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संजय वर्मा, नवभारत टाइम्स, 25 Jun 2009
खबरें हैं कि मॉनसून की चाल मंद पड़ गई है। दक्षिण और मध्य भारत के कई राज्यों में वर्षा में कमी दर्ज की गई है। केरल और उत्तराखंड जैसे राज्यों के जलाशयों में पानी कम रह गया है, जिसके कारण बिजली कटौती करनी पड़ रही है। खेती पर तो मॉनसूनी वर्षा में कमी रह जाने से असर पड़ ही सकता है, पर खास तौर से शहरों में पेयजल की आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित हो सकती है। मॉनसून की बदौलत नदियों में भरपूर पानी हो, तो पाइप लाइनों से वह पानी शहरों की जरूरत साधने के लिए मंगाया जा सकता है, लेकिन नदियों और जलाशयों का ही जल स्तर कम रह जाए, तो क्या होगा? क्या ऐसे में हमें पानी की रीसाइक्लिंग के बारे में नहीं सोचना चाहिए?
हाल में अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन पर मौजूद अंतरिक्षयात्रियों ने पहली बार मशीन द्वारा रीसाइकल किया हुआ ऐसा पानी पिया, जो खुद उन्हीं के मूत्र, पसीने और स्पेस स्टेशन में मौजूद नमी को सोखकर तैयार किया गया था। लंबी अंतरिक्ष यात्राओं और स्पेस स्टेशन पर यात्रियों की संख्या बढ़ने के साथ ही पानी की ऐसी रीसाइक्लिंग अनिवार्य हो गई है क्योंकि हर इनसानी जरूरत के लिए इतना पानी ढोकर वहां नहीं ले जाया जा सकता। पृथ्वी से दूर पूरी तरह से बंद एक लूप सिस्टम में पेयजल के ऐसे इंतजाम के सिवा और चारा भी क्या है?
लेकिन समय आ गया है कि हम अपनी पृथ्वी को भी ऐसा ही बंद लूप सिस्टम मानें, क्योंकि यहां भी चीजें बाहर से यानी किसी अन्य ग्रह से नहीं आ सकती हैं और मौजूद चीजों को ही रीसाइकल करके काम चलाना पड़ता है। इस संदर्भ में पेयजल का जिक्र ही सबसे ज्यादा प्रासंगिक होगा, क्योंकि नजदीकी भविष्य में इसका घोर अकाल पड़ने की आशंका है।
प्रकृति ने करोड़ों वर्षों से पानी की रीसाइक्लिंग का अपना इंतजाम कर रखा है। समुद्र का पानी भाप बनकर बादलों के रूप में पेयजल का सबसे बड़ा स्रोत बनता आया है। वहां से प्रकृति, जीव-जंतुओं और मनुष्यों की सारी जरूरतें पूरी करके सागर में उसकी वापसी होती रही है। इंसान को छोड़कर किसी अन्य जीव ने इस प्रक्रिया में अमूमन कोई बाधा नहीं पहुंचाई। वैसे तो इंसान भी प्राकृतिक रीसाइक्लिंग की इस प्रक्रिया में कोई बड़ी रुकावट नहीं डाल सकता, पर पानी के अत्यधिक दोहन और असंख्य तरीकों से उसे प्रदूषित करने की इंसानी आदतों ने मीठे और साफ पानी का संकट पैदा कर दिया है। पृथ्वी पर मौजूद कुल पानी का मात्र एक प्रतिशत ही मीठा पानी है, लेकिन इसके साथ भी मानव सभ्यता अब तक जिस बेददीर् से पेश आई है, उसका नतीजा यह है कि महज एक लीटर साफ पानी के लिए 13-14 रुपये चुकाने पड़ रहे हैं।
प्रदूषित पानी किस प्रकार समस्या बन रहा है और कितने गंभीर रोगों को न्योता दे रहा है, इसका एक अंदाजा कुछ साल पहले जोहानिसबर्ग में कमिशन ऑन सस्टेनेबल डिवेलपमंट (सीएसडी) की बैठक में दिए गए आंकड़ों से मिलता है। बैठक में पेश रिपोर्ट में बताया गया था कि सिर्फ प्रदूषित पानी के कारण बीमार होने वाले लोगों से दुनिया भर के अस्पतालों के आधे बेड भरे हुए हैं। हर साल करीब 40 लाख लोग जलजनित बीमारियों की चपेट में आकर काल के ग्रास बन जाते हैं।
भारत में सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है कि साफ पानी के लिए लोग न तो जमीन में बोरिंग करा कर मिले पानी पर भरोसा कर सकते हैं और न ही सार्वजनिक जल वितरण प्रणाली पर, क्योंकि उससे भी शुद्ध पेयजल मिलने की कोई गारंटी नहीं है। हमारे देश में पानी की टंकियों और अन्य जलस्रोतों में भयानक प्रदूषण मौजूद रहता है। आम जनता कभी नहीं जान पाती कि उसके इलाके की पानी की टंकी कभी साफ होती भी है या नहीं।
लेकिन समस्या यह है कि प्रदूषित जल को पीने लायक बनाना बहुत खर्चीला है। उधर, जिस तेजी से देश के हर हिस्से में आबादी का घनत्व बढ़ा है, ट्रीटमंट प्लांटों की क्षमता उस अनुपात में नहीं बढ़ सकी है। कुछ बात तभी बन सकती है, जब खराब पानी का बेहद सस्ते में ट्रीटमंट हो सके और उसे रीसाइकल अथवा रीचार्ज करके पीने के काबिल बनाया जा सके। इस लिहाज से तीन तरफ से समुद से घिरे इस देश में खारे पानी को रिवर्स ऑस्मोसिस के जरिए मीठे पानी में बदलना एक आकर्षक विचार हो सकता है। अगर समुद्र के पानी को इस तरह रीसाइकल किया जा सके, तो इससे न सिर्फ पेयजल के लिए भूजल पर हमारी निर्भरता कम हो सकेगी, बल्कि पेयजल के संकट से शायद हमेशा के लिए निजात मिल जाए।
देश की समुद्री सीमा 7800 किलोमीटर है और 35-40 करोड़ लोग सागर तटीय क्षेत्र में बसे हुए हैं। पर समुद्र से साफ और मीठा पानी मिल पाना यहां इतना आसान नहीं है, जितना मिडल ईस्ट के कुछ देशों में है। वहां डिसैलिनेशन प्लांटों के जरिए आसानी से समुद्री खारे पानी को मीठे पानी में बदल लिया जाता है। भारत में भी लक्षद्वीप और अब से तीन साल पहले चेन्नै में महासागर विकास मंत्रालय के नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ओशन टेक्नॉलजी के साइंटिस्टों ने इस तरह के प्लांट लगाए हैं। लेकिन वर्ल्ड बैंक का दावा है कि डिसेलिनेशन से मिलने वाले पानी की लागत 55 रुपये प्रति लीटर तक बैठती है, जो मौजूदा वॉटर सप्लाई के खर्च से सैकड़ों गुना ज्यादा है। गनीमत है कि दुनिया में समुद्री पानी को मीठे पानी में बदलने की लागत लगातार घट रही है।
बरसाती पानी को टैंकों में जमा करने और उसे फिल्टर करके पीने लायक बनाने की योजना यानी वॉटर हार्वेस्टिंग भी जल संकट को टाले रखने का बेहतरीन इंतजाम बन सकती है। पर कुछ संगठनों और सरकारी प्रचार के बावजूद आज भी देश में एक आम आदमी को यह मालूम नहीं है कि अगर वह अपने घर में ऐसे इंतजाम करना चाहे, तो उस पर कितना खर्च आएगा, उसमें क्या प्रबंध करने होंगे और क्या इस काम में उसे कोई मदद मिल सकती है। गायब हो चुके तालाबों-कुओं और पानी के और पाताल में खिसक जाने के इस दौर में भी अगर यह नहीं माना गया कि इस मामले में अब पानी सिर से गुजर गया है, तो यह एक ऐसी त्रासदी की तरफ से आंखें मूंदे रखने जैसा ही होगा, जिसका आना तय है।
हाल में अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन पर मौजूद अंतरिक्षयात्रियों ने पहली बार मशीन द्वारा रीसाइकल किया हुआ ऐसा पानी पिया, जो खुद उन्हीं के मूत्र, पसीने और स्पेस स्टेशन में मौजूद नमी को सोखकर तैयार किया गया था। लंबी अंतरिक्ष यात्राओं और स्पेस स्टेशन पर यात्रियों की संख्या बढ़ने के साथ ही पानी की ऐसी रीसाइक्लिंग अनिवार्य हो गई है क्योंकि हर इनसानी जरूरत के लिए इतना पानी ढोकर वहां नहीं ले जाया जा सकता। पृथ्वी से दूर पूरी तरह से बंद एक लूप सिस्टम में पेयजल के ऐसे इंतजाम के सिवा और चारा भी क्या है?
लेकिन समय आ गया है कि हम अपनी पृथ्वी को भी ऐसा ही बंद लूप सिस्टम मानें, क्योंकि यहां भी चीजें बाहर से यानी किसी अन्य ग्रह से नहीं आ सकती हैं और मौजूद चीजों को ही रीसाइकल करके काम चलाना पड़ता है। इस संदर्भ में पेयजल का जिक्र ही सबसे ज्यादा प्रासंगिक होगा, क्योंकि नजदीकी भविष्य में इसका घोर अकाल पड़ने की आशंका है।
प्रकृति ने करोड़ों वर्षों से पानी की रीसाइक्लिंग का अपना इंतजाम कर रखा है। समुद्र का पानी भाप बनकर बादलों के रूप में पेयजल का सबसे बड़ा स्रोत बनता आया है। वहां से प्रकृति, जीव-जंतुओं और मनुष्यों की सारी जरूरतें पूरी करके सागर में उसकी वापसी होती रही है। इंसान को छोड़कर किसी अन्य जीव ने इस प्रक्रिया में अमूमन कोई बाधा नहीं पहुंचाई। वैसे तो इंसान भी प्राकृतिक रीसाइक्लिंग की इस प्रक्रिया में कोई बड़ी रुकावट नहीं डाल सकता, पर पानी के अत्यधिक दोहन और असंख्य तरीकों से उसे प्रदूषित करने की इंसानी आदतों ने मीठे और साफ पानी का संकट पैदा कर दिया है। पृथ्वी पर मौजूद कुल पानी का मात्र एक प्रतिशत ही मीठा पानी है, लेकिन इसके साथ भी मानव सभ्यता अब तक जिस बेददीर् से पेश आई है, उसका नतीजा यह है कि महज एक लीटर साफ पानी के लिए 13-14 रुपये चुकाने पड़ रहे हैं।
प्रदूषित पानी किस प्रकार समस्या बन रहा है और कितने गंभीर रोगों को न्योता दे रहा है, इसका एक अंदाजा कुछ साल पहले जोहानिसबर्ग में कमिशन ऑन सस्टेनेबल डिवेलपमंट (सीएसडी) की बैठक में दिए गए आंकड़ों से मिलता है। बैठक में पेश रिपोर्ट में बताया गया था कि सिर्फ प्रदूषित पानी के कारण बीमार होने वाले लोगों से दुनिया भर के अस्पतालों के आधे बेड भरे हुए हैं। हर साल करीब 40 लाख लोग जलजनित बीमारियों की चपेट में आकर काल के ग्रास बन जाते हैं।
भारत में सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है कि साफ पानी के लिए लोग न तो जमीन में बोरिंग करा कर मिले पानी पर भरोसा कर सकते हैं और न ही सार्वजनिक जल वितरण प्रणाली पर, क्योंकि उससे भी शुद्ध पेयजल मिलने की कोई गारंटी नहीं है। हमारे देश में पानी की टंकियों और अन्य जलस्रोतों में भयानक प्रदूषण मौजूद रहता है। आम जनता कभी नहीं जान पाती कि उसके इलाके की पानी की टंकी कभी साफ होती भी है या नहीं।
लेकिन समस्या यह है कि प्रदूषित जल को पीने लायक बनाना बहुत खर्चीला है। उधर, जिस तेजी से देश के हर हिस्से में आबादी का घनत्व बढ़ा है, ट्रीटमंट प्लांटों की क्षमता उस अनुपात में नहीं बढ़ सकी है। कुछ बात तभी बन सकती है, जब खराब पानी का बेहद सस्ते में ट्रीटमंट हो सके और उसे रीसाइकल अथवा रीचार्ज करके पीने के काबिल बनाया जा सके। इस लिहाज से तीन तरफ से समुद से घिरे इस देश में खारे पानी को रिवर्स ऑस्मोसिस के जरिए मीठे पानी में बदलना एक आकर्षक विचार हो सकता है। अगर समुद्र के पानी को इस तरह रीसाइकल किया जा सके, तो इससे न सिर्फ पेयजल के लिए भूजल पर हमारी निर्भरता कम हो सकेगी, बल्कि पेयजल के संकट से शायद हमेशा के लिए निजात मिल जाए।
देश की समुद्री सीमा 7800 किलोमीटर है और 35-40 करोड़ लोग सागर तटीय क्षेत्र में बसे हुए हैं। पर समुद्र से साफ और मीठा पानी मिल पाना यहां इतना आसान नहीं है, जितना मिडल ईस्ट के कुछ देशों में है। वहां डिसैलिनेशन प्लांटों के जरिए आसानी से समुद्री खारे पानी को मीठे पानी में बदल लिया जाता है। भारत में भी लक्षद्वीप और अब से तीन साल पहले चेन्नै में महासागर विकास मंत्रालय के नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ओशन टेक्नॉलजी के साइंटिस्टों ने इस तरह के प्लांट लगाए हैं। लेकिन वर्ल्ड बैंक का दावा है कि डिसेलिनेशन से मिलने वाले पानी की लागत 55 रुपये प्रति लीटर तक बैठती है, जो मौजूदा वॉटर सप्लाई के खर्च से सैकड़ों गुना ज्यादा है। गनीमत है कि दुनिया में समुद्री पानी को मीठे पानी में बदलने की लागत लगातार घट रही है।
बरसाती पानी को टैंकों में जमा करने और उसे फिल्टर करके पीने लायक बनाने की योजना यानी वॉटर हार्वेस्टिंग भी जल संकट को टाले रखने का बेहतरीन इंतजाम बन सकती है। पर कुछ संगठनों और सरकारी प्रचार के बावजूद आज भी देश में एक आम आदमी को यह मालूम नहीं है कि अगर वह अपने घर में ऐसे इंतजाम करना चाहे, तो उस पर कितना खर्च आएगा, उसमें क्या प्रबंध करने होंगे और क्या इस काम में उसे कोई मदद मिल सकती है। गायब हो चुके तालाबों-कुओं और पानी के और पाताल में खिसक जाने के इस दौर में भी अगर यह नहीं माना गया कि इस मामले में अब पानी सिर से गुजर गया है, तो यह एक ऐसी त्रासदी की तरफ से आंखें मूंदे रखने जैसा ही होगा, जिसका आना तय है।