राजनीतिक दल युवाओं का वोट लेने के लिए तो लालायित रहते हैं, लेकिन उन्हें इस बात की फिक्र नहीं है कि उत्तर प्रदेश की जवानी असमय ही दम तोड़ रही है। हक़ीक़त यही है कि इस ओर किसी भी दल की सरकार ने ध्यान नहीं दिया। काग़ज़ी सर्वे ज़रूर होते हैं, लेकिन असमय बूढ़ी होती प्रदेश की जनता को बचाने के ठोस इंतजाम धरातल पर दिखाई नहीं देते हैं। राजनीतिक दलों की इस उपेक्षा के चलते आने वाले विधानसभा चुनावों में अगर पानी मुद्दा बन जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। खासतौर पर उत्तर प्रदेश में गंगा किनारे के ज़िलों में यह एक बड़ा मुद्दा बन सकता है। गंगा नदी के किनारे बसे शहरों का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। बड़े-बुजुर्ग भी कह गए हैं कि गंगा तेरा पानी अमृत लेकिन आने वाली पीढ़ी शायद ही इसे सच मान सके। वजह गंगा के किनारे बसे शहरों की एक बड़ी आबादी तेजी से बूढ़ी हो रही है। जिस पानी को वह जीवनदायक समझ कर पी रही है, वह उसे समय से पहले ही बूढ़ा बना रहा है। कैंसर, मधुमेह, लिवर की घातक बीमारियां उसे मौत की ओर ले जा रही हैं। यह सब गंगाजल में आर्सेनिक का ज़हर घुलने से हो रहा है। गंगा के आस-पास बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिक कचरे और अन्य तमाम प्रदूषणकारी तत्वों ने गंगा जल का अमृत्व छीन लिया है।
चिकित्सकों की मानें तो आर्सेनिक युक्त पानी लंबे समय तक पीने से कई भयंकर बीमारियां शरीर को दबोच लेती हैं। त्वचा का कैंसर हो सकता है। किडनी फेल हो सकती है। आर्सेनिक के प्रभाव से गॉल ब्लैडर का कैंसर भी हो सकता है। समय से पहले वृद्धावस्था के लक्षण नज़र आने लगते हैं। चिकित्सक इम्यून सिस्टम प्रभावित होने से मस्तिष्क कैंसर की आशंका से भी इनकार नहीं करते हैं।
आर्सेनिक के विष से अकेले उत्तर प्रदेश की जनता ही जानलेवा बीमारियों का शिकार नहीं रही है बल्कि बिहार और पश्चिम बंगाल में इसका कहर और अधिक है। चिकित्सकों की मानें तो आर्सेनिक युक्त पानी लंबे समय तक पीने से कई भयंकर बीमारियां शरीर को दबोच लेती हैं। त्वचा का कैंसर हो सकता है। किडनी फेल हो सकती है। आर्सेनिक के प्रभाव से गॉल ब्लैडर का कैंसर भी हो सकता है। समय से पहले वृद्धावस्था के लक्षण नज़र आने लगते हैं। चिकित्सक इम्यून सिस्टम प्रभावित होने से मस्तिष्क कैंसर की आशंका से भी इनकार नहीं करते हैं। उत्तर प्रदेश में आर्सेनिक के खतरे का खुलासा यूनिसेफ की मदद से राज्य सरकार की ओर से कराए गए सर्वे में हुआ। इस सर्वे में पता लगा कि उत्तर प्रदेश के बीस ज़िले ऐसे हैं जहां का भूमिगत जल आर्सेनिक युक्त है। वहीं 31 ज़िले ऐसे हैं जहां यह खतरा मंडरा रहा है। इन ज़िलों का पानी भी आर्सेनिक युक्त होने की आशंका है। यूनिसेफ ने यह सर्वे उत्तर प्रदेश के 20 ज़िलों के 322 विकासखंडों में कराया। सर्वे में मालूम चला कि इन ज़िलों के भूमिगत जल में आर्सेनिक की मान्य मात्रा 0।05 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से कहीं अधिक है।
आर्सेनिक से सर्वाधिक प्रभावित ज़िलों में बलिया और लखीमपुर पाए गए हैं। चंदौली, गोरखपुर, गाजीपुर, सिद्धार्थनगर, बस्ती, बहराइच, उन्नाव, बलरामपुर, मुरादाबाद, संतकबीरनगर, बलरामपुर, बरेली में आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से कहीं अधिक मिली। जबकि संत रविदास नगर, मिर्जापुर, गोंडा, रायबरेली, बिजनौर, सहारनपुर, मेरठ आंशिक तौर से प्रभावित पाए गए। हिंदू महासभा के विधान सभा सदस्य राधा मोहन अग्रवाल यह मामला विधानसभा में भी उठा चुके हैं। इसके जवाब में उत्तर प्रदेश के ग्रामीण विकास मंत्री दद्दू प्रसाद ने सरकार की ओर से किए जाने वाले एहतियाती उपायों की जानकारी भी दी। उनके मुताबिक़ जिन ज़िलों में आर्सेनिक का खतरा पाया गया है, वहां के हैंडपंपों पर लाल रंग से क्रॉस का चिन्ह बनाया गया है, ताकि लोग उसके पानी का इस्तेमाल न करें। बलिया में बोर्ड लगाकर जानकारी दी जा रही है कि इस हैंडपंप का पानी न पीएं। सर्वे रिपोर्ट आने के बाद सरकार अपने स्तर से भले ही यह प्रयास कर रही है, लेकिन पानी की ज़रूरत आम आदमी को आर्सेनिक का ज़हर पीने से रोक नहीं पा रही है। रोटी, कपड़ा और मकान की तरह पेयजल आम आदमी की रोजमर्रा की सबसे अहम ज़रूरत है। ऐसे में जबकि प्रदेश भर में भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है, पानी का संकट होना लाज़िमी है। पीने के सा़फ पानी का कोई विकल्प नहीं होने से आर्सेनिक युक्तपानी इस्तेमाल करने की मजबूरी है।
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय की मानें तो आर्सेनिक का कहर कानपुर से शुरू हो जाता है। उत्तर प्रदेश में कानपुर से बनारस और फिर बिहार में पटना, भोजपुर, आरा, मुंगेर के बाद पश्चिमी बंगाल के कई ज़िलों में यह अपना कहर बरपाता है। मंत्रालय के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश और बिहार में आर्सेनिक की भयावहता पश्चिम बंगाल की तुलना में का़फी कम है। पश्चिम बंगाल में क़रीब 70 लाख लोग आर्सेनिक जनित बीमारियों की चपेट में हैं। यह आंकड़ा दर्शाता है कि अगर समय रहते उत्तर प्रदेश में आर्सेनिक की रोकथाम के प्रभावी उपाय नहीं किए गए तो उत्तर प्रदेश की अधिकांश आबादी असमय ही बूढ़ी होकर तमाम जानलेवा बीमारियों का शिकार होगी।
कोलकात्ता के वैज्ञानिकों ने वर्ष 2003 से 2006 के बीच पूर्वांचल में एक दर्जन गांवों के पानी की जांच की थी। जांच के नमूनों में आर्सेनिक की मात्रा तीन सौ माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक पाई गई थी। इस टीम ने गांव वालों के स्वास्थ्य की जांच की तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। जांच टीम ने अधिकांश ग्रामीणों की मांसपेशियों में आवश्यकता से अधिक सूजन पाई। उंगुलियों में टेढ़ापन, हाथ-पैर में थक्के बनना, फफोले व दाग़ पड़ने संबंधी तमाम बीमारियों से ग्रामीण त्रस्त पाए गए। आर्सेनिक के ज़हर वाला पानी पीकर कई लोग असमय ही मौत का शिकार भी हो चुके हैं, लेकिन जागरूकता न होने के कारण लोग असमय होने वाली इन मौतों का असली कारण समझ नहीं पाते हैं। आर्सेनिक के ज़हर से बचाव के लिए केंद्र सरकार ने भी राज्य को अपना सहयोग देने की बात तो कही है, लेकिन इसमें भी राजनीति आड़े आने से खामियाजा आम जनमानस भुगत रही है। आर्सेनिक की बहुलता वाले ज़िलों में ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की बात कही गई, इस पर अमल होना बाक़ी है। वहीं आर्सेनिक का ज़हर चावल में भी पहुंच चुका है।
वैज्ञानिक एवं औद्योगिक विकास परिषद (सीएसआईआर) के एक शोध में जानकारी दी गई है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के हिस्सों के जल में आर्सेनिक की मात्रा अधिक होने से वहां पैदा होने वाले धान (चावल) में भी आर्सेनिक पहुंच रहा है। सीएसआईआर के शोध का यह खुलासा का़फी चिंताजनक है। राष्ट्रीय वनस्पति शोध संस्थान के वैज्ञानिक इस ज़हर से लोगों को बचाने का उपाय तलाश रहे हैं। सिंचाई के बाद आर्सेनिक का स्तर कम करने और उसे अनाज व सब्जियों में पैठ बनाने से रोकने वाले जीन की वैज्ञानिकों ने पहचान भी कर ली है। इससे उम्मीद की एक किरण दिखी है। वैज्ञानिकों का कहना भी है कि अगर आर्सेनिक युक्त जल को खुली धूप में 12-14 घंटे तक रखा जाए तो आर्सेनिक की मात्रा क़रीब 50 प्रतिशत तक कम हो सकती है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि अगर नदियों में औद्योगिक कचरा इसी तरह गिरता रहा तो आर्सेनिक की मात्रा कम करने के उपाय निष्प्रभावी ही रहेंगे। नदियों का पानी दूषित व ज़हरीला होने से जलीय जीव जंतुओं पर भी खतरा मंडराता जा रहा है। इन प्रदूषित नदियों से पकड़ी जाने वाली मछलियों का सेवन भी मानव जीवन के लिए हानिकारक है। औद्योगिक इकाइयों पर अंकुश लगाने के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तो हैं, लेकिन वह स़िर्फ मूकदर्शक की भूमिका में हैं। अगर यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब उत्तर प्रदेश समेत बिहार व पश्चिम बंगाल में जवानी लाख तलाश करने पर भी देखने को नहीं मिलेगी। बूढ़ी जर्जर काया लिए बीमार आबादी ही इसकी पहचान होगी।