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योजना, अप्रैल 1998
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और देश के पूर्वोत्तरी भागों में सड़कों के निर्माण पर विशेष जोर दिया जा रहा है क्योंकि सड़क-निर्माण विकास की एक प्रमुख बुनियादी आवश्यकता है। केन्द्र की सहायता से कई राज्य सरकारों ने अनेक परियोजनाएँ हाथ में ली हैं। सड़क निर्माण की सतत प्रक्रिया पर जोर देना इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों को जोड़ने के लिये ये सड़कें उसी तरह आवश्यक हैं जैसे हमारे शरीर में तमाम अंगों तक रक्त संचार के लिये धमनियाँ जरूरी हैं।
हमारे देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में निवास करती है। देश को आजादी मिलने के बाद से सभी पंचवर्षीय और वार्षिक योजनाओं में ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की हालत में सुधार लाने के लिये अनेक कार्यक्रमों को चलाने पर जोर दिया गया। लेकिन पिछले 50 वर्षों के दौरान ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के जीवन में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया। अब भी गाँवों में पर्याप्त बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। देश के बहुत से क्षेत्रों में अब भी ऐसे अनेक गाँव हैं जहाँ आस-पास के इलाकों से सड़कों से सम्पर्क नहीं हो पाता। उन इलाकों के लोगों को आस-पास के शहरों तक जाने के लिये तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आज उपग्रहों के माध्यम से संचार सुविधाएँ इतनी बढ़ गई हैं कि भूमण्डल की कौन कहे, अन्य ग्रहों तक संचार सम्पर्क होने लगा है। समूचे विश्व में जहाँ संचार क्रान्ति का लोग लाभ उठा रहे हैं, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी बहुत से गाँव ऐसे हैं जहाँ टेलीफोन की लाइनें तक नहीं पहुँच पाई हैं।वहाँ के लोगों को अपने निकट सम्बन्धियों से टेलीफोन के जरिये बातचीत करने के लिये कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है और तभी वार्ता सम्भव हो पाती है। आज भी देश के कुछ इलाकों में ऐसे गाँव हैं जहाँ डाकिया हफ्ते या 15 दिन में एक बार चिटिठ्याँ लेकर पहुँचता है। देश के शहरी भागों में जहाँ चारों ओर फव्वारे देखने को मिलते हैं, वहीं गाँवों में पीने के पानी की तंगी कुछ इलाकों में अब भी पाई जाती है। रेगिस्तानी और पहाड़ी इलाकों में सिर पर घड़े या गागर रखकर कई किलोमीटर चलने के बाद ही पानी का स्रोत उपलब्ध हो पाता है और कुछ परिवारों में तो परिवार के एक या दो सदस्य कुटुम्ब के लोगों को पानी उपलब्ध कराने के काम में सारा दिन जुटे रहते हैं। जहाँ देश के शहरी भागों में बिजली की जगमगाहट देखने को मिलती है, आज भी बहुत से गाँव ऐसे हैं जहाँ लोगों को लालटेन या दीप जलाकर घर में रोशनी करनी पड़ती है।
परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि पिछले पाँच दशकों के दौरान समूचे देश में बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराने के मामले में कोई प्रगति ही नहीं हुई। पाँचवीं योजना के समय यह संकल्प व्यक्त किया गया गया था कि जिन गाँवों की आबादी डेढ़ हजार या उससे अधिक है, उन सभी गाँवों तक सड़कों की सुविधाएँ उपलब्ध करा दी जाएँगी। न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के तहत 1991-92 तक ऐसे 65 हजार गाँवों को ही सड़कों से जोड़ा जा सका। आठवीं योजना के दौरान एक हजार तथा उससे अधिक आबादी वाले करीब एक लाख 30 हजार गाँवों को सड़कों से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन इसमें से 86 प्रतिशत गाँवों तक ही सड़क सम्पर्क कायम हो सका। जवाहर रोजगार योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों के निर्माण पर विशेष जोर दिया गया। गाँवों के बेरोजगार और अल्प-रोजगार प्राप्त लोगों को इस योजना के तहत साल में कम-से-कम नब्बे से सौ दिन का रोजगार उपलब्ध कराया गया और ऐसे लोगों के जरिये ग्रामीण क्षेत्रों में कई विकास कार्यों को पूरा किया गया। ग्रामीण इलाकों में सामुदायिक शौचालयों, ग्रामीण सड़कों एवं सिंचाई कार्यों के निर्माण के अतिरिक्त बंजर भूमि का विकास करने, मिट्टी का कटाव रोकने और पानी का संरक्षण करने जैसे कार्यों पर भी जोर दिया जाता है।
जवाहर रोजगार योजना के लिये 80 प्रतिशत धन केन्द्र सरकार से और बाकी 20 प्रतिशत राज्य सरकारों से उपलब्ध कराया जाता है। इसके अन्तर्गत एक-एक हजार आबादी की इकाई मानकर ग्रामीण विकास के कार्यक्रम चलाये जाते हैं और उनमें रोजगार उपलब्ध कराने पर विशेष जोर दिया जाता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और देश के पूर्वोत्तरी भागों में सड़कों के निर्माण पर विशेष जोर दिया जा रहा है क्योंकि सड़क-निर्माण विकास की एक प्रमुख बुनियादी आवश्यकता है। केन्द्र की सहायता से कई राज्य सरकारों ने अनेक परियोजनाएँ हाथ में ली हैं। सड़क निर्माण की सतत प्रक्रिया पर जोर देना इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों को जोड़ने के लिये ये सड़कें उसी तरह आवश्यक हैं जैसे हमारे शरीर में तमाम अंगों तक रक्त संचार के लिये धमनियाँ जरूरी हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में पीने का पानी उपलब्ध कराना एक अन्य प्रमुख आवश्यकता है। यूँ तो हमारे देश में पहली पँचवर्षीय योजना से ही इससे सम्बन्धित कार्यक्रमों पर जोर दिया जाता रहा है लेकिन विडम्बना की बात है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी बहुत से गाँव पेयजल की समस्या से ग्रस्त हैं। जल हमारे जीवन की ऐसी बुनियादी आवश्यकता है जिसके बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमारे देश की जनसंख्या दो हजार ईस्वी तक एक अरब तक पहुँच जाने की सम्भावना है। और इतने व्यक्तियों के लिये पेयजल उपलब्ध कराना किसी भी सरकार के लिये एक चुनौती भरा काम होगा। हर व्यक्ति प्रतिदिन कम-से-कम छह से आठ गिलास यानी तीन लीटर पानी पीता है। ऐसी स्थिति में सिंचाई के अलावा स्वच्छ पेयजल की भी आपूर्ति कराना अत्यन्त आवश्यक कार्य होगा। देश की स्वतन्त्रता के बाद 1948-49 में ही एक समिति नियुक्त की गई थी जिसने 40 वर्षों के लिये जल उपलब्ध कराने के सम्बन्ध में एक योजना तैयार की थी। 1960 के दशक में यह पाया गया कि देश के बहुत से गाँवों में ग्रामीण जलापूर्ति की योजनाएँ आशानुरूप सफल नहीं हो पाई हैं। अतः बाद की पँचवर्षीय योजना में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के अंतर्गत पेयजल आपूर्ति को शामिल किया गया।
इतना ही नहीं 1986 में राष्ट्रीय पेयजल मिशन भी कायम किया गया। आठवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत सभी ग्रामीण बस्तियों में जलापूर्ति की व्यवस्था का लक्ष्य रखा गया। 1991 से 1993 के बीच ऐसी बस्तियों की पहचान की गई जहाँ अभी तक कोई जलस्रोत उपलब्ध नहीं है। सुरक्षित जलस्रोत के बारे में यह सिद्धान्त तय किया गया कि मैदानी इलाकों के जिन गाँवों में 106 किलोमीटर के भीतर कोई गहरा जल स्रोत मौजूद नहीं है अथवा पहाड़ी इलाकों के जिन गाँवों में सौ मीटर की ऊँचाई तक पेयजल का सुरक्षित स्रोत नहीं है या जिन गाँवों में पानी में गिनीकृमि, हैजे के रोगाणु मौजूद हैं या जहाँ पानी में अधिक नमक, क्लोराइड, लोहा या आर्सेनिक जैसे जहरीले तत्व पाये जाते हैं, ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों को जल की समस्या से ग्रस्त मानकर प्राथमिकता के आधार पर पेयजल उपलब्ध कराया जाए। जुलाई, 1996 तक इस कार्यक्रम में नौ लाख बीस हजार से अधिक बस्तियाँ शामिल हो चुकी थीं।
गाँवों में पेयजल की गुणवत्ता पर निगरानी रखने की व्यवस्था पर भी जोर दिया जा रहा है। इस उद्देश्य से हैण्डपम्पों के इर्द-गिर्द सफाई रखने के लिये चबूतरों की व्यवस्था की जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर बीमारियाँ पानी के स्वच्छ न होने के कारण होती हैं। इस बारे में ग्रामीण लोगों में और जागरुकता पैदा करने की आवश्यकता है। उन्हें इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखना होगा कि वे बहते हुये पानी को प्रदूषित न करें। कूड़ा-कचरा और त्याज्य पदार्थ पानी में न फेंकें। कुँओं और तालाबों के पास शौच आदि न करें। जहाँ पानी का भण्डारण किया गया हो, ऐसे जल में गंदे बर्तन न डालें। तभी प्रकृति द्वारा प्रदत्त जल जैसे अनमोल उपहार को सुरक्षित रखा जा सकता है।
1988-89 में दस लाख कुँओं की एक योजना तैयार की गई थी। इस योजना में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और मुक्त कराये गये बंधुआ मजदूरों के लिये मकान बनाने के अलावा दस लाख कुँओं की योजना को एक साथ चलाने का लक्ष्य रखा गया था। इसमें शहीद सैनिकों के परिवारों को भी लाभार्थियों के सूची में रखा गया था। इन्दिरा आवास योजना के तहत उन स्थानों पर हैण्डपम्प लगाने का कार्यक्रम रखा गया जहाँ पानी की सप्लाई के अन्य साधन उपलब्ध नहीं थे। लोगों को इस बात के लिये प्रोत्साहित किया गया कि वे कुएँ या हैण्डपम्प से पानी निकालें और अपना श्रम देकर मकान बनाएँ इससे उनकी कई आवश्यकताएँ एक साथ पूरी हो सकेंगी। दस लाख कुँओं की योजना के अन्तर्गत जब कई योजनाएँ शामिल हो गई तो एक जनवरी, 1996 से उसे एक अलग कार्यक्रम का रूप दिया गया। इसके लाभार्थियों का चयन करते समय प्राथमिकता का क्रम इस प्रकार रखा गया, मुक्त कराये गये बंधुआ मजदूर अत्याचार के शिकार हुये अनुसूचित जातियों और जनजातियों के गरीब और अत्यन्त छोटे किसान, विधवाएँ और अविवाहित महिलाएँ जो अत्यन्त गरीबी में गुजर-बसर कर रही हों, बाढ़, भूकम्प आदि अन्य दैवी आपदाओं से प्रभावित अनुसूचित जाति और जनजातियों के लोग एवं गरीबी-रेखा से नीचे रह रहे इन जातियों के लोग।
दस लाख कुँओं की योजना से जहाँ लोगों की पेयजल की समस्या हल होती है वहीं उन्हें रोजगार भी उपलब्ध होता है और उनके भोजन की आवश्यकता भी पूरी होती है। कुँओं की इस योजना में ट्यूबवेल या बोरिंग किये हुये कुँओं को शामिल नहीं किया जाता। इसका उद्देश्य सिंचाई न होकर ग्रामीण लोगों की पेयजल की बुनियादी आवश्यकता को पूरा करना है।
बुनियादी ढाँचे के विकास में बिजली का प्रमुख स्थान है। बिजली के ढाँचे के विकास में खर्च बहुत आता है। इसकी परियोजना तैयार करने, ट्रांसमिशन लाईनें बिछाने और उपभोक्ताओं तक उसे पहुँचाने में भारी खर्च करने पड़ते हैं इसके बावजूद ग्रामीण उपभोक्ता बिजली का शुल्क ठीक प्रकार अदा नहीं कर पाते। कुछ राज्यों में प्रत्येक मकान में कम से कम सिंगल प्वाइंट कनेक्शन का कार्यक्रम चलाया गया था लेकिन यह कार्यक्रम अभी तक पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है। ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युत चालित पम्प सेट का इस्तेमाल करके सिंचाई की जाने लगी है। इससे जहाँ एक ओर वर्षा पर किसानों की निर्भरता कम हुई है, दूसरी ओर खाद्यान्न उत्पादन भी बढ़ा है। ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़े-कचरे से बिजली पैदा करने के कार्यक्रमों को भी प्रोत्साहन दिया जा रहा है ताकि ग्रामीण इलाकों में ऊर्जा और ईंधन की बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी करने में इनका योगदान लिया जा सके। ग्रामीण इलाकों में पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध होता रहे इसके लिये जरूरी है कि भूमि सुधार कार्यक्रमों की ओर अधिक ध्यान दिया जाए और गाँवों के लोगों को भूमि सम्बन्धी आवश्यक विवादों में उलझने न दिया जाए।
ग्रामीण क्षेत्रों में विकास के लिये बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराने के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि स्थानीय लोगों के रीति-रिवाजों और उनकी पसंद तथा आदतों को नजरअंदाज न किया जाए। ऐसी परियोजनाएँ चलाई जाएँ जिनमें वहाँ के लोगों का पूरा-पूरा सहयोग मिले और जिनमें वे सामूहिक रूप से उल्लास के साथ शामिल हो सकें। उन कार्यक्रमों में स्थानीय संस्थाओं, पंचायती राज संस्थाओं और स्वैच्छिक संगठनों का पूरा-पूरा सहयोग लिया जाना चाहिये। ग्रामीण लोगों में सहकारिता की भावना का विकास किया जाना चाहिये जिससे वे अपने बारे में सामूहिक रूप से निर्णय ले सकें और आत्मविश्वास के साथ उन पर अमल कर सकें। योजनाएँ और निर्णय उन पर ऊपर से न थोपे जाएँ बल्कि जो भी कार्यक्रम चलाये जाएँ उनमें ग्रामीण लोगों को पूरी तरह शामिल किया जाए। तभी सही मायनों में ग्रामीण विकास के कार्य में गति आ सकेगी।
(लेखक आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग में समाचार सम्पादक हैं।)