प्रकृति से खिलवाड़ का नतीजा

Submitted by admin on Thu, 07/08/2010 - 11:32
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दैनिक भास्कर
जब से कृष्ण कथा प्रचलित हुई या जब से सावन-भादों का मुहावरा बना, मौसम का चक्र ठीक वैसा नहीं था जैसा आज होता है। अगर प्रकृति अपने ही कारणों से मौसम के चक्र को बदलती रहती है तो चिंता किस बात की?कहा जाता है कि भारतीय कृषि मॉनसून पर दांव लगाने पर निर्भर है। लग गया तो बढ़िया बरसात होगी। पासा उल्टा पड़ा तो सूखा और अकाल। जमाने से हम इस जुए के नियम-कायदे सीखते रहे हैं। अब तक तो हमने सारे के सारे रट भी लिए हैं। अधिक से अधिक हम अड़तालिस घंटे पहले से भविष्यवाणी करने लगते हैं, लेकिन चौबिस घंटे से पहले की भविष्यवाणी बस उम्मीद पर आधारित होती है और अक्सर निराश ही कर देती है। अपनी सारी जानकारी और अपने सारे विज्ञान को इस जुए में झोंक देने के बावजूद प्रकृति हमसे बड़ी खिलाड़ी सिद्ध हो गई है। उसने इस मॉनसून के नियम-कायदे ही बदल दिए हैं। इस जुए के बदले हुए नियम अभी हमारी समझ में नहीं आ रहे हैं और हम लाचार महसूस कर रहे हैं। जब बरसात की उम्मीद होती है, तब भयानक गर्मी पड़ती है। जो तिथियां हमने बड़ी मेहनत के बाद तय कर ली थीं, उन तिथियों पर न पानी बरसता है न जाड़ा आता है और गर्मी आरंभ होती है। मौसम का चक्र बदला है, यह तो हम जान गए हैं, लेकिन इसके कारणों पर हम आज भी माथापच्ची कर रहे हैं।

मौसम का चक्र जिस तरह चलता है, उससे कभी-कभी लगता है कि जो लोग इस भौतिक जगत को निर्जीव मानते हैं और इसे टुकड़ों में बांटकर देखते और तौलते हैं, वही इस विराट संकट के लिए उत्तरदायी होंगे। व्यापक दृष्टि से देखें तो यह पूरी पृथ्वी उसी तरह विकासमान है और उसी तरह सांस लेती है, जिस तरह कोई जटिल जीव-प्रजाति। जो हवाएं हमें पानी लाती हैं, वे बहुत दूर से आती हैं और इसलिए आती हैं कि हमारे वायुमंडल में कम या अधिक तापमान के कारण गर्म हवा हल्की होकर आगे बढ़ती है। तापमान के इसी अंतर के कारण हवा में गति पैदा होती है और विराट वायु तरंगे बह चलती हैं। लेकिन यह केवल वायु के साथ ही नहीं होता, पानी के साथ भी होता है। हवा हो या पानी, इसकी गतिशीलता पर हमारे मौसम और जलवायु निर्भर करते हैं। यही जल से भरी हवाएं लाते हैं। लेकिन, यह एक बहुत ही नाजुक संतुलन पर आधारित है। वही संतुलन दरअसल बिगड़ गया है।

क्या इसे हमने बिगाड़ा है? क्या हम इस असंतुलन के लिए उत्तरदायी हैं? सैद्धांतिक और ऐतिहासिक आधार पर जांचे, तो पहले भी मौसम में बदलाव आया है। मानव इतिहास से पहले तो आते ही रहते थे, लेकिन मानव जाति के आविर्भाव के बाद भी आया है। याद कीजिए कि मुहावरे में हम तेज बरसात के मौसम के बारे में क्या कहते हैं- सावन-भादो। आज जब देश में मॉनसून देर से आया तो कितनी देर से? अभी तो सावन-भादों का समय आरंभ ही हो रहा है, तो देर किस बात की? बात दरअसल यह है कि दशकों से बरसात जून से पहले आरंभ होती रही है। मौसम विभाग ने जो कैलेंडर बनाया है, उसके अनुसार तो उत्तर भारत में मॉनसून को 15 जून तक आ जाना चाहिए। इसीलिए सरकार और विशेषज्ञ परेशान थे, कि अगर बरसात 4 जुलाई से भी आगे नहीं आरंभ हुई तो फसल बरबाद हो जाएगी।

प्रकृति के प्रति उसके दृष्टिकोण, अपव्यय और अतृप्त भोग की प्रवृति ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया है, जिसमें यह गलतफहमी पाली जाती है कि प्रकृति को दास बनाया जा सकता है और यह भूल जाते हैं कि हम स्वयं भी तो प्रकृति ही हैं।यही क्रम पिछले कई दशकों से चला आ रहा है। जिन लोगों ने कृष्ण जन्म की कथा पढ़ी होगी, उन्हें याद होगा कि उस समय यमुना उफान पर थी। वह दिन यानी कृष्ण जन्म दिवस-जन्माष्टमी अभी बहुत दूर है। लेकिन हम जिस काल में पैदा हुए है, बड़े हुए हैं, उसमें तो मौसम का चक्र वही रहा, जो मौसम वैज्ञानिकों के बनाए कैलेंडर के अनुरूप है। मतलब यह कि कई सदी पहले, जब से कृष्ण कथा प्रचलित हुई या जब से सावन-भादो का मुहावरा बना, मौसम का चक्र ठीक वैसा नहीं था जैसा आज होता है। अगर प्रकृति अपने ही कारणों से मौसम के चक्र को बदलती रहती है तो चिंता किस बात की?

चिंता है कि बदलाव हमारे अपने जीवन चक्र को गड़बड़ा देता है। हमारी कृषि व्यवस्था बिगड़ जाती है। बोने, पकने और काटने का क्रम टूट जाता है। जब फसल को पानी चाहिए, तब नहीं मिलता। वह सूख जाती है। बेमौसम पानी बरसे तो बह जाती है। फल नहीं पकते। यह कोई साधारण चिंता नहीं है, लेकिन उससे भी बड़ी चिंता यह है कि यह बदलाव अचानक आता दिखाई दे रहा है। मौसम के बारे में दस-पंद्रह सालों की अवधि में आया बदलाव भी आकस्मिक कहा जाएगा। अफरा-तफरी इसलिए भी पैदा हो सकती है कि हमें इस बदलाव को समझने और उसके अनुसार तालमेल बैठाने का अवसर नहीं मिलता। प्राकृतिक कारण अब भी हो सकते हैं, जिन पर मानव जाति का वश नहीं चलता।

हमारे पास जितने पुराने आंकड़े हैं, उनसे इस बदलाव का जो मानचित्र बनता है, उससे तो यही लगता है कि गड़बड़ मनुष्य ने ही की है। प्रकृति के प्रति उसके दृष्टिकोण, अपव्यय और अतृप्त भोग की प्रवृति ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया है, जिसमें यह गलतफहमी पाली जाती है कि प्रकृति को दास बनाया जा सकता है और यह भूल जाते हैं कि हम स्वयं भी तो प्रकृति ही हैं। प्रकृति ने करोड़ों सालों में एक अनुशासन और नियंत्रण की व्यवस्था बनाई थी, जिसे हमने यह मानकर बिगाड़ दिया कि हम इसका विकल्प बना सकते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि प्रकृति का यह नया संतुलन हमारे जीवन के संतुलन को बिगाड़ रहा है। हम जितनी जल्दी इस बात को समझ जाएं, उपचार की संभावनाएं उतनी ही बची रहेंगी।