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दैनिक भास्कर (ईपेपर), 24 जुलाई 2013
प्राचीन मनुष्य ने भी कई पीढ़ियों के अनुभव के बाद सीखा कि कहां बस्ती बसानी चाहिए और कहां नहीं। वे भी पानी के मार्ग में घर नहीं बनाते थे। लेकिन अब हम सब कुछ ठीक उलटा करते हैं। हम बस्तियां ठीक पहाड़ी नदियों की धार के साथ बनाते हैं। जितना मलबा निकालते हैं, सारा नदी के मार्ग में डाल आते हैं। उन्हें रास्ता बदलने पर मजबूर करते हैं, सहज में न बदले तो बांध कर टनलों में फंसाकर बदलवाते हैं। नदियां तब भी ताल सरोवर बनाती थीं, लेकिन अब हम उन्हें बता रहे हैं, वहां नहीं, जहां हम कहें वहां बनानी होगी। गर्मियों में हम पानी को तरसते हैं और जब पानी झमाझम बरसता है तो हमें समझ में नहीं आता कि इसका करें क्या। हम अनिश्चय में या उदासीनता में नहीं जानते कि पानी को कहां जाना चाहिए तो पानी अपनी मर्जी से जहां राह मिलता है, चला जाता है। कभी-कभी राह न होने पर भी वह अपनी राह बनाता है, चाहे वह घर-आंगन और खेत खलिहान को रौंद कर ही क्यों न हो। हिमालय में चार धाम के पथ पर कैसा कोहराम मच गया। पानी को जहां जाना था, वहां न जाकर अपनी इच्छा से मानव बस्तियों की परवाह न करते हुए निकल चला। ऐसे में उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि वहां कौन है, निर्धन ग्रामीण या कुलीन और संपन्न तीर्थयात्री या स्वयं केदार नाथ।
अब देखें, जब मैदानी क्षेत्रों में लोग पानी की कमी की बातें करने लगे थे और थोड़ी सी गर्मी न सह पाने के कारण भूमंडलीय ताप की चर्चाएं होने लगी थीं, तभी पानी बरसने लगा और कहीं-कहीं तो धारा प्रवाह बरसने लगा। दिल्ली हो या मुंबई, पश्चिम बंगाल हो या उत्तर प्रदेश, सब जगह लोग पानी से त्राहिमाम करने लगे। पानी तो दिल्लीवासियों और मुम्बईवासियों को भी चाहिए, लेकिन वे चाहते हैं कि पानी नियंत्रण में रहे, आदमी के बनाए नियम-कायदों का ध्यान रखे। यानी, पानी को समझना चाहिए कि पानी मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य पानी के लिए। खेद की बात है कि पानी को दो बातें पसंद नहीं। वह बेवजह रास्ता रोके जाना पसंद नहीं करता, उसे नाली और सड़क में अंतर करना नहीं आता।
आपकी नाली तंग है या बंद है तो वह सड़क पर ही बहने लगेगा। हमारी मोटर गाड़ियां बीच रास्ते में रुक जाएं और जाम लग जाए, तो इसमें आकाश से बरसने वाले पानी का क्या दोष? यूं भी सड़कें जिनके लिए होनी चाहिए, उनके लिए तो बनती नहीं, पैदल चलने वालों को तो जान हथेली पर रखकर चलना होता है। खुदा न खासता कहीं फुटपाथ यानी पैदल चलने वालों के लिए पगडंडी बनी भी हो, तो वह बेचने वालों के माल से इस तरह पट चुकी होती है कि उन पर चलना जोखिम भरा होता है। वे तो लड़कियों को छेड़ने वाले मनचलों और जेबकतरों के लिए ही अनुकूल मार्ग हैं। मुख्य मार्गों पर रोज जाम लगा ही रहता है, ऐसे में कुछ ठहराव बहते हुए पानी के कारण भी आ जाए तो कौन सी आफत आ जाएगी।
कुछ आस्थावान लोग कहते हैं कि कलियुग है और कलियुग में आदमी की अक्ल पर पत्थर पड़ जाते हैं। इस बात का स्पष्ट प्रमाण तो हमारे पास नहीं है, लेकिन पानी के साथ जो व्यवहार हम कर रहे हैं, उससे यही लगता है कहीं अक्ल पर पत्थर पड़ने की बात सच न हो। जहां पानी को नहीं रोकना चाहिए, वहीं हम उसे रोकने में जी जान से जुट जाते हैं। जहां पानी को कुओं, तालों, झीलों, सरों, पोखरों, बावड़ियों में विश्राम देना चाहिए, वहां हम उसे बेलगाम होकर व्यर्थ में बह जाने देते हैं। जब वह जाकर समुद्र में विलीन हो जाता है तो हम राहत की सांस लेते हैं, चलो बला तो टली।
सहस्त्राब्दों से पानी ने पहाड़ से उतरने के मार्ग बना लिए हैं। वह अपने मार्गों से नीचे आता है, यही उसके लिए सुविधाजनक होता है। पेड़ों ने भी जान लिया है कि पानी कहां से उतरता है, वे उसके मार्ग में नहीं आते और हटकर उगते रहे हैं।
प्राचीन मनुष्य ने भी कई पीढ़ियों के अनुभव के बाद सीखा कि कहां बस्ती बसानी चाहिए और कहां नहीं। वे भी पानी के मार्ग में घर नहीं बनाते थे। लेकिन अब हम सब कुछ ठीक उलटा करते हैं। हम बस्तियां ठीक पहाड़ी नदियों की धार के साथ बनाते हैं। जितना मलबा निकालते हैं, सारा नदी के मार्ग में डाल आते हैं। उन्हें रास्ता बदलने पर मजबूर करते हैं, सहज में न बदले तो बांध कर टनलों में फंसाकर बदलवाते हैं। नदियां तब भी ताल सरोवर बनाती थीं, लेकिन अब हम उन्हें बता रहे हैं, वहां नहीं, जहां हम कहें वहां बनानी होगी। हमें गुमान है कि हमारे पास टेक्नोलॉजी है, प्रकृति उसके सामने क्या चीज है?
जब नदियां नीचे आ जाती हैं, तो मंथर गति से चलने लगती हैं। जब तक भरी रहती हैं, हम उनका उपयोग करते हैं। जब कृश्काय बन जाती हैं, तो उनके तटों पर कब्जा करने की होड़ लग जाती है। जब बरसात में पानी बरसता है, तो पता चलता है कि नदी का जितना पाट बचा रह गया है, उसमें वह समाती ही नहीं। महानगरों में तो हम तटबंध बनाकर नदी को नगर में आने से रोकते हैं, लेकिन गांवों में वह तट तोड़कर डुबो देती है, बस्तियां बहा ले जाती हैं। संपत्ति, मनुष्य और पशु सबको। जिन तटबंधों को हम बाढ़ रोकने के लिए बनाते हैं, कभी-कभी वही बाढ़ का कारण बन जाते हैं। इधर का पानी उधर नहीं जा पाता, उधर का पानी इधर नहीं आ पाता। उधर भी डूबता है, इधर भी डूबता है।
दरअसल, बाढ़ हमारी सभ्यता के समय से पिछड़ने का ही प्रमाण है। महानगरों में पानी बरसे तो हाहाकार, न बरसे तो भी हाहाकार। अवैज्ञानिक नगर आयोजन का सबसे बड़ा उदाहरण है बाढ़। कभी कम, कभी अधिक लेकिन पानी तो बरसेगा।
फिर भी क्यों हम उसके लिए जाने का मार्ग नहीं बनाते, क्यों हम सड़कों को चौड़ा करते समय नालियों को बेगार का काम मान कर चलते हैं, क्यों गरीबों को ऐसे स्थानों पर बसाते हैं, जो नगर की सतह से नीचे हों और आसपास का सारा पानी वहीं बहकर चला जाए। बस्तियों को ऐसे नदी तटों पर क्यों बसाते हैं, जिनका अधिक पानी आने पर डूबना तय है। कंक्रीट के इन जंगलों में पानी कहां जाएगा, जमीन तो सोख नहीं सकती, सड़कों पर तो आएगा ही। मोहल्लों में, घरों के अंदर दरवाजों-खिड़कियों से या फिर सीवर की नालियों के माध्यम से घुस कर नींव को हिला कर ही जाएगा। बरसात के गीत गाने वाले समाज ने प्रणय के मौसम से बरसात को महाकाली बना दिया है, तो इसमें किसका दोष?
अब देखें, जब मैदानी क्षेत्रों में लोग पानी की कमी की बातें करने लगे थे और थोड़ी सी गर्मी न सह पाने के कारण भूमंडलीय ताप की चर्चाएं होने लगी थीं, तभी पानी बरसने लगा और कहीं-कहीं तो धारा प्रवाह बरसने लगा। दिल्ली हो या मुंबई, पश्चिम बंगाल हो या उत्तर प्रदेश, सब जगह लोग पानी से त्राहिमाम करने लगे। पानी तो दिल्लीवासियों और मुम्बईवासियों को भी चाहिए, लेकिन वे चाहते हैं कि पानी नियंत्रण में रहे, आदमी के बनाए नियम-कायदों का ध्यान रखे। यानी, पानी को समझना चाहिए कि पानी मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य पानी के लिए। खेद की बात है कि पानी को दो बातें पसंद नहीं। वह बेवजह रास्ता रोके जाना पसंद नहीं करता, उसे नाली और सड़क में अंतर करना नहीं आता।
आपकी नाली तंग है या बंद है तो वह सड़क पर ही बहने लगेगा। हमारी मोटर गाड़ियां बीच रास्ते में रुक जाएं और जाम लग जाए, तो इसमें आकाश से बरसने वाले पानी का क्या दोष? यूं भी सड़कें जिनके लिए होनी चाहिए, उनके लिए तो बनती नहीं, पैदल चलने वालों को तो जान हथेली पर रखकर चलना होता है। खुदा न खासता कहीं फुटपाथ यानी पैदल चलने वालों के लिए पगडंडी बनी भी हो, तो वह बेचने वालों के माल से इस तरह पट चुकी होती है कि उन पर चलना जोखिम भरा होता है। वे तो लड़कियों को छेड़ने वाले मनचलों और जेबकतरों के लिए ही अनुकूल मार्ग हैं। मुख्य मार्गों पर रोज जाम लगा ही रहता है, ऐसे में कुछ ठहराव बहते हुए पानी के कारण भी आ जाए तो कौन सी आफत आ जाएगी।
कुछ आस्थावान लोग कहते हैं कि कलियुग है और कलियुग में आदमी की अक्ल पर पत्थर पड़ जाते हैं। इस बात का स्पष्ट प्रमाण तो हमारे पास नहीं है, लेकिन पानी के साथ जो व्यवहार हम कर रहे हैं, उससे यही लगता है कहीं अक्ल पर पत्थर पड़ने की बात सच न हो। जहां पानी को नहीं रोकना चाहिए, वहीं हम उसे रोकने में जी जान से जुट जाते हैं। जहां पानी को कुओं, तालों, झीलों, सरों, पोखरों, बावड़ियों में विश्राम देना चाहिए, वहां हम उसे बेलगाम होकर व्यर्थ में बह जाने देते हैं। जब वह जाकर समुद्र में विलीन हो जाता है तो हम राहत की सांस लेते हैं, चलो बला तो टली।
सहस्त्राब्दों से पानी ने पहाड़ से उतरने के मार्ग बना लिए हैं। वह अपने मार्गों से नीचे आता है, यही उसके लिए सुविधाजनक होता है। पेड़ों ने भी जान लिया है कि पानी कहां से उतरता है, वे उसके मार्ग में नहीं आते और हटकर उगते रहे हैं।
प्राचीन मनुष्य ने भी कई पीढ़ियों के अनुभव के बाद सीखा कि कहां बस्ती बसानी चाहिए और कहां नहीं। वे भी पानी के मार्ग में घर नहीं बनाते थे। लेकिन अब हम सब कुछ ठीक उलटा करते हैं। हम बस्तियां ठीक पहाड़ी नदियों की धार के साथ बनाते हैं। जितना मलबा निकालते हैं, सारा नदी के मार्ग में डाल आते हैं। उन्हें रास्ता बदलने पर मजबूर करते हैं, सहज में न बदले तो बांध कर टनलों में फंसाकर बदलवाते हैं। नदियां तब भी ताल सरोवर बनाती थीं, लेकिन अब हम उन्हें बता रहे हैं, वहां नहीं, जहां हम कहें वहां बनानी होगी। हमें गुमान है कि हमारे पास टेक्नोलॉजी है, प्रकृति उसके सामने क्या चीज है?
जब नदियां नीचे आ जाती हैं, तो मंथर गति से चलने लगती हैं। जब तक भरी रहती हैं, हम उनका उपयोग करते हैं। जब कृश्काय बन जाती हैं, तो उनके तटों पर कब्जा करने की होड़ लग जाती है। जब बरसात में पानी बरसता है, तो पता चलता है कि नदी का जितना पाट बचा रह गया है, उसमें वह समाती ही नहीं। महानगरों में तो हम तटबंध बनाकर नदी को नगर में आने से रोकते हैं, लेकिन गांवों में वह तट तोड़कर डुबो देती है, बस्तियां बहा ले जाती हैं। संपत्ति, मनुष्य और पशु सबको। जिन तटबंधों को हम बाढ़ रोकने के लिए बनाते हैं, कभी-कभी वही बाढ़ का कारण बन जाते हैं। इधर का पानी उधर नहीं जा पाता, उधर का पानी इधर नहीं आ पाता। उधर भी डूबता है, इधर भी डूबता है।
दरअसल, बाढ़ हमारी सभ्यता के समय से पिछड़ने का ही प्रमाण है। महानगरों में पानी बरसे तो हाहाकार, न बरसे तो भी हाहाकार। अवैज्ञानिक नगर आयोजन का सबसे बड़ा उदाहरण है बाढ़। कभी कम, कभी अधिक लेकिन पानी तो बरसेगा।
फिर भी क्यों हम उसके लिए जाने का मार्ग नहीं बनाते, क्यों हम सड़कों को चौड़ा करते समय नालियों को बेगार का काम मान कर चलते हैं, क्यों गरीबों को ऐसे स्थानों पर बसाते हैं, जो नगर की सतह से नीचे हों और आसपास का सारा पानी वहीं बहकर चला जाए। बस्तियों को ऐसे नदी तटों पर क्यों बसाते हैं, जिनका अधिक पानी आने पर डूबना तय है। कंक्रीट के इन जंगलों में पानी कहां जाएगा, जमीन तो सोख नहीं सकती, सड़कों पर तो आएगा ही। मोहल्लों में, घरों के अंदर दरवाजों-खिड़कियों से या फिर सीवर की नालियों के माध्यम से घुस कर नींव को हिला कर ही जाएगा। बरसात के गीत गाने वाले समाज ने प्रणय के मौसम से बरसात को महाकाली बना दिया है, तो इसमें किसका दोष?