक्षण कार्य चरणबद्ध रूप से किया जा रहा है। रेबीज वायरस के विरुद्ध म्यूराइन एकक्लोनीय प्रतिरक्षियों का विकास किया गया है। माइकोबैक्टेरियम ट्युबरक्युलोसिस के तत्पर परीक्षण किट को विकसित कर उसका व्यापारीकरण किया गया है। हिपेटाइटिस वैक्सीन और यकृत संबंधित बीमारियों पर अत्याधुनिक खोज के लिये विभिन्न परियोजनाओं को आमंत्रित किया जा रहा है, तथा डेंगू संक्रमण के लिये नैदानिक टूल्स के रूप में एक रैपिड आईजीएम इएलआईएसए का विकास और वैधिकरण किया गया। एचआईवी/एड्स के इम्यूनोपैथेजेनेसिस पर मूलभूत और ट्रांसलेशनल अनुसंधान और उपचार रणनीति विकसित की जा रही है।
कैंसर के क्षेत्र में नई तकनीकियों के इस्तेमाल से होने वाले अनुसंधानों को और प्रोत्साहन दिया जा रहा है। कैंसर में करक्यूमिन क्लीनिकल ट्रायल महत्त्वपूर्ण स्तर तक पहुँच गया है तथा एनालिसिस का पहला चरण प्राप्त कर लिया गया है। कुछ प्रमुख बीमारियों के डाटाबेस तैयार किए जा रहे हैं जिससे कि उनको और अच्छी तरह से समझा जा सके। कई अन्य बीमारियों और जीन चिकित्सा अनुसंधान तथा जैवनीति के लिये मार्गदर्शन तैयार किए गये हैं। चिकित्सा के इस व्यापक क्षेत्र में स्टेम सेल और नैनोटेक्नोलॉजी पर व्यापक अनुसंधान के रास्ते खुले हैं। 45 से अधिक संस्थानों, अस्पतालों और देश में स्टेम सेल अनुसंधान में कार्यरत उद्योगों में वयस्क (एडल्ट) स्टेम सेल का प्रयोग करके मूलभूत और क्लीनिकल अनुसंधान के लिये कार्यक्रम क्रियान्वित किए गए। बंगलुरु में स्टेम सेल बायलॉजी और रीजनरेटिव मेडिसिन के लिये एक संस्थान स्थापित किया गया है, जिसकी ट्रांसलेशन यूनिट क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लौर में है। नैनो बायोटेक्नोलॉजी का उपयोग औषधि वितरण प्रणाली (ड्रग डिलीवरी सिस्टम), नई उपचार पद्धति (न्यू थिरेप्यूटिक्स), इमेजिंग तथा बायोमेडिकल डिवाइस इत्यादि सहित विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता है। जैवप्रोद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली ने इन क्षेत्रों में अनुसंधान गतिविधियों को बढ़ावा दिया है। विभिन्न नैनो सामग्री (नैनोमैटिरीयल) की विषाक्तता (ओक्सिसिटी) आदि को समझने के लिये नैनोटेक्नोलॉजी पर व्यापक अनुसंधान किए जा रहे हैं।
जैवसूचना प्रणाली (बायोइन्फॉर्मेटिक्स) के अध्ययन के द्वारा चिकित्सा के क्षेत्र में दवाओं (ड्रग) का डी नोवो डिजाइन, आण्विक संरचना, तथा रिसेप्टर प्रोटीन आदि का अध्ययन शामिल है। डीएनए प्रौद्योगिकी की सूचना तथा प्रोटीन की त्रिस्तरीय संरचना और अन्योन्यक्रिया की गति ने हमारे ज्ञान को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया है। जैवरासायनिक संरचना (बायोकेमिकल स्ट्रक्चर) की अभिव्यक्तिकरण, विलगन तथा मानकीकरण, जैवभौतिकी (बायोफिजिक्स) तथा सूक्ष्म आण्विक मॉडलिंग (मॉलिक्यूलर माडलिंग) अनुप्रयोग के संयोग से नई प्रोटीनों के स्वदेशी डिजाइन और उपयोग मालीक्यूल (सूक्ष्माणु) प्राप्त किए जा सके हैं। एक्सरे क्रिस्टेलोग्राफिक्स, डायनामिक्स, डाटाबेसों के उपयोग, प्रोटीन अनुक्रमण (फोल्डिंग) आदि की जानकारियों से नए वैज्ञानिक युग का सूत्रपात हुआ है।
जैवप्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली ने विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के तहत कई नई योजनाओं और गतिविधियों को कार्यरूप दिया, जिससे स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, पशुपालन, पर्यावरण आदि विषयों में जैविक सिद्धांतों के अनुप्रयोग से क्रांति लाने के लिये अनुसंधान कार्यों को बढ़ावा दिया जा रहा है। पिछले दशक के दौरान चिन्हित लक्ष्यों की पहचान करते हुए कई प्रयासों के तहत प्रोटीन यांत्रिकी (प्रोटीन इंजीनियरी), जीनोमिक्स, प्रोटियोमिक्स, स्टेम कोशिका अनुसंधान, बायोफ्यूल, संरचनात्मक जीवविज्ञान, जैवसूचना प्रणाली (बायोइंफॉर्मेटिक्स) केंद्रों की स्थापना, औषधीय एवं सुगंधित पादप अनुसंधान कार्य तथा विभिन्न क्षेत्रों में नई अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं के साथ-साथ औद्योगिक जैवप्रौद्योगिकी, पर्यावरण जैवप्रौद्योगिकी और विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों में अभूतपूर्व कार्य किये गये हैं। सामाजिक एवं व्यापारिक प्रासंगिकता, प्रक्रियाओं और प्रौद्योगिकियों से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिये कई नये कार्यक्रमों की शुरुआत की गई है।
ग्रामीण विकास के लिये गुणवत्तायुक्त रोपण सामग्री, जैवनियंत्रक अभिकर्मक (बायोकंट्रोल ऐजेंट) जिनमें पोड बोरर (हेलिकोवर्पा आर्मीगेरा), लीम से बने उत्पादों से स्प्रे, एचएएनपीवी के स्प्रे, वर्मीकम्पोस्टिंग, जैविक मिर्च की खेती, लाख की खेती, रेशम कीट पालन, बकरी पालन, बटेर पालन आदि के लिये परियोजनाएं सुविधाएँ, प्रबंधन और प्रशिक्षण आदि प्रदान किए गए। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में नई स्वास्थ्य देख-रेख प्रणालियों, जैव र्इंधन तथा अन्य जैविक उत्पादों तथा परीक्षण आदि के लिये कार्य किए गये।
अनुसंधान के साथ-साथ उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिये जैवप्रौद्योगिकी पार्क, इन्क्युबेटरों की स्थापना की गई जिसमें सार्वजनिक निजी भागीदारी के माध्यम से प्रायौगिक परियोजनाओं के जरिये जैवप्रौद्योगिकी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सके। इस प्रयोग ने जैवप्रौद्योगिकी में उद्यमशीलता के लिये स्थानीय वैज्ञानिकों और उद्यमियों को प्रेरित किया है। कुछ अन्य प्रमुख उपलब्धियों में मिशनमोड़ परियोजनाएं, जिनोमिक्स का अध्ययन, जैव संसाधनों, जैविक र्इंधन, टीकाकरण, खाद्य एवं पौष्टिक सुरक्षा में वृद्धि करने के लिये जैवप्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली के द्वारा किये गए प्रयास काफी महत्त्वपूर्ण हैं। अत: अनुसंधान और उद्यमता के लिये कई और द्वारा खुलेंगे। उच्च तकनीकी क्षेत्रों में जैवप्रौद्योगिकी शिक्षा की उपलब्धता कराने के दिशा में भारत की स्थिति की अनुकूलता को देखते हुए मानव संसाधन विकास के लिये कई नई छात्रवृत्तियों (फेलोशिप) कार्यक्रमों की शुरुआत की गई है, जिससे ज्यादा से ज्यादा उच्चशिक्षित वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित किया जा सके और रोजगार के अधिक अवसर पैदा किये जा सकें।
जैवप्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली ने पिछले वर्ष ही जैवप्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (BIRAC) की स्थापना की, जो 1956 अधिनियम के तहत भारतीय कंपनियों के अंतर्गत पंजीकृत है। उभरते जैवप्रौद्योगिकी उद्योगों के लिये जैवप्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद, अनुदान एवं दिशा-निर्देश प्रदान करेगा, जिसमें वरिष्ठ पेशेवरों, शिक्षाविदों नीति-निर्माताओं और उद्योगपतियों को शामिल कर अनुसंधान, उद्योग के माध्यम से सस्ते उत्पादों, शिक्षा साझेदारी आदि के क्षेत्रों में मापदण्ड स्थापित कर कार्य करेगा। जैवप्रौद्योगिकी विभाग का यह प्रयास भारत सरकार के एक उद्यम के रूप में यह अपने कामकाज में पारदर्शिता और दक्षता लाने के लिये साथ-साथ उभरती भारतीय जैव-अर्थव्यवस्था के परिवर्तन को उत्प्रेरित करने के लिये भी प्रयास करेगा। लघु व्यवसाय नवीन अनुसंधान पहल (SBIRI) कार्यक्रम के तहत लघु एवं मध्यम उद्योगों के प्रोत्साहन की दिशा में अनुदान सहायता प्रदान की गई जिसमें सन 2012 तक 900 प्रस्ताव प्राप्त हुए, जिसमें 105 परियोजनाओं को स्वीकृत किया गया। इसके परिणामस्वरूप उद्योगों में भी वैज्ञानिक खोजों, रोजगार और उत्पादों को बढ़ावा मिलेगा। इस तरह जैवप्रौद्योगिकी विभाग ने कई नये कार्यक्रमों एवं संस्थानों की स्थापना के साथ-साथ इस क्षेत्र में औद्योगिक विकास को अन्य विकास परियोजनाओं के साथ काफी बढ़ावा दिया है, जिससे कई नए लाभदायक उत्पादों के निर्माण की दिशा में कार्य किये जा सकें।
तकनीकी क्षेत्रों में आधुनिक जैवप्रौद्योगिकी की स्थापना तथा उत्पादों को चरणबद्ध तरीके से विकसित करने और विकसित तकनीकियों के ज्ञान को बेहतर समझने के लिये अब तक कई नए ऐसे संस्थानों को विकसित किया गया है, जिसमें नए अनुसंधान, और आने वाली चुनौतियों का सामना किया जा सके। वर्तमान में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जैवप्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली के 14 स्वायत्तशासी संस्थान कार्यरत हैं, जिसके नाम हैं -
1. राष्ट्रीय प्रतिरक्षा विज्ञान संस्थान (NII), नई दिल्ली : यह संस्थान प्रतिरक्षा, संक्रमण, आण्विक डिजाइन, पुन: उत्पादन, विकास और जीन नियमितता सहित अनुसंधान के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्यरत है।
2. राष्ट्रीय कोशिका विज्ञान केंद्र (NCCS), पुणे : यह संस्थान पशु कोशिका एवं ऊतक संवर्धन हेतु राष्ट्रीय कोशिका आधान और एक प्रशिक्षण केंद्र के रूप में कार्यरत है। राष्ट्रीय कोशिका आधान (National Cell Repository) के तहत विभिन्न कोशिका लाइन्स को यहाँ संभाल कर रखा गया है।
3. डी एन ए फिंगर प्रिटिंग और निदान केंद्र (CDFD), हैदराबाद : यह डी एन ए फिंगर प्रिटिंग और नैदानिकी हेतु सेवाएं प्रदान करने के साथ ही संबंधित क्षेत्रों में अपने मूलभूत अनुसंधान को जारी रखे हुए है।
4. राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र (NBRC), मानेसर, हरियाणा : वैज्ञानिक मानसिक असंतुलनों, संक्रमण, बीमारियों आदि अनेक क्षेत्रों में कार्य हो रहा है।
5. राष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान (NIPGR), नई दिल्ली : पादप जीनोम अनुसंधान की दिशा में कार्यरत है। जिसमें ट्रांसजिनोमिक, पोषण (न्यूट्रीशिनल) जीनोमिकी पादप विकास एवं संरचना आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर कार्य किया जा रहा है।
6. जीव विज्ञान संस्थान (ILS), भुवनेश्वर : इस संस्थान ने संक्रमण रोग जीवविज्ञान, जीन के कार्य तथा नियमन और ट्रांसलेशन अनुसंधान एवं क्रियाकलापों पर अपना ध्यान केंद्रित रखा है।
7. जैवसंसाधन और स्थाई विकास संस्थान (IBSD), इम्फाल, मणिपुर : आईबीएसडी ने पूर्वोत्तर क्षेत्र के आर्थिक विकास की दिशा में औषधीय, सुगंधित एवं उद्यान कृषि पादपों, सुक्ष्माणु जलीय और कीट जैवसंसाधनों की स्थाई उपयोगिता पर अपना ध्यान केंद्रित रखा है।
8. राजीव गांधी जैवप्रौद्योगिकी केंद्र (RGCB), तिरुवंतपुरम, केरल : इस केंद्र का मुख्य ध्यान रोग जीवविज्ञान और आण्विक औषधि के अनुसंधान कार्यक्रमों पर है।
9. स्टेम कोशिका विज्ञान और पुनर्प्रजनक औषधि (INSTEM), बंगलुरु : स्टेम कोशिका जीवविज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अनुसंधान और शिक्षण क्रियाकलापों के लिये एक नींव के रूप में रखा गया है जिसमें एपिथेलियल स्टेम सेल एवं विकास, ट्यूमर निर्माण, ऊतक निर्माण आदि विषयों पर कार्य किया जायेगा।
10. ट्रांसलेशन स्वास्थ्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान (THSTI), फरीदाबाद : तकनीकी क्षेत्रों में आधुनिक जैवप्रौद्योगिकी की स्थापना तथा उत्पादों को चरणबद्ध तरीके से विकसित करने और विकसित तकनीकियों के ज्ञान को बेहतर समझने के लिये इस संस्थान को विकसित किया गया जिसमें नए अनुसंधान और आने वाली चुनौतियों का सामना किया जा सके।
11. राष्ट्रीय जैवचिकित्सा जीनोमिकी संस्थान (NIBMG), कल्याणी, पश्चिम बंगाल : रोगों से बचाव, चिकित्सा और जनस्वास्थ्य समस्या में कमी की समझ को सुलभ बनाकर हस्तांतरित करने हेतु इसकी स्थापना की गई।
12. क्षेत्रीय जैवप्रौद्योगिकी केंद्र (RCB), गुड़गाँव : जैवप्रौद्योगिकी अनुसंधान तथा उससे संबंधित मामलों को प्रदान करने के लिये यूनेस्को के तत्वावधान के अंतर्गत श्रेणीक्रम-II संस्थान के रूप में प्रशिक्षण और शिक्षण हेतु स्थापित किया गया।
13. राष्ट्रीय कृषि-खाद्य जैवप्रौद्योगिकी संस्थान (NABI), मोहाली, पंजाब : इसमें खाद्य एवं पोषण जैवप्रौद्योगिकी में व्यापक रूप से कार्य किया जायेगा।
14. राष्ट्रीय पशु जैवप्रौद्योगिकी संस्थान (NIAB), हैदराबाद : इसको हैदराबाद विश्वविद्यालय के परिसर में स्थापित किया जा रहा है जो पशु स्वास्थ्य एवं उत्पादकता में बढ़ोत्तरी के लिये अत्याधुनिक क्षेत्रों में कार्य करेगा।
पिछले कुछ दशक अनुसंधान संकेतों, प्रौद्योगिकीकरण, और उद्योग के क्षेत्र में जैवप्रौद्योगिकी अनुसंधान एवं उत्पादों को बढ़ावा देने तथा अन्तरराष्ट्रीय सहयोग संबंधित विकास को बढ़ावा देने के साक्षी रहे हैं। अत: जैवप्रौद्योगिकी विज्ञान में अनुसंधान को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग के लिये भारत में कई कार्यक्रमों को कार्यरूप दिया गया। विज्ञान, अनुसंधान एवं उत्पादों की प्रक्रिया के लिये वृहद नीतियों का निर्माण तथा नई टीकाकरण तथा वैक्सीन का अध्ययन, स्वास्थ्य सुधार में बदलाव आदि के लिये कई महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं को अनुदान दिया गया। मानव जीनोम अनुक्रमण (ह्यूमन जीनोम सिक्वेंसिंग) परियोजना से जीन उपचार पद्धति की खोज में महत्त्वपूर्ण कार्य किये जाने हैं। आर्थिक महत्त्व वाले बहुत से जीन अभी उपलब्ध नहीं हैं तथा इनकी खोज अभी जारी है। प्रत्येक दृष्टि से जैवप्रौद्योगिकी विज्ञान एक अनूठी उपलब्धि है जिसके द्वारा जीन के विकास तथा उनके आपसी संबंधों को भली-भांति समझा जा सकता है तथा जीन सुधार के द्वारा रोगरोधिता, कीटरोधकता आदि में महत्त्वपूर्ण योगदान संभव है। अत: इसे नये प्रयोग, नये विचार और बदलाव का विज्ञान भी कहना अतिशयोक्ति न होगा।