पहाड़ों में विकास, आपदा का सवाल

Submitted by RuralWater on Thu, 07/28/2016 - 16:42

समय के साथ पहाड़ के लोगों ने भी अपनी परम्परा भूला दी। अब पहाड़ के लोगों में भी पहाड़ के लिये वह आदर नहीं रहा। वे भी विकास की दौर में शामिल होना क्या कहलाता है, जान गए हैं। लेकिन वे नहीं जान पाये कि इस दौर की सबसे अधिक कीमत उत्तराखण्ड ने ही चुकाई है। इस वक्त रेत, जंगल और पत्थर की जिस तरह की लूट उत्तराखण्ड में मची है, उसे देखकर यही लगता है कि उत्तराखण्ड की चिन्ता किसी को नहीं है। पठार क्षेत्र के लिये जो विकास के मानक हैं, देश के पहाड़ी क्षेत्रों में वही आफत को आमंत्रित करने की वजह बन जाते हैं। आप सही समझे, मैं सड़कों से पहाड़ी क्षेत्रों के गाँवों को जोड़ने की बात कर रहा हूँ। यदि उत्तराखण्ड का उदाहरण लें तो नया राज्य बनने के बाद यहाँ सड़कों की जरूरत महसूस की गई। गाँवों को सड़कों के साथ जोड़ा भी गया। आज उत्तराखण्ड के अधिकांश गाँव सड़क से जुड़ गए हैं। लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ?

सड़कों से गाँवों का जुड़ जाना ही अब गाँवों के लिये आफत बन गया है। सड़क बनाने के लिये जगह-जगह पहाड़ काटे गए। पहाड़ काटने के लिये जमकर ब्लास्ट किया गया। जैसाकि हम जानते हैं कि उत्तराखण्ड हिमालय क्षेत्र में आता है और हिमालय की पहाड़ियाँ अभी शैशवावस्था में हैं। इस वजह से जेसीबी मशीन और ब्लास्ट से खोखले हुए पहाड़ बादल फटने या बारिश होने पर भरभरा कर गिरने लगती हैं और नीचे के गाँवों को मलबे से पाट देती है।

समय के साथ पहाड़ के लोगों ने भी अपनी परम्परा भूला दी। अब पहाड़ के लोगों में भी पहाड़ के लिये वह आदर नहीं रहा। वे भी विकास की दौर में शामिल होना क्या कहलाता है, जान गए हैं। लेकिन वे नहीं जान पाये कि इस दौर की सबसे अधिक कीमत उत्तराखण्ड ने ही चुकाई है। इस वक्त रेत, जंगल और पत्थर की जिस तरह की लूट उत्तराखण्ड में मची है, उसे देखकर यही लगता है कि उत्तराखण्ड की चिन्ता किसी को नहीं है।

राज्य के पुराने अधिकतर गाँव पहाड़ों की चोटियों पर मिलेंगे। पुराने गाँवों को बसाते हुए मजबूती देखी जाती थी। आज गाँव बिना सुरक्षा की परवाह किये सड़कों के किनारे बस रहे हैं। सड़कें सारी तलहटी में हैं। घर बनाने वाले यह तक जानने में दिलचस्पी नहीं लेते कि जहाँ वे घर बना रहे हैं, वह जमीन कहीं आसपास बहने वाली नदी की तो नहीं है। उत्तराखण्ड आपदा में बहे वे घर अधिक संख्या में बहे जो नदी की जमीन का अतिक्रमण करके बने थे। नदी ने आपदा के समय अपनी जमीन पर दावा किया और उसे वापस ले लिया।

रेत और पत्थर निकालने वाले गिरोह सम्भव है कि यह ना जानते हों कि इस तरह वे पहाड़ को कमजोर कर रहे हैं। रेत और पत्थर निकाल लिये जाने के बाद नदी का पानी पहाड़ी की तलहटी की मिट्टी को काटना प्रारम्भ करेगा और इस तरह वह पहाड़ को कमजोर भी करेगा। यह सारी बातें पहाड़ के लोग तो जानते हैं, फिर वे क्यों चुप हैं, पहाड़ की इस बर्बादी पर। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उत्तराखण्ड के कई नेता पहाड़ के इस दोहन के खेल में भागीदार हैं।

नीति आयोग की शहरी प्रबन्धन की रिपोर्ट पूर्वोत्तर के राज्यों समेत उत्तराखण्ड और अन्य पर्वतीय राज्यों के सम्बन्ध में टिप्पणी करती है कि इन राज्यों में स्थित शहरों की भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय स्थितियाँ पठारी क्षेत्रों से पूरी तरह भिन्न हैं। इन क्षेत्रों में बिखरी हुई आबादी है और कदम-कदम पर मुश्किलें हैं। देश के अन्य क्षेत्रों की तुलना में पहाड़ी क्षेत्रों में किसी भी परियोजना को पूरा करना कठिन होगा। सरकार ऐसे राज्यों को अवसर मुहैया कराने के लिये अलग लक्ष्य तय करे।

वैसे नीति आयोग को अलग लक्ष्य तय करने की जगह अपने विकास की परिभाषा पर एक बार अवश्य विचार करना चाहिए। स्मार्ट सिटी यदि पहाड़ वाले राज्यों में बनाने हैं तो उसके लिये मानक अलग हो सकते हैं। यह जरूरी तो नहीं कि पठारी शहरों में स्मार्ट सिटी की जो जरूरत हो, वह पहाड़ी शहरों के भी काम आये।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पठार हो या पहाड़, उसका कथित विकास करते हुए उसकी स्थानीय जरूरतों की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता। पेड़ काटे जाते हैं, पहाड़ रास्ते से हटाए जाते हैं, नदियों का अतिक्रमण किया जाता है और यह सब करते हुए हम कभी नहीं सोचते कि इसका साइड इफेक्ट क्या होगा? भारत में बड़े हों या छोटे शहरों के निर्माण के समय नदियों और नालों के पानी की निकासी की चिन्ता की ही नहीं जाती। इस लापरवाही का गम्भीर परिणाम चेन्नई ने पिछले दिनों भुगता है।

अब इस बात पर समाज में सहमति बन रही है कि बाढ़ हर बार प्राकृतिक आपदा नहीं होती। वह कई बार हमारी नाकामियों और लापरवाहियों का सबूत भी होती है। जिन लोगों की आज के कथित विकास में भागीदारी है, उन्हें इस लेख की भाषा समझ आएगी, ऐसा इन पंक्तियों के लेखक को लगता नहीं है।

अब इस तरह की चिन्ता जाहिर करते समय किसे यह सम्बोधित किया जाये क्योंकि जो पीड़ित पक्ष है, वह भी सब कुछ देखते-समझते हुए भी ना कुछ देख रहा है, ना कुछ सुन रहा है और वह कुछ बोल भी नहीं रहा।