बच्चा व बूढ़ा हिन्दुस्तानी माँग रहा है दाना पानी

Submitted by Hindi on Tue, 12/13/2016 - 11:34
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शुक्रवार डॉट नेट

भारत में तीन साल से कम उम्र के 74 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है, इनमें 50 प्रतिशत बच्चे मध्यम या गंभीर कुपोषण के शिकार हैं, 87 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं खून की कमी की शिकार हैं और जिस अनुपात में भूख से मौतें हो रही हैं, उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि भारत भूख और कुपोषण के आपातकाल से गुजर रहा है।

मानचित्र का ख्याल आते ही मैंने अपने आप से पूछा- ब्रह्मांड का सबसे बड़ा भू-भाग कौन-सा है? जवाब मानचित्र की आड़ी-तिरछी लकीरों और उनके बीच फँसे पड़े असंख्य नामों से नहीं मिला। किसी ने मेरे भीतर ही कुलबुलाते हुए धीरे-से कहा- ‘एक भूखे-प्यासे इंसान का पेट!’

सच है। इसी अखंड भूभाग में पलती है भूख और बसती है प्यास। दुनिया के साढ़े सात अरब लोगों में से लगभग आधे, कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में आज भूख और प्यास से जूझ रहे हैं- उन्हें चाहिए रोटी और पानी ताकि वे पेट के बाहर के भूगोल का भी जायजा ले सकें।

हिन्दुस्तान नाम के अपने मुल्क का किस्सा भी वही है। 65 साल के जनतंत्री इतिहास में भूख और प्यास करोड़ों लोगों के जीवन को तिगनी का नाच नचा रही है, सो अब जाकर अपनी सरकार ने संसद में खाद्य सुरक्षा का कानून बनाने की कवायद शुरू की है। संसद के पिछले सत्र में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2013 को लोकसभा में पेश करने का इरादा बनाया था लेकिन इसे अब तक पेश नहीं किया जा सका है। सो, अभी तक यह विधेयक कानून बनने के इंतजार में है। इस विधेयक का घोषित उद्देश्य यही है कि सबको सस्ता अनाज मिले। अभी तक सिर्फ तीन राज्य- छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश- विधेयक में उल्लेखित कीमत पर अंत्योदय और प्राथमिकता वाले परिवारों को अनाज मुहैया करा रहे हैं।

65 साल के बाद सत्ताधीशों को साधारण-गरीब-दलित-आदिवासी लोगों का पेट भरने का ख्याल कैसे आया, इसका भी एक इतिहास है।

भारत में खाद्यान्न की कमी की समस्या नई नहीं है। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब तमाम किस्म के अनाज को बाहर (विशेष रूप से बर्मा और आज का म्यांमार) से मंगाना मुश्किल हो गया और अनाज के दाम बेहिसाब बढ़ने लगे तो अंग्रेज सरकार ने लक्षित (अत्यंत कमजोर वर्गों की पहचान कर) जन वितरण प्रणाली की शुरुआत की। 1941 में पहली बार किसानों से खरीदे जाने वाले गेहूँ का समर्थन मूल्य घोषित किया गया और 1942 में, जब ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ अपने पूरे जोर पर था, खेती में चावल उत्पादन को प्राथमिकता देने की नीति अपनाई गई। बर्मा पर जापान की जीत हो चुकी थी, लिहाजा अपने यहाँ चावल की पैदावार बढ़ाने के अलावा भूख से लड़ने का और कोई उपाय भी नहीं था।

कहा जाता है कि खाद्य सुरक्षा की दिशा में हिन्दुस्तान की यह पहली कोशिश थी- ‘अनाज उपजेगा ज्यादा तो सबके लिये सुलभ भी हो सकेगा।’ आजादी आई और साथ में आया लोकतंत्र। हालाँकि इस दिशा में छिटपुट प्रयास जरूर हुए लेकिन भूख का ग्राफ ऊपर चढ़ता रहा। सरकारें किसानों से अनाज खरीद तो लेती हैं लेकिन उसे संरक्षित रखने और उसे लोगों तक पहुँचाने के लिये जिस मजबूत सार्वजनिक वितरण प्रणाली (आमतौर पर पीडीएस के रूप में जाना जाने वाला शब्द) की जरूरत है, वह स्थापित करने में सरकार नाकाम रही है। हजारों की संख्या में राशन की दुकानें देशभर में खोली गर्इं लेकिन उन तक अनाज नहीं पहुँचता है, अनाज के भरे बोरे बीच बाजार में उतार लिये जाते हैं। जहाँ लोगों को अनाज मिला भी है, या तो वह मात्रा में कम है या इतना सड़ा-गला है कि मवेशी भी उसे खाने से हिचकिचाएं।

गोदामों में सड़ते अनाजगोदामों में सड़ते अनाजखाद्य निगम के गोदामों में जगह की कमी के कारण लाखों बोरे अनाज धूप और बारिश की मार साल-दर-साल झेलते हुए बर्बाद हो जाता है। चूहे भी आदमी के हिस्से का काफी ज्यादा अनाज खा जाते हैं। पिछले 65 साल के, और खासतौर पर भूमंडलीकरण के पिछले 25 सालों के समाचार ऐसी अनगिनत कहानियों और तस्वीरों से अंटे पड़े हैं। फकत इतना हो नहीं पाया कि गाँव के गरीबों के पेट तक अनाज पहुँच पाता। गरीब मजदूर और छोटे किसान दिन-रात मेहनत करके अपनी कमाई की आखिरी पाई तक खर्च कर देते हैं लेकिन उनका पेट भरना तो दूर, अक्सर खाली ही रहता है। परिवार की उस स्त्री का तो सबसे बुरा हाल है, जिस पर तिहरा भार है- मेहनत-मजदूरी करने का, बच्चों को जन्म देने और पालने का तथा घर के सभी सदस्यों के लिये खाना बनाकर उन्हें खिलाने के बाद सबसे अंत में बचे हुए कुछ कौर जैसे-तैसे निगलने का।

अस्सी के दशक में, जब भूख से मरने वालों की खबरें सुर्खियाँ बनने लगीं, तब खाद्य सुरक्षा को लेकर एक आंदोलन की रूपरेखा बनी, जिसे ‘राइट टु फूड कैम्पेन’ के नाम से आज हम जानते हैं। इसी दौरान गाँव के गरीबों को रोजगार मिले, इसके लिये कानून बनाने का आंदोलन शुरू हुआ राजस्थान के देवडूंगरी गाँव से, जिसका नेतृत्व आईएएस अधिकारी से रोजगार कार्यकर्ता बनीं अरुणा रॉय ने संभाला और तब जाकर 2005 में पहली बार रोजगार गारंटी कानून बना।

25 दिसंबर 2000 को केंद्र सरकार ने ‘अंत्योदय अन्न योजना’ की शुरुआत की। 3 रुपये प्रति किलो की दर से हर चिह्नित अंत्योदय परिवार को 25 किलो अनाज देने की घोषणा की गई, जिसकी मात्रा अब बढ़ाकर 35 किलो कर दी गई है और इसे 2 रुपये प्रति किलो की दर से देने की बात कही गई। 30 अप्रैल 2009 तक लगभग 25 करोड़ लोग इस योजना का फायदा उठाने के हकदार बताए गए हैं, हालाँकि विभिन्न सामाजिक अंकेक्षण बताते हैं कि महज 20 से 25 प्रतिशत अंत्योदय परिवारों को ही इसका फायदा मिल सका है, बाकी के हिस्से का अनाज बिचौलिये लील गए हैं। अधिसंख्य परिवार केवल इसलिये राशन नहीं उठा पाए क्योंकि या तो उनके पास इतना भी पैसा नहीं था कि वे सस्ते दाम का भी अनाज खरीद पाते या राशन की दुकान उनके गाँव से मीलों दूर थी और वहाँ तक आने-जाने का कोई साधन नहीं था।

अंत्योदय अन्न योजना का घोषित उद्देश्य यही था कि 2005 तक भूख-मुक्त भारत का निर्माण किया जा सके लेकिन राजनीतिक संकल्प के भयंकर अभाव में 2005 के बीतते-बीतते जो आंकड़े सामने आए, वे चौंका देने वाले थे और भूख से मुक्ति का ख्वाब अभी भी कोसों दूर बना हुआ था। 2005 में संयुक्त राष्ट्र की विकास रिपोर्ट में भारत का वर्णन कुछ ऐसे किया गया है :

‘भारत में तीन साल से कम उम्र के 74 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है, इनमें 50 प्रतिशत बच्चे मध्यम या गंभीर कुपोषण के शिकार हैं, 87 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं खून की कमी की शिकार हैं और जिस अनुपात में भूख से मौतें हो रही हैं, उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि भारत भूख और कुपोषण के आपातकाल से गुजर रहा है।’

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार हिन्दुस्तान की आधी ग्रामीण आबादी यानी लगभग 35 करोड़ लोग सहाराई अफ्रीकी देशों के लोगों से भी कम कैलोरी (ऊर्जा मापने की एक इकाई) वाला भोजन करते हैं। मशहूर अर्थशास्त्री और 40 सालों से भारत में भोजन के अधिकार पर सक्रिय कार्यकर्ता ज्यां द्रेज ने भारत में बर्बाद होने वाले और गोदामों में पड़े अतिरिक्त अनाज पर आँखें खोल देने वाली टिप्पणी की है। वे बताते हैं कि हिन्दुस्तान के पास जितना अतिरिक्त अनाज है, उसकी बोरियों को अगर एक के ऊपर एक करके रख दिया जाए तो आखिरी बोरी चाँद को छू लेगी। द्रेज यह बात मजाक में नहीं, बल्कि एक-एक इंच का हिसाब लगाकर कह रहे हैं। फिर भूख से इन बोरियों के बीच का फासला तय क्यों नहीं हो रहा? केंद्र और राज्य सरकारों को अगली बार वोट माँगने से पहले इस प्रश्न का जवाब देना पड़ेगा। अब सरकार खाद्य सुरक्षा का जो विधेयक लेकर आई है, कई राज्य उसे लागू करने में अभी से अपनी असमर्थता दिखा रहे हैं। ऐसा लगता नहीं है कि सरकार के पास ऐसी कोई ठोस रणनीति और योजना है, जिसके सहारे इस विधेयक के प्रावधानों को जमीन पर सही तरीके से लागू किया जा सकेगा।

पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार को सही ढंग से इस कानून को इतनी जल्दी जमीन पर लागू करने में अपनी क्षमता पर विश्वास नहीं है। देखना यह है कि अब विधेयक से कानून बनने के बीच जो वक्त का फासला आया है, राज्य सरकारें उस अवधि के दौरान अपनी तैयारियाँ पूरी कर पाती हैं या नहीं। दूसरी तरफ, किसान संगठन और भोजन के अधिकार अभियान के कार्यकर्ता इस विधेयक से खुश नहीं हैं। शेतकरी संगठन के नेता शरद जोशी का मानना है कि इससे अनाज की उगाही का निरंकुश अधिकार सरकार के पास होगा छोटे और मंझोले किसान तबाह हो जाएँगे। जमीनी कार्यकर्ताओं को लगता है कि जन-दबाव में लाया गया यह विधेयक खाद्य सुरक्षा के व्यापक सरोकारों का ख्याल नहीं रखता, विधेयक का सारा जोर गरीब परिवारों को सस्ता अनाज मुहैया कराने पर है, उन्हें खेती और उससे जुड़ी अन्य गतिविधियों के साथ जोड़कर आत्मनिर्भर बनाने पर नहीं। विधेयक में अनाज की बात कही गई है लेकिन दाल, तेल और अन्य भोज्य सामग्रियों की उपलब्धता की चर्चा नहीं है।

विधेयक की एक अन्य बड़ी कमी की तरफ इशारा करते हुए खाद्य विधेयक कार्यकर्ता मानते हैं कि विधेयक में अनुसूची के तहत बच्चों और दूध पिला रही माँओं को जिस ऊर्जा-भोजन देने की बात कही गई है, वह सिर्फ एक केंद्रीकृत उत्पादन इकाई में मशीनों के जरिए ही तैयार किया जा सकता है। इसका मतलब यह है कि बड़ी कंपनियों और ठेकेदारों को पिछले दरवाजे से भारी मुनाफा कमाने के मौके दिए गए हैं। इसी तरह अगर केंद्र या राज्य सरकारें पर्याप्त अनाज की खरीदारी नहीं कर सकीं तो नगद भुगतान करके वे अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेंगी और गरीब-गुरबा बाजार की दया पर जीने और मरने के लिये मजबूर होंगे। यह विधेयक, कानून बनकर, शायद ज्यादा-से-ज्यादा 40-50 प्रतिशत गरीब परिवारों को भुखमरी से बचा सकता है लेकिन उनके लिये गरिमा के जीवन की गारंटी नहीं कर सकता।

इतना ही नहीं, सरकार ने विधेयक में सूखा, बाढ़, आग से तबाही, भूकम्प, चक्रवात और अन्य प्राकृतिक संकट के दौरान लोगों को खाद्य सुरक्षा देने की कानूनी जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया है। अगर ऐसी विकट स्थितियों में भोजन की गारंटी सरकार नहीं दे पाती तो यह विधेयक अपना सारा अर्थ खो देता है। यह केवल कागज का एक टुकड़ा रह जाता है, जिसे संसद द्वारा पारित करने या न करने का अधिक अर्थ नहीं है। ऐसे में इसे वास्तव में खाद्य सुरक्षा का कानून कैसे कहा जाए?

सड़ रहे अनाज की वजह से बढ़ रही है मंहगाईसड़ रहे अनाज की वजह से बढ़ रही है मंहगाईबड़ा सरोकार अनाज और बच्चों/माँओं के भोजन की गुणवत्ता का भी है। हाल में, स्कूलों से उठाए गए 288 खाने के नमूने लेकर उनकी जाँच की गई और पाया गया कि सिर्फ 50 जगह ही खाना सही प्रकार से बना था, बाकी 238 स्कूलों/आंगनबाड़ियों में 83 प्रतिशत दोपहर का भोजन अशुद्ध और अस्वास्थ्यकर निकला। विधेयक इस बाबत किसी सतर्कता की बात नहीं करता। ‘राइट टु कैंपेन’ 15 मार्च से दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में इस विधेयक के विरोध में धरना-प्रदर्शन कर रहा है। इस अभियान में देशभर के 700 से ज्यादा संगठन शामिल हैं। 20 मार्च को अभियान के कार्यकर्ता कुछ सांसदों से मिले हैं और उनमें से हरेक को 165 ग्राम अनाज भेंट किया। इसके जरिए उन्होंने यह बताने और जताने की कोशिश की है कि कैसे कोई एक व्यक्ति सिर्फ 165 ग्राम अनाज से प्रतिदिन अपना पेट भर सकता है (प्रति व्यक्ति पाँच किलो, प्रतिमाह को तीस दिन में बाँट दें, तो हर दिन एक व्यक्ति के हिस्से में 165 ग्राम अनाज आता है।) अभियान के कार्यकर्ता इस विधेयक को एक झाँसा समझते हैं।

भूख के साथ-साथ ही प्यास की बात भी जुड़ती है। संयुक्त राष्ट्र के 2010 के सम्मेलन में पानी को मानवाधिकार मानने वाली नियम-पुस्तिका पर हस्ताक्षर करने के बावजूद अपनी ही वचनबद्धता को ठुकराकर भारत सरकार पानी का निजीकरण करने पर आमादा है। वजह सीधी-सी है। जिस चीज को बनाने की भी जरूरत न हो, जो उपहार प्रकृति ने सबको समान रूप से दिया हो, उसे बाजार के हवाले कर दिया जाए ताकि बड़े-बड़े कॉरपोरेटों को इसका मुफ्त में फायदा हो, वे लहरें गिन कर पैसे कमाएं। 20-25-30 साल पहले तक भी हम सोच नहीं पाते थे कि पानी भी ऐसे खरीद कर पीना पड़ेगा मगर अब पानी बिकाऊ बन चुका है। बोतलबंद पानी ही नहीं, नदी-तालाब का पानी भी।

लोगबाग इस चाल को समझ न जाएँ, इसलिये निजीकरण की इस प्रक्रिया को एक भरमाऊ नाम दिया गया है- ‘सार्वजनिक-निजी-भागीदारी (पीपीपी)’। इसके तहत ‘सार्वजनिक’ माने सरकार और निजी माने कॉरपोरेट और भागीदारी माने सरकार और कॉरपोरेट के बीच की मिलीभगत। देश के 600 शहरों में अगले तीन साल में पीपीपी के तहत पानी का बाजारीकरण करने की एक बड़ी योजना है। ‘सिटीजंस फ्रंट फॉर वाटर डेमोक्रेसी’ नाम के एक समूह ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके दिल्ली जलबोर्ड के उस निर्णय को चुनौती दी है जिसके तहत दिल्ली में भागीरथी जल परिशोधन संयंत्र के लिये मनमाने तरीके से लार्सन एंड टुब्रो के साथ करार कर लिया गया है। अब हाइकोर्ट को फैसला देना बाकी है।

विश्व बैंक की शर्तों को पूरा करने के लिये 2005 में भी दिल्ली सरकार ने पानी का निजीकरण करने की जोरदार कोशिश की थी, लेकिन बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए और सरकार को पीछे हटना पड़ा। अब पिछले तीन-चार सालों से निजीकरण को ‘भागीदारी’ का नाम देकर सरकार ने फिर वही प्रक्रिया शुरू कर दी है। दिल्ली में तीन जगहों- मालवीय नगर, वसंत विहार और नांगलोई- में पाइलट परियोजनाएं शुरू भी की जा चुकी हैं।

दिल्ली जल बोर्डदिल्ली और देश के अन्य महानगरों में जहाँ-जहाँ बड़े-बड़े मॉल खुले हैं उनके आस-पास के 4-6 किलोमीटर के इलाके में पहले के मुकाबले अब 25 फीसदी पानी आता है। ‘राइट टु वाटर कैंपेन’ द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है।

‘फोकस ऑन ग्लोबल साउथ’ नाम की संस्था के शोध-प्रमुख अफसर जाफरी बताते हैं कि कुल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का कम-से-कम सौवां हिस्सा यानी एक प्रतिशत पानी और स्वच्छता पर खर्च होना चाहिए लेकिन अभी महज आधा प्रतिशत खर्च किया जाता है। ‘वाटर एड’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2008 में 0.57 प्रतिशत (सौ रुपये में सत्तावन पैसे) पानी और स्वच्छता पर खर्च किया गया था लेकिन 2010 में यह रकम 12 पैसे और कम होकर 0.45 पैसे रह गई। बजाय, बजट और क्रियान्वयन में मजबूती लाकर पानी के प्रबंधन और वितरण को और जन-सुलभ बनाया जाए, सरकार पानी को दुर्लभ बनाने की जुगत में लगी हुई है। पैसा हो तो ही पानी मिलेगा, जैसे बिजली मिलती है।

यह विडंबनापूर्ण स्थिति तब है जब पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा और यातायात को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है यानी संविधान के मूल्यों के तहत इन्हें व्यापारिक रूप से बाजार में खरीदा या बेचा नहीं जा सकता क्योंकि गरिमामय मानवीय जीवन के ये आधार हैं और प्रत्येक लोक कल्याणकारी राज्य का यह फर्ज है कि वह इन अधिकारों को मुहैया कराए। पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर ने दिल्ली में हुए एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में बड़े फते की बात कही। वे बोले, ‘पानी का निजीकरण यानी जीवन का निजीकरण।’ इस बात पर बजने वाली तालियाँ सच्ची थीं। कहा जाता है कि पानी का अपना कोई रंग नहीं होता, इसे जिसमें मिला दो, यह उसी के रंग में रंग जाता है। लेकिन हमारे बँटे हुए समाज में पानी की भी जात होती है। असंख्य गाँवों में आज भी दलितों को सबके लिये बने कुँओं, बावड़ियों, पोखरों और तालाबों से पानी लेने की मनाही है। हाल में मानवाधिकार आयोग ने बिहार के किशनगंज जिले के एक गाँव में दलितों को पानी न देने के मामले में बिहार सरकार के मुख्य सचिव से जवाब-तलब किया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति व्यक्ति को प्रतिदिन कम-से-कम 120 लीटर पानी मिलना चाहिए। अन्य जगहों की बात तो जाने दीजिए, देश की राजधानी दिल्ली में 100 में से 80 लोगों को औसतन सिर्फ 20 लीटर पानी मिलता है। जबकि लूटियन की दिल्ली के सब्जबागी बंगलों और खाते-पीते मध्यवर्ग के घरों में औसतन प्रति व्यक्ति 800 से 1200 लीटर तक पानी की उपलब्धता है। दिल्ली सरकार का दावा है कि दिल्ली के पास दरअसल प्रति व्यक्ति 240 लीटर पानी मौजूद है। सिटिजंस फ्रंट फॉर डेमोक्रेसी के सरताज अहमद नकवी बताते हैं कि दिल्ली में परिशोधन के जरिए प्रतिदिन 384 करोड़ लीटर पानी का उत्पादन होता है, इस पानी को अगर दिल्ली की एक करोड़ पैंसठ लाख आबादी में बराबर-बराबर बाँटा जाए तो हर व्यक्ति के हिस्से में लगभग 235 लीटर पानी आएगा। फिर दिल्ली की 353 प्रतिशत आबादी (लगभग 50 लाख लोग) क्यों पानी को ठेकेदारों से खरीदकर पीती है- नकवी पूछते हैं। उनका मानना है कि इसकी मुख्य वजह सत्ता में बैठे लोगों का स्वार्थ और भ्रष्टाचार है। जलबोर्ड के ही पानी को, राशन की ही तरह, चोर बाजार में बेच दिया जाता है और प्यास के मारे लोग अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा पानी पर खर्च करने को मजबूर हो जाते हैं।

अंधाधुंध दोहन से बढ़ता जल संकटभारत सरकार की नई जल नीति के घड़े में बहत्तर सुराख हैं। पानी को सर्वसुलभ कराने के नाम पर इसमें पानी को निजी हाथों में दे देने की वकालत की गई है। प्रसिद्ध पानी विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर इसे सरकार का षड्यंत्र मानते हैं। सरकार का इरादा नेक नहीं है। सारी पार्टियाँ, जो जहाँ सत्ता में हैं, वही पानी का व्यापार करने पर आमादा हैं, संवैधानिक मूल्यों को न मानने की ऐसी हिमाकत सिर्फ स्वार्थपरस्त नेता ही कर सकते हैं। लेकिन लातूर, खंडवा, गुलबर्ग जैसी कई ऐसी जगहें भी हैं जहाँ लोग पानी के हक के लिये संगठित हुए हैं और सरकार को निजीकरण की योजना को स्थगित कर देना पड़ा है। दुनिया के कई देशों में जन-दबाव के कारण पानी के निजीकरण की प्रक्रिया बीच में ही रोक देनी पड़ी है। लातिनी अमेरिकी देश बोलीविया में तो लोगों ने लाखों की संख्या में उस शहर की चारों सीमाओं पर खड़े हो गए और किसी का आना-जाना प्रतिबंधित कर दिया। पहली बार किसी देश के संविधान ने पनीले हर्फों में लिखा: ‘पानी जीवन है। किसी भी सूरत में उसका निजीकरण या व्यापार नहीं किया जा सकता। पानी एक मानवीय अधिकार है और किसी को भी उससे वंचित नहीं किया जा सकता।’

मोहनदास करम चंद गाँधी ने लाख टके की एक बात कही थी- ‘कुदरत के पास सबकी जरूरत भर का दाना-पानी तो है लेकिन कुछ लोगों के लालच को पूरा करने की उम्मीद उससे मत रखिए।’

क्या भूख-प्यास से भरी इस दुनिया में हम उस अक्लमंद इंसान की बात पर गौर करने को तैयार हैं?