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नया ज्ञानोदय 'बिन पानी सब सून' विशेषांक, मार्च 2004
सिनेमा में पानी की उपस्थिति बहुत सहज तथा सघन है। बारिश के रूप में हो या झील के रूप में। समुद्र के रूप में हो या नदी के रूप में। पानी किसी न किसी रूप में उपस्थित होता ही है। यहाँ तक कि नदी नाला न सही तो कुआँ या स्विमिंग पूल के रूप में ही सही। अपने संदर्भों के लिए या प्रतीकों सहित यह तीज त्योहारों, व्रतों के रूप में आता है या फिर मुहावरों में - यथा हुक्का-पानी, दवा-पानी, पानी रखना या फिर पानी उतरना। हो भी क्यों न, पानी, हवा के बाद हमारे लिए सबसे जरूरी चीज है, तो फिर सिनेमा में क्यों न हो। सिनेमा के दृश्यों में सायास उपस्थित की गई चीजें वास्तव में अनायास और स्वाभाविक दिखने के उपक्रम में आती हैं। ठीक उसी तरह पानी की इतनी सहज उपस्थिति सिनेमा में पानी के महत्व को दर्शाने के बजाए या तो उसके सांस्कृतिक महत्व को बताती है या फिर उसे सजावटी वस्तु की तरह प्रस्तुत करती है। पानी के स्वाभाविक तथा प्राथमिकता के आधार पर उसके उपयोग को सिनेमा ने अछूता ही रखा है।
सामान्यतया सिनेमा में पानी का इस्तेमाल आग लगाने के लिए होता है। चाहे वह झीने वस्त्रों में सुंदर नायिका को भिगोकर पेश, किया जाय या फिर बाढ़ में उजड़ते जीवन को दिखाकर किया जाए। मन में आग लगाने वाले दोनों छोर सिनेमाई अतिरेक के परिणाम हैं। इस अतिरेक के पहले छोर को राजकपूर ने खूब इस्तेमाल किया ‘बरसात’ से लेकर ‘राम तेरी गंगा मैली हो गई’ तक। नाम में, काम में/रूप में, रंग में/प्रतीक में, यथार्थ में....पानी के इस रंग निखार गुण-धर्म को उनकी लगभग हर फिल्म में देखा जा सकता है। हिन्दी सिनेमा में राजकपूर से बेहतर यह कोई नहीं जानता था कि झीने वस्त्रों पर पड़ा सराबोर पानी वस्त्र के अस्तित्व को उस हद तक कम करता है जहाँ उसमें छुपा सच अपने आप को देखे जाने को सबसे अधिक उकसाए। सिनेमा में सफलता का यह भी एक गुर है।
जब आप ऐसी दृश्य संरचना में माहिर हों, जो स्वयं को देखा जाने को बार-बार उकसाए, तो समझ लीजिए कि सफलता का एक बड़ा सूत्र हाथ लग गया। गौर करें ‘बरसात’ - फिल्म ‘बरसात’ किन्तु बारिश नदारद, फिल्म ‘संगम’ पर एक फूहड़ प्रतीक, नाम ‘राम तेरी गंगा मैली’ प्रतीक की उलटबाँसियाँ। गंगा तो पापहरणी है जब कि नायिका पाप से प्रताड़ित होती है। गंगा का समकालीन मैलापन सिनेमा में वह मैलापन नहीं है जिसके लिए यह ध्वन्यार्थ खोजने की कोशिश की गई है। हाँ, गंगा के पानी के भौतिक बहाव को खूबसूरती के साथ इसमें शामिल जरूर किया गया है। ‘जिस देश में गंगा बहती है’ -में पानी और गंगा की पवित्रता का प्रतीक अपेक्षाकृत बहुत सार्थक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
सिनेमा में पानी के दूसरे सिरे पर कई निदेशक हैं। एक नाम एक फिल्म, महबूब- ‘मदर इंडिया’। बाढ़ से त्रस्त गाँव और बरबाद होती गृहस्थी तथा उसमें शोषक का उभरता घिनौना चेहरा। नर्गिस की आँखों से बहता पानी। एक बाढ़ बाहर; एक बाढ़ भीतर; भीगने की पूरी प्रक्रिया त्रासदी का नया आख्यान रचनी है। दो जुड़वाँ बच्चों को अलग करने का मजाक ‘अंगूर’ में किया गुलजार ने। एक समुद्री तूफान में हिचकोले खाते जहाज के बाद बिखराव हुआ और खेल शुरू। वैसे इस छोर का उपयोग बंगाली फिल्मकारों ने अधिक किया और अपने उद्देश्य में सफल भी हुए हैं। पानी उनकी फिल्मों में त्रासद-धारा की तरह आता है, ठहरता है और बना रहता है। मदर इंडिया की तरह आकस्मिक घटना की तरह नहीं घटता। नदी की चौड़ी धारा को नित्य लाँघने वाली नाव या स्टीमर उनके जीवन की तरह है। हमेशा हिचकोले खाता। नदी उनके जीवन के दैनिक संघर्ष की तरह उभरती है जिसे वे अपने ढँग से जूझते हैं और दुख सहने की ऊर्जा भी वहीं से तलाशते हैं। जीवन के सबसे कमजोर क्षणों के लिए वहीं से साहस भी पाते हैं। ऐसे दृश्यों के लिए विमल राय का नाम सबसे महत्वपूर्ण है। सुजाता में गाँधी मूर्ति के पास नायिका को संबल लिखावट व ढाढ़स व बँधाता पानी, बंदिनी में रोज पार होती नदी तथा उसका सारा परिवेश पानी मय है। इन फिल्मों के माँझी गीत पानी को पूरी संवेदना में बदल देते हैं। जगह-जगह पर पानी, शब्दों में ढलता है और संगीत में बह उठता हैः
“सुनु मेरे बंधु रे/ सुनु मेरे मितवा.....जिया कहे तू सागर, मैं होती तेरी नदिया-लहर बहर करती-अपने पिया से मिल जाती रे.....” माँझी गीत में पानी की लहर-बहर प्रेम को भक्ति में बदल देती है। विमल राय नदी - उसका किनारा तथा उसके पास की प्रतिमा को ही चरित्र बना देते हैं। पानी ऐसी फिल्मों में अभिनय करता दिखता है। ‘नौकरी’ फिल्म का एक गीत है ‘छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में.....’ बादलों की छाँव में बादल के रूप में पानी छाँव बनकर आता है। विमल राय की ही फिल्म मधुमती में पानी का सूफी रंग देखिए- ‘मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी/भेद ये गहरा बात जरा सी’।
‘अमर प्रेम’ में शक्ति सामन्त ने भी पानी का भरपूर उपयोग किया। ‘हावड़ा ब्रिज’ के आस-पास नदी में नाव पर फिल्माए गये गीतों की अपनी दुनिया है। सावन और पानी को प्रश्न के रूप में प्रस्तुत करता इसी फिल्म का एक गीत पूछता हैः ‘सावन और पानी को कौन बुझाये/माँझी जब नाव डुबोये उसे कौन बचाये।’
पानी को जीवन के पार ले जाने वाले तथा उसे चुनौती की तरह प्रस्तुत करने वाले गौतम घोष का उल्लेख यहाँ बेहद जरूरी है। उनकी फिल्म ‘पार’ में नसीरूद्दीन शाह तथा शबाना ने पानी की चुनौती पर जिस तरह पार पाया है वह एक अविस्मरणीय तथा आतंकित करनेवाला अनुभव है। एक ओर गौतम घोष ने पानी का रूमान ताड़ दिया है। पानी का सारा सौन्दर्य छिन्न-भिन्न कर दिया है। नदी को जीवन रेखा से विचलित कर संघर्ष रेखा बना दिया है वहीं नसीर और शबाना ने, उसे सुअरों के साथ पार करते हुए अपने नारकीय जीवन को स्तब्ध करने की हद तक स्थापित कर दिया है। वास्तव में ‘पार’ में पानी नई अवधारणा की तरह स्थापित होता है और सेल्यूलाइड की शक्ति के रूप में सामने आता है।
पानी अपनी परिभाषा में रंगहीन, गंधहीन, पारदर्शी द्रव है। हम इसके आर-पार देख सकते हैं, यह हमारी घ्राणेन्द्रियों को पूर्वाग्रह से मुक्त रखता है और आँखों में हर रंग के प्रति समान संवेदनशीलता जगाये रखता है। बावजूद इसके ‘वाटर’ फिल्म के निर्माण में इसके पार देखने नहीं दिया गया। अलग-अलग रंगों में देखा गया। और हर कोई इनमें जाने क्या-क्या सूँघते रहे। पानी को लेकर इस न बनी फिल्म ने पानी को ही पानी-पानी कर दिया।बारिश के रूप में पानी अच्छे-भले कई अनुभवों के साथ सिनेमा में आता है। गीतों को और सरस तथा उत्तेजक बनाने के लिए। दृश्यों को और रंगीन तथा रमणीय बनाने के लिए। किन्तु ‘थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ’ और ‘गाइड’ में बारिश का बहुत मनोवैज्ञानिक और कुछ हद तक आध्यात्मिक उपयोग किया है। अगर ‘थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ’ को देखें तो पानी मनुष्य की इच्छा-आकांक्षा की पराकाष्ठा का प्रतीक लगता है और उसकी हीनता बोध का प्रतिकार होती है बारिश। गाइड बारिश के प्रतीक को पाकर ही एक बेहतर फिल्म नजर आती है। एक पल बारिश को निकाल कर फिल्म देखें तो यह केवल फूहड़-सी नायिका-नायक की भागदौड़ ही नजर आयेगी। वास्तव में, अपने जीवन से पलायन करने वाले मनुष्य में आशा का संचार करने वाली यह बारिश फिल्म को बहुत बड़ा क्षितिज दे देती है। छ्दम में ही सही जब नायक को जनता का संतत्व मिल जाता है, तभी उसके भीतर एक जिद जन्म लेती है, जो प्यास से पैदा होती है। पानी जिसका पूरक होता है। ऐसे में बारिश मनुष्य मात्र का सपना बन जाती है। ‘गाइड’ की बारिश विजय आनंद और देव आनंद के कलात्मक अवदान की पराकाष्ठा है।
फिल्म ‘जागते रहो’ में राजकपूर ने भी ‘पानी’ को प्यास के उस पूरक के यप में प्रस्तुत किया है- जहाँ अज्ञान/अँधेरा/अपराध/छल एक रात की तरह आते हैं और अगली सुबह-पानी से प्यास बुझाता नायक ज्ञान/प्रकाश/विश्वास और निःस्वार्थ से तृप्त हो जाता है। पानी कितने आयामों में आता है, देखकर मन तृप्त हो जाता है।
मिलन में पुनर्जन्म की सारी कहानी का ताना-बाना एक नदी के दो किनारों के बीच ही चलता रहता है। पानी जीवन के इस पार और उस पार दोनों ओर है। सिर्फ एक वातावरण के निर्माण मात्र के लिए ही नहीं है यह नदी, यह नाव, यह गीत, ‘सावन का महीना-पवन करे सोर (शोर)’ -वस्तुतः पानी का सतत बहाव जीवन की अनन्तता का प्रतीक है। आत्मा केवल शरीर बदलती है जैसे नदी के दो किनारों के बीच बहती हुई घाट-घाट गुजरती है।
पानी भारतीय संदर्भों में पंचतत्वों में से एक महत्वपूर्ण तत्व है। दीपा मेहता ने इन पंचतत्वों को सिनेमाई ढँग से देखने का प्रयास किया। धरती ‘दि अर्थ’, पावक ‘दि फायर’ की तर्ज पर पानी (जल) ‘दि वाटर’ बनाने की कोशिश की पर यह प्रयास विफल हो गया। हमारे देश में राजनीति मात्र राजनीति के लिए होने लगी है। जिनमें हमने होने को न होना प्रमाणित करना सीख लिया और न होने को होना साबित करना। ऐसे में ‘वाटर’ का न बनना एक दुर्घटना साबित हुआ। अगर सृजन करने वाले को अपनी रचना को अपने ढँग से कहने का अवसर नहीं मिलेगा तो संसार में स्थापित सौन्दर्य बोध से बाहर निकलने का अवसर कब मिलेगा।
पानी अपनी परिभाषा में रंगहीन, गंधहीन, पारदर्शी द्रव है। हम इसके आर-पार देख सकते हैं, यह हमारी घ्राणेन्द्रियों को पूर्वाग्रह से मुक्त रखता है और आँखों में हर रंग के प्रति समान संवेदनशीलता जगाये रखता है। बावजूद इसके ‘वाटर’ फिल्म के निर्माण में इसके पार देखने नहीं दिया गया। अलग-अलग रंगों में देखा गया। और हर कोई इनमें जाने क्या-क्या सूँघते रहे। पानी को लेकर इस न बनी फिल्म ने पानी को ही पानी-पानी कर दिया। यह और बात है कि बेपानी लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जल, जलस्रोत तथा जलाशयों को जाने कितने फिल्मों के नाम रखे गए, गीत लिखे गये, नायकों के नामकरण किये गए। जाने कितने दृश्यों की रचना की गयी। किन्तु जल की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता, जिस बात के लिए है वह पहलू लगभग गायब ही रहा- यथा प्यास बुझाने की बात।
प्यास बुझाने का यह काम किया ख्वाजा अहमद अब्बास ने। उनकी एक खूबसूरत सी फिल्म थी ‘दो बूँद पानी’। जलाल आगा और सिमी ग्रेवाल द्वारा अभिनीत इस फिल्म में कुछ अभूतपूर्व दृश्य थे। नहर बनाने के लिए मिट्टी लाने का काम गधे द्वारा लिया गया, जिस समय मिट्टी गिराकर नायक वापस मिट्टी लेने जाता है, तो गधे पर बैठ कर जाता है विद्रूप के लिए या हास्य के लिए शायद ये दृश्य फिल्मों में आये तो श्रम में व्यस्त मनुष्य के सामान्य काम काज के लिए ऐसे लोक दृश्य सिनेमा में सम्भवतः पहली बार आये हैं। जयदेव ने इस फिल्म में पानी की कल-कल की तरह संगीत बहाया है, ‘पीतल की मोरी गागरी, दिल्ली से मोल मंगायी रे....’। यह फिल्म पानी की आवश्यकता को कथा वस्तु की तरह प्रस्तुत करने के साथ-साथ पानी के उपयोग-दुरुपयोग की समझ पैदा करती है। पानी के प्रतीक को संवेदनात्मक औजार बनाती है। प्यास और पानी के रिश्ते के प्रति संवेदना जगाती है। पानी का रूमान तोड़ कर उसे जरूरत बनाती है। इस फिल्म का दुर्भाग्य है कि ख्वाजा अहमद अब्बास की अन्य फिल्मों की तरह यह भी पैसा कमाने में विफल रही तथा पारखी लोगों ने भी इसका मूल्य कम आँका। पानी के प्रति सामान्य लापरवाह नजरिया यहाँ भी जारी रहा। ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्मों का जिक्र होता है तब भी इस फिल्म का जिक्र नहीं होता।
फिल्मी गानों में पानी अपने स्वाभाविक गुणों के साथ और उसके विशिष्ट अर्थों में दोनों तरह से आया है-
“बरसात में हमसे मिले तुम सनम/तुमसे मिले हम… बरसात में ”
“जिन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात....”
“नदिया ऊपर चाँदनी आई सँभल-सँभल/इन लहरों पर दिल मेरा गया मचल-मचल...”
“नदिया चले, चले रे धारा....तुमको चलना होगा.....”
अबके बरस सावन में....आग लगेगी बदन में...”
“आई बरखा बहार....पड़े अँगना फुहार......”
“आया सावन झूम के....हो...” आदि आदि.....
जाहिर है ऐसे सारे गीत पानी को फिल्म के सौंन्दर्य प्रसाधन की तरह इस्तेमाल करते हैं। उनके पास पानी की अपार सम्भावनाओं के उपयोग की दृष्टि नहीं। पानी दृश्यों को गहरायी देता हैं तो फुहार उसमें रहस्य पैदा करती है। पानी धूल साफ करता है, वस्तुओं को स्पष्ट करता है वहीं गहरा पानी वस्तुओं को छुपाने का काम भी करता है। बहता पानी जीवन के बहाव को प्रस्तुत करता है तो ठहरा-ठहरा पानी गांभीर्य पैदा करता है। पानी का हर रूप दृश्य निर्माण में सहायक होता है। सिनेमा के अनुकूल है पानी।
“गंगा आये कहाँ से....गंगा जाये कहाँ रे....”
“नदिया का पानी दरिया से मिल के.....सागर की ओर चले....”
“चले जा रहे हैं किनारे.....किनारे...”
“रुक गया पानी.....जम गयी काई.../चलती नदिया ही साफ कहलाई...”
“जैसे गीत पानी के आध्यात्मिक अर्थ खोलते हैं।”
लेकिन जिस तरह ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म ‘दो बूँद पानी’ पानी की मौलिक सिनेमाई व्याख्या है उसी तरह संतोष आनन्द का गीत “पानी रे पानी तेरा रंग कैसा,जिसमें मिला दो लगे उस जैसा।” पानी का आधारभूत गीत है।
सामान्यतया सिनेमा में पानी का इस्तेमाल आग लगाने के लिए होता है। चाहे वह झीने वस्त्रों में सुंदर नायिका को भिगोकर पेश, किया जाय या फिर बाढ़ में उजड़ते जीवन को दिखाकर किया जाए। मन में आग लगाने वाले दोनों छोर सिनेमाई अतिरेक के परिणाम हैं। इस अतिरेक के पहले छोर को राजकपूर ने खूब इस्तेमाल किया ‘बरसात’ से लेकर ‘राम तेरी गंगा मैली हो गई’ तक। नाम में, काम में/रूप में, रंग में/प्रतीक में, यथार्थ में....पानी के इस रंग निखार गुण-धर्म को उनकी लगभग हर फिल्म में देखा जा सकता है। हिन्दी सिनेमा में राजकपूर से बेहतर यह कोई नहीं जानता था कि झीने वस्त्रों पर पड़ा सराबोर पानी वस्त्र के अस्तित्व को उस हद तक कम करता है जहाँ उसमें छुपा सच अपने आप को देखे जाने को सबसे अधिक उकसाए। सिनेमा में सफलता का यह भी एक गुर है।
जब आप ऐसी दृश्य संरचना में माहिर हों, जो स्वयं को देखा जाने को बार-बार उकसाए, तो समझ लीजिए कि सफलता का एक बड़ा सूत्र हाथ लग गया। गौर करें ‘बरसात’ - फिल्म ‘बरसात’ किन्तु बारिश नदारद, फिल्म ‘संगम’ पर एक फूहड़ प्रतीक, नाम ‘राम तेरी गंगा मैली’ प्रतीक की उलटबाँसियाँ। गंगा तो पापहरणी है जब कि नायिका पाप से प्रताड़ित होती है। गंगा का समकालीन मैलापन सिनेमा में वह मैलापन नहीं है जिसके लिए यह ध्वन्यार्थ खोजने की कोशिश की गई है। हाँ, गंगा के पानी के भौतिक बहाव को खूबसूरती के साथ इसमें शामिल जरूर किया गया है। ‘जिस देश में गंगा बहती है’ -में पानी और गंगा की पवित्रता का प्रतीक अपेक्षाकृत बहुत सार्थक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
सिनेमा में पानी के दूसरे सिरे पर कई निदेशक हैं। एक नाम एक फिल्म, महबूब- ‘मदर इंडिया’। बाढ़ से त्रस्त गाँव और बरबाद होती गृहस्थी तथा उसमें शोषक का उभरता घिनौना चेहरा। नर्गिस की आँखों से बहता पानी। एक बाढ़ बाहर; एक बाढ़ भीतर; भीगने की पूरी प्रक्रिया त्रासदी का नया आख्यान रचनी है। दो जुड़वाँ बच्चों को अलग करने का मजाक ‘अंगूर’ में किया गुलजार ने। एक समुद्री तूफान में हिचकोले खाते जहाज के बाद बिखराव हुआ और खेल शुरू। वैसे इस छोर का उपयोग बंगाली फिल्मकारों ने अधिक किया और अपने उद्देश्य में सफल भी हुए हैं। पानी उनकी फिल्मों में त्रासद-धारा की तरह आता है, ठहरता है और बना रहता है। मदर इंडिया की तरह आकस्मिक घटना की तरह नहीं घटता। नदी की चौड़ी धारा को नित्य लाँघने वाली नाव या स्टीमर उनके जीवन की तरह है। हमेशा हिचकोले खाता। नदी उनके जीवन के दैनिक संघर्ष की तरह उभरती है जिसे वे अपने ढँग से जूझते हैं और दुख सहने की ऊर्जा भी वहीं से तलाशते हैं। जीवन के सबसे कमजोर क्षणों के लिए वहीं से साहस भी पाते हैं। ऐसे दृश्यों के लिए विमल राय का नाम सबसे महत्वपूर्ण है। सुजाता में गाँधी मूर्ति के पास नायिका को संबल लिखावट व ढाढ़स व बँधाता पानी, बंदिनी में रोज पार होती नदी तथा उसका सारा परिवेश पानी मय है। इन फिल्मों के माँझी गीत पानी को पूरी संवेदना में बदल देते हैं। जगह-जगह पर पानी, शब्दों में ढलता है और संगीत में बह उठता हैः
“सुनु मेरे बंधु रे/ सुनु मेरे मितवा.....जिया कहे तू सागर, मैं होती तेरी नदिया-लहर बहर करती-अपने पिया से मिल जाती रे.....” माँझी गीत में पानी की लहर-बहर प्रेम को भक्ति में बदल देती है। विमल राय नदी - उसका किनारा तथा उसके पास की प्रतिमा को ही चरित्र बना देते हैं। पानी ऐसी फिल्मों में अभिनय करता दिखता है। ‘नौकरी’ फिल्म का एक गीत है ‘छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में.....’ बादलों की छाँव में बादल के रूप में पानी छाँव बनकर आता है। विमल राय की ही फिल्म मधुमती में पानी का सूफी रंग देखिए- ‘मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी/भेद ये गहरा बात जरा सी’।
‘अमर प्रेम’ में शक्ति सामन्त ने भी पानी का भरपूर उपयोग किया। ‘हावड़ा ब्रिज’ के आस-पास नदी में नाव पर फिल्माए गये गीतों की अपनी दुनिया है। सावन और पानी को प्रश्न के रूप में प्रस्तुत करता इसी फिल्म का एक गीत पूछता हैः ‘सावन और पानी को कौन बुझाये/माँझी जब नाव डुबोये उसे कौन बचाये।’
पानी को जीवन के पार ले जाने वाले तथा उसे चुनौती की तरह प्रस्तुत करने वाले गौतम घोष का उल्लेख यहाँ बेहद जरूरी है। उनकी फिल्म ‘पार’ में नसीरूद्दीन शाह तथा शबाना ने पानी की चुनौती पर जिस तरह पार पाया है वह एक अविस्मरणीय तथा आतंकित करनेवाला अनुभव है। एक ओर गौतम घोष ने पानी का रूमान ताड़ दिया है। पानी का सारा सौन्दर्य छिन्न-भिन्न कर दिया है। नदी को जीवन रेखा से विचलित कर संघर्ष रेखा बना दिया है वहीं नसीर और शबाना ने, उसे सुअरों के साथ पार करते हुए अपने नारकीय जीवन को स्तब्ध करने की हद तक स्थापित कर दिया है। वास्तव में ‘पार’ में पानी नई अवधारणा की तरह स्थापित होता है और सेल्यूलाइड की शक्ति के रूप में सामने आता है।
पानी अपनी परिभाषा में रंगहीन, गंधहीन, पारदर्शी द्रव है। हम इसके आर-पार देख सकते हैं, यह हमारी घ्राणेन्द्रियों को पूर्वाग्रह से मुक्त रखता है और आँखों में हर रंग के प्रति समान संवेदनशीलता जगाये रखता है। बावजूद इसके ‘वाटर’ फिल्म के निर्माण में इसके पार देखने नहीं दिया गया। अलग-अलग रंगों में देखा गया। और हर कोई इनमें जाने क्या-क्या सूँघते रहे। पानी को लेकर इस न बनी फिल्म ने पानी को ही पानी-पानी कर दिया।बारिश के रूप में पानी अच्छे-भले कई अनुभवों के साथ सिनेमा में आता है। गीतों को और सरस तथा उत्तेजक बनाने के लिए। दृश्यों को और रंगीन तथा रमणीय बनाने के लिए। किन्तु ‘थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ’ और ‘गाइड’ में बारिश का बहुत मनोवैज्ञानिक और कुछ हद तक आध्यात्मिक उपयोग किया है। अगर ‘थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ’ को देखें तो पानी मनुष्य की इच्छा-आकांक्षा की पराकाष्ठा का प्रतीक लगता है और उसकी हीनता बोध का प्रतिकार होती है बारिश। गाइड बारिश के प्रतीक को पाकर ही एक बेहतर फिल्म नजर आती है। एक पल बारिश को निकाल कर फिल्म देखें तो यह केवल फूहड़-सी नायिका-नायक की भागदौड़ ही नजर आयेगी। वास्तव में, अपने जीवन से पलायन करने वाले मनुष्य में आशा का संचार करने वाली यह बारिश फिल्म को बहुत बड़ा क्षितिज दे देती है। छ्दम में ही सही जब नायक को जनता का संतत्व मिल जाता है, तभी उसके भीतर एक जिद जन्म लेती है, जो प्यास से पैदा होती है। पानी जिसका पूरक होता है। ऐसे में बारिश मनुष्य मात्र का सपना बन जाती है। ‘गाइड’ की बारिश विजय आनंद और देव आनंद के कलात्मक अवदान की पराकाष्ठा है।
फिल्म ‘जागते रहो’ में राजकपूर ने भी ‘पानी’ को प्यास के उस पूरक के यप में प्रस्तुत किया है- जहाँ अज्ञान/अँधेरा/अपराध/छल एक रात की तरह आते हैं और अगली सुबह-पानी से प्यास बुझाता नायक ज्ञान/प्रकाश/विश्वास और निःस्वार्थ से तृप्त हो जाता है। पानी कितने आयामों में आता है, देखकर मन तृप्त हो जाता है।
मिलन में पुनर्जन्म की सारी कहानी का ताना-बाना एक नदी के दो किनारों के बीच ही चलता रहता है। पानी जीवन के इस पार और उस पार दोनों ओर है। सिर्फ एक वातावरण के निर्माण मात्र के लिए ही नहीं है यह नदी, यह नाव, यह गीत, ‘सावन का महीना-पवन करे सोर (शोर)’ -वस्तुतः पानी का सतत बहाव जीवन की अनन्तता का प्रतीक है। आत्मा केवल शरीर बदलती है जैसे नदी के दो किनारों के बीच बहती हुई घाट-घाट गुजरती है।
पानी भारतीय संदर्भों में पंचतत्वों में से एक महत्वपूर्ण तत्व है। दीपा मेहता ने इन पंचतत्वों को सिनेमाई ढँग से देखने का प्रयास किया। धरती ‘दि अर्थ’, पावक ‘दि फायर’ की तर्ज पर पानी (जल) ‘दि वाटर’ बनाने की कोशिश की पर यह प्रयास विफल हो गया। हमारे देश में राजनीति मात्र राजनीति के लिए होने लगी है। जिनमें हमने होने को न होना प्रमाणित करना सीख लिया और न होने को होना साबित करना। ऐसे में ‘वाटर’ का न बनना एक दुर्घटना साबित हुआ। अगर सृजन करने वाले को अपनी रचना को अपने ढँग से कहने का अवसर नहीं मिलेगा तो संसार में स्थापित सौन्दर्य बोध से बाहर निकलने का अवसर कब मिलेगा।
पानी अपनी परिभाषा में रंगहीन, गंधहीन, पारदर्शी द्रव है। हम इसके आर-पार देख सकते हैं, यह हमारी घ्राणेन्द्रियों को पूर्वाग्रह से मुक्त रखता है और आँखों में हर रंग के प्रति समान संवेदनशीलता जगाये रखता है। बावजूद इसके ‘वाटर’ फिल्म के निर्माण में इसके पार देखने नहीं दिया गया। अलग-अलग रंगों में देखा गया। और हर कोई इनमें जाने क्या-क्या सूँघते रहे। पानी को लेकर इस न बनी फिल्म ने पानी को ही पानी-पानी कर दिया। यह और बात है कि बेपानी लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जल, जलस्रोत तथा जलाशयों को जाने कितने फिल्मों के नाम रखे गए, गीत लिखे गये, नायकों के नामकरण किये गए। जाने कितने दृश्यों की रचना की गयी। किन्तु जल की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता, जिस बात के लिए है वह पहलू लगभग गायब ही रहा- यथा प्यास बुझाने की बात।
प्यास बुझाने का यह काम किया ख्वाजा अहमद अब्बास ने। उनकी एक खूबसूरत सी फिल्म थी ‘दो बूँद पानी’। जलाल आगा और सिमी ग्रेवाल द्वारा अभिनीत इस फिल्म में कुछ अभूतपूर्व दृश्य थे। नहर बनाने के लिए मिट्टी लाने का काम गधे द्वारा लिया गया, जिस समय मिट्टी गिराकर नायक वापस मिट्टी लेने जाता है, तो गधे पर बैठ कर जाता है विद्रूप के लिए या हास्य के लिए शायद ये दृश्य फिल्मों में आये तो श्रम में व्यस्त मनुष्य के सामान्य काम काज के लिए ऐसे लोक दृश्य सिनेमा में सम्भवतः पहली बार आये हैं। जयदेव ने इस फिल्म में पानी की कल-कल की तरह संगीत बहाया है, ‘पीतल की मोरी गागरी, दिल्ली से मोल मंगायी रे....’। यह फिल्म पानी की आवश्यकता को कथा वस्तु की तरह प्रस्तुत करने के साथ-साथ पानी के उपयोग-दुरुपयोग की समझ पैदा करती है। पानी के प्रतीक को संवेदनात्मक औजार बनाती है। प्यास और पानी के रिश्ते के प्रति संवेदना जगाती है। पानी का रूमान तोड़ कर उसे जरूरत बनाती है। इस फिल्म का दुर्भाग्य है कि ख्वाजा अहमद अब्बास की अन्य फिल्मों की तरह यह भी पैसा कमाने में विफल रही तथा पारखी लोगों ने भी इसका मूल्य कम आँका। पानी के प्रति सामान्य लापरवाह नजरिया यहाँ भी जारी रहा। ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्मों का जिक्र होता है तब भी इस फिल्म का जिक्र नहीं होता।
फिल्मी गानों में पानी अपने स्वाभाविक गुणों के साथ और उसके विशिष्ट अर्थों में दोनों तरह से आया है-
“बरसात में हमसे मिले तुम सनम/तुमसे मिले हम… बरसात में ”
“जिन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात....”
“नदिया ऊपर चाँदनी आई सँभल-सँभल/इन लहरों पर दिल मेरा गया मचल-मचल...”
“नदिया चले, चले रे धारा....तुमको चलना होगा.....”
अबके बरस सावन में....आग लगेगी बदन में...”
“आई बरखा बहार....पड़े अँगना फुहार......”
“आया सावन झूम के....हो...” आदि आदि.....
जाहिर है ऐसे सारे गीत पानी को फिल्म के सौंन्दर्य प्रसाधन की तरह इस्तेमाल करते हैं। उनके पास पानी की अपार सम्भावनाओं के उपयोग की दृष्टि नहीं। पानी दृश्यों को गहरायी देता हैं तो फुहार उसमें रहस्य पैदा करती है। पानी धूल साफ करता है, वस्तुओं को स्पष्ट करता है वहीं गहरा पानी वस्तुओं को छुपाने का काम भी करता है। बहता पानी जीवन के बहाव को प्रस्तुत करता है तो ठहरा-ठहरा पानी गांभीर्य पैदा करता है। पानी का हर रूप दृश्य निर्माण में सहायक होता है। सिनेमा के अनुकूल है पानी।
“गंगा आये कहाँ से....गंगा जाये कहाँ रे....”
“नदिया का पानी दरिया से मिल के.....सागर की ओर चले....”
“चले जा रहे हैं किनारे.....किनारे...”
“रुक गया पानी.....जम गयी काई.../चलती नदिया ही साफ कहलाई...”
“जैसे गीत पानी के आध्यात्मिक अर्थ खोलते हैं।”
लेकिन जिस तरह ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म ‘दो बूँद पानी’ पानी की मौलिक सिनेमाई व्याख्या है उसी तरह संतोष आनन्द का गीत “पानी रे पानी तेरा रंग कैसा,जिसमें मिला दो लगे उस जैसा।” पानी का आधारभूत गीत है।