पाठय़क्रम में पर्यावरणीय चिंता आवश्यक

Submitted by Hindi on Sat, 06/10/2017 - 16:58
Source
राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप, नई दिल्ली, 10 जून, 2017

शिक्षा से जुड़े नीतिकारों को बेहतरीन छात्र तैयार करने की समझ विकसित करनी होगी। कुछ सालों पहले सुप्रीम कार्ट के आदेश पर यूजीसी स्नातक स्तर पर विश्वविद्यालयों में ‘पर्यावरण शिक्षा’ पर एक पेपर सभी संवर्ग (कला/वाणिज्य और विज्ञान) लेकर आयी थी। हम अक्सर सोचते हैं कि जनसंख्या हमारे लिए बोझ है, दुश्वारी है। यदि हम युवा जनसंख्या का उपयोग अच्छी तरह से करें, युवाओं को कौशल विकास (स्किल डवलपमेंट), नवीन प्रक्रिया कार्यक्रम (इनोवेशन प्रोग्राम) आदि से जोड़ें तो हम भारत के विकास में इस वर्ग से बड़ा योगदान सुनिश्चित कर सकते हैं। इसके लिए हमें स्कूल से विश्वविद्यालय स्तर तक के पाठ्यक्रम की नये सिरे से पुनर्संरचना करनी होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा से जुड़े नीतिकार और विशेषज्ञों को यह दायित्व समझना होगा और जिम्मेदारी के साथ देश की बेहतरी के लिए भविष्य के बेहतरीन छात्र तैयार करने होंगे। इसको हमारी दिन-प्रतिदिन की समस्या से जोड़ना होगा; कनेक्टिविटी बढ़ानी होगी।

इस संबंध में ध्यान देने की बात है कि अभी केंद्र की सरकार ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति’ लेकर आई है। कुछ सालों पहले सुप्रीम कार्ट के आदेश पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग स्नातक स्तर पर सभी विश्वविद्यालयों में ‘पर्यावरण शिक्षा’ पर एक पेपर सभी संवर्ग (कला/वाणिज्य और विज्ञान) लेकर आयी थी। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसका आधा हिस्सा जन स्वास्थ्य के लिए नियत करना बेहद जरूरी हो गया है। आशा है कि नई शिक्षा-स्वास्थ्य नीति इस दिशा में प्रयास करेगी। पाठ्यक्रम में बहाल की गई इस नूतन संकल्पना से पर्यावरण को लेकर काफी जागरूकता बढ़ी है। भारत सरकार के स्वच्छता अभियान कार्यक्रम से भी लोगों का पर्यावरण के प्रति लगाव बढ़ा है।

कोर्सों में हो जल्दी-जल्दी बदलाव


हमारे देश में यह कमी है कि हम अपने कोर्स में जल्दी-जल्दी बदलाव नहीं करते हैं, जबकि हमारी सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और प्रशासकीय समस्याएं गतिशील हैं। हमें इस जड़ता को खत्म करना होगा। विदेशों में सालों-साल तक चलने वाले कोर्स का कोई अस्तित्व ही नहीं है। वहां तो हर साल विषयों के कोर्स में बदलाव किए जाते हैं। वहां सेशन शुरू होने के पहले ही संक्षेप में बता दिया जाता है कि इस साल क्या-क्या पढ़ाया जाएगा। इसके उलट हमारे यहां 15 साल-20 साल पुराने कोर्स अभी भी पढ़ाए जाते हैं। कई कोर्स तो इतने पुराने हो गए हैं कि उनकी वर्तमान समय में कोई प्रासंगिकता ही नहीं रह गई है। इसे समझने की जरूरत है। आशय यह कि गैर-महत्त्वपूर्ण पाठ्यक्रम को खत्म करना होगा। कुल मिलाकर नये पाठ्यक्रमों के लिए लचीला रुख अपानाना होगा। नई पीढ़ी को बोरियत से बाहर निकालना समय की मांग है। अगर इसमें व्यापक तौर पर तब्दीली नहीं लाई गई तो पठन-पाठन के जरिये बदलाव की उम्मीद करना बेमानी होगी।

छात्रों का कौशल विकास जरूरी


दूसरा अहम सुझाव यह है कि जब स्कूल-कॉलेजों में गर्मियों की छुट्टियां होती हैं, तो कम-से-कम 50 फीसद बच्चों को कौशल विकास के कार्यक्रम से जोड़ना होगा। देश में 40 हजार महाविद्यालय, 800 विश्वविद्यालय इस दिशा में मूल्यवान योगदान दे सकते हैं बशर्ते हम उनके पठन-पाठन से इसे जोड़ें। उदाहरण के लिए दिल्ली विविद्यालय में देश के करीब-करीब सभी राज्यों से छात्र पढ़ने आते हैं। अगर उन्हें सरकार से जुड़ी नीतियों और कार्यक्रमों की जानकारी प्रोफेशनल तौर से दी जाएगी तो वो इसका प्रचार-प्रसार अपने-अपने राज्यों में जाकर करेंगे। अंतत: इसका लाभ सरकार को ही होगा। साथ ही युवाओं में दैनिक जरूरतों की समझ बढ़ेगी। मसलन, वे खाद्य, जल, जैव-विविधता, ऊर्जा, आवास और मानव स्वास्य आदि से संबंधित शोध में अपना योगदान देते हुए भारत के नीति-निर्धारण में सहयोग करेंगे। कहा जा सकता है कि प्रकृति की सुरक्षा के लिए युवा और छात्रों की भागीदारी अत्यंत आवश्यक है।