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पूर्वजों ने वर्षा के जल को संग्रहित करके भारत में कृषि के उत्कृष्ट प्रतिमान स्थापित किए थे। इससे जहां पानी की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित की जाती थी वहीं भूजल को भी स्थिर रखने में मदद मिलती थी। देश में आए दिन जो सूखे की समस्या रहती है, उससे निपटने के लिए हमें एक बार फिर सिंचाई के परंपरागत साधनों पर ध्यान देना होगा। गत वर्ष सूखे के कारण करीब 60 प्रतिशत से अधिक चावल की पैदावार में कमी आने वाली है।
दूसरी ओर रबी की फसल पर भी सूखे का साया मंडराने लगा है। गौरतलब है कि बिहार की खेती-किसानी अधिकतर मानसून पर ही निर्भर रहा करती है। यह सच है कि देश में कई अन्य राज्यों में बिहार से भी कम वर्षा हुई है, लेकिन इन राज्यों में बिहार की तुलना में सिंचाई की बेहतर सुविधाएं हैं, फलस्वरूप इन राज्यों की कृषि को बिहार जैसी समस्या झेलनी नहीं पड़ेगी। दुर्भाग्यवश बिहार में मात्र 60 फीसदी कृषि क्षेत्र में ही सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं। सिंचाई सुविधाओं में 83.8 प्रतिशत नलकूप है। बिजली का अभाव, भूजल का गिरता स्तर तथा महंगे डीजल के कारण नलकूपों द्वारा सिंचाई की अपनी सीमाएं हैं।
धान का कटोरा कहे जाने वाले दक्षिण बिहार के रोहतास सहित कई जिलों के खेतों में दरारें पड़ गयीं। रोहतास की पहाड़ियों में रहने वाले लोग पलायन कर दूसरे इलाकों में चले गये। ताल-तलैये सुख गए और हैंडपंप नाकाम हो गए। जानकारों के अनुसार तीस फीट से नीचे पानी के नीचे चले जाने से हैडपम्प पूरी तरह काम करना बन्द कर देता है। बिहार के राज्य भूजल निदेशालय के आंकड़ों को आधार मानें तो पटना, भभुआ, गया, जहानाबाद, औरंगाबाद, भोजपुर, नालंदा, नवादा, अरवल, बक्सर और रोहतास जैसे दक्षिण बिहार के जिलों के साथ-साथ मुंगेर एवं भागलपुर प्रमंडलों के जिलों सहित 17 जिलों में जून के महीनों में पानी तीस से सत्तर फीट तक नीचे चला गया। बिहार की अर्थव्यवस्था में इन इलाकों की कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन सच यह है कि अलाभकारी खेती की वजह से किसानों में खेती-किसानी के प्रति मोहभंग होता जा रहा है।
वर्तमान नीतिश सरकार का कार्यकाल बीतता जा रहा है। अगले एक वर्ष में वर्तमान सरकार का लक्ष्य राजकीय नलकूप योजनाओं का क्रियान्वयन कराया जाना है। नीतिश सरकार के एजेंडे में कृषि प्रधान बिहार के कायापलट में सक्षम कृषि के विकास के लिए पारंपरिक सिंचाई के स्रोतों का संर्वधन एवं संरक्षण घोषणाओं तक ही सीमित रह गया है। सरकार ने नरेगा के जरिये पारंपरिक सिंचाई के साधनों को साफ करने की सिर्फ घोषणा की है। इस दिशा में क्रियान्वयन के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है। नरेगा द्वारा क्रियान्वित योजनाओं में संपर्क मार्ग तथा बांध का निर्माण और वृक्षारोपण जैसी योजनाओं को ही प्राथमिकता दी गयी।
दूसरी ओर नरेगा में भ्रष्टाचार का दीमक लग चुका है जिसने पूरी योजना को अनिश्चितता की अंधेरी सुरंग में ढकेल दिया है। ऐसे में सिर्फ नरेगा के सहारे सिंचाई में आमूलचूल परिवर्तन का लक्ष्य ख्याली पुलाव से अधिक कुछ नहीं। एक बड़ी समस्या पारंपरिक सिंचाई के स्रोतों को खेतों में तब्दील कर चुके लोगों से निपटना भी है।
यह बताने की जरूरत नहीं है कि बिहार के सूखाग्रस्त इलाके प्राचीन मगध राज्य की सीमा में आते थे। छठी शताब्दी ई.पू. में प्रारंभिक मगध में खेती-किसानी ही आजीविका का मुख्य साधन थी। इसमें परम्परागत सिंचाई के स्रोतों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। आज पूरे देश और दुनिया में जलवायु परिवर्तन को लेकर विमर्श हो रहा है लेकिन सिर्फ जलवायु परिवर्तन के नाम पर जमीनी सच्चाईयां अनदेखी नहीं हो सकती हैं। बिहार में प्रत्येक वर्ष सूखा के लिए महज प्राकृतिक कारणों को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता है। बिहार के इन सूखाग्रस्त जिलों में परम्परागत सिंचाई की समृद्ध परम्परा रही है। इन परम्पराओं के तहत नदी का जल पईन (सिंचाई के लिए नालानुमा नदी) के माध्यम से आहर (पानी संग्रह करने के लिए तालाबनुमा स्थान) में लाया जाता था।
इसके अतिरिक्त वर्षा जल का भी संचय होता था। पईन के दोनों किनारों पर स्थित खेतों की सिंचाई आसानी से हो जाती थी। इस प्रकार आहर के संचित जल से आसपास के सूखे इलाकों की भूमि की सिंचाई होती थी। ये सारे कार्य ग्रामीणों की आपसी सूझ-बूझ एवं तालमेल से होते थे। आजादी के पूर्व आहर और पईन की व्यवस्था मुख्य रूप से जमींदारों की देखरेख में हुआ करती थी। कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण सिंचाई की समुचित व्यवस्था बनाए रखने का सारा दायित्व जमींदारों का ही था। ये जमींदार किसानों से भू-राजस्व वसूला करते थे। आजादी के बाद भूमि-संबधी कार्य सरकार करने लगी।
सरकार की अदूरदर्शिता एवं कुप्रबंधन की वजह से आज गांवों में आहर एवं पईन आदि का रख रखाव नहीं हो रहा है। गांवों में श्रमदान के जरिए उन्हें साफ करने की परिपाटी मृतप्राय हो गयी है। किसानों ने ताल तलैयों को मैदान बना डाला। पईन एवं आहर को खेतों में तब्दील कर दिया और सिंचाई एवं पेयजल के लिए लोगों ने भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन करना शुरू कर दिया। अब जब भूजल पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं तो कुछ लोगों को पारंपरिक तरीकों की याद आ रही है। अनुभवी किसानों से बातचीत के दौरान यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राय: सभी छोटे गांवों में औसतन 75 एकड़ एवं बड़े गांवों में अधिकतम 200 एकड़ (आहर एवं पईन) भूमि का अस्तित्व आज भी है।सवाल यह है कि इन स्रोतों के साज-संभाल के प्रति समाज और सरकार पूर्णत: उदासीन क्यों है? यह देखा गया है कि पारंपरिक सिंचाई के स्रोतों वाले इलाकों के विपरीत जिन इलाकों में इन स्रोतों का अस्तित्व मिट गया है, उन इलाकों में औसत उपज दर में कमी आ गयी है। खेतों की उर्वरा शक्ति घट गयी है और भूमिगत जल तेजी से नीचे चला गया है। कहीं-कहीं तो उपजाऊ जमीन बंजर हो गयी है। बिहार में बंजर भूमि का विस्तार होता जा रहा है। भूमि की उत्पादकता में निरंतर गिरावट, जल संसाधनों का ह्रास, फसलों की उत्पादन दर में कमी, पशुधन व मानव संसाधनों की कमी, भूख, कुपोषण और विपत्ति के समय मानव एवं पशुओं का किसी दूसरे स्थान को पलायन सूखा प्रभावित क्षेत्र की सामान्य विशेषताएं होती हैं। ये सभी लक्षण बिहार में देखने को मिल रहे हैं।
बिहार की तमाम राज्य सरकारें परम्परागत सिंचाई के विकास के प्रति उदासीन बनी रहीं। आधुनिक सिंचाई प्रणालियों की स्थिति भी चिंताजनक है। बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य जहां आबादी का 75 प्रतिशत आबादी कृषि से जीविका चला रहा है, उस प्रदेश में मात्र 50-60 प्रतिशत भूमि पर ही सिंचाई की व्यवस्था हो पायी है। ग्रामीण विद्युतीकरण की स्थिति भी दयनीय है। ऐसे में गरीब किसानों के समक्ष महंगे डीजल द्वारा खेती करने की चुनौती है। दक्षिण बिहार के कई क्षेत्रों में गर्मी के दिनों में नलकूप से पानी निकलना बंद हो जाता है। गांवों में अघोषित रूप से इस पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। इन इलाकों में पेयजल की घोर किल्लत हो जाती है। ऐसे में पारंपरिक सिंचाई के स्रोतों को पुनर्जीवित किए बगैर कृषि प्रधान बिहार की खेती की नैया पार नहीं लगने वाली है।यह काम महज औपचारिक वादों एवं नारों से संभव नहीं होने वाला है। इसके लिए सरकार को दृढ संकल्प होकर सोचना होगा। प्रदेश के सभी परम्परागत जलस्रोतों के दायरे में आने वाली जमीन पर अतिक्रमण को प्राथमिकता के आधार पर हटाया जाना चाहिए। देखना है बिहार सरकार इस कार्य को कब अपनी प्राथमिकता बनाती है।