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उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मण्डल में नौलों की एक संस्कृति रही है। इस बार अल्मोड़ा यात्रा के दौरान उस संस्कृति से साक्षात्कार का अवसर मिला। मैंने वहाँ पाया कि कत्युरी राजाओं ने इस सन्दर्भ में बहुत काम किया है।
हिमालय क्षेत्र में जितने भी पुराने नौले हैं, वहाँ कत्युरी राजाओं की छाया देखी जा सकती है। नौलों में हमारी संस्कृति भी दिखती है, जितने नौले हैं, वहाँ यक्ष देवता की मूर्ति हर नौले में रखी हुई दिख जाएगी। पुराने समय के लोग यह बताते हैं कि इस क्षेत्र में यक्ष देवता को प्रणाम करने के बाद ही पानी लेने का विधान रहा है।
नौलों में जूता पहनकर जाने की सख्त मनाही थी, इसलिये पानी लेने आने वाला शख्स जूतों को खोलकर, जल में रखे गए देवता की मूर्ति को प्रणाम करके ही पानी लेेता था। इसका अर्थ है कि पुराने समय में स्वच्छता का विशेष ख्याल रखा गया था। जो शहर में पानी का पाइप-लाइन आने के बाद लगभग खत्म ही हो गया। अब तो पानी के लिये लोगों ने बाहर निकलना भी बन्द कर दिया है।
इस तरह बहुत से नौले उपेक्षित एवं लुप्त हो गए। लेकिन हमने कभी नहीं सोचा कि इन नौलों को बचाने से हम पानी के संकट से बच सकते हैं। समाज को शुद्ध पानी निशुल्क मिल सकता है इतना ही नहीं आधुनिकता की आँधी में नौलों के साथ हमारे सांस्कृतिक जुड़ाव को भी पहाड़ के समाज ने भूला दिया। पहाड़ों में अब आखिरी पीढ़ी बची है, जो नौलों के महत्त्व और इतिहास को लेकर संवेदनशील है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारा परम्परागत ज्ञान तभी सुरक्षित रह सकता है, जब हम नौले के पास जाएँगे और उस आत्मीयता को महसूस करेंगे। देखने में आ रहा है कि नौलों के प्रति चिन्तित लोग अधिक हैं। लेकिन नौलों के प्रति उनकी चिन्ता कम और परियोजना के प्रति उसमें आकर्षण अधिक नजर आता है। यदि ईमानदारी से काम किया जाये तो समाज की सहभागिता और प्रशासन के सहयोग से यह काम किया जा सकता है।
अल्मोड़ा के सामाजिक कार्यकर्ता दयाकृष्ण कांडपाल बताते हैं कि उन्होंने मित्रों के साथ मिलकर नौलों की सफाई का काम प्रारम्भ किया था। बहुत से नौलों में उन्होंने सफाई अभियान चलाया। उन्होंने रानी नौला, लक्ष्मीश्वर नौला, सिद्ध नौला, कपिना नौला में सफाई की। यह सब उन्होंने किसी प्रोजेक्ट के अन्तर्गत नहीं किया, बल्कि नदी बचाओ अभियान चलाते हुए किया। उन्हें लगा कि नदी तभी बचेगी, जब नौले और धारे बचेंगे। उन्होंने नौले और धारों की सफाई के अभियान की शुरुआत इसलिये कि क्योंकि उन्होंने सोचा था कि इस तरह से नौलों-धारों की सफाई के काम से समाज को जोड़कर वे दूसरे नौले की सफाई के लिये आगे बढ़ जाएँगे। जबकि तीन चार सप्ताह सफाई करने के बाद लोगों के फोन उनके पास आने लगे कि इस बार सफाई के लिये क्यों नहीं आये?
लोग इस तरह के अभियान से जुड़ते नहीं बल्कि उनकी आदत निर्भर रहने की हो गई है। कोई बाहर से आये और उनकी सारी फैलाई हुई गन्दगी समेटकर अपने साथ ले जाये। बकौल दयाकृष्ण- ‘‘यदि कोई विशुद्ध सेवा भाव से भी समाज के बीच काम करता है तो लोगों को लगता है कि इसके पास फंड आया है, इसलिये कर रहा है। इस तरह समाज में ईमानदार लोगों के प्रति भी सन्देह और अविश्वास की भावना आ गई है। यहाँ सरकार को भी समझना चाहिए कि सिर्फ कानून बनाना उनका काम नहीं है, उन्हें समझना होगा कि समाज के प्रति भी उनका कोई कर्तव्य है। उन्हें कत्युरी राजा से कुछ सीखना चाहिए कि आज हिमालय में जो भी टूरिज्म है, जोगेश्वर, बागेश्वर, केदारनाथ, बद्रीनाथ इतना ही नहीं, ये नौले-धारे कत्युरी राजाओं की समृद्ध विरासत का ही हिस्सा हैं।’’
शिवजी के पुत्र कार्तिकेय के नाम से छठे शताब्दी में एक साम्राज्य कत्युरी स्थापित हुआ। बताया जाता है कि हिमालय भू भाग में पहला सिक्का इन्होंने ही चलाया। जो आज भी संग्राहलय में मिल जाएगा। इनकी सीमा अफगानिस्तान तक फैली थी। सन छह में कुमाऊँ में संकट आया। चीन की तरफ से हमला हुआ।
कत्युरी राजाओं की राजधानी तिब्बत के पास ब्रम्हपुर थी। राजा शिव ने उस समय अपनी बहन सुनंदा को जो मेवाड़ के राजा के यहाँ ब्याही गई थी। उसे सन्देश भेजा कि हमारा राज छीन्न-भिन्न हो गया है। मदद कीजिए। मेवाड़ के राजा ब्रम्हपुर की रक्षा के लिये आये जिसमें रास्ते में कई राजे-रजवाड़े जुड़ते चले गए। ब्रम्हपुर आजाद हुआ। फिर लम्बे समय तक कोई विपदा इस क्षेत्र पर नहीं आई। कार्तिकेय का साम्राज्य बहुत फैला। कत्युरी राजाओं का युद्ध मुगलों से हुआ।
काठगोदाम के पास जो रानी बाग है, वहाँ जिया रानी मुगलों से लड़ती हुई मारी गई। लेकिन अपने जीवन में मुसलमानों को पहाड़ में नहीं आने दिया। वैसे इतिहासकार अल्मोड़ा शहर को बसाने का श्रेय चंद राजाओं को देते हैं। सन 1563 में चंद राजा बालो कल्याणचंद ने अल्मोड़ा को अपनी राजधानी बनाया। उससे पहले यह शहर कत्युरी राजाओं की देखरेख में था और चंद राजाओं की राजधानी उस समय पिथौरागढ़ हुआ करती थी।
अल्मोड़ा नाम के पीछे भी एक कहानी सुनने को मिलती है। अल्मोड़ा स्थित कटारमल के सूर्य मन्दिर के बर्तनों की सफाई के लिये प्रतिदिन खसियाखोला नाम की जगह से खस समुदाय के लोग एक खास घास मन्दिर में पहुँचाते थे। इस घास का नाम चिल्मोड़ा था। जिसे कुछ लोग अमला नाम से भी जानते हैं।
इसी चिल्मोड़ा घास के नाम पर शहर का नाम अल्मोड़ा रख दिया गया। जानकार बताते हैं कि मुगलों ने चंद राजाओ से समझौता किया था। जिस समझौते के अन्तर्गत चंद राजाओं ने मुसलमानों को अपने यहाँ रहने की जगह देने का आश्वासन दिया और अल्मोड़ा शहर में राजपुरा उसी समझौते के अन्तर्गत बना।
उस दौर में आम जन के बीच देवताओं का भय था कि वे नौलों में स्वच्छता का ख्याल बरतें। वर्ना देवता नाराज हो जाएँगे। अब वह डर समाज के अन्दर से जाता रहा है और समाज का नैतिक मूल्य खत्म हो रहा है। अब युवा पीढ़ी को परिवार और समाज से नैतिक शिक्षा मिलती भी नहीं है।
वैसे अनैतिकता के आग्रह के साथ विकास कर रहे समाज को परवाह हो ना हो, पर नौलों में उतरने पर ईश्वर की मूर्तियाँ अब भी वहाँ विराजमान हैं। वहाँ गोल विष्णु चक्र मिलेगा। कत्युरी राजा मानते थे कि जल ही विष्णु है। जो हमारा लालन-पालन करता है। अब भेड़चाल हो गई है। हरिद्वार जाना है। गंगा में डुबकी लगानी हैै। अब भेड़-चाल में हमारे अन्दर का आध्यात्मिक बोध खत्म हो गया है। भौतिक बोध बच गया कि हमें नहाना है। इसीलिये हम नदियों और नौलों को प्रदूषित कर रहे हैं। हमें इस बात की परवाह नहीं रही कि हमारे बाद भी लोग यहाँ आएँगे। हम अपने कल के लिये प्रकृति को सँवारने में यकीन खो रहे हैं।
सरकार व्यावसायी की तरह सोचती है। वह जल संसाधन से अधिक-से-अधिक पैसा कमाना चाहती है। लोग भी अधिक मेहनत नहीं करना चाहते हैं। वे पैसा खर्च करने को तैयार हैं। आज सभी यही सोच रहे हैं कि खरीदकर चीजों को ले लिया जाये।
हिमालय क्षेत्र जो देश की 60 फीसदी जल की जरूरत को पूरा करता है। वहाँ रासायनिक खेती बिना सीवर शौचालय बनाना, वह हमारे जलस्रोत को ही प्रदूषित कर रहा है। शहरों को हम बढ़ाते जा रहे हैं। इस तरह भूजल में प्रदूषण बढ़ रहा है। इसकी हमें चिन्ता नहीं है। इसका दुष्प्रभाव हम पूरे देश मेें देख रहे हैं कि कैसे कैंसर और दूसरी बीमारियों के रोगी बढ़ रहे हैं। नए तरह के शौचालय में क्या हो रहा है, एक बार के मल मूत्र को बहाने के लिये लगभग 6-7 लीटर पानी बहाना पड़ता है। पानी का कन्ज्यूम नई तकनीक में इतना बढ़ा दिया गया है कि आने वाले समय में यही हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ा होगा।
अल्मोड़ा शहर में सबसे पहले पीने के पानी के लिये 1885 में बल्ढौती पेयजल योजना आई थी। पानी के अभाव में यह योजना खत्म हुई। दूसरी योजना आई ‘शैल पेयजल योजना’। इसके अलावा कोसी पेयजल योजना और स्याही देवी पेयजल योजना लाई गई। इन योजनाओं ने भूजल के स्तर को गिराने का ही काम किया।
यह शहर जिसे 360 नौलों का शहर कहा जाता है, जिसका जिक्र पंडित बद्रीदत्त पांडेय ने ‘कुमाऊँ के इतिहास’ में किया है। दूसरी तरफ नैनीताल की कथित तौर पर खोज करने वाला बैरन जो 1840 में अल्मोड़ा आया। उसने लिखा कि अल्मोड़ा में उस समय लगभग 100 जलस्रोत थे। ‘पर्वतीय जलस्रोत’ नामक किताब के लेखक प्रफुल्ल चंद पंत ने 1988-93 के बीच नौलों और धारों पर एक गम्भीर अध्ययन किया और उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि बैरन सही था।
कोसी पेयजल योजना सन 1952 में बनी। बावजूद इसके अल्मोड़ा में पानी के लिये नौलों की शरण में जाना मजबूरी थी। इस योजना का पानी भी अल्मोड़ा के लिये पर्याप्त नहीं था।
सन 1882 में अल्मोड़ा की जनसंख्या 5000 थी। उस वक्त भयानक सूखा पड़ा था। सारे जलस्रोत सूख गए थे। बची सिर्फ कपीना धारा। उन दिनों कपीना धारा पर चाय का बगान हुआ करता था। उस धारा के पानी ने लगभग 135 साल पहले पूरे अल्मोड़ा शहर के जीवन की रक्षा की थी।
पंडित बद्री दत्त जोशी जिन्होंने बदरिश्वर मन्दिर बनाया। उन्होंने जिलाधिकारी को जल परियोजना के लिये एक पत्र लिखा था, जिसमें इस घटना का उल्लेख मिलता है। बल्ढौती में पाँच जलस्रोत थे। उस पानी को पहली बार पाइप के जरिए अल्मोड़ा शहर में लाया गया लेकिन उस पानी से अल्मोड़ा की जरूरत पूरी नहीं हुई। कचहरी के पास रम्फा नौला है। वहाँ जल परियोजना का पानी छोड़ा गया। 1928 में स्याही देवी जल परियोजना आई। स्याही देवी अल्मोड़ा के पास एक बड़ा पहाड़ है।
इस पहाड़ को अल्मोड़ा के अभिभावक जैसा माना जाता है। कसार देवी और वानर देवी की पहाड़ी को मिला दें तो इस तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरने की वजह से अल्मोड़ा का मौसम ना अधिक गर्म हो पाता है और ना अधिक ठंडा। लेकिन अब अल्मोड़ा कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गया है।
जब स्याही देवी योजना बनी थी। बताया जाता है कि उस समय स्वास्थ्य अधिकारी रहे डाॅ. रावत ने सुझाव दिया कि इस पानी की सुरक्षा के लिये इसे घेरे में रखा जाये। जिससे जानवर इसमें गन्दगी ना फैलाएँ और इस पानी को पीने लायक बनाए रखा जा सके। इससे यह स्पष्ट होता है कि समाज उस वक्त भी पानी की स्वच्छता को लेकर लापरवाह नहीं था।
1952 कोसी पेयजल योजना बनी। हर गोविन्द पंत विधानसभा अध्यक्ष थे और गोविन्द वल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे। उस समय डीजल के पम्प से पानी खींचकर अल्मोड़ा तक लाया गया। कोसी पेयजल योजना आने के बाद घरों में नल आ गया। घरों में सहजता से पानी उपलब्ध होने की वजह से शहर में नौलों की उपेक्षा हुई। कोसी परियोजना का पानी बन्द होने के बाद जरूर लोगों को नौलों का ख्याल आता है। पूरा शहर उसके बाद नौलों धारों की तरफ भागता है।
जब व्यक्ति श्मशान में जाता है, उसे थोड़ी देर के लिये वैराग्य महसूस होता है और जैसे ही वह घर लौटता है, उसका वैराग्य पीछे छूट जाता है। अल्मोड़ा में भी नौलों धारों की चिन्ता नगरवासियों को उसी समय तक रहती है, जब तक नल में पानी ना आ जाये। नल में पानी आते ही लोग नौलों का चिन्तन भूल जाते हैं। वैराग्य खत्म हो जाता है।
1975 का कुमाऊँ गढ़वाल जल संचय संग्रह वितरण अधिनियम है, जो कहता है कि आप किसी भी जलस्रोत के 100 मीटर के अन्दर कोई झाड़ी, पौधा, पेड़ नहीं काटेंगे। यानि आप ऐसी कोई कार्यवाई नहीं करेंगे जिससे उस स्रोत को नुकसान पहुँचता हो। जबकि कुमाऊँ क्षेत्र में ऐसा कोई नौला तलाशना आसान नहीं होगा, जिसका अतिक्रमण नहीं हुआ हो।
कई नौलों और धारों को रसूख वाले लोगों ने अपने व्यक्तिगत कब्जे में ले लिया है। एक स्थानीय होटल के कब्जे में ऐसे ही तीन धारे हैं। शहर में सीवर नहीं है और लोगों ने नौलों धारों के साथ अपना सेप्टिक बनाया है। आप सोच सकते हैं कि पूरा अल्मोड़ा पीने के पानी के मामले में किस तरह उस डाल को काटने पर तुला है, जिस पर पूरा शहर बैठा हुआ है।
1563-70 के बीच अल्मोड़ा शहर चंद राजाओं ने विकसित किया। वे सबसे पहले खगमर कोर्ट आये। कोर्ट का अर्थ किला है। यहाँ आने की खास वजह जलस्रोत ही था। यहाँ पर्याप्त जलस्रोत मौजूद थे। अब वे नौले खत्म हो गए। 1568 में राजा बालो कल्याणचंद के निधन के बाद उनकी गद्दी पर राजा रुद्रचंद बैठे। राजा रुद्रचंद ने अपने लिये इस पहाड़ी पर मल्ला महल का निर्माण कराया। जो इन दिनों अल्मोड़ा के जिलाधिकारी कार्यालय है।
खगमरकोर्ट और नैल का पोखर जो सिद्ध के नौले के पास है। वहाँ भी राजा रहे। यह जगह वर्तमान में पल्टन बाजार के पास है। शहर का विस्तार उस समय उत्तर की तरफ हो रहा था। इसी समय मल्ला महल का निर्माण हुआ। गौरतलब है कि मल्ला महल के पूर्वी और पश्चिमी दोनों छोरों पर पानी का पर्याप्त स्रोत मौजूद था। जबकि राजाओं के पास नौकर चाकर कारिन्दों की कोई कमी नहीं होती थी। उनका महल कहीं भी बनता तो पानी की कमी नहीं होने पाती। इसके बावजूद राजाओं ने महल/किला बनाते हुए पानी के स्रोत का विशेष ख्याल रखा। वैसे अल्मोड़ा के थपलिया में एक राज नौला भी है। इस नौले का नाम राज नौला इसलिये पड़ा क्योंकि यहाँ से राजा का पानी जाता था। आज वहाँ का पानी पीने लायक नहीं बचा, वह प्रदूषित हो चुका है। अंग्रेजों के समय बने ड्रेनेज की व्यवस्था को हमने आज तक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया है।
अल्मोड़ा के प्राकृतिक जलस्रोत एक के बाद एक प्रदूषण के शिकार हो रहे हैं। उनका पानी पीने योग्य नहीं बचा। गिनती के नौले और धारे कुमाऊँ में बचे हैं। जिनका पानी पीने योग्य है। जिन नौलों धारों का पानी पीने योग्य नहीं है, उस पानी को भी जानकारी के अभाव में लोग पीने के काम ला रहे हैं। जबकि प्रशासन को इस आशय का एक बोर्ड ऐसे नौलों और धारों के साथ लगाना चाहिए था कि यहाँ का पानी पीने योग्य नहीं है। लेकिन इस सम्बन्ध में प्रशासनिक लापरवाही पूरे कुमाऊँ क्षेत्र में दिखाई पड़ती है।
1947 में देश जब आजाद हुआ, उस समय कुमाऊँ क्षेत्र में ड्रेनेज की जो व्यवस्था थी, सन 2016 में भी हम उस व्यवस्था से एक कदम भी आगे नहीं बढ़े हैं। इतने सालों में कुछ नहीं बदला। उलट ड्रेनेज के साथ जुड़े हुए गदेरे अतिक्रमण के शिकार हो गए हैं। घर बन गए वहाँ। यह सिविल सोसायटी के लिये चिन्ता की बात होनी चाहिए थी क्योंकि जब हर तरफ अतिक्रमण करने वालों का कब्जा होगा, फिर अल्मोड़ा का गन्दा पानी किस रास्ते बाहर जाएगा?
अल्मोड़ा के घर-घर में सेप्टिक टैंक पहुँच गया लेकिन वहाँ इकट्ठा हो रहे मल मूत्र के निपटारे के लिये शहर के पास कोई एक्शन प्लान दिखता नहीं। अल्मोड़ा के जंगल को काटकर, पहाड़ों को बर्बाद करके, नौलों को प्रदूषित करके हर तरफ अतिक्रमण का राज स्थापित करके जरूर पहाड़ में कंक्रीट का जंगल लगाया जा रहा है। लेकिन यह जंगल हमें कहाँ ले जाएगा, इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा। ना ही इसका जवाब कोई देने को तैयार है।
गदेरों के आस-पास सबसे अधिक नौले मौजूद हैं। गदेरे खत्म किये गए और शहर का सारा गन्दा पानी नौलों में जा मिला। सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों से कई बार शहर के जलस्रोतों के पानी का परीक्षण हुआ। उसके परिणाम चिन्ताजनक थे। लेकिन इन परिणामों के बाद भी शहर में अपने पीने के पानी को लेकर कोई बहस खड़ी नहीं हुई। जलस्रोतों के पुनर्जीवन को लेकर कोई चर्चा खड़ी नहीं हुई।
यह सवाल है कि नौलों को पुनर्जीवित करने के लिये क्या प्रयास किया जा सकता है? यदि वास्तव में इस विषय को लेकर कुमाऊँ का समाज गम्भीर है तो इसके लिये सबसे पहले नौले के कैचमेंट एरिया को सुरक्षित करना होगा। ऐसा करने से नौले में पानी बढ़ेगा। लेकिन जिस अल्मोड़ा शहर को यहाँ के नागरिकों ने कंक्रीट का जंगल बनाया है, वहाँ के कैचमेंट के क्षेत्र को सुरक्षित करने और आगे सुरक्षित रखने की बात वहाँ का समाज कैसे करेगा?
अब बात करते हैं जलस्रोत की। शहर में ड्रेनेज की व्यवस्था नहीं है, यह बात पूरा शहर जानता है। उसके बावजूद पूरा शहर सेप्टिक टैंकों से भरा हुआ है। इसे आमतौर पर लोगों ने आँगन में ही बनवाया है। उस टैंक में इकट्ठा हो रहे मल-मूत्र की कोई निकासी नहीं है। उसका पानी रिसकर मिट्टी के रास्ते भूजल में मिल रहा है। यह बात अल्मोड़ा के लोगों को भी समझनी होगी कि उस पानी से उनके नौलों-धारों में आ रहा पानी अछूता नहीं रह सकता है।
प्रदूषित जल की बात परीक्षणों से भी साबित हो चुकी है। ऐसे में यह प्रदूषित पानी पिएगा कौन? प्रदूषित नौलों-धारों के पानी का इस्तेमाल बाहर से आने वाले लोग करते हैं या फिर गरीब और वंचित तबका कर रहा है। जिनके पास नल का पानी उपलब्ध नहीं है। होटलों में वह पानी इस्तेमाल होता है। अल्मोड़ा के लोग सिर्फ मजबूरी में नौलों और धारों तक जाते हैं। वास्तव में पानी जीवन का पर्याय है और जीवन पर संकट आये तो व्यक्ति नाले का पानी पीने को तैयार हो सकता है फिर नौले का प्रदूषित जल क्या चीज है?
जैसाकि हम जानते हैं कि 1864 में स्थापित अल्मोड़ा नगर पालिका भारत की सबसे पुरानी नगर पालिकाओं में से एक है। इसके नियम कानून की पुस्तिका में लिखा है कि चेचक के रोगियों अथवा किसी भी संक्रामक रोग से पीड़ित व्यक्ति के कपड़े को धोने के लिये अलग नौले की व्यवस्था थी। रजस्वला स्त्रियों के स्नान के नौले अलग थे। पीने का पानी जहाँ से लिया जाये वहाँ कपड़े धोने और स्नान करने की मनाही थी। क्रिया कर्म के नौले अलग थे। यहाँ नियम का पालन ना करने वालों पर जुर्माने की व्यवस्था भी थी। मृत्यु के बाद 12 दिनों तक चलने वाले कर्म कांड के लिये क्रिया नौलों का इस्तेमाल किया जाता था।
यहाँ उल्लेखनीय है कि जिन नौलों का इस्तेमाल क्रिया कर्म के लिये किया जाता था, उन्हीं नौलों का पानी कुमाऊँ में पीने योग्य बचा हुआ है। दूसरे नौलों की हालत खराब हुई है। सम्भव है समाज में मौजूदा मृत्यु से भय ने क्रिया नौलों की रक्षा की होगी। सुुनारी नौला-चौधरी नौला जैसे जाति आधारित नौले भी कुमाऊँ में देखने को मिलते हैं।
नौलों और धारों की उपेक्षा से अल्मोड़ा जिस पानी की संकट से गुजर रहा है, यदि आने वाले समय में शहर इस समस्या से बाहर निकलना चाहता है तो इसका हल जनसहभागिता से ही निकल सकता है। जनसहभागिता से ही हालात में बदलाव आ सकता है। सरकारी परियोजनाएँ एक हजार करोड़ की भी आ जाएँ तो इस समस्या से कुमाऊँ बाहर नहीं आ सकता।
समाधान के लिये पानी के प्रति समाज में जागृति का आना जरूरी है। पानी का मोल जब तक कुमाऊँ नहीं समझेगा और पानी की गुणवत्ता को लेकर वह जागरूक नहीं होगा, तब तक उसे इस बात की समझ नहीं होगी कि पानी से जुड़ी सभी बीमारियों के जड़ में प्रदूषित पानी है और इससे बचाव के लिये परिवेश को साफ रखना होगा।
पानी की सफाई के संकल्प से पहले पूरे अल्मोड़ा को मन की सफाई करनी होगी। मन का मैल साफ करना होगा। वहाँ मैल होगा तो असर नौलों और धारों की पानी में भी साफ दिखेगा। इस पूरी प्रक्रिया में सरकार की भूमिका नेतृत्व की नहीं बल्कि एक सहयोगी की होनी चाहिए।
पानी के मामले में जब तक नेतृत्व समाज अपने हाथ में नहीं लेगा, पानी की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। चाल-खाल बनाने की बात हो या फिर वृक्षारोपण की उत्तराखण्ड की महिलाओं के सहयोग से इसे अंजाम तक पहुँचाया जा सकता है। पहले भी उत्तराखण्ड के कई महत्त्वपूर्ण आन्दोलनों को महिलाओं ने नेतृत्व दिया हैै।
एक बार फिर उत्तराखण्ड की सरकार को उनसे बात करनी चाहिए। यदि महिलाओं के नेतृत्व में उत्तराखण्ड में पेड़ लगाने का अभियान चलता है तो अपने हाथ से लगे पेड़ को महिलाएँ ना कटने देंगी ना खुद काटेंगी। सरकार समाज तक पानी की योजना लेकर नहीं बल्कि समाज के प्रति विश्वास लेकर जाये। उनके प्रति सम्मान लेकर जाये। जनभागीदारी के बिना ना नौले-धारे स्वच्छ हो सकते हैं और ना वृक्षारोपण सफल। समाज में बदलाव समाज की भागीदारी से आएगा। सरकारी योजनाओं और परियोजनाओं से नहीं।
‘‘अल्मोड़ा कभी कुमाऊँ की राजधानी हुआ करती थी। आज इसकी पहचान सांस्कृतिक नगरी के रूप में है। यहाँ से गोविन्द वल्लभ पंत भारत के पहले गृहमंत्री बने, प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। अल्मोड़ा साहित्यकारों और चिन्तकों की नगरी भी रही है। शिक्षा का केन्द्र भी अल्मोड़ा रहा है। लेकिन आजादी के बाद जो सबसे बड़ा संकट इसके सामने आया, वह पेयजल का संकट है। और आज की स्थिति में यह समस्या और भी कठिन हो गई है। जबकि करोड़ों करोड़ रुपए पानी की योजनाओं पर खर्च हुए हैं। हम 72-73 में भी पानी के लिये आन्दोलन करते थे और आज भी पानी के लिये शहर में आन्दोलन हो रहे हैं। लेकिन आज तक पानी का संकट हल नहीं हुआ। यदि पानी का संकट हल होने की दिशा में कोई रोशनी दिखी तो वह रोशनी नौलों ने दिखाई... शमशेर सिंह बिष्ट, वरिष्ठ पत्रकार, अल्मोड़ा’’
‘‘वन और जल को अलग करके नहीं देख सकते। 1953 में कुमाऊँ जल संस्थान और कुमाऊँ जल निगम बनाए गए। उन्होंने किस तरह हमारी परम्परागत जल व्यवस्था को ध्वस्त किया और अपनी परम्परा का हमने किस तरह विस्मरण किया और इस विस्मरण का दुष्परिणाम यह हुआ कि हमारी जो परम्परागत जल व्यवस्था थी, उसकी उपेक्षा हुई और उसे हमने भूला दिया। हमारे घर में नलों से पानी आने लगा तो उसे याद करने की जरूरत भी हमने महसूस नहीं की। जिसने हमारी पीढ़ियों को सिंचा उन जलस्रोतों के प्रति हम कृतज्ञ नहीं रहे। अपनी जल परम्पराओं को लेकर यह उदासीन होने का नहीं बल्कि आत्मचिन्तन का समय है। परिवर्तन के लिये जागना जरूरी है। पहले कुमाऊँ क्षेत्र में जो नौले धारे थे, उसके प्रति समाज में एक धार्मिक भावना काम करती थी। जो उनके संरक्षण में भी मददगार साबित हुई। वह भावना अब दरकिनार हो चुकी है। इसलिये इनका संरक्षण वर्तमान परिस्थिति में अब प्रशासन द्वारा किया जाना चाहिए। अब नौलों और धारों के पानी को इकट्ठा करने की जरूरत है और उनके आस-पास निर्माण पर रोक लगाकर, वहाँ चौड़ी पत्ती वाले पेड़ और जड़ी बूटी उपजाने की शुरुआत कर देनी चाहिए... राकेश कुमार, कुमाऊँ क्षेत्र में परम्परागत जलस्रोतों का इतिहास विषय के शोधार्थी’’
उत्तराखण्ड की पारम्परिक जल संरक्षण की परम्परा | |
संरचना | उपयोग |
चुपटैला | जानवरों के पानी पीने के लिये |
खाल | जानवरों के पानी पीने के लिये |
चाल | जानवरों के पानी पीने के लिये |
गुहल | सिंचाई और घरात को चलाने में |
धारा | पीने का पानी/ बड़ी धाराओं से सिंचाई भी होती है |
नौला/बावड़ी | पानी का घर में इस्तेमाल |