हाइड्रोजेल के कण बारिश होने पर या सिंचाई के वक्त खेत में जाने वाले पानी को सोख लेता है और जब बारिश नहीं होती है तो कण से खुद-ब-खुद पानी रिसता है, जिससे फसलों को पानी मिल जाता है। फिर अगर बारिश हो तो हाइड्रोजेल दुबारा पानी को सोख लेता है और जरूरत के अनुसार फिर उसमें से पानी का रिसाव होने लगता है। शोधपत्र के अनुसार, खेतों में हाइड्रोजेल का एक बार इस्तेमाल किया जाये, तो वह 2 से 5 वर्षों तक काम करता है और इसके बाद ही वह नष्ट हो जाता है लेकिन नष्ट होने पर खेतों की उर्वरा शक्ति पर कोई नकारात्मक असर नहीं डालता है, बल्कि समय-समय पर पानी देकर फसलों और खेतों को फायदा ही पहुँचाता है।
भारत में जलसंकट के मजबूत संकेत दिखने लगे हैं। गई गर्मी में मराठवाड़ा, बुन्देलखण्ड समेत देश के कई राज्यों में सूखे ने खेती को पूरी तरह चौपट कर दिया। कई जगहों पर पेयजल का संकट भी दिखा। सूखे के कारण ग्रामीण इलाकों से पलायन भी हुआ।कुल मिलाकर हालात ऐसे हो गए हैं, जो इस ओर इशारा कर रहे हैं कि आने वाले समय में जलसंकट और विकराल रूप लेगा। देश की बढ़ती आबादी के लिये पेयजल के अलावा बड़ी मात्रा में खेती के लिये पानी की जरूरत पड़ेगी। ऐसे में पानी के बेहतर प्रबन्धन की सख्त जरूरत है ताकि भविष्य में पानी के संकट का मुकाबला किया जा सके।
भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहाँ की अर्थव्यवस्था खेती पर आधारित है, इसलिये सिंचाई में ऐसी पद्धति का इस्तेमाल करना होगा जिससे पानी का बेहतर-से-बेहतर इस्तेमाल किया जा सके।
भारत में जितनी खेती होती है उनमें से 60 प्रतिशत खेती ऐसे क्षेत्र में की जाती है जहाँ पानी की बेहद किल्लत है। इनमें से 30 प्रतिशत जगहों पर पर्याप्त बारिश नहीं होती है। हालांकि ऐसा नहीं है कि जलसंकट केवल भारत में ही है। बताया जाता है कि विश्व के 181 देशों में जलसंकट है, भारत इस सूची में 41वें स्थान पर है।
भारत में खेती मुख्य रूप से बारिश पर निर्भर है। देश में 60 प्रतिशत खेती बारिश के पानी पर निर्भर है और इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 1150 मिलीमीटर से भी कम होती है। यह सब देखते हुए खेती में पानी का बेहतर इस्तेमाल वक्त की जरूरत है।
खेती में पानी के बेहतर इस्तेमाल की बात यहाँ इसलिये की जा रही है क्योंकि भारत में पानी की जितनी खपत होती है, उसका 85 प्रतिशत हिस्सा खेती में इस्तेमाल होता है। औद्योगिक क्षेत्र में 15 प्रतिशत और घरेलू क्षेत्रों में 5 प्रतिशत पानी का उपयोग हो रहा है लेकिन जिस तरह देश की आबादी में बढ़ोत्तरी हो रही है और कल कारखाने खुल रहे हैं, उससे आने वाले समय में पानी की घरेलू और औद्योगिक खपत बढ़ेगी जिसका परिणाम यह निकलेगा कि खेती के लिये पानी की किल्लत हो जाएगी।
इस हालात में खेती को अगर बचाना है तो ऐसे विकल्पों पर विचार करना होगा जिसमें सिंचाई में पानी की बर्बादी न हो और पूरी कवायद में हाइड्रोजेल महत्त्वपूर्ण किरदार निभा सकता है।
हाल ही में कृषि विज्ञानियों ने एक शोध किया है जिसमें पता चला है कि हाइड्रोजेल की मदद से बारिश के पानी को स्टोर कर रखा जा सकता है और इसका इस्तेमाल उस वक्त किया जा सकता है जब फसलों को पानी की जरूरत पड़ेगी।
हाइड्रोजेल पोलिमर है जिसमें पानी को सोख लेने की अकूत क्षमता होती है और यह पानी में घुलता भी नहीं। हाइड्रोजेल बायोडिग्रेडेबल भी होता है जिस कारण इससे प्रदूषण का खतरा भी नहीं रहता है।
करेंट साइंस में ‘हाइड्रोजेल्स : ए बून फॉर इनक्रीजिंग एग्रीकल्चरल प्रोडक्टिविटी इन वाटर-स्ट्रेस्ड एनवायरमेंट’ शीर्षक से छपे शोधपत्र में कृषि विज्ञानियों ने कहा है कि खेतों में हाइड्रोजेल के इस्तेमाल से पानी को खेतों में ही स्टोर कर रखा जा सकता है और जब फसल को पानी को जरूरत पड़ेगी और बारिश नहीं होगी तब हाइड्रोजेल से निकलने वाला पानी फसलों के काम आएगा।
यह शोध महात्मा फूले कृषि विद्यापीठ के अनिकेत कोल्हापुरे, जीबी पंत कृषि विश्वविद्यालय के राजीव कुमार, वीपी सिंह और डीएस पांडेय ने संयुक्त रूप से किया है।
शोधपत्र में कहा गया है कि हाइड्रोजेल खेत की उर्वरा शक्ति को तनिक भी नुकसान नहीं पहुँचाता है और इसमें 400 गुना पानी सोख लेने की क्षमता होती है। शोधपत्र में कहा गया है कि एक एकड़ खेत में महज 1 से 2 किलोग्राम हाइड्रोजेल ही पर्याप्त है।
हाइड्रोजेल 40 से 50 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी खराब नहीं होता है, इसलिये इसका इस्तेमाल ऐसे क्षेत्रों में किया जा सकता है, जहाँ सूखा पड़ता है।
शोधपत्र में कहा गया है कि हाइड्रोजेल के कण बारिश होने पर या सिंचाई के वक्त खेत में जाने वाले पानी को सोख लेता है और जब बारिश नहीं होती है तो कण से खुद-ब-खुद पानी रिसता है, जिससे फसलों को पानी मिल जाता है। फिर अगर बारिश हो तो हाइड्रोजेल दुबारा पानी को सोख लेता है और जरूरत के अनुसार फिर उसमें से पानी का रिसाव होने लगता है।
शोधपत्र के अनुसार, खेतों में हाइड्रोजेल का एक बार इस्तेमाल किया जाये, तो वह 2 से 5 वर्षों तक काम करता है और इसके बाद ही वह नष्ट हो जाता है लेकिन नष्ट होने पर खेतों की उर्वरा शक्ति पर कोई नकारात्मक असर नहीं डालता है, बल्कि समय-समय पर पानी देकर फसलों और खेतों को फायदा ही पहुँचाता है।
हाइड्रोजेल का इस्तेमाल उस वक्त किया जा सकता है जब फसलें बोई जाती हैं। फसलों के साथ ही इसके कण भी खेतों में डाले जा सकते हैं।
हाइड्रोजेल के इस्तेमाल को लेकर कई प्रयोगशालाओं में व्यापक शोध किया गया है और इन शोधों के आधार पर ही यह शोधपत्र तैयार किया गया है।
शोधपत्र में कहा गया है कि मक्के, गेहूँ, आलू, सोयाबीन, सरसों, प्याज, टमाटर, फूलगोभी, गाजर, धान, गन्ने, हल्दी, जूट समेत अन्य फसलों में हाइड्रोजेल का इस्तेमाल कर पाया गया कि इससे उत्पादकता तो बढ़ती है, लेकिन पर्यावरण और फसलों को किसी तरह का नुकसान नहीं होता है।
विधानचंद्र कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एस के पॉल कहते हैं, ‘अगर हाइड्रोजेल में विषैले तत्व नहीं हैं तो यह बेहतर विकल्प हो सकता है।’ उन्होंने कहा, ‘हाइड्रेजेल 2 से 5 वर्षों में बायोडिग्रेड हो जाता है तो इससे साफ है कि इसमें ऐसा कोई तत्व नहीं है जो फसल, पर्यावरण या खेतों को नुकसान पहुँचाए।’ प्रो एस के पॉल ने कहा कि भारत में बारिश का वितरण असमान है। कहीं बहुत अधिक बारिश होती है तो कहीं बेहद कम। साथ ही कभी बहुत अधिक बारिश हो जाती है तो कभी नहीं के बराबर बारिश होती है। ऐसी स्थिति में ऐसी व्यवस्था की सख्त जरूरत है जिसके जरिए पानी का बेहतर प्रबन्धन किया जा सके। इस लिहाज से हाइड्रोजेल बेहतर विकल्प है और इस तरह के और भी प्रयोग होने चाहिए।