न्यूनतम जल अधिकतम फसल (Essay on ‘Per Drop, More crop’)

Submitted by Editorial Team on Thu, 08/03/2017 - 13:18
Source
भगीरथ - जुलाई-सितम्बर 2012, केन्द्रीय जल आयोग, भारत

पृथ्वी के लगभग तीन-चौथाई भू-भाग पर जल उपलब्ध है जो कि समुद्र के खारे पानी के रूप में उपस्थित है जिससे पृथ्वी के चारों ओर 300 मीटर की मोटी परत चढ़ जाये। जिसका कोई विशेष उपयोग नहीं किया जा रहा है। कृषि वैज्ञानिकों को फसलों की ऐसी किस्मों का विकास करना चाहिए जो समुद्र के खारे पानी से भी अच्छा उत्पादन देने में सक्षम हों। दूसरा विकल्प यह भी हो सकता है कि न्यूनतम खर्चे पर ऐसे पानी (समुद्र जल) को मीठे पानी में बदल कर फसलोत्पादन हेतु उपयोग किया जा सके।

भारतीय मौसम वैज्ञानिकों ने 120 वर्षों के आँकड़ों का आकलन करके एक अवधारणा बनाई है कि 30 वर्षों तक मानसून कमजोर रहता है तो अगले आने वाले 30 वर्षों तक मानसून अच्छा रहता है। इस अवधारणा का कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं है, लेकिन मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 2007 से अगले 30 वर्षों तक सूखे वाला चक्र शुरू हो गया है। मौसम का मिजाज भी धीरे-धीरे बदल रहा है। मानसून की वर्षा ही कम नहीं हुई है बल्कि बरसात के दिनों में भी कमी आई है।

पहले वर्षा रुक-रुक कर धीरे-धीरे एक बार शुरू हो जाती थी तो 5 से 8 घंटे तक लगातार होती थी। जिसके परिणामस्वरूप वर्षाजल जमीन में उतरता था और भूजल भी बढ़ता था। लेकिन अब तेजी से डेढ़-दो घंटे में वर्षा होती है जिसमें अधिकांश पानी बहकर व्यर्थ चला जाता है। इसके साथ-साथ ऊपरी उपजाऊ मिट्टी की परत का भी तेजी से कटाव होता है।

अमेरिका का क्षेत्रफल हमारे देश से पाँच गुना ज्यादा है। लेकिन अमेरिका में वार्षिक वर्षा हमारे देश से भी कम होती है। भारत में 100 लीटर वर्षा जल बरसता है उसमें से 5 लीटर से भी कम वर्षाजल का संरक्षण कर पाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हम लोग 5 प्रतिशत से भी कम जल का संरक्षण कर पाते हैं। इसलिये हमारे देश में पानी की समस्या ज्यादा है। इस समस्या से निजात पाने के लिये वर्षाजल एवं उसके समुचित प्रबन्धन की अत्यन्त आवश्यकता है। सूखे से निपटने के लिये दीर्घकालीन योजनाएँ बनाकर उनका सही तरीके से क्रियान्वयन करना नितान्त आवश्यक है।

हमारे यहाँ पहले बारह महीने में तीन मौसम गर्मी, सर्दी और वर्षा के होते थे, जो चार-चार माह के होते थे। लेकिन वर्तमान में गर्मी के मौसम की अवधि बढ़कर दोगुनी हो गई है। जबकि सर्दी और वर्षा के मौसम की अवधि आधी-आधी ही रह गई है अर्थात दूसरे शब्दों में कहें तो गर्मी का मौसम आठ माह का सर्दी एवं वर्षा का मौसम दो-दो माह का ही रह गया है।

नहरों से खेतों तक पहुँचते-पहुँचते लगभग 70 प्रतिशत जल का रिसाव हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप नहरी क्षेत्रों में जलमग्न एवं लवणीयता की समस्या पैदा हो जाती है। इसके अलावा किसान भाइयों के मन में यह आशंका भी बनी रहती है कि न जाने अगली सिंचाई नहर से कब मिलेगी। इसलिये खेतों में आवश्यकता से अधिक पानी भर लेते हैं। जिससे फसलों को फायदे की जगह नुकसान ही होता है।

प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। जल के बारे में यदि यह कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जल टिकाऊ कृषि का मूल स्तम्भ है। भारत में हरित क्रान्ति लाने में उन्नत किस्मों के साथ-साथ जल संसाधनों के विकास में भी महती भूमिका का निर्वहन किया है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सभी देशों में पानी का मुख्य स्रोत वर्षा ही होती है। हमारे देश में पानी की उपलब्धता कि बात करें तो 97 प्रतिशत जल वर्षा से एवं 3 प्रतिशत जल हिमालय की बर्फ के पिघलने से प्राप्त होता है।

बड़ी सिंचाई परियोजना से किसानों के खेतों तक 30-40 प्रतिशत पानी ही पहुँच पाता है जबकि 60 से 70 प्रतिशत पानी रिसाव या वाष्पीकरण के माध्यम से बर्बाद हो जाता है। बड़ी सिंचाई परियोजना में पहले बाँधों का निर्माण कर वर्षाजल को रोका जाता है उसके बाद पुनः खेतों में सिंचाई के लिये पहुँचने के दौरान भी अमूल्य अमृत तुल्य नीर बर्बादी होती है।

अब समय यह आ रहा है कि खेतों के पानी का खेत में ही संग्रहण किया जाये। अधिक-से-अधिक मात्रा में जैविक खादों का उपयोग किया जाये। अधिक मात्रा में जैविक खादों के उपयोग से भी फसलों की जल माँग कम होती है। ऐसा करने से पानी की निरन्तर घटती हुई उपलब्धता के बावजूद भी खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाकर खाद्यान्न संकट से बच सकते हैं। हम अपनी खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकते हैं।

खाद्य सुरक्षा की सबसे सार्थक परिभाषा वर्ष 1996 में रोम खाद्य शिखर सम्मेलन के बाद जारी की गई जो इस प्रकार से थी- ‘‘खाद्य सुरक्षा वह स्थिति है जिसमें सब लोगों को अपनी आहार सम्बन्धी जरूरतों की पूर्ति के लिये हर वक्त पर्याप्त, सुरक्षित और पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो और एक सक्रिय एवं स्वस्थ जीवन बिताने के वास्ते अपनी पसन्द का ऐसा भोजन प्राप्त करना, जो उनके लिये भौतिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण से सम्भव हो।’’

हमारे देश में प्रति व्यक्ति उपलब्ध कृषि जोत सन 1950 में 0.53 हेक्टेयर थी जो लगातार बढ़ती हुई आबादी के कारण निरन्तर घटती जा रही है। यदि इसी गति से जनसंख्या की बढ़ोत्तरी हुई तो सन 2015 में प्रति व्यक्ति उपलब्ध कृषि जोत 0.12 हेक्टेयर ही रह जाएगी। विश्व की जनसंख्या की लगभग 18 प्रतिशत हिस्सेदारी हमारे देश की है लेकिन क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से हमारे पास मात्र 2 प्रतिशत भू-भाग ही उपलब्ध है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी के लगभग तीन-चौथाई भू-भाग पर जल उपलब्ध है जो कि समुद्र के खारे पानी के रूप में उपस्थित है जिससे पृथ्वी के चारों ओर 300 मीटर की मोटी परत चढ़ जाये। जिसका कोई विशेष उपयोग नहीं किया जा रहा है। कृषि वैज्ञानिकों को फसलों की ऐसी किस्मों का विकास करना चाहिए जो समुद्र के खारे पानी से भी अच्छा उत्पादन देने में सक्षम हों। दूसरा विकल्प यह भी हो सकता है कि न्यूनतम खर्चे पर ऐसे पानी (समुद्र जल) को मीठे पानी में बदल कर फसलोत्पादन हेतु उपयोग किया जा सके।

सिंचाई की विभिन्न पद्धतियाँ


सतही सिंचाई प्रणाली: हमारे देश में अधिकांश इसी प्रणाली से सिंचाई की जाती है। इस विधि में पानी को स्रोत से नालियों द्वारा एक सिरे पर खेत में पहुँचाकर खेत में फैलाया जाता है। इस विधि में खेतों का समतलीकरण होना अत्यन्त ही आवश्यक है अन्यथा अनावश्यक रूप से सिंचाई जल का नुकसान होता है। आजकल बाजार में ट्रैक्टर चालित लेजर लैंड लेवलर उपलब्ध हैं। जिसकी सहायता से खेतों को आसानी से समतल कर अमूल्य पानी को बचाया जा सकता है।

समतलीकरण से जल दक्षता के साथ-साथ उर्वरकों की दक्षता को भी आसानी से बढ़ाया जा सकता है। इस प्रणाली में सीमान्त पट्टी (बोडर स्ट्रीप) चैक या क्यारी और कूंड़ बनाकर सिंचाई की जाती है। जिन फसलों में पंक्ति-से-पंक्ति की दूरी अधिक होती है जैसे मक्का और कपास में, हर दूसरे कूंड़ में पानी देकर लगभग 30 प्रतिशत तक पानी की बचत की जा सकती है जबकि ऐसा करने पर पैदावार पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। यह बात वैज्ञानिक अनुसन्धानों से सिद्ध हो चुकी है।

फव्वारा सिंचाई प्रणाली: वर्तमान में सिंचाई की यह विधि किसानों के मध्य काफी लोकप्रिय हो रही है। इस विधि से सिंचाई करने पर लगभग 30 से 50 प्रतिशत तक जल की बचत होती है। यह विधि बलुई व उबड़-खाबड़ (ऊँची-नीची) जमीन में भी कारगर है। इस पद्धति द्वारा गेहूँ, कपास, जौ, बाजरा, तम्बाकू, मूँग, उड़द एवं अन्य फसलों में भी आसानी से सिंचाई की जा सकती है। प्रायः यह भी देखा गया है कि जब इस विधि से फसलों में सिंचाई की जाती है तो फसलों की रक्षा से वांछित कटौती स्वतः ही हो जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो हानिकारक कीटों एवं बीमारियों का प्रकोप फसल में बहुत कम होता है। इस पद्धति से सिंचाई करते समय दो मुख्य बातों का ध्यान रखना चाहिए। पहली तो हवा की गति तेज नहीं होनी चहिए। और दूसरी बात यह कि पके हुए अनाज को फव्वारे से बचाना चाहिए।

बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली: इसको ड्रिप-इरीगेशन या टपक सिंचाई पद्धति भी कहते हैं। यह कृषि के सिंचाई क्षेत्र में नवीनतम सिंचाई पद्धति है। इस विधि के उपयोग द्वारा जल की 30 से 75 प्रतिशत तक बचत की जा सकती है। सिंचाई की विधि दोमट मिट्टी, कम गहराई वाली जमीन, ऊँची-नीची जमीन एवं पहाड़ी इलाकों के लिये काफी प्रभावी है। इस विधि का उपयोग फल वृक्षों, सब्जियों एवं ऐसी फसल जिनमें पौधे-से-पौधे की दूरी अधिक होती है, उनमें सफलतापूर्वक उपयोग में लिया जा सकता है। इस विधि में पानी एवं रासायनिक उर्वरकों को सीधे पौधों की जड़ों में पहुँचाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप रिसाव एवं वाष्पन (वाष्पीकरण) द्वारा होने वाले जल का नुकसान कम होता है। इस विधि के उपयोग से अन्य सिंचाई विधियों की तुलना में सिर्फ एक तिहाई ही जल की आवश्यकता पड़ती है। इस विधि से फसल उत्पादन में भी आशातीत वृद्धि होती है क्योंकि खरपतवार कम उगते हैं जिससे फसलों को जल एवं पोषक तत्वों के लिये प्रतिस्पर्धा नहीं करनी पड़ती है। इस सिंचाई विधि से प्रतिघंटा एक से बीस लीटर तक जल की सप्लाई की जा सकती है। घुलनशील उर्वरकों को जल में घोलकर सीधा पौधों की जड़ क्षेत्र तक पहुँचाया जाता है जिसके फलस्वरूप 40 प्रतिशत तक उर्वरकों की बचत की जा सकती है। अन्य सिंचाई पद्धतियों से मृदा स्वास्थ्य एवं फसल के उत्पादन पर कुप्रभाव पड़ता है लेकिन इस विधि में ऐसी कोई समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है।

वर्तमान में कृषि वैज्ञानिकों द्वारा रेनगन नामक अति आधुनिक सिंचाई पद्धति को विकसित किया गया है। जो फव्वारा पद्धति की तरह है लेकिन इसमें केवल एक ही जेट फव्वारा लगा होता है जो कृत्रिम वर्षा की तरह पानी की बौछार करता है।

कैसे बढ़ाएँ सिंचाई जल की दक्षता


1. सिंचाई के बाद फसलों की कतारों के मध्य प्लास्टिक या घास-फूस की मल्च (पलवार) की जाये तो खेत में लम्बे समय तक नमी बनी रहेगी।
2. वर्षाजल का संग्रहण कर सूखे की स्थिति में जीवन रक्षक सिंचाई के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
3. मिट्टी और जल के संरक्षण हेतु जल ग्रहण प्रणाली (वाटरशेड) आज के समय की अत्यन्त ही महती आवश्यकता है।
4. समुचित फसलोत्पादन के लिये जल का कुशल एवं प्रभाव उपयोग वर्तमान कृषि का अहम मुद्दा होना चहिए।
5. कम वर्षा वाले क्षेत्रों में अधिकांश कम जल माँग वाली मोटे अनाज वाली, दलहन या तिलहन फसलों को उगाया जाता है। लेकिन कभी-कभी ऐसे क्षेत्रों में मृदा की भौतिक एवं भौगोलिक वातावरण उपरोक्त फसलों के लिये उपयोगी नहीं होता है। ऐसी स्थिति में फलदार वृक्षों का रोपण करना लाभप्रद रहता है।
6. आनुवंशिक विधि से कृषि वैज्ञानिकों ने जो संकर एवं बौनी किस्मों का विकास किया है वे तभी अच्छा उत्पादन देने में सक्षम होती हैं जब इन किस्मों को पर्याप्त पोषण के साथ-साथ उचित मात्रा में सिंचाई के रूप में जल मिलता है।
7. जीरो टिलेज तकनीक से गेहूँ की बुवाई करने पर प्रति हेक्टेयर 3 से 7 क्विंटल पैदावार अधिक प्राप्त होती है। किसान को खेत की तैयारी पर होने वाले खर्चे में भी आशातीत कटौती होती है। इस विधि द्वारा गेहूँ की बुवाई करने पर कम सिंचाई जल की आवश्यकता पड़ती है। खेत में खरपतवार भी कम उगते हैं। कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित अति आधुनिक रेजसीड़ बेड प्लान्टर के माध्यम से भी बुवाई कर गेहूँ की जल माँग को कम किया जा सकता है।
8. खरीफ के मौसम का अधिकांश फसलोत्पादन मानसून की वर्षा पर निर्भर करता है। इसलिये खरीफ फसलोत्पादन मानसून आधारित जुआ कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बड़ी सिंचाई परियोजना के निर्माण में अधिक समय के साथ-साथ अधिक मात्रा में धन का व्यय होता है। बड़ी सिंचाई परियोजना के निर्माण से किसानों की खेती में देरी से सिंचाई जल पहुँच पाता है। इसलिये लघु सिंचाई परियोजनाओं का जल बिछाकर किसानों को तुरन्त लाभ पहुँचाया जा सकता है।

किसी राष्ट्र की कृषि विकास की आधारशिला उसके पास उपलब्ध संसाधन जैसे जल, जमीन, जंगल और जानवरों पर निर्भर करती है। जीवन के लिये जल अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण संसाधनों में से एक है। इसलिये सभी मानव सभ्यताओं का विकास नदियों के आस-पास हुआ। पानी की कमी से खेतों की हरियाली रेगिस्तान में बदलते देर नहीं लगेगी। कृषि में नई प्रौद्योगिकी के प्रयोग से आज हम खाद्यान्न उत्पादन में तो आत्मनिर्भर हो गए लेकिन दलहन एवं तिलहन आज भी आयातित करते हैं।

गेहूँ और धान जैसी फसलों का तो हम आज निर्यात कर रहे हैं। आज देश में दूसरी हरित क्रान्ति लाने के लिये हर राष्ट्रीय मंच से शोर मचाया जा रहा है। एक ओर हरित क्रान्ति लाने के लिये जल, जमीन, जंगल और जानवर जैसे संसाधनों की जरूरत पड़ेगी, लेकिन दुर्भाग्य से इन सभी महत्त्वपूर्ण संसाधनों की निरन्तर दयनीय स्थिति होती जा रही है। इसलिये हमें इन प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग करना वर्तमान कृषि की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। जल के बिना अन्न उत्पादन सम्भव नहीं है और अन्न के बिना जीवन सम्भव नहीं है। इसलिये जल ही जीवन है यह कहना सार्थक है।

शस्य वैज्ञानिक, विद्या भवन, कृषि विज्ञान केन्द्र, बड़गाँव, उदयपुर(राजस्थान)


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