पानी ढोती स्त्रियाँ

Submitted by Hindi on Mon, 05/23/2011 - 09:01
पानी ढोते-ढोते खर्च हो जाती है
स्त्रियों की पूरी एक उम्र
इन स्त्रियों का पसीना
उन पहाडि़यों के माथे से सूखता नहीं कभी
जिनकी तराई में स्त्रियाँ झरने से
भरती हैं अपने गुण्डी-कलश

मरुस्थल की प्यास ज़िन्दा रखने का
स्त्रियों में होता है अद्भुत हुनर
उन्हीं से जागते हैं घर के बर्तन-बासन
और पहाड़ी-पगडण्डियाँ

जब ये स्त्रियाँ रोटी-पानी के बाद
रात में झपा जाती हैं
उनकी नींद में अचानक पुकारता है
कोई प्यासा कण्ठ
और ये फिर उठकर चल देती हैं
अल्सुबह पहाड़ी झरने की तरफ़

पहाडि़यों पर ठिगने-ठिगने घरो में
रहती ये स्त्रियाँ अपने श्रम-संस्कार से
जिलाए रखती हैं घर की भूख-प्यास
(अन्न-जल स्त्रियों से ही पाता है
घर में मान-सम्मान!)

पानी ढोती स्त्रियों के कण्ठ में
होता है पानी जितना मीठा-तरल गीत
जिसके सहारे ही अक्सर पार करती हैं
ये अपनी रपटीली राह

पानी ढोती स्त्रियाँ
हँसती हैं जब शक्कर-हँसी
कलश के पानी में बढ़ जाती है मिठास
और पहाडि़याँ उदास नहीं होतीं

सिर पर गागर या कलश बोहे
ये स्त्रियाँ आपसी बातचीत में
काढ़ देती हैं जब कोई अपना दुक्ख
इनकी आँखें बरसती हैं
और आँकी-बाँकी पगडण्डियों में
फैल जाता है चुप्पी का शोकगीत

पानी ढोती स्त्रियों के जीवन में
केवल एक ही दिशा होती है
जो घर की देहरी से खुलती है
पहाड़ी झरने की तरफ़!