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कादम्बिनी, मई 2016
पानी को बचाना राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक दायित्व है। परिवार के साथ-साथ माँ-बाप की जिम्मेदारी है कि वे बच्चे को पानी-जैसी ‘अमूल्य सम्पत्ति’ के बारे में बताएँ। एक-एक आदमी अपने बच्चों को शिक्षा दे कि हमें पानी पानी बर्बाद नहीं करना है। हमारे समाज की सोच ही कुछ ऐसी है कि हमारे बाथरूम हमारे समृद्धि के सूचक बन गए हैं कि टब, फव्वारे, नल, गीजर वगैरह किस स्टैंडर्ड के हैं। ऐश्वर्य प्रदर्शन की इन चीजों के इस्तेमाल में भी कहीं-न-कहीं पानी का ज्यादा या अनावश्यक प्रयोग होता ही है।मैं गुलाबी शहर जयपुर में पली-बढ़ी हूँ। मैंने राजस्थान की पुरानी ट्रेडिशनल पेंटिंग्स में सिर पर गगरी या घड़ा लेकर महिलाओं के झुंड को देखा है। मेरी माँ भी बताती थीं कि गाँव में औरतों को पानी भरने दूर-दूर तक जाना पड़ता था। औरतें और बच्चे घड़े लेकर कतारों में खड़े होकर पानी भरकर लाते, तब घर का काम चलता। वह एक कठिन जिन्दगी है। इसलिये वे औरतें पानी खर्च करने में बहुत किफायत बरतती थीं।
हालांकि, जब मैंने होश सम्भाला तब से तो अपने घर के नल में पानी आते देखा। राजस्थान में विशेषकर लोगों की मानसिकता है कि अन्न की तरह पानी भी हमारे देवता की तरह हैं और इसकी पूजा ही नहीं, इसका समझदारी से प्रयोग करना चाहिए।
मुझे याद आता है कि जयपुर के जिस घर में हम रहते थे, उसमें नीचे तो सप्लाई का पानी आता था। लेकिन, ऊपर की मंजिल पर पानी नहीं पहुँचता था। घर में बड़ी-बड़ी पानी की टंकियाँ नहीं होती थीं, जैसी आजकल होती हैं। ऐसे में मैं और मेरे भाई पानी की बाल्टियाँ भर-भर कर ऊपर लेकर जाते थे। अब यह लगता है कि वह पानी के संरक्षण का ही एक तरीका था। लेकिन, अब समझ में आता है कि किफायत करना हमने सहज ही सीख लिया था।
दरअसल, जयपुर शहर में पानी की आपूर्ति रामगढ़ के सरोवर से होती है। अगर उसमें पानी कम होने की खबर किसी को भी मिलती है, वह इंसान चिन्तित हो उठता है। मैंने ‘मरू परम्परा’ स्वयंसेवी संस्था के साथ कुछ गाँवों की यात्रा की। यात्रा के दौरान हम बीकानेर के कुछ ऐसे गाँवों में गए, जहाँ दस-पन्द्रह दिन में एक बार पानी आता है।
जिस दिन गाँव में पानी आता है, वहाँ के बच्चे-बूढ़े बहुत खुश नजर आते हैं। संयोग से उस रोज जो मरू परम्परा के स्कूल में बच्चे पहुँचे, वे बहुत खुश थे। मैंने उनसे उनकी खुशी की वजह पूछी। उन्होंने बताया कि आज वे सब नहाकर पढ़ने आये हैं। इसलिये, उन्हें बहुत अच्छा महसूस हो रहा है।
यह सच है कि मैं शहर और महानगर दिल्ली में रही। राजस्थान या दिल्ली में बारिश कम ही होती है। इसलिये पानी का महत्त्व मैं बहुत कम उम्र में ही समझ गई थी। मैंने अपनी माँ को देखा कि वह अपने काम को पानी की सप्लाई के आने के अनुसार ढालती थीं।
वे कपड़े व बर्तन धोने में कम-से-कम पानी खर्च करती थीं। उन्हें देखकर मुझे ऐसी आदत पड़ी है कि मैं ब्रश वगैरह करते समय बेसिन के नल को खुला छोड़कर कभी नहीं करती। इतना ही नहीं, अपने अपार्टमेंट में किसी को पाइप से गाड़ी धोते देखती हूँ, तब मुझसे चुप नहीं रहा जाता। मैं उन्हें टोक देती हूँ। पानी को बचाने के लिये हमें सोचना होगा। आने वाली पीढ़ियों के लिये इसे बचाना जरूरी है।
मुझे लगता है कि पानी को बचाना राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक दायित्व है। परिवार के साथ-साथ माँ-बाप की जिम्मेदारी है कि वे बच्चे को पानी-जैसी ‘अमूल्य सम्पत्ति’ के बारे में बताएँ। एक-एक आदमी अपने बच्चों को शिक्षा दे कि हमें पानी पानी बर्बाद नहीं करना है। हमारे समाज की सोच ही कुछ ऐसी है कि हमारे बाथरूम हमारे समृद्धि के सूचक बन गए हैं कि टब, फव्वारे, नल, गीजर वगैरह किस स्टैंडर्ड के हैं। ऐश्वर्य प्रदर्शन की इन चीजों के इस्तेमाल में भी कहीं-न-कहीं पानी का ज्यादा या अनावश्यक प्रयोग होता ही है।
धरती पर उपलब्ध पानी का दोहन तो हमारे देश के लोगों ने मनचाहे तरीके से किया ही है। धरती के भूजल का दोहन भी खूब हुआ है। पानी के संरक्षण के लिये सिर्फ भाषण या नीति बनाने से नहीं होगा। बल्कि, इसके संरक्षण के लिये काम करने और जागृति लाने से ही सम्भव हो पाएगा।
पानी की महत्ता क्या है और उसके संरक्षण के लिये क्या-क्या किया जा सकता है, इसे समझने के लिये राजस्थान सबसे बेहतर जगह है जहाँ पानी बहुत कम होता है। शायद इसीलिये यहाँ के लोगों का पानी के साथ एक बेहतर रिश्ता बना। आज नई पीढ़ी इस रिश्ते को भूल रही है। उसे समझना होगा कि पानी नहीं रहा तो कुछ भी नहीं रहेगा।यूनाइटेड नेशंस ने वर्ष-2013 को ‘जल संरक्षण वर्ष’ घोषित किया था। उस समय इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर में अलका पांडे जी के कहने पर मैंने ‘जल’ थीम पर एक नृत्य रचना पेश की थी। उस नृत्य की परिकल्पना के दौरान मैंने सोचा कि भारतीय दर्शन में सृष्टि का आधार प्रकृति-पुरुष, यानी स्त्री-पुरुष को माना गया है। यहाँ अर्धनारीश्वर की परिकल्पना की गई है। यह सनातन है।
आज के समय में हम कुछ भी हासिल कर लें, पर शुद्ध हवा-पानी के लिये हम प्रकृति पर निर्भर हैं। नदी के आसपास मिट्टी में हमारा जन्म होता है। उसका पानी अपने करीब हमें बुलाता है। पशु-पक्षी, स्त्री-पुरुष सभी का मिलन नदी के किनारे होता है।
नई पीढ़ी या सन्तति अस्तित्व में आती है और पुरानी पीढ़ी मृत्यु के बाद नदी के जल या मिट्टी में विलीन हो जाती है। फिर, कृष्ण या राम भगवान की सारी लीलाएँ नदियों के किनारे ही हुईं। आज भी सूर्योदय या सूर्यास्त का मनोरम नजारा नदी के किनारे या उसके पानी में ही नजर आता है।
मुझे लगता है कि हमारे देश के युवाओं के पास विकल्प नहीं है। उन्हें जल संरक्षण के उपाय को अपनी जिम्मेदारी समझकर निभाना चाहिए। पानी ऐसा स्रोत है, जो हमारे अच्छे-बुरे कृत्यों, हर मैल को धोकर निर्मल बना देता है। इसमें कितनी अद्भुत शक्ति है। युवा जागरूक हैं, उनके पास जानकारी और ज्ञान का भण्डार है। चौदह-पन्द्रह साल के बच्चे बहुत उम्दा और सुन्दर-सुन्दर मॉडल बनाते हैं। उनको सिर्फ कार्य बोध करवाने की जरूरत है। मैं बताना चाहूँगी कि मेरी जालंधर के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में अपनी प्रस्तुति के दौरान मैंने छात्रों से कहा कि-
उनकी जिम्मेदारी है कि वे भारतीय संस्कृति की रक्षा करें। मैंने उन लोगों से कहा कि शास्त्रीय नृत्य और संगीत मनोरंजन के लिये नहीं, पर आनन्द के लिये है। इसके लिये हम लोग बहुत मेहनत करते हैं। मनोरंजन तो आप अन्य माध्यमों से भी कर सकते हैं। ये बातें, सिर्फ बच्चों को समझाने की जरूरत है। इस सम्बन्ध में पहली जिम्मेदारी माँ-बाप, स्कूल के शिक्षकों की है कि अमूल्य प्राकृतिक संसाधनों के बारे में युवाओं को बताएँ। यह राजनीति का विषय नहीं है। हमारे लिये जल-संरक्षण का काम सामाजिक धर्म को निभाने की तरह है।
(लेखिका प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना हैं)