लेखक
आजकल पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन का सवाल बहस का मुद्दा बना हुआ है कारण इसके चलते आज समूची दुनिया का अस्तित्व खतरे में है। पर्यावरणविद् इस बारे में समय-समय पर चेता रहे हैं और वैज्ञानिकों के शोध-अध्ययनों ने इस तथ्य को साबित कर दिया है। सच यह है कि जीवनदायिनी प्रकृति और उसके द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग और भौतिक सुख सुविधाओं की चाहत की अन्धी दौड़ के चलते आज न केवल प्रदूषण बढ़ा है बल्कि अन्धाधुन्ध प्रदूषण के कारण जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है।
इसका सबसे बड़ा कारण मानवीय स्वार्थ है जो प्रदूषण का जनक है जिसने खुद उसे भयंकर विपत्तियों के जाल में उलझाकर रख दिया है। उससे बाहर निकल पाना मानव के बूते के बाहर की बात है। दरअसल मौसम के बदलाव के कारण आगामी दिनों में आजीविका के संसाधनों यानी पानी की कमी और फसलों की बर्बादी के चलते दुनिया के अनेक भागों में स्थानीय स्तर पर जंग छिड़ने से सन् 2050 तक एक अरब निर्धन लोग अपना घर-बार छोड़ शरणार्थी के रूप में रहने को, यूएन की अन्तरसरकारी पैनल की रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.2 अरब लोग पानी की तंगी से, 60 करोड़ लोग भोजन और तटीय इलाकों के 60 लाख लोग बाढ़ की समस्या से जूझेंगे।
हालात की भयावहता की ओर इशारा करते हुए कोलम्बिया यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिक स्टीफन मोर्स का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव मलेरिया, फ्लू आदि बीमारियों के वितरण और संचरण में प्रभाव लाने वाला साबित होगा और ये पूरे साल फैलेंगी। पहाड़ों पर ठंड के बावजूद भी मलेरिया फैलेगा।
लोगों को पहले के मुकाबले ज्यादा संक्रामक रोगों का सामना करना पड़ेगा, किसी खास क्षेत्र में सूखे के कारण ज्यादातर लोगों को शहरों की ओर पलायन करना पड़ेगा, नतीजन शहरों में आवासीय व जनसंख्या की समस्या विकराल होगी, दैनिक सुविधाएँ उपलब्ध कराने में प्रशासन को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा और खासकर विकासशील देशों में उच्च घनत्व वाली आबादी के बीच एचआईवी, तपेदिक, श्वास रोग व यौन रोगों में वृद्धि होगी।
निष्कर्ष यह कि ग्लोबल वार्मिंग की मार से क्या शहर-गाँव, क्या धनाढ्य या शहरी मध्यवर्ग, निम्न वर्ग या फिर प्राकृतिक संसाधनों पर सदियों से आश्रित आदिवासी-कमजोर वर्ग कोई भी नहीं बचेगा और बिजली-पानी के लिये त्राहि-त्राहि करते लोग संक्रामक बीमारियों के शिकार होकर अनचाहे मौत के मुँह में जाने को विवश होंगे।
वैश्विक तापमान के बारे में नासा के अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि बीते 30 सालों में धरती का तापमान 0.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। यदि इसमें एक डिग्री का इज़ाफा हो जाता है तो यह पिछले 10 लाख साल के अधिकतम तापमान के बराबर हो जाएगा। वर्तमान में मानव जनित यह प्रदूषण खतरनाक स्तर के करीब पहुँच गया है। रूटगर्स यूनीवर्सिटी के प्रख्यात मौसम विज्ञानी ऐलेन रोबॉक कहते हैं कि यदि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग दो-तीन डिग्री और बढ़ जाती है तो धरती की तस्वीर ही बदल जाएगी।
सीएफसी रसायनों का प्रयोग देश में आजादी से 20 साल पहले ही शुरू हो गया था और फिर 1950 के बाद इसमें आई तेेजी में भी भारत का योगदान कम नहीं है। यह हमें ध्यान में रखना होगा। फिर भी हमारी सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘सेज’ और अर्थव्यवस्था की बेलगाम तेज़ रफ्तार पर निसार है। उसे न विश्व बैंक की चिन्ता है, न संयुक्त राष्ट्र के अन्तरसरकारी पैनल की और न सुप्रीम कोर्ट की, जिसने पर्यावरण सुधारने और उसके प्रति आम लोगों को जागरूक बनाने के बाबत कई बार निर्देश दिए हैं।वैज्ञानिकों के अनुसार 21वीं सदी बीतते-बीतते धरती का औसत तापमान 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा। भारत में बंगाल की खाड़ी व उसके आस-पास यह वृद्धि 2 डिग्री और हिमालयी क्षेत्र में यह 4 डिग्री तक होगी जो समूची सभ्यता को तहस-नहस कर देगी। देखा जाए तो मौजूदा खतरे के लिये पश्चिमी या विकसित शक्तिशाली राष्ट्रों के साथ-साथ हम भी उतने ही दोषी हैं जितने अमरीका, चीन, रूस और जापान। ‘भारत विश्व में सबसे कम प्रदूषण करने वाला देश है और भारत की हिस्सेदारी विश्व कार्बन प्रदूषण में मात्र चार फीसदी ही है’ कहने मात्र से हमारी जिम्मेवारी कम तो नहीं हो जाती।
जबकि सीएफसी रसायनों का प्रयोग देश में आजादी से 20 साल पहले ही शुरू हो गया था और फिर 1950 के बाद इसमें आई तेेजी में भी भारत का योगदान कम नहीं है। यह हमें ध्यान में रखना होगा। फिर भी हमारी सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘सेज’ और अर्थव्यवस्था की बेलगाम तेज़ रफ्तार पर निसार है। उसे न विश्व बैंक की चिन्ता है, न संयुक्त राष्ट्र के अन्तरसरकारी पैनल की और न सुप्रीम कोर्ट की, जिसने पर्यावरण सुधारने और उसके प्रति आम लोगों को जागरूक बनाने के बाबत कई बार निर्देश दिए हैं।
इसी का नतीजा है कि पर्यावरण चौकसी के मामले में हम पिछड़ रहे हैं। इसको पहले पर्यावरणीय लोकतन्त्र सूचकांक ने साबित कर दिया है। दुनिया के 70 देशों में पर्यावरणीय लोकतन्त्र सूचकांक के मामले में भारत का स्थान 24वाँ है। जबकि लिथुआनिया इस सूचकांक में शीर्ष स्थान पर रहा। बीते दिनों वाशिंगटन के वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट और एक्सेस इनीशिएटिव द्वारा जारी दुनिया के शीर्ष 10 देशों में लिथुआनिया के बाद लातविया, रूस, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, हंगरी, बुल्गारिया, पनामा और कोलम्बिया का नाम सूची में है। इस तरह का आकलन दुनिया में पर्यावरण सर्तकता को लेकर 70 देशों में पहली बार किया गया है।
असलियत में यह सूचकांक ऐसा शक्तिशाली आधार है जो सरकारों को पर्यावरण के मामले में ज्यादा पारदर्शी बनाने और आम नागरिकों को ज्यादा अधिकारों की वकालत करने में मदद करेगा। इसमें दो राय नहीं है कि यदि हमें पर्यावरण सुधारना है, वायुमण्डल को प्रदूषण से बचाना है तो हमें संयम बरतना होगा। वह संयम भोग की मर्यादा का हो, नीति के पालन का होना चाहिए, तृष्णा पर अंकुश का होना चाहिए, प्राकृतिक संसाधन यथा मिट्टी, जल, खनिज, वनस्पति आदि के उपयोग में होना चाहिए, तभी विश्व में शान्ति और स्थायित्व सम्भव है अन्यथा नहीं।
यह सही है कि ग्लोबल वार्मिंग अब दरवाज़े पर खड़ी नहीं है, वह घर के अन्दर आ चुकी है और अब उससे आँखें नहीं मूँदी जा सकती हैं। जहाँ तक विश्व परिदृश्य पर ग्लोबल वार्मिंग से निपटने का सवाल है, यह उतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है क्योंकि औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत के बाद बीसवीं सदी के अन्त में बहुतेरे ऐसे देश भी औद्योगिक विकास की अन्धी दौड़ में शामिल हुए जो पहले धीमी रफ्तार से इस ओर बढ़ने की चेष्टा कर रहे थे।
नतीजतन समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। इसका यदि कोई कारगर समाधान है तो वह हैं विकास के किफायती रास्तों की खोज, जिसका धरती और वायुमण्डल पर बोझ न पड़े। यह सच है कि यह काम इतना आसान और आनन-फानन में किया जाने वाला नहीं है। इसमें समय तो लगेगा लेकिन कुछ किए बिना इस समस्या से छुटकारा सम्भव नहीं। इसे विडम्बना कहें या दुर्भाग्य कि विकसित देश ही सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने के दोषी हैं और वही पर्यावरण संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाने के सवाल पर सबसे ज्यादा आनाकानी करते हैं।
इतिहास इसका गवाह है। इसमें दो राय नहीं कि विभिन्न क्षेत्रों में अमरीका ने ही सबसे तेजी से औद्योगिक विकास किया जिसके बलबूते ही वह विश्व महाशक्ति के रूप में उभर कर सामने आया। इसके बावजूद पर्यावरण रक्षा की पहल में हिस्सेदारी से बचने का प्रयास उसके गैर ज़िम्मेदाराना रवैये का ही सबूत है। जबकि अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा 47 देशों में कराए गए सर्वेक्षण में ग्लोबल वार्मिंग के लिये 34 देशों ने एक सुर में अमेरिका को ही ज़िम्मेवार ठहराया है।
सबसे पहले अपनी जीवनशैली बदलें और अधिक-से-अधिक पेड़ लगाएँ जिससे ईंधन के लिये उनके बीज, पत्ते, तने काम आएँगे और हम धरती के अन्दर गड़े कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकेंगे। तभी धरती बचेगी। इतना तो हम कर ही सकते हैं। यदि हम समय रहते कुछ कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान क्या, जीव-जन्तु और प्राकृतिक धरोहरों तक का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।भले कार्बन डाइऑक्साइड गैस के उत्सर्जन में भारत का योगदान 1.1 अरब टन ही क्यों न हो लेकिन यह तो सच है कि ग्लोबल वार्मिंग का असर तो हम पर भी पड़ेगा। वह बात दीगर है कि वह हमारी ज़मीन से उठी हो या फिर अमेरिका या चीन से। इसलिये अब जरूरत इस बात की है कि भारतीय नेतृत्व अपना यह तर्क बदले कि पहले पश्चिमी देश अपना उत्सर्जन कम करें फिर हम करेंगे। बेहतर यही होगा कि हम अपनी ओर से ऐसी पहल करें, जो विकसित देशों के लिये भी अनुकरणीय हो।
यथार्थ में उपभोगवाद और सुविधावाद ने पर्यावरण की समस्या को और जटिल बना दिया है। इस मनोवृत्ति पर नियन्त्रण परमावश्यक है। आज व्यक्ति, समाज और पदार्थ के चारों ओर अर्थ और पदार्थ परिक्रमा कर रहे हैं। इसलिये आज मानव जाति के अस्तित्व की रक्षा और इस भूमण्डल को सम्भाव्य खतरों से बचाने के लिये जरूरी है कि हम सभी संयम प्रधान जीवनशैली का अनुसरण और संकल्प करें।’ आज एक दूसरे पर दोष मढ़ने, आरोप-प्रत्यारोप से कुछ होने वाला नहीं।
खर्चीला ईंधन जलाने वाला विकास का तरीका लम्बे समय के लिये न तो उचित है, न उपयोगी ही। कारण अब धरती के पास इतना ईंधन ही नहीं बचा है। यह सही है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आज उठाए गए कदम लगभग एक दशक बाद अपना सकारात्मक प्रभाव दिखाना आरम्भ करेंगे। इसलिये जरूरी है कि समस्या के भयावह रूप धारण करने से पहले सामूहिक प्रयास किये जाएँ। सरकार कुछ करे या न करे लेकिन अब समय आ गया है कि हम कुछ करें।
हम सबसे पहले अपनी जीवनशैली बदलें और अधिक-से-अधिक पेड़ लगाएँ जिससे ईंधन के लिये उनके बीज, पत्ते, तने काम आएँगे और हम धरती के अन्दर गड़े कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकेंगे। तभी धरती बचेगी। इतना तो हम कर ही सकते हैं। यदि हम समय रहते कुछ कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान क्या, जीव-जन्तु और प्राकृतिक धरोहरों तक का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
इसका सबसे बड़ा कारण मानवीय स्वार्थ है जो प्रदूषण का जनक है जिसने खुद उसे भयंकर विपत्तियों के जाल में उलझाकर रख दिया है। उससे बाहर निकल पाना मानव के बूते के बाहर की बात है। दरअसल मौसम के बदलाव के कारण आगामी दिनों में आजीविका के संसाधनों यानी पानी की कमी और फसलों की बर्बादी के चलते दुनिया के अनेक भागों में स्थानीय स्तर पर जंग छिड़ने से सन् 2050 तक एक अरब निर्धन लोग अपना घर-बार छोड़ शरणार्थी के रूप में रहने को, यूएन की अन्तरसरकारी पैनल की रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.2 अरब लोग पानी की तंगी से, 60 करोड़ लोग भोजन और तटीय इलाकों के 60 लाख लोग बाढ़ की समस्या से जूझेंगे।
हालात की भयावहता की ओर इशारा करते हुए कोलम्बिया यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिक स्टीफन मोर्स का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव मलेरिया, फ्लू आदि बीमारियों के वितरण और संचरण में प्रभाव लाने वाला साबित होगा और ये पूरे साल फैलेंगी। पहाड़ों पर ठंड के बावजूद भी मलेरिया फैलेगा।
लोगों को पहले के मुकाबले ज्यादा संक्रामक रोगों का सामना करना पड़ेगा, किसी खास क्षेत्र में सूखे के कारण ज्यादातर लोगों को शहरों की ओर पलायन करना पड़ेगा, नतीजन शहरों में आवासीय व जनसंख्या की समस्या विकराल होगी, दैनिक सुविधाएँ उपलब्ध कराने में प्रशासन को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा और खासकर विकासशील देशों में उच्च घनत्व वाली आबादी के बीच एचआईवी, तपेदिक, श्वास रोग व यौन रोगों में वृद्धि होगी।
निष्कर्ष यह कि ग्लोबल वार्मिंग की मार से क्या शहर-गाँव, क्या धनाढ्य या शहरी मध्यवर्ग, निम्न वर्ग या फिर प्राकृतिक संसाधनों पर सदियों से आश्रित आदिवासी-कमजोर वर्ग कोई भी नहीं बचेगा और बिजली-पानी के लिये त्राहि-त्राहि करते लोग संक्रामक बीमारियों के शिकार होकर अनचाहे मौत के मुँह में जाने को विवश होंगे।
वैश्विक तापमान के बारे में नासा के अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि बीते 30 सालों में धरती का तापमान 0.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। यदि इसमें एक डिग्री का इज़ाफा हो जाता है तो यह पिछले 10 लाख साल के अधिकतम तापमान के बराबर हो जाएगा। वर्तमान में मानव जनित यह प्रदूषण खतरनाक स्तर के करीब पहुँच गया है। रूटगर्स यूनीवर्सिटी के प्रख्यात मौसम विज्ञानी ऐलेन रोबॉक कहते हैं कि यदि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग दो-तीन डिग्री और बढ़ जाती है तो धरती की तस्वीर ही बदल जाएगी।
सीएफसी रसायनों का प्रयोग देश में आजादी से 20 साल पहले ही शुरू हो गया था और फिर 1950 के बाद इसमें आई तेेजी में भी भारत का योगदान कम नहीं है। यह हमें ध्यान में रखना होगा। फिर भी हमारी सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘सेज’ और अर्थव्यवस्था की बेलगाम तेज़ रफ्तार पर निसार है। उसे न विश्व बैंक की चिन्ता है, न संयुक्त राष्ट्र के अन्तरसरकारी पैनल की और न सुप्रीम कोर्ट की, जिसने पर्यावरण सुधारने और उसके प्रति आम लोगों को जागरूक बनाने के बाबत कई बार निर्देश दिए हैं।वैज्ञानिकों के अनुसार 21वीं सदी बीतते-बीतते धरती का औसत तापमान 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा। भारत में बंगाल की खाड़ी व उसके आस-पास यह वृद्धि 2 डिग्री और हिमालयी क्षेत्र में यह 4 डिग्री तक होगी जो समूची सभ्यता को तहस-नहस कर देगी। देखा जाए तो मौजूदा खतरे के लिये पश्चिमी या विकसित शक्तिशाली राष्ट्रों के साथ-साथ हम भी उतने ही दोषी हैं जितने अमरीका, चीन, रूस और जापान। ‘भारत विश्व में सबसे कम प्रदूषण करने वाला देश है और भारत की हिस्सेदारी विश्व कार्बन प्रदूषण में मात्र चार फीसदी ही है’ कहने मात्र से हमारी जिम्मेवारी कम तो नहीं हो जाती।
जबकि सीएफसी रसायनों का प्रयोग देश में आजादी से 20 साल पहले ही शुरू हो गया था और फिर 1950 के बाद इसमें आई तेेजी में भी भारत का योगदान कम नहीं है। यह हमें ध्यान में रखना होगा। फिर भी हमारी सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘सेज’ और अर्थव्यवस्था की बेलगाम तेज़ रफ्तार पर निसार है। उसे न विश्व बैंक की चिन्ता है, न संयुक्त राष्ट्र के अन्तरसरकारी पैनल की और न सुप्रीम कोर्ट की, जिसने पर्यावरण सुधारने और उसके प्रति आम लोगों को जागरूक बनाने के बाबत कई बार निर्देश दिए हैं।
इसी का नतीजा है कि पर्यावरण चौकसी के मामले में हम पिछड़ रहे हैं। इसको पहले पर्यावरणीय लोकतन्त्र सूचकांक ने साबित कर दिया है। दुनिया के 70 देशों में पर्यावरणीय लोकतन्त्र सूचकांक के मामले में भारत का स्थान 24वाँ है। जबकि लिथुआनिया इस सूचकांक में शीर्ष स्थान पर रहा। बीते दिनों वाशिंगटन के वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट और एक्सेस इनीशिएटिव द्वारा जारी दुनिया के शीर्ष 10 देशों में लिथुआनिया के बाद लातविया, रूस, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, हंगरी, बुल्गारिया, पनामा और कोलम्बिया का नाम सूची में है। इस तरह का आकलन दुनिया में पर्यावरण सर्तकता को लेकर 70 देशों में पहली बार किया गया है।
असलियत में यह सूचकांक ऐसा शक्तिशाली आधार है जो सरकारों को पर्यावरण के मामले में ज्यादा पारदर्शी बनाने और आम नागरिकों को ज्यादा अधिकारों की वकालत करने में मदद करेगा। इसमें दो राय नहीं है कि यदि हमें पर्यावरण सुधारना है, वायुमण्डल को प्रदूषण से बचाना है तो हमें संयम बरतना होगा। वह संयम भोग की मर्यादा का हो, नीति के पालन का होना चाहिए, तृष्णा पर अंकुश का होना चाहिए, प्राकृतिक संसाधन यथा मिट्टी, जल, खनिज, वनस्पति आदि के उपयोग में होना चाहिए, तभी विश्व में शान्ति और स्थायित्व सम्भव है अन्यथा नहीं।
यह सही है कि ग्लोबल वार्मिंग अब दरवाज़े पर खड़ी नहीं है, वह घर के अन्दर आ चुकी है और अब उससे आँखें नहीं मूँदी जा सकती हैं। जहाँ तक विश्व परिदृश्य पर ग्लोबल वार्मिंग से निपटने का सवाल है, यह उतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है क्योंकि औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत के बाद बीसवीं सदी के अन्त में बहुतेरे ऐसे देश भी औद्योगिक विकास की अन्धी दौड़ में शामिल हुए जो पहले धीमी रफ्तार से इस ओर बढ़ने की चेष्टा कर रहे थे।
नतीजतन समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। इसका यदि कोई कारगर समाधान है तो वह हैं विकास के किफायती रास्तों की खोज, जिसका धरती और वायुमण्डल पर बोझ न पड़े। यह सच है कि यह काम इतना आसान और आनन-फानन में किया जाने वाला नहीं है। इसमें समय तो लगेगा लेकिन कुछ किए बिना इस समस्या से छुटकारा सम्भव नहीं। इसे विडम्बना कहें या दुर्भाग्य कि विकसित देश ही सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने के दोषी हैं और वही पर्यावरण संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाने के सवाल पर सबसे ज्यादा आनाकानी करते हैं।
इतिहास इसका गवाह है। इसमें दो राय नहीं कि विभिन्न क्षेत्रों में अमरीका ने ही सबसे तेजी से औद्योगिक विकास किया जिसके बलबूते ही वह विश्व महाशक्ति के रूप में उभर कर सामने आया। इसके बावजूद पर्यावरण रक्षा की पहल में हिस्सेदारी से बचने का प्रयास उसके गैर ज़िम्मेदाराना रवैये का ही सबूत है। जबकि अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा 47 देशों में कराए गए सर्वेक्षण में ग्लोबल वार्मिंग के लिये 34 देशों ने एक सुर में अमेरिका को ही ज़िम्मेवार ठहराया है।
सबसे पहले अपनी जीवनशैली बदलें और अधिक-से-अधिक पेड़ लगाएँ जिससे ईंधन के लिये उनके बीज, पत्ते, तने काम आएँगे और हम धरती के अन्दर गड़े कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकेंगे। तभी धरती बचेगी। इतना तो हम कर ही सकते हैं। यदि हम समय रहते कुछ कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान क्या, जीव-जन्तु और प्राकृतिक धरोहरों तक का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।भले कार्बन डाइऑक्साइड गैस के उत्सर्जन में भारत का योगदान 1.1 अरब टन ही क्यों न हो लेकिन यह तो सच है कि ग्लोबल वार्मिंग का असर तो हम पर भी पड़ेगा। वह बात दीगर है कि वह हमारी ज़मीन से उठी हो या फिर अमेरिका या चीन से। इसलिये अब जरूरत इस बात की है कि भारतीय नेतृत्व अपना यह तर्क बदले कि पहले पश्चिमी देश अपना उत्सर्जन कम करें फिर हम करेंगे। बेहतर यही होगा कि हम अपनी ओर से ऐसी पहल करें, जो विकसित देशों के लिये भी अनुकरणीय हो।
यथार्थ में उपभोगवाद और सुविधावाद ने पर्यावरण की समस्या को और जटिल बना दिया है। इस मनोवृत्ति पर नियन्त्रण परमावश्यक है। आज व्यक्ति, समाज और पदार्थ के चारों ओर अर्थ और पदार्थ परिक्रमा कर रहे हैं। इसलिये आज मानव जाति के अस्तित्व की रक्षा और इस भूमण्डल को सम्भाव्य खतरों से बचाने के लिये जरूरी है कि हम सभी संयम प्रधान जीवनशैली का अनुसरण और संकल्प करें।’ आज एक दूसरे पर दोष मढ़ने, आरोप-प्रत्यारोप से कुछ होने वाला नहीं।
खर्चीला ईंधन जलाने वाला विकास का तरीका लम्बे समय के लिये न तो उचित है, न उपयोगी ही। कारण अब धरती के पास इतना ईंधन ही नहीं बचा है। यह सही है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आज उठाए गए कदम लगभग एक दशक बाद अपना सकारात्मक प्रभाव दिखाना आरम्भ करेंगे। इसलिये जरूरी है कि समस्या के भयावह रूप धारण करने से पहले सामूहिक प्रयास किये जाएँ। सरकार कुछ करे या न करे लेकिन अब समय आ गया है कि हम कुछ करें।
हम सबसे पहले अपनी जीवनशैली बदलें और अधिक-से-अधिक पेड़ लगाएँ जिससे ईंधन के लिये उनके बीज, पत्ते, तने काम आएँगे और हम धरती के अन्दर गड़े कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकेंगे। तभी धरती बचेगी। इतना तो हम कर ही सकते हैं। यदि हम समय रहते कुछ कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान क्या, जीव-जन्तु और प्राकृतिक धरोहरों तक का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।