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विज्ञान गंगा, 2013
भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण हमेशा ही संवेदनशील विषय रहा है। पारिस्थितिकीय संतुलन एवं पर्यावरण संरक्षण के उल्लेख महाभारत, रामायण, वेद, उपनिषद, भगवद गीता एवं पुराणों जैसे प्राचीन ग्रंथों में प्रचुरता से मिलते हैं। इन ग्रंथों के अनुसार सार रूप से कहा जाय तो प्रकृति की रचना पाँच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश से हुई है। हमारी वसुंधरा अनेक खनिज संपदाओं से भरी पड़ी है।
हमारी आधुनिक सभ्यता निरंतर बढ़ते औद्योगीकरण, प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन तथा ऊर्जा के प्रचुर उपयोग पर आधारित है। किन्तु इन कारणों से पर्यावरण प्रदूषण इतना अधिक बढ़ गया है कि भविष्य में मानव अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है। इसलिए समस्या के सार में पर्यावरण प्रदूषण एक महत्त्वपूर्ण चिन्ता का विषय बन गया है।
भारत या विश्व की आबादी में लगातार वृद्धि हो रही है, परंतु कृषि योग्य भूमि में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होती है जिसकी वजह से इस सीमित कृषि योग्य भूमि पर बढ़ती हुई आबादी के भरण पोषण का दायित्व रहता है। इसकी वजह से अधिकाधिक पैदावार प्राप्त करने के उद्देश्य से पौधों को रोगमुक्त करने के लिये अत्यधिक मात्रा में कीटनाशक, शाकनाशक एवं विभिन्न प्रकार के रसायनों का उपयोग किया जाता है जिससे काफी मात्रा में प्रदूषण वातावरण में फैल जाता है। इसकी चपेट में बहुत से किसान और गैर-किसान आ जाते हैं। इन कीटनाशकों एवं शाकनाशकों में मुख्यत: रोटिनोन, पैराक्वेट, मनेब, साइपरमेथ्रिन आदि का उपयोग किया जाता है। आधुनिक शोध से पता चला है कि इन रसायनों के अत्यधिक सेवन से काफी भयंकर रोगों का जन्म होता है। इन्हीं सबमें एक तंत्रिका तंत्र से संबंधित रोग है जिसका नाम पार्किन्सन रोग है। तंत्रिका तंत्र के इस लाइलाज बीमारी पार्किन्सन के उपचार में जंगलों अथवा खेतों के आस-पास पायी जाने वाली ‘केवाँच’ जिसे ‘कपिकच्छु’ कहते हैं, का उपयोग काफी कारगर साबित होता है।
पार्किन्सन रोग - पार्किन्सन रोग तंत्रिका तंत्र का रोग है और यह रोग औद्योगिक देश में पूरी आबादी का 30 प्रतिशत तक है। अधिकांशत: यह रोग 60 वर्ष की उम्र के बाद प्रारंभ होता है। इस रोग में मस्तिष्क की वे कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं जो ‘डोपामिन’ पैदा करती हैं। उन कोशिकाओं को डोपामिनार्जिक तंत्रिका कहते हैं। यह तंत्रिका मस्तिष्क के मध्य क्षेत्र में सबस्टेन्सीया नाइग्रा भाग में पायी जाती है। इस रोग में हाथ पैर में कम्पन होने लगता है, गतिशीलता कम हो जाती है। आंशिक लकवा हो जाता है और अत्यधिक कमजोरी आ जाती है। सबसे पहले इस बीमारी के बारे में एक अंग्रेज डॉक्टर जैम्स पार्किन्सन ने सन 1817 में विस्तार से वर्णन किया।
अत: इन्हीं के नाम पर इस बीमारी का नाम ‘पार्किन्सन रोग’ पड़ा। पार्किन्सन रोग मुख्यत: डोपामिन मस्तिष्क के सबस्टेन्सीया नाइग्रा क्षेत्र में कमी के कारण होती है। डोपामिन का स्राव एक विशेष प्रकार की तंत्रिका तंतु करती है। उम्र के साथ एवं अत्यधिक प्रदूषण की वजह से यह तंत्रिका तंतु नष्ट होने लगती है जिसकी वजह से डोपामिन का स्तर काफी गिर जाता है और इस रोग का लक्षण प्रकट होने लगता है।
इस डोपामिनार्जिक तंत्रिका तंतु के नष्ट होने का मुख्य कारण स्वतंत्र मूलक (फ्री रेडिकल्स) होते हैं। यह इन प्रदूषकों पैराक्वेट, मनेब आदि प्रदूषकों की वजह से उत्पन्न होते हैं। श्वसन के दौरान अंत:श्वसन में ऑक्सीजन को अंदर लेते हैं जिससे कोशिकाओं में आक्सीकरण होता है और ऊर्जा पैदा होती है। कोशिकाओं का क्षय होता है और नई परंतु पहले से कमजोर कोशिकाएं बनती रहती हैं। जितना ज्यादा स्वतंत्र मूलक बनेंगे उतना ही अधिक विकृति और विकार होंगे। 1- मिथाइल -4- फिनाइल 1, 2, 3, 6- टेट्रा हाइड्रोपाइरिडिन (एम. पी. टी. पी.), पैराक्वेट, साइपरमेथ्रिन, आदि कीटनाशक के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं।
यदि ये शरीर में अवशोषित होते हैं तो ब्लड ब्रेन बैरियर पार कर मस्तिष्क की मध्य क्षेत्र की कोशिकाओं तक पहुँच जाते हैं और वहाँ तक पहुँच कर माइट्रोकान्ड्रिया के इलेक्ट्रॉन ट्रांसपोर्ट शृंखला में कॉम्पलेक्स प्रथम से जुड़कर इसके इलेक्ट्रॉन को स्वतंत्र कर देते हैं जो कि अधिकाधिक मात्रा में निकलकर ऑक्सीजन के अुण (O2) का अपूर्ण आक्सीकरण से अतिक्रियाशील मूलकों की एक शृखंला का निर्माण होता है। इससे निर्मित स्वतंत्र मूलकों O2, H2O2, OH2- के अलावा जैव रासायनिक महत्त्व के कुछ अन्य स्वतंत्र मूलक भी पैदा होते हैं, जैसे सिगलेट ऑक्सीजन (O2) हाइड्रोपराक्सीमूलक (HOO--) अतिक्रियाशील होते हैं। प्राय: सभी प्रकार की जैव परमाणुओं जैसे प्रोटीन, लिपिड्स कार्बोहाइड्रेट, न्यूक्लिक अम्ल आदि को नष्ट कर देते हैं। इन स्वतंत्र मूलकों की क्रिया से भी नये स्वतंत्र मूलक बनते रहते हैं और यह स्वतंत्र मूलक डोपामिनार्जिक तंत्रिका तंत्र की कोशिकाओं को नष्ट कर देते हैं जिसकी वजह से डोपामिन का स्राव कम हो जाता है। वृद्धावस्था में अधिक ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस होता है, जिसकी वजह से स्वतंत्र मूलकों का जनम होता है और पार्किन्सन रोग का कारण बनते हैं जिसकी वजह से यह रोग वृद्धावस्था में अक्सर पाया जाता है।
पार्किन्सन रोग का बचाव- वर्तमान समय में आधुनिक दवा जो पार्किन्सन विरोधी के रूप में लायी जाती है। अधिकाधिक उपयोग और अधिक समय तक इन आधुनिक दवाओं के प्रयोग से दवा प्रेरित गतिशीलता में कमी बहुतायत मरीजों में पायी जाती है। उन्नत पार्किन्सन की अवस्था में डिस्किनेसिआर हो जाने पर इसका इलाज काफी खर्चीला एवं कठिन हो जाता है। इसलिए विभिन्न प्रकार की पद्धतियों का उपयोग भारत की चिकित्सा पद्धति में पायी जाती है। उनमें से भारत में एक सबसे प्रचलित चिकित्सीय पद्धति आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति है। इनमें विभिन्न प्रकार के औषधीय पौधों को प्रयोग में लाया जाता है। इसमें सबसे विशेष महत्त्वपूर्ण बात यह होती है कि इसमें पार्श्व प्रभाव की कोई संभावना नहीं रहती है। अत: इस पद्धति का उपयोग करना बहुत ही सुरक्षित एवं काफी किफायती पड़ता है। नये शोधों से पता चलता है कि विभिन्न प्रकार के औषधीय पौधे पार्किन्सन रोग में काफी महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कपिकच्छु, अश्वगंधा, ब्राह्मी आदि अनेक प्रकार के औषधीय पौधे पाये जाते हैं। यह औषधीय पौधे काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि पार्किन्सन रोग मुख्यत: अधिकाधिक मात्रा में स्वतंत्र मूलकों के कारण होते हैं। इन स्वतंत्र मूलकों का प्रभाव कम करने के लिये मुख्यत: प्रति-आक्सीकारक (anti-oxidant) प्रमुख भूमिका अदा करते हैं। ये स्वतंत्र मूलकों का प्रभाव कम कर देते हैं या पूरी तरह समाप्त कर देते हैं।
कपिकच्छु फैबेसी कुल का औषधीय पौधा है। आधुनिक शोधों से पता चला है की इसका बीज पार्किन्सन रोग ठीक करने में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इन पौधे के बीच में प्रचुर मात्रा में प्रति-आक्सीकारण पायी जाती है। नये शोधों से यह भी पता चला है कि इस बीज के अंदर अत्यधिक मात्रा में एल-डोपा पाया जाता है जो कि मस्तिष्क में पहुँचकर डोपामिन में बदल जाता है और पार्किन्सन रोग ठीक करता है। डोपामिन के संश्लेषण की प्रक्रिया को चित्र में दर्शाया गया है। केवल इसी पौधे में एल-डोपा की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है। एल-डोपा के साथ-साथ अन्य प्रकार के रसायन जैसे ट्राइटरपिंस तथा स्टीरोल (बीटा-सीटोस्टेराल, अर्सोलिक एसिड) इत्यादि पायी जाती है। इसके बीज में विभिन्न प्रकार के एमिनो एसिड, मिथियोनिन, टाइरोसिन, लाइसिन, ग्लाइसिन, एस्पार्टिक एसिड, ग्लूटोमिक एसिड, ल्यूसिन एवं सिरीन प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। इसमें विभिन्न प्रकार के फैटी एसिड और कार्बोहाइड्रेट प्रमुखता से मिलते हैं और स्वतंत्र मूलकों को कम करने में महत्त्वपूर्ण होते हैं। अनेक प्रकार के अन्य रसायन भी इस पौधे में पाये जाते हैं जिनके बारे में अभी भी अनुसंधान चल रहे हैं क्योंकि डोपामिन प्रदान करने के अलावा यह तंत्रिकातंत्र को नष्ट होने से बचाने में भी महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यह पौधा पार्किन्सन रोग ठीक करने में महत्त्वपूर्ण औषधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। चूँकि इसे अधिक दिन तक सेवन करने से मरीज को ब्रेडीकाइनेशिया भी नहीं होता है, अत: यह औषधि पूरी तरह सुरक्षित है और काफी कारगर दवा के रूप में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके इस गुण को देखते हुए इस पर आगे भी शोध करने की आवश्यकता है। कपिकच्छु से आगे और नई औषधियों को बनाने की प्रचुर संभावना है जिनके लंबे समय तक सेवन करने से मरीजों को दवा प्रेरित ब्रेडीकाइनेशिया होने की बिल्कुल संभावना नहीं होगी।
अत: समाज के लिये खासतौर से पार्किन्सन पीड़ित मरीजों के लिये यह औषधीय पौधा एक प्रकार से वरदान साबित हो सकता है। हमारे वैज्ञानिक समाज को भी इसकी तरफ ध्यान आकृष्ट करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही हमारे देश की जनता को भी ध्यान देने की जरूरत है ताकि हमारे वृद्ध वर्ग के लोग अपने जीवन को खुशहाल तरीके से जी सकें।
अंत में यह कहा जा सकता है पार्किन्सन रोग भगवान का दिया हुआ अभिशाप नहीं है बल्कि विभिन्न प्रकार के प्रदूषकों एवं आजकल के तनाव के कारण विभिन्न प्रकार का आक्सीडेटीव स्ट्रेस (Oxidative stress) हो जाता है। इसकी वजह से स्वतंत्र मूलकों का जन्म होता है, और ये स्वतंत्र मूलक मस्तिष्क में पहुँचकर हमारे तंत्रिका तंतु को नष्ट कर देते हैं और जिससे पार्किन्सन रोग होता है। कपिकच्छु के बीज में प्रति आक्सीकारक बहुतायत मात्रा में पायी जाती है। इसके बीज में पर्याप्त मात्रा में एल-डोपा भी पाया जाता है जिसकी वजह से इसका बीज पार्किन्सन रोग ठीक करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। अत: कपिकच्छु एक मूल्यवान औषधीय पौधा है जिससे आधुनिक दवा बनाकर समाज के कल्याण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
आज बहुत से संस्थानों में तंत्रिका तंत्र से संबंधित रोगों मुख्यत: पार्किन्सन रोग के बारे में और इसके उपचार हेतु गहनता से शोध-कार्य जारी है। ये शोध संस्थान जैसे- राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान संस्थान (एन. बी. आर. सी.), गुड़गाँव, भारतीय विष अनुसंधान संस्थान (इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ टाक्सीकोलॉजिकल रिसर्च), लखनऊ और राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान संस्थान (एन. बी. आर. आई.), मनेसर, इण्डिया आदि में शोध कार्य प्रगति पर है।