पर्यावरण का रक्षक : लकड़बग्घा

Submitted by RuralWater on Mon, 08/31/2015 - 10:56
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नवोदय टाइम्स 30 अगस्त 2015
लकड़बग्घालकड़बग्घा विचित्र जंगली प्राणी है। वह विभिन्न प्रकार की बोलियाँ बोलता है। उसका ठहाका बहुत प्रसिद्ध है। आमतौर पर अच्छा भोजन पाकर वह अचानक ही जोर से ठहाका लगाता है। वन विशेषज्ञ मैथ्यूज ने लिखा है, “हरिद्वार के वनों में मैंने लकड़बग्घे के ठहाके बहुत सुने हैं। चाँदनी रात में वनों में ये ऐसे अट्टाहास करते हैं जैसे कोई पागल आपे से बाहर होकर बार-बार हँस रहा हो। थोड़ी-थोड़ी देर के बाद कहकहों से शान्त वायुमण्डल गूँज उठता है।”

वनों में पर्यावरण की रक्षा में लकड़बग्घे का बहुत योगदान है। ये वनों के चक्कर लगाते रहते हैं। बीमारी से मरे जानवरों को शिकारी पशु नहीं खाते परन्तु ये बड़े सफाई से उन्हें चट कर जाते हैं। बाघ जाति के जानवर अपने शिकार का कुछ भाग खाते हैं और कुछ सड़ने के लिये छोड़ देते हैं। उस बदबूदार माँस का भक्षण लकड़बग्घे करते हैं। वन में लगे कैम्पों तथा घरों से बाहर फेंकी हुई जूठन और हड्डियों के टुकड़ों को खाने के लिये ये रात में आ जाते हैं। छोटे-छोटे टुकड़ों के लिये ये आपस में खूब लड़ते हैं इसीलिये इसे मैदानों और जंगलों की ‘गन्दगी साफ करने वाला क्रियाशील सफाईकर्मी’ कहा जाता है।

लकड़बग्घा हड्डियाँ तक चट कर जाता है। इस कारण इसका मल चाक जैसा सफेद होता है। इसे दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। ‘एल्बम ग्रसियम’ के नाम से इसे गिल्लड़, मस्से जैसे रोगों में प्रयोग किया जाता है। पूर्वी भारत में लकड़बग्घे की जीभ और चर्बी सूजनों और रसौलियों को बिठाने के लिये काम में लाई जाती है। अफ्रीका में इसकी चर्बी रोगग्रस्त अंगों पर मली जाती है। मिस्त्र में नीलघाटी के लोग दीर्घायु होने के लिये इसका दिल तक खा जाते हैं। इसे मनुष्य के लिये कई तरह से उपयोगी जीव माना गया है।

लकड़बग्घे दो प्रकार के होते हैं- धारीदार और चीतला। इसे अंग्रेजी में ‘स्ट्राइप्ड हायना’ और ‘स्पॉटेड हायना’ कहते हैं। संस्कृत में दोनों का नाम ‘तरक्षु’ है। भारतीय उपमहाद्वीप में धारीदार लकड़बग्घे जबकि अफ्रीका में चीतल लकड़बग्घे पाए जाते हैं।

अफ्रीकी लकड़बग्घे जहाँ झुण्ड में रहते हैं वही धारीदार लकड़बग्घे उनकी तरह सामाजिक जीव नहीं हैं। धारीदार लकड़बग्घे जीवन एक ही साथी के साथ गुजारते हैं।

कुछ वर्ष पहले तो भारत में इनकी संख्या काफी कम हो चुकी थी क्योंकि अक्सर किसान इनके मारे मवेशियों पर जहर छिड़क दिया करते थे जिससे इनकी मौत हो जाती थी। परन्तु हाल के वर्षों में संरक्षण के प्रयासों से भारत के पश्चिमी घाट के जंगलों में लकड़बग्घों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई है।

विशेषताएँ


1. यह परजीवी प्राणी है। इसके शक्तिशाली जबड़े होते हैं। मजबूत अगली टाँगें और नुकीले दाँत होने के बावजूद यह बड़ा शिकार करने में असमर्थ है। कभी-कभी बीमार और जख्मी छोटे जीवों पर हमला करता है।

2. अफ्रीका में चोरी-छिपे शिकार करने वालों के फन्दों में जो जानवर फँस जाते हैं उन्हें शिकारियों के आने से पहले ही लकड़बग्घे खाने लगते हैं।

3. चीतला लकड़बग्घा कीट-पतंगों को भी खा जाता है। टिड्डों का यह विशेष शौकीन है। जिन दिनों टिड्डी दल आते हैं, वह उन्हीं से पेट भर लेता है।

4. गर्मियों में जब तालाब सूखने लगते हैं इन्हें वहाँ से मछली पकड़ते हुए देखा जाता है।

5. यह चमड़े की बर्नी किसी भी चीज को नहीं छोड़ता, बन्दूक का कवर और जूतों को भी चबा जाता है।

6. धारीदार लकड़बग्घों की संख्या ज्यादा है, चीतल लकड़बग्घों की संख्या बहुत कम है।

7. यह बहुत बदसूरत जानवर है। इसके शरीर से दुर्गंध आती है। कई जानवर इसका माँस खाने में हिचक महसूस करते हैं।

8. इसकी लम्बाई 150 से.मी., ऊँचाई 90 से.मी. तथा वजन 40 किलोग्राम तक होता है।

9. गर्दन मोटी, अगली टाँगें भारी, आँखें गहरी, जीभ खुरदरी, चौड़ा सिर इसकी पहचान है।

10. शरीर की इस भद्दी बनावट से इसकी चाल पर भी असर पड़ता है। ऐसा लगता है कि मानो लगंड़ाकर चल रहा है।

11. मादा 2 वर्ष में बच्चे पैदा करने योग्य हो जाती है। एक बार में दो-तीन शावक पैदा होते हैं।

12. इसकी औसत उम्र 19 वर्ष मानी जाती है। चि़ड़ियाघरों में 25-30 साल तक भी जी लेते हैं।

13. चिड़ियाघरों में भी यह गन्दा जानवर माना जाता है। इसका बाड़ा दूर-दूर तक दुर्गंध फैलाता है। पर्यटक भी इसके पास जाने से कतराते हैं।