दूसरे विश्वयुद्ध में चहपान बनाने वाली खुंखरी आज भी देहरादून से इंग्लैंड भेजी जाती है। हाॅलीवुड अंगोरा ऊन की जैकेट की मांग देशी-विदेशी पर्यटक करने हैं। बुधवार को प्रदेश के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री मंत्रिमंडल की बैठक में चमोली के मंगरोली गांव में बनी बिच्छु घास (कंडाली) की जैकेट पहन कर शामिल भी हुए। मसूरी के पास के गांवों में बन रहे उत्पाद ‘सबका बाप, बकरी छाप’ के स्लोगन आपको पांच सितारा होटलों में भी देखने को मिल सकता है। यह सब प्रदेश में कुटीर उद्योगों की ताकत को सामने रखने के लिए पर्याप्त हैं। इसके बाद भी नींव मजबूत होने बजाय बिखर गई। बिजली, पानी, सड़क और महानगर के विकास के ढांचे और गांव पर थोपने का ही शायद सबब रहा कि घर-घर और गांव-गांव का ‘कुटीर उद्योग’ भी दम तोड़ता दिख रहा है। हर गांव की पहचान घराट विदा हुआ तो गांव का युवा भी गांव की देहरी लांघ गया। इन्हीं समस्याओं को उकेरती, संभावना की पहचान करती उमर उजाला की विनम्र कोशिश है कुटीर उद्योगों से जुड़ी यह सिरीज।
पहाड़ों में आजीविका का मुख्य साधन भेड़ पालन अब सिमट रहा है, ऊन का उत्पादन कम हो रहा है और इस ऊन के दम पर पनपने वाले कुटीर उद्योग अपने पैर जमा ही नहीं पा रहे हैं। हाल ये है कि किसी समय में सबसे अधिक ऊन का उत्पादन करने वाले उत्तरकाशी में ही आठ गुना ऊन उत्पादन कम हो गया। ऊन का प्रयोग केवल दरियां और कालीन बनाने तक ही रह गया है। कभी पहाड़ों में हर घर में बुजुर्ग के हाथ में तकली घूमा करती थी। इनके हाथों से तकली गायब हो गई है। वर्तमान में प्रदेश में छह जिलों में करीब 17 हजार परिवार ही भेड़पालन व्यवसाय से जुड़े हैं। चारे की समस्या और ऊन के सही दाम न मिलने से भेड़ पालक भी पलायन कर रहे हैं। नई पीढ़ी को पुश्तैनी व्यवसाय अपनाने में रूचि नहीं है।
राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में किसी जमाने में लोगों की आजीविका का मुख्य साधन खेती-बाड़ी के साथ भेड़पालन था। समय बदलने के साथ ही पहाड़ों में भेड़पालकों की संख्या भी सिमट रही है। उच्च कोटी की गुणवत्ता न होने के कारण पहाड़ में तैयार हो रहा ऊन दरियाँ और कालीन बनाने में ही इस्तेमाल हो रहा है। बड़ी टेक्सटाइल कंपनियां ब्रांडेड कपड़े बनाने के लिए इस ऊन को नहीं लेती हैं। जिससे भेड़पालकों को ऊन के सही दाम न मिलने से व्यवसाय से जुड़े किसान परिवार अपनी पुश्तैनी व्यवस्था छोड़ रहे हैं।
किसी समय 1200 मीट्रिक टन ऊन उत्पादन करने वाले उत्तरकाशी जिले में वर्तमान में महज 180 मीट्रिक टन ऊन ही उत्पादित हो रही है। वर्ष 2012 हुई पशु गणना में प्रदेश में भेड़ों की संख्या 3.69 लाख थी। वर्ष 2007 की तुलना में भेड़ों की संख्या में 26.98 प्रतिशत वृद्धि पाई गई, लेकिन 2018 में हुई पशु गणना में भेड़ों की संख्या में कमी आई है। वर्तमान में प्रदेश के अन्दर 538.24 हजार किलोग्राम ऊन का उत्पादन हो रहा है।
डुंडा में कार्डिंग प्लांट बंद
ऊंचाई वाले इलाकों में ग्रामीणों की आजीविका पारम्परिक रूप से भेड़-बकरी पालन पर टिकी थी। पहले उद्योग विभाग उत्तरकाशी, पुरोला और डुंडा में लगे कार्डिंग प्लांट की मदद से ऊन तैयार कर घरों में कताई बुनाई कर ऊनी वस्त्र तैयार करते थे। आज स्थिति ये है कि कार्डिंग प्लांट बंद हैं और भेड़ पालक अधिकांश ऊन बाहरी राज्यों के व्यापारियों को ओने पोने दामों पर बेचने को मजबूर हैं। थोड़ी बहुत ऊन को लुथियाना भेजकर इससे धागा तैयार कर कुछ ग्रामीण ऊनी वस्त्र तैयार तो कर रहे हैं, लेकिन महंगे और आकर्षक नहीं होने के कारण यह बाजारी प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पा रहे हैं.
कम मिल रहे दाम
डुंडा में भेड़ पालक नारायण सिंह नेगी का कहना है कि उत्तराखण्ड सरकार भेड़पालकों से 46 रुपए प्रति किलो की दर से ऊन खरीद रहे हैं। जबकि हिमाचल के व्यापारी 75 रुपए किलो में मिश्रित ग्रेड की ऊन खरीद रहे हैं। चमोली के गाड़ी गाँव के भेड़ पालक तान सिंह, मंगरोली गाँव के बलवंत सिंह, राय सिंह, मोहन सिंग का कहना है कि भेड़ व बकरी पालन आज के दौर में फायदा कम और घाटे का सौदा अधिक है। गुलदार भेड़ों-बकरियों को अपना निवाला बना रहे हैं। भेड़ों की बिक्री भी कम हुई है। साथ ही बाजार में ऊन की बिक्री भी कम हो रही है।
उत्तराखंड भेड़ एवं विकास बोर्ड के सीईओ ने बताया कि प्रदेश में ऊन का उत्पादन तो बढ़ा है। लेकिन भेड़पालकों की संख्या कम हो रही है। जिसकी एक वजह यह भी है कि पढ़े लिखे युवा इस व्यवसाय को नहीं अपनाना चाहते हैं। कम भेड़ों से ज्यादा ऊन उत्पादन के लिए योजना बनाई गई है। इसमें आस्ट्रेलिया में मैरोनी भेड़ का आयात कर ब्रीडिंग की जाएगी। ऊन की गुणवत्ता बढ़ाने से भेड़पालकों को दाम अच्छे मिलेंगे।
इस तरह बदल सकती है तस्वीर
प्रदेश में ऊन की गुणवत्ता सुधारने के लिए सरकार आस्ट्रेलिया ने 240 मैरोनी भेड़ आयात कर रही है। इसके लिए प्रक्रिया पूरी कर ली गई है। मैरोनी भेड़ की ब्रीडिंग कर भेड़पालकों को दिए जाएँगे। वर्तमान समय में राज्य में 16 राजकीय भेड़-बकरी प्रजनन केन्द्र हैं। लेकिन करीब तीन दशकों से इन केन्द्रों में भेड़ों की नस्ल को नहीं बदला गया। मैरीनो भेड़ से 4 से 5 किलो. प्रति भेड़ ऊन प्राप्त होता है। जबकि पहाड़ों में पाई जाने वाले भेड़ों से 1.700 किलो ऊन निकलती है। वहीं, मैरीनो भेड़ का ऊन 16 से 19 माइक्रॉन का होता है। जो उच्च कोटी का माना जाता है। लेकिन प्रदेश में 28 से 30 माइक्रॉन का ऊन उत्पादन हो रहा है। यह ऊन दरियां व कारपेट बनाने का काम आ रहा है। सरकार की यह योजना सफल हुई तो आने वाले समय में भेड़पालक व्यवसाय की तस्वीर बदल सकती है। जिससे पहाड़ों स पलायन भी रुकेगा।
जिलेवार ऊन उत्पादन
उत्तरकाशी - 1482 क्विंटल
चमोली - 1443 क्विंटल
टिहरी - 608 क्विंटल
रुद्रप्रयाग - 136 क्विंटल
पिथौरागढ़ - 417 क्विंटल
बागेश्वर - 289 क्विंटल
ऊन व्यवसायी शांति परमार ने बताया कि भेड़पालकों को कार्डिंग प्लांट से तैयार ऊन 105 रुपए किलो पड़ती है। जब इसे धागा तैयार करने के लिए लुधियाना स्पिनिंग मिल में भेजा जाता है तो वह धागा 800 रुपए किलो पड़ता है। यहाँ स्पिनिंग मिल हो तो यह धागा 400 रुपए किलो में ही मिल सकता है। इसके साथ ही ऊन उत्पादकों को जरूरी हुनर एवं डिजाइन का प्रशिक्षण देना भी जरूरी है।
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