निर्मल जल के बारे में

Submitted by RuralWater on Mon, 07/04/2016 - 12:47
Source
कादम्बिनी, मई 2016

निर्मल जल प्रकृति का हमें दिया ऐसा उपहार है जिसकी हम लगातार उपेक्षा करते रहे हैं। एक तरफ जैसे-जैसे हमारी वैज्ञानिक चेतना का विकास हुआ है, पानी को लेकर हमारी संवेदनशीलता भी कम होती गई है। यही कारण है कि पिछली गलतियों का नतीजा हम आज भीषण जल-संकट के रूप में भुगत रहे हैं। पानी को और उसकी निर्मलता को बचाना है तो हमें फौरन प्राकृतिक जलस्रोतों की साज-सम्भार पर जोर देना होगा। प्राकृतिक तत्वों में जल का पर्याप्त महत्त्व है। पीने के अतिरिक्त खेती या औद्योगिक गतिविधियों के लिये भी इसकी पर्याप्त आवश्यकता पड़ती है। गौरतलब है कि प्राकृतिक जल चक्र अनियमित होने के कारण आजकल पानी की मात्रा लगातार कम होती चली जा रही है। भूजल में नमक का अंश बढ़ने से एक ओर पानी की गुणवत्ता और तापमान बढ़ जाने के कारण दूसरी ओर पानी की उपलब्धता प्रभावित हो रही है। जलवायु परिवर्तन का यही हाल रहा तो आने वाले समय में बहुत बुरी दशा हो जाएगी।

अभी हो क्या रहा है कि अनियंत्रित विकास की होड़ में मशगूल खास लोगों की लापरवाही की कीमत आम आदमी को चुकानी पड़ रही है। इन आम आदमियों में भी छोटे-छोटे गाँवों के उन किसानों की दशा ज्यादा खराब है, जो खेती के लिये वर्षा पर निर्भर हैं। अनावश्यक वर्षा अथवा समय पर वर्षा न होने से फसल पर बुरा असर पड़ता है। दरअसल आम कृषक मौसम के बदले हुए मिजाज की यह मार नहीं झेल पाते। यही कारण है कि कर्ज लेकर खेती करने वाले किसान आत्महत्या तक करने को मजबूर हो जाते हैं।

सच तो यह है कि बौद्धिक अहंकार के नशे में चूर मानव ने निरंकुश होकर अपनी वन सम्पदा, जल सम्पदा तथा कृषि योग्य भूमि को बुरी तरह तबाह किया है, जो अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने-जैसा है। बिजली उत्पादन के लिये पहाड़ों में सुरंगें बनाने व नदियों के प्राकृतिक बहाव को रोकने से न केवल वन और भूमि की हानि हो रही है, वरन जंगल और पानी पर निर्भर जीव-जन्तुओं का जीवन भी प्रभावित हो रहा है। अब हमें कुदरत के साथ उतनी ही छेड़छाड़ करनी चाहिए, जितनी बहुत ज्यादा जरूरी हो।

जिस तरह पुरानी पीढ़ियों की मनमानी का नतीजा नई पीढ़ी भुगतती है, ठीक उसी तरह बीसवीं शताब्दी की गलतियों का दुष्परिणाम इक्कीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी पीड़ा का कारण माना जा रहा है। विकासशील देशों की महत्वाकांक्षी योजनाएँ अविकसित देशों की मूलभूत आवश्यकताओं के लिये जूझती कोशिशों को नाकामयाब कर रही हैं। गरीब देशों के गरीब लोगों के लिये अभी भी कई जगहों पर पीने के पानी का अभाव है।

विगत समय में तापमान बढ़ने के परिणामस्वरूप निष्पन्न जलवायु परिवर्तन किसी एक देश को नहीं, बल्कि सम्पूर्ण वैश्विक पर्यावरण को अपनी चपेट में ले रहा है। एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार-1900 ई. से लेकर अभी तक पृथ्वी का तापमान 07 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और हर दशक में 02 डिग्री सेल्सियस की दर से यह बढ़ रहा है। यही हाल रहा तो ग्लेशियर पिघलेंगे, जिससे समुद्र का जलस्तर उठेगा, तो तटीय इलाका डूबेगा और समुद्र का खारापन भूजल को दूषित करेगा।

इस बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ पानी की समस्या का रूप विकराल होता चला गया है, क्योंकि विज्ञान ने अगर इरादतन हमें जीवन की अनेक सुख-सुविधाएँ मुहैया करवाई हैं, तो जाने-अनजाने एक अनचाही मौत के मुँह में भी धकेल दिया है। कैसी विडम्बना है कि एक ओर दवाइयाँ बनाने वाले प्रतिष्ठानों के कचरे से बढ़ते जल प्रदूषण के कारण तरह-तरह की जानलेवा बीमारियाँ पैदा हो रही हैं और दूसरी ओर चिकित्सा विज्ञान उन बीमारियों को रोकने के लिये नए-नए प्रयोग कर रहा है।

अब तो वह समय आ गया है कि जब वैज्ञानिक विकास को अपनी प्रगति के मार्ग पर एक बार रुकना होगा, अपने आसपास की चीजों को पहचानना होगा और पीछे मुड़कर यह भी देखना होगा कि मानव के सुख के लिये की जा रही उसकी महायात्रा से कितने मानव दुखी हो रहे हैं? अपनी खुली आँखों से यह मूल्यांकन करने के बाद विज्ञान को ही आगे बढ़कर उस पर्यावरण असन्तुलन को ललकारना होगा, जो उसके मूल एवं सात्विक लक्ष्य को कलंकित करने लगा है।

यद्यपि हमारे देश में सामान्य भूजल अन्वेषण के तहत कई जलवैज्ञानिक जलीय विशेषताओं के अध्ययन एवं तत्सम्बन्धित सम्भावनाओं के आकलन की दिशा में प्रयासरत हैं, ताकि मानवता दीर्घायु हो सके; तथापि इसके लिये वस्तुतः अलग-अलग देशों के नहीं, वरन अनेक देशों के समन्वित प्रयास की आवश्यकता है, क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति या समाज का मसला नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति के आगे मुँह बाए खड़ा अत्यन्त गम्भीर प्रश्न है।

जलवायु परिवर्तन की वजह से बारिश कम होने और आधुनिक जल वितरण व्यवस्था के विस्तार के कारण पारम्परिक जलस्रोतों की दीर्घकालिक उपेक्षा के परिणामस्वरूप आज जल के अभाव का जो संकट उपस्थित हुआ है; उसके चलते जगह-जगह आदमियों या मवेशियों के मरने, लोगों का अपने गाँवों से पलायन करने, जलस्रोतों की पहरेदारी करने, पानी के लिये लड़ मरने या पुलिसकर्मियों द्वारा पानी बाँटे जाने वाली आम खबरों के बीच लातूर तक पानी पहुँचाने वाली ट्रेन की खबर खास रही।

साल-दर-साल विकराल हो रहे जल संकट से निजात पाने के लिये अब ‘स्वच्छ भारत’ - यानी सफाई रखने की चाहत की तरह ‘निर्मल जल’ - यानी पानी बचाने की आदत भी देश की सार्वजनिक मुहिम बने। वर्षाजल का संचय करके न सिर्फ खेती के लिये, बल्कि और कामों के लिये भी प्रयोग हेतु प्रेरित किया जाये। जल की समस्या की गम्भीरता को समझने और उससे निबटने की दिशा में लोगों को जागरूक किया जाये।

हमारी पानी की आवश्यकता का अधिकांश भाग पूरा करने वाले भूजल का स्तर लगातार गिर रहा है। अतः राष्ट्रीय स्तर पर उसके अनुरक्षण के साथ-साथ उसे बढ़ाने वाली तरकीबों पर अमल अपेक्षित है। भूमि की शुष्कता के अनुरूप फसल लगाकर या खेती में ड्रिप सिंचाई करके भी भूजल स्तर को गिरने से बचाया जा सकता है। नहरों द्वारा खेती व हरियाली बढ़ाकर अगर बादलों को आकर्षित कर सके, तो सूखे इलाकों में भी बारिश के आसार नजर आ सकते हैं।

प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ने और वैश्विक तापमान बढ़ने से ऋतुओं के समय बदल रहे हैं। अचानक बादल फटने या बेतरतीब बरसात से बहुत सारा पानी बेमतलब बर्बाद हो रहा है। ऐसे में वनों का संरक्षण और संवर्धन भी आवश्यक है, क्योंकि वे वातावरण के कार्बन को आत्मसात करने के साथ-साथ शुद्ध ऑक्सीजन प्रदान करते हैं, जो मनुष्य के स्वस्थ जीवन का प्राकृतिक रहस्य है। इसके लिये हमें फिर प्राकृतिक जीवन की ओर पलटना होगा और धीरे-धीरे परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाते हुए अगले विकास की यात्रा तय करनी होगी।

(लेखक पानी के मुद्दे पर काम कर रहे हैं)