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नर्मदा के पानी का अधिक-से-अधिक दोहन करने के लिये न केवल मध्य प्रदेश बल्कि गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे प्रदेशों की भी नजर हैं। ऐसे में बिजली उत्पादन के लिये बड़ी–बड़ी परियोजनाएँ भी नर्मदा में स्थापित की गई हैं लेकिन इन सभी का दारोमदार पर्याप्त पानी पर ही निर्भर है। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के चलते आबादी का बढ़ता भार नदी के पानी की खपत में भी बढ़ोत्तरी करेगा। लगातार और दीर्घकालीन दोहन से नर्मदा एक समय बाद सूखने लगेगी। देवास के उद्योगों की प्यास 90 करोड़ खर्च करने के बाद 128 किमी दूर नर्मदा से पानी लाये जाने के बाद भी नहीं बुझ पा रही है। यहाँ के उद्योगों ने अब मध्य प्रदेश सरकार से गुहार कर नवनिर्मित नर्मदा–क्षिप्रा लिंक से भी 30 एमएलडी पानी माँगा है। सरकार ने इसे कैबिनेट में इसका प्रस्ताव भी तैयार करके भेजा है।
यदि लिंक योजना से भी उद्योगों को पानी दिया जाता है तो इलाके के लोग इसका विरोध कर सकते हैं। नर्मदा–क्षिप्रा लिंक योजना दरअसल पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिये बनाई गई है। उद्योगों को पानी देने से पीने के पानी की किल्लत बढ़ सकती है। उधर नर्मदा के पानी के अत्यधिक दोहन को लेकर भी सवाल उठाए जाने लगे हैं।
आज से करीब 14 साल पहले देवास के उद्योगों को पानी मुहैया कराने के लिये सन 2002 में मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने राज्य में पहली बार पानी के निजीकरण की बीओटी आधारित नेमावर जलापूर्ति योजना बनाई गई। बीओटी का आशय है बनाओ, चलाओ और मुनाफ़ा कमाने के बाद सरकार को वापस कर दो।
शुरुआत में यह योजना 65 करोड़ की आँकी गई थी लेकिन बढ़ते–बढ़ते बाद में इस पर करीब 90 करोड़ की लागत आई थी। इसे मूर्त रूप देने में कम्पनी को 6 साल का लम्बा वक्त लगा। फिलहाल कम्पनी का अनुबन्ध 30 सालों के लिये है।
सन 2008 में आखिरकार 128 किमी दूर नेमावर स्थित नर्मदा नदी से पाइपलाइन के जरिए देवास पानी लाया गया। इससे उद्योगों की प्यास कुछ हद तक बुझी भी लेकिन पानी की कमी अभी भी बनी रही। इस बीओटी योजना से फिलहाल महंगा ही सही पर उद्योगों को पानी मिल भी रहा है। लेकिन इस पानी के ही सहारे उद्योगों का काम नहीं चल पा रहा है।
देवास उद्योग संगठन के पदाधिकारी बताते हैं कि उनको वास्तविक जरूरत 12 एमएलडी पानी की है लेकिन फिलहाल उन्हें सिर्फ 2.40 एमएलडी पानी ही मिल पा रहा है। इतनी दूर से पानी आने के कारण यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते बहुत महंगा हो जाता है। लिहाजा उद्योगों को ऊँचे दाम पर इसे खरीदना पड़ता है।
वहीं गर्मी के दिनों में देवास और रास्ते के कुछ कस्बों-गाँवों में भी इस पानी का कुछ हिस्सा पेयजल के रूप में देना पड़ता है। इससे उद्योग प्यासे ही रह जाते हैं। कई बार पाइपलाइन में लीकेज और मरम्मत के कारण भी पानी से वंचित रह जाना पड़ता है। इसका असर उनके उत्पादन पर पड़ता है। पानी की अनियमितता से उत्पादन प्रक्रिया प्रभावित होती है और उत्पाद की लागत भी बढ़ जाती है।
देवास का औद्योगिक क्षेत्र मध्य प्रदेश में सबसे पुराना और बड़ा औद्योगिक क्षेत्र माना जाता रहा है लेकिन इलाके में पानी की लगातार कमी के चलते यहाँ से कई उद्योग समूहों ने अपनी इकाईयाँ बन्द कर ली हैं। बताते हैं कि आज़ादी से पहले 1942 में यहाँ पहली फ़ैक्टरी स्टेंडर्ड मिल के नाम से डली थी।
बाद में 1970 के दशक में प्रदेश सरकार ने इसके औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार किया और बड़ी तादाद में यहाँ उद्योग लगाए गए। अनायास यहाँ की आबादी बढ़ गई और यह क़स्बा शहर में बदल गया।
तब यहाँ पानी, बिजली और सड़क जैसी सुविधाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थीं। लेकिन बाद के दिनों में तेजी से बढ़ती आबादी और उद्योगों के लिये पानी की कमी होने लगी। दिन-ब-दिन नलकूप खोदे गए और भूजल स्तर धीरे–धीरे कम होता चला गया।
नलकूप असफल होने लगे तो टैंकर माफ़िया खड़ा हो गया। 5-6 हजार लीटर के टैंकर के लिये 250 से 350 रुपए तक वसूल किये जाने लगे। गर्मी के दिनों में पानी की किल्लत होती तो ये भाव और भी बढ़ जाते। लेकिन उद्योगों को चलाने के लिये तो पानी जरूरी ही था।
उद्योगों ने पानी खरीदकर भी उद्योगों को ज़िन्दा रखा लेकिन कई उद्योगों का ऐसी स्थिति में गुजर–बसर ही महंगा पड़ने लगा तो उन्होंने कुछ इकाइयाँ बन्द कर दी या काम बन्द कर दिया। इन्हीं स्थितियों के मद्देनज़र नेमावर बीओटी योजना को सरकार को मंजूरी देना पड़ी।
जिला उद्योग केन्द्र के आँकड़े बताते हैं कि अब इस क्षेत्र में करीब साढ़े चार सौ से ज्यादा फैक्टरियाँ हैं, जिनसे हर साल करीब 30 हजार करोड़ का उत्पादन होता है और पाँच हजार करोड़ का उत्पादन तो विदेशों में ही निर्यात किया जाता है।
यहाँ की कम्पनियों से अमेरिका, जापान, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, ईरान और मलेशिया सहित कई देशों से आयात-निर्यात किया जाता है। यहाँ कई महत्त्वपूर्ण औद्योगिक इकाइयाँ भी हैं जैसे टाटा, कपारो, जॉन डियर, एस कुमार्स, विप्पी साल्वेक्स, रेनबैक्सी, जानसन, आयशर आदि।
देवास की विधायक गायत्री राजे पवार कहती हैं कि हम देवास के उद्योगों की बेहतरी चाहते हैं। उद्योगों को 30 एमएलडी पानी दिये जाने का प्रस्ताव कैबिनेट में भेजा है। मेरी कोशिश होगी कि इसे जल्दी ही मंजूर कराया जाये। आने वाले दिनों में पानी की किल्लत नहीं होने दी जाएगी।
एसोसिएशन ऑफ़ इंडस्ट्रीज के पदाधिकारी बताते हैं कि इन उद्योगों के लिये पानी, सड़क जैसी आधारभूत सुविधाओं का शुरुआत से ही अभाव बना हुआ है।
एक तरफ मध्य प्रदेश की राज्य सरकार अपने प्रदेश में नए उद्योगों को निवेश के लिये बुलाने के तमाम जतन कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ पुरानी इकाइयों को पानी, बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिये भी जूझना पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि नेमावर योजना से फिलहाल जो पानी मिल रहा है वह पर्याप्त नहीं है और उद्योगों को बहुत ऊँचे दामों पर खरीदना पड़ रहा है।
इसलिये हमने प्रदेश सरकार से पानी देने का आग्रह किया है। इसके लिये सरकार ने नर्मदा–क्षिप्रा लिंक योजना से भी करीब 75 करोड़ की लागत से 30 एमएलडी पानी देने का प्रस्ताव कैबिनेट में भेजा है। हमें भरोसा है कि सरकार सिंहस्थ के बाद इस पर सिद्धान्तत: स्वीकृति कर देगी तो देवास के उद्योगों को गति मिल सकेगी।
एसोसिएशन ऑफ़ इंडस्ट्रीज, देवास के अध्यक्ष अशोक खंडोलिया कहते हैं कि प्रदेश सरकार की ज्यादातर नीतियाँ और फोकस नए उद्योगों के निवेश पर है।
पुराने स्थापित उद्योगों को सुविधाएँ, यहाँ तक कि बुनियादी सुविधाएँ ही नहीं मिल पा रही है। मन्दी के दौर में भी देवास के उद्योग पूरी क्षमता से उत्पादन कर रहे हैं। हमें सरकार से सकारात्मक पहल की उम्मीद है। पानी के लिये प्रस्ताव जल्दी ही मंजूर होगा।
उधर नर्मदा क्षेत्र में पर्यावरण के मुद्दे पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद इसे लेकर खासे चिन्तित हैं। उनका मानना है कि नर्मदा नदी का इन दिनों अत्यधिक दोहन किया जा रहा है, जो कहीं से भी उचित नहीं है। फिलहाल राज्य सरकार नर्मदा से इन्दौर, जबलपुर जैसे 18 बड़े शहरों को पहले से पानी दे रही है।
अब नई योजनाओं के अनुसार भोपाल, बैतूल, खंडवा जैसे 35 और शहरों को भी इसका पानी दिये जाने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। बिजली उत्पादन के लिये पहले ही बड़े–बड़े बाँध बनाए गए हैं। उन्होंने चिन्ता जताई है कि ऐसी स्थितियों में नर्मदा नदी के पानी का कितना उपयोग हो सकेगा और इसका विपरीत प्रभाव कहीं नदी की सेहत पर तो नहीं पड़ेगा।
अत्यधिक दोहन से सदानीरा नर्मदा कहीं सूखने तो नहीं लगेगी। नर्मदा के पर्यावरण पर भी इसका विपरीत असर पड़ सकता है और इससे बड़े भौगोलिक बदलाव भी हो सकते हैं।
मन्थन अध्ययन केन्द्र, बड़वानी के रहमत भाई बताते हैं कि नर्मदा के पानी का अत्यधिक दोहन नदी के सूखने या उसके खत्म होने का सबब भी बन सकता है। इसमें सावधानी बरतने की जरूरत है। हर जगह नर्मदा जल के इस्तेमाल से बचना होगा।
नर्मदा के पानी का अधिक-से-अधिक दोहन करने के लिये न केवल मध्य प्रदेश बल्कि गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे प्रदेशों की भी नजर हैं। ऐसे में बिजली उत्पादन के लिये बड़ी–बड़ी परियोजनाएँ भी नर्मदा में स्थापित की गई हैं लेकिन इन सभी का दारोमदार पर्याप्त पानी पर ही निर्भर है।
औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के चलते आबादी का बढ़ता भार नदी के पानी की खपत में भी बढ़ोत्तरी करेगा। लगातार और दीर्घकालीन दोहन से नर्मदा एक समय बाद सूखने लगेगी।
इस पर अभी से ध्यान देना जरूरी है और जहाँ तक सम्भव हो नर्मदा नदी के साथ–साथ पानी के अन्य सम्भव स्रोतों पर भी शिद्दत से ध्यान देने तथा पारम्परिक तरीकों और स्रोतों को फोकस कर बरसाती पानी के संग्रहित करने और सहेजने पर भी जोर दिया जाना जरूरी होता जा रहा है।
यदि लिंक योजना से भी उद्योगों को पानी दिया जाता है तो इलाके के लोग इसका विरोध कर सकते हैं। नर्मदा–क्षिप्रा लिंक योजना दरअसल पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिये बनाई गई है। उद्योगों को पानी देने से पीने के पानी की किल्लत बढ़ सकती है। उधर नर्मदा के पानी के अत्यधिक दोहन को लेकर भी सवाल उठाए जाने लगे हैं।
आज से करीब 14 साल पहले देवास के उद्योगों को पानी मुहैया कराने के लिये सन 2002 में मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने राज्य में पहली बार पानी के निजीकरण की बीओटी आधारित नेमावर जलापूर्ति योजना बनाई गई। बीओटी का आशय है बनाओ, चलाओ और मुनाफ़ा कमाने के बाद सरकार को वापस कर दो।
शुरुआत में यह योजना 65 करोड़ की आँकी गई थी लेकिन बढ़ते–बढ़ते बाद में इस पर करीब 90 करोड़ की लागत आई थी। इसे मूर्त रूप देने में कम्पनी को 6 साल का लम्बा वक्त लगा। फिलहाल कम्पनी का अनुबन्ध 30 सालों के लिये है।
सन 2008 में आखिरकार 128 किमी दूर नेमावर स्थित नर्मदा नदी से पाइपलाइन के जरिए देवास पानी लाया गया। इससे उद्योगों की प्यास कुछ हद तक बुझी भी लेकिन पानी की कमी अभी भी बनी रही। इस बीओटी योजना से फिलहाल महंगा ही सही पर उद्योगों को पानी मिल भी रहा है। लेकिन इस पानी के ही सहारे उद्योगों का काम नहीं चल पा रहा है।
देवास उद्योग संगठन के पदाधिकारी बताते हैं कि उनको वास्तविक जरूरत 12 एमएलडी पानी की है लेकिन फिलहाल उन्हें सिर्फ 2.40 एमएलडी पानी ही मिल पा रहा है। इतनी दूर से पानी आने के कारण यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते बहुत महंगा हो जाता है। लिहाजा उद्योगों को ऊँचे दाम पर इसे खरीदना पड़ता है।
वहीं गर्मी के दिनों में देवास और रास्ते के कुछ कस्बों-गाँवों में भी इस पानी का कुछ हिस्सा पेयजल के रूप में देना पड़ता है। इससे उद्योग प्यासे ही रह जाते हैं। कई बार पाइपलाइन में लीकेज और मरम्मत के कारण भी पानी से वंचित रह जाना पड़ता है। इसका असर उनके उत्पादन पर पड़ता है। पानी की अनियमितता से उत्पादन प्रक्रिया प्रभावित होती है और उत्पाद की लागत भी बढ़ जाती है।
देवास का औद्योगिक क्षेत्र मध्य प्रदेश में सबसे पुराना और बड़ा औद्योगिक क्षेत्र माना जाता रहा है लेकिन इलाके में पानी की लगातार कमी के चलते यहाँ से कई उद्योग समूहों ने अपनी इकाईयाँ बन्द कर ली हैं। बताते हैं कि आज़ादी से पहले 1942 में यहाँ पहली फ़ैक्टरी स्टेंडर्ड मिल के नाम से डली थी।
बाद में 1970 के दशक में प्रदेश सरकार ने इसके औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार किया और बड़ी तादाद में यहाँ उद्योग लगाए गए। अनायास यहाँ की आबादी बढ़ गई और यह क़स्बा शहर में बदल गया।
तब यहाँ पानी, बिजली और सड़क जैसी सुविधाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थीं। लेकिन बाद के दिनों में तेजी से बढ़ती आबादी और उद्योगों के लिये पानी की कमी होने लगी। दिन-ब-दिन नलकूप खोदे गए और भूजल स्तर धीरे–धीरे कम होता चला गया।
नलकूप असफल होने लगे तो टैंकर माफ़िया खड़ा हो गया। 5-6 हजार लीटर के टैंकर के लिये 250 से 350 रुपए तक वसूल किये जाने लगे। गर्मी के दिनों में पानी की किल्लत होती तो ये भाव और भी बढ़ जाते। लेकिन उद्योगों को चलाने के लिये तो पानी जरूरी ही था।
उद्योगों ने पानी खरीदकर भी उद्योगों को ज़िन्दा रखा लेकिन कई उद्योगों का ऐसी स्थिति में गुजर–बसर ही महंगा पड़ने लगा तो उन्होंने कुछ इकाइयाँ बन्द कर दी या काम बन्द कर दिया। इन्हीं स्थितियों के मद्देनज़र नेमावर बीओटी योजना को सरकार को मंजूरी देना पड़ी।
जिला उद्योग केन्द्र के आँकड़े बताते हैं कि अब इस क्षेत्र में करीब साढ़े चार सौ से ज्यादा फैक्टरियाँ हैं, जिनसे हर साल करीब 30 हजार करोड़ का उत्पादन होता है और पाँच हजार करोड़ का उत्पादन तो विदेशों में ही निर्यात किया जाता है।
यहाँ की कम्पनियों से अमेरिका, जापान, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, ईरान और मलेशिया सहित कई देशों से आयात-निर्यात किया जाता है। यहाँ कई महत्त्वपूर्ण औद्योगिक इकाइयाँ भी हैं जैसे टाटा, कपारो, जॉन डियर, एस कुमार्स, विप्पी साल्वेक्स, रेनबैक्सी, जानसन, आयशर आदि।
देवास की विधायक गायत्री राजे पवार कहती हैं कि हम देवास के उद्योगों की बेहतरी चाहते हैं। उद्योगों को 30 एमएलडी पानी दिये जाने का प्रस्ताव कैबिनेट में भेजा है। मेरी कोशिश होगी कि इसे जल्दी ही मंजूर कराया जाये। आने वाले दिनों में पानी की किल्लत नहीं होने दी जाएगी।
एसोसिएशन ऑफ़ इंडस्ट्रीज के पदाधिकारी बताते हैं कि इन उद्योगों के लिये पानी, सड़क जैसी आधारभूत सुविधाओं का शुरुआत से ही अभाव बना हुआ है।
एक तरफ मध्य प्रदेश की राज्य सरकार अपने प्रदेश में नए उद्योगों को निवेश के लिये बुलाने के तमाम जतन कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ पुरानी इकाइयों को पानी, बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिये भी जूझना पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि नेमावर योजना से फिलहाल जो पानी मिल रहा है वह पर्याप्त नहीं है और उद्योगों को बहुत ऊँचे दामों पर खरीदना पड़ रहा है।
इसलिये हमने प्रदेश सरकार से पानी देने का आग्रह किया है। इसके लिये सरकार ने नर्मदा–क्षिप्रा लिंक योजना से भी करीब 75 करोड़ की लागत से 30 एमएलडी पानी देने का प्रस्ताव कैबिनेट में भेजा है। हमें भरोसा है कि सरकार सिंहस्थ के बाद इस पर सिद्धान्तत: स्वीकृति कर देगी तो देवास के उद्योगों को गति मिल सकेगी।
एसोसिएशन ऑफ़ इंडस्ट्रीज, देवास के अध्यक्ष अशोक खंडोलिया कहते हैं कि प्रदेश सरकार की ज्यादातर नीतियाँ और फोकस नए उद्योगों के निवेश पर है।
पुराने स्थापित उद्योगों को सुविधाएँ, यहाँ तक कि बुनियादी सुविधाएँ ही नहीं मिल पा रही है। मन्दी के दौर में भी देवास के उद्योग पूरी क्षमता से उत्पादन कर रहे हैं। हमें सरकार से सकारात्मक पहल की उम्मीद है। पानी के लिये प्रस्ताव जल्दी ही मंजूर होगा।
उधर नर्मदा क्षेत्र में पर्यावरण के मुद्दे पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद इसे लेकर खासे चिन्तित हैं। उनका मानना है कि नर्मदा नदी का इन दिनों अत्यधिक दोहन किया जा रहा है, जो कहीं से भी उचित नहीं है। फिलहाल राज्य सरकार नर्मदा से इन्दौर, जबलपुर जैसे 18 बड़े शहरों को पहले से पानी दे रही है।
अब नई योजनाओं के अनुसार भोपाल, बैतूल, खंडवा जैसे 35 और शहरों को भी इसका पानी दिये जाने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। बिजली उत्पादन के लिये पहले ही बड़े–बड़े बाँध बनाए गए हैं। उन्होंने चिन्ता जताई है कि ऐसी स्थितियों में नर्मदा नदी के पानी का कितना उपयोग हो सकेगा और इसका विपरीत प्रभाव कहीं नदी की सेहत पर तो नहीं पड़ेगा।
अत्यधिक दोहन से सदानीरा नर्मदा कहीं सूखने तो नहीं लगेगी। नर्मदा के पर्यावरण पर भी इसका विपरीत असर पड़ सकता है और इससे बड़े भौगोलिक बदलाव भी हो सकते हैं।
मन्थन अध्ययन केन्द्र, बड़वानी के रहमत भाई बताते हैं कि नर्मदा के पानी का अत्यधिक दोहन नदी के सूखने या उसके खत्म होने का सबब भी बन सकता है। इसमें सावधानी बरतने की जरूरत है। हर जगह नर्मदा जल के इस्तेमाल से बचना होगा।
नर्मदा के पानी का अधिक-से-अधिक दोहन करने के लिये न केवल मध्य प्रदेश बल्कि गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे प्रदेशों की भी नजर हैं। ऐसे में बिजली उत्पादन के लिये बड़ी–बड़ी परियोजनाएँ भी नर्मदा में स्थापित की गई हैं लेकिन इन सभी का दारोमदार पर्याप्त पानी पर ही निर्भर है।
औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के चलते आबादी का बढ़ता भार नदी के पानी की खपत में भी बढ़ोत्तरी करेगा। लगातार और दीर्घकालीन दोहन से नर्मदा एक समय बाद सूखने लगेगी।
इस पर अभी से ध्यान देना जरूरी है और जहाँ तक सम्भव हो नर्मदा नदी के साथ–साथ पानी के अन्य सम्भव स्रोतों पर भी शिद्दत से ध्यान देने तथा पारम्परिक तरीकों और स्रोतों को फोकस कर बरसाती पानी के संग्रहित करने और सहेजने पर भी जोर दिया जाना जरूरी होता जा रहा है।