हजारों साल पहले की बात है। नर्मदा जी नदी बनकर जनमीं। सोनभद्र नद बनकर जनमा। दोनों के घर पास-पास ही थे। गाँव-बस्ती एक ही थी। दोनों अमर कंट की पहाड़ियों में घुटनों के बल चलते। अठखेलियाँ करते। पहाड़ों चट्टानों का सहारा लेते रेंगते हुए चलते। एक दूसरे को देख भारी खुश होते। चिढ़ते-चिढ़ाते। हंसते-रुठते। कहीं चट्टानों से टकराते। सिसकते और रोते। कहीं वनस्पतियों के सिर पर सवार हो गुजरते। मगन हो जाते। रूकने का नाम नहीं लेते। कहीं पहाड़ियों की ऊँचाई से नीचे खोह में गिरते। खाइयाँ बनकर अपनी छटा दिखलाते। बाघ, भालू, हिरण, बारहसिंघा, गाय, बैल, भैंस आदि आते। नहाते। डुबकी लगाते। पानी पीते। अंगड़ाइयाँ लेते। इधर-उधर निहारते। उछलते-कूदते। कुलांचे भरते। शारीरिक करतब दिखलाते। नर्मदा और सोनभद्र उन्हें देखते। हँसते-खिलखिलाते। शाबाशी देते। आगे बढ़ जाते।
दोनों का बचपना खतम हुआ। किशोरी और किशोर अवस्था में पहुँचे दोनों। अब और प्यार बढ़ा। आँखों-आँखों में बातें होने लगीं। अंग-प्रत्यंग में सुकुमारता छाई। गुफाओं, पहाड़ी खोहों में ऋषि-मुनि, महात्माओं ने डेरे डाले। चारों ओर यज्ञ, हवन, भजन, पूजन होने लगा। पूरे पर्वत में वातावरण सुगंधमय होने लगा। वेदों के पाठ गूँजने लगे। आश्रमों में पढ़ाई होने लगी। नर्मदा के तट पर अनेक आश्रम आबाद हो गये।
कुछ काल बाद नर्मदा किशोरी और सोनभद्र किशोर जवान हो गये। अंग-अंग में भराव आ गया। मादक माँसलता से देह में निखार आ गया। नर्मदा रूपसी बन गई। सोनभद्र, रूपवान बन गये। आँखें धनुषाकार हो गईं। हिरणी-सी लंबी बड़ी-बड़ी आंखों। मछलियों की तरह चमकती बड़ी-बड़ी नुकीली आंखें। नर्मदा की चितवन से घायल होने लगा सोनभद्र। सोनभद्र की बलिष्ठ गंठीली देह। भुजाओं में जैसे मछलियाँ बिराजती हों। दोनों प्रेमी-प्रेमिका मस्त होते। एक-दूसरे को देखते रहते अपलक। घंटों अघाते नहीं। तब उन दोनों ने कसमें खायी। जीवन भर एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ेंगे। एक दूसरे को धोखा नहीं देंगे। जल्दी विवाह रचायेंगे। सदा के लिए एक हो जायेंगे।
दोनों विवाह की खिचड़ी पकाते। खुशी-खुशी समय काट रहे थे। एक दिन अचानक रास्ते में सोनभद्र ने सामने जुहिला नामक एक नदी आ धमकी। वह भी नवयुवती। सोलहों श्रृंगार किये हुए। मदमाती कामुक कन्या। अपने हाव-भाव, अदाओं से सोनभद्र को मोह लिया उसने। जादू चल गया। बाल सखी नर्मदा की ओर आँखें मूंद ली सोनू ने। वह नई नवेली को टकटकी लगाकर देखने लगा। नर्मदा ने दो चार बार इशारे किये। बुलाया। टोका-टोकी की। पर बौराया सोनभद्र नही माना। नहीं माना। नहीं माना। जुहिला की तरफ झुकता ही गया वह। चेत तक नहीं किया।
नर्मदा को अब लगा। धोखेबाज से अलग हो जाना ठीक रहेगा। पता नहीं यह कामी, लम्पट भौंरा आगे कौन-सा क़दम उठा ले ? नर्मदा जी ने गाँठ बांध लिए। साथ नहीं चलेगी। उधर से मुँह फेरने लगी। सूरत तक नहीं देखेगी दगाबाज की। रखेल बन चुकी जुहिला उसे नागिन-सी लगी। उस जहरीली साँपिन से दूर होना ही ठीक रहेगा। और एक क्षण में पक्का इरादा कर लिया उन्होंने।
पूरब की ओर दौड़ती नर्मदा ने अब दिशा बदल दिया। पलटी और पश्चिम दिशा मे भागने लगी। सोनभद्र और जुहिया ने देखा। सोनभद्र दुखी हुआ। बचपन की संगवारी रूठकर जो जा रही थी। उसने पुकारा- “न............र............म....दा रूको, रू को। वापस लौटो। मुझे मत छोड़ो मैं, तुम्हारा हूँ। जुहिला ने पकड़ा सोनभद्र को। बाँह-पाश में जकड़ लिया उसे।” “मैं हूँ ना, फिकर क्यों करते हो ?” नर्मदा न तो पलटीं। न देखीं। न जवाब दीं। न रूकीं। बल्कि और तेजी से चलने लगीं। बेवफा को अँगूठा दिखा दीं। बंगाल सागर की यात्रा छोड़ीं। अरब सागर की ओर दौड़ीं। हमारे देश की सभी बड़ी नदियां बंगाल सागर में मिली हैं। गुस्से के कारण नर्मदा ही हैं जो अरब सागर में गई हैं । “जय” हजारों लोगों ने हाथ जोड़कर कहा।
अब नर्मदा जी ने क्वांरी रहने का परन (प्रण) कर लिया। युवावस्था में ही सन्यासिनी बन गई। रास्ते में घनघोर पहाड़ियाँ आईं। हरे-भरे जंगल आये। वे रास्ता बनाती गईं। कल-कल छल-छल का शोर करती बढ़ती गईं मंडला के आदिमजनों के इलाके में पहुँचीं। धुँआधार (जबलपुर) में उनका सबसे सुन्दर रूप उजागर हुआ। भारी ऊँचे पर्वतीय चट्टानों से गहरे गढढे में गिरीं। वहाँ नर्मदी-जल की छटा को निहारते मन नहीं भरता। विशाल झरने का जल प्रवाह। छोटे-छोटे जल कण धुँए का दृश्य उपस्थित करते हैं। जल-धार धुँआ जैसा दिखता है।
फिर आगे आता है भेड़घाट। दुनिया की रंग-बिरंगी संगमरमरी चट्टानों का प्राकृतिक राजमहल। संगमरमरी को तो रंगीनी से दूर रहना है। सो वे आगे बढ़ती हैं। मैदानी इलाके में जा पहुँचती हैं। जबलपुर से होशंगाबाद होते हुए ओंकारेश्वर में विलमने लगती हैं। कई अन्य नगरों, गाँवों से होते हुए अरब सागर में जाकर अपने आपको विलीन कर देती हैं। उनका जल चौबीसों घंटे अमरकंटक से अरब सागर तर सतत् पहुँचते रहता है।
“क्वांरी नर्मदा ही एक नदी हैं।” होरिल महाराज ने कहा- “जिनकी परिक्रमा की जाती है। अमरकंटक से लेकर नदी के एक ओर से सागर तक। फिर सागर से नदी के दूसरी ओर से अमरकंटक तक। परिक्रमा करने वालों को महीनों लग जाते हैं। नदी के तट के रहने वाले लोग परिक्रमा करने वालों की सेवा करते हैं। निवास, भोजन, दवा पानी की व्यवस्था करते हैं।
कलयुग में नर्मदा मइया को मोक्षदायिनी कहा गया है। इनका जल भी गंगाजल की तरह पतीत-पावनी है। ओंकारेश्वर और बाद के गाँवों के घाटों में शिव मिलते हैं। स्नान करने के बाद डुबकी लगाने वालों को छोटे-बड़े शिव लिंग हाथ लगते हैं। नदीं में मृतकों की अस्थियाँ भी विसर्जित की जाती हैं। श्राद्ध-कर्म व पिंड-दान भी होते हैं। साधू श्री होरिल महराज ने आखिरी में कहा। “बोलिये भगवान शंकर की”। “जय” समवेत स्वर गूँजा। उनकी बिटिया नर्मदा महरानी की- “जय” पूनः गूँजा और श्रद्धालुजन रास्ते भर क्वांरी नर्मदा के प्रति सहृदयता और सोनभद्र, जुहिला के प्रति नाराज़गी जाहिर करते घर लौटे।
डॉ. विमल कुमार पाठक
खर्सीपार, जोन-1,मार्केट,
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