लेखक
यदि हम सचमुच प्रकृति के ग़ुलाम नहीं बनना चाहते, तो जरूरी है कि प्रकृति को अपना ग़ुलाम बनाने का हठ और दंभ छोड़े। नदियों को तोड़ने, मरोड़ने और बांधने की नापाक कोशिश न करें। पानी, हवा और जंगलों को नियोजित करने की बजाय प्राकृतिक रहने दें। बाढ़ और सुखाड़ के साथ जीना सीखें। जीवन शैली, उद्योग, विकास, अर्थव्यवस्था आदि आदि के नाम पर जो कुछ भी करना चाहते हैं, करें... लेकिन प्रकृति के चक्र में कोई अवरोध या विकार पैदा किए बगैर। इसमें असंतुलन पैदा करने की मनाही है। हम प्रकृति को न छेड़ेंगे, प्रकृति हमें नहीं छेड़ेगी। हमें भले ही डाक सुनने की जल्दी न हो, धरती को जल्दी है। पिछले कुछ समय से धरती अपनी डाक जल्दी-जल्दी भेजने लगी है। डाकिए ज़रूर अलग हैं, लेकिन इधर धरती द्वारा भेजी हर डाक का संदेशा एक ही है - “जागिए! वक्त कम है।” अब हर बरस... हर ऋतु यही डाक लेकर आती है; सर्दी, गर्मी.. मानसून सभी। गर्मी आने से पहले ही महाराष्ट्र आ पहुंचा पानी के अकाल संदेशा यही है, तो ईरान से उठकर भारत तक पहुंचने वाले झटकों का संदेशा भी यही है। चीन के सियुचान प्रांत में आए ताज़ा झटके और मौतों का संदेश भी भिन्न नहीं है। एक तरफ ’ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर हायतौबा है, तो दूसरी ओर हिमयुग की आहट सुनाई देती रहती है। समझ न आने वाला अजीब सा विरोधाभास है यह। पिछले कुछ समय से हर बरस भारतीय राष्ट्रीय वार्षिक वर्षा औसत में मामूली ही सही, कमी आ रही है; दूसरी तरफ दुनिया के कई देशों में बारिश का औसत बढ़ा है। विषमता को लेकर इससे भी बड़ी चेतावनी बारिश की अवधि, वर्षा क्षेत्रों में आ रहे व्यापक बदलाव व मौसम की अनिश्चिंतता के तौर पर उभरी है। हिमालयी प्रदेशों में बाढ़ और बादल फटने के कारण हुई तबाही की चेतावनी संदेश और साफ हैं। हेमंत और बसंत ऋतुएं ग़ायब हो रही हैं। तापमान और बादलों के रूप में दिखाई दे रहे असंतुलन ने जिस रफ्तार और जिस तरह से पूरे पर्यावरण को कुछ नए किस्म के ख़तरों की चपेट में ले लिया है; सचमुच वक्त कम ही है।
अभी पिछले बरस ही तीन दिन की प्रलयंकारी बारिश ने मुंबई शहर का सीवर तंत्र व ज़मीनी ढांचों की उनकी औकात बता दी। गंगा के गोमुखी स्रोत वाला ग्लेशियर का टुकड़ा चटक कर अलग हो गया था। अमरनाथ के शिवलिंग के रूप-स्वरूप पर खतरा मंडराता ही रहता है। हिमालयी ग्लेशियरों का 2077 वर्ग किमी का रकबा पिछले 50 सालों में सिकुड़कर लगभग 500 वर्ग किमी कम हो ही गया है। सुनामी का कहर अभी हमारे जेहन में जिंदा ही है। तमाम नदियां सूखकर नाला बन ही रही हैं। भूजल में आर्सेनिक, फ्लोराइड के अलावा भारी धातुओं के इलाके बढ़ ही रहे हैं। हमारे पूर्व केंद्रीय जल संसाधन मंत्री ने कहा ही था कि भारत में उपयोगी जल की उपलब्धता एक तिहाई हो गई है।
जिस अमेरिका में पहले वर्ष में 5-7 समुद्री चक्रवात का औसत था, उसकी संख्या 25 से 30 हो गई है। न्यू आर्लिएंस नामक शहर ऐसे ही चक्रवात में नेस्तनाबूद हो गया। लू ने फ्रांस में हजारों को मौत दी। कायदे के विपरीत आबूधाबी में बर्फ की बारिश हुई। जमे हुए ग्रीनलैंड की बर्फ भी अब पिघलने लगी है। पिछले दशक की तुलना में धरती के समुद्रों का तल 6 से 8 इंच बढ़ गया है। दुनिया के कई देश कई टापुओं को खो चुके हैं। यदि इस सदी में 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापमान वृद्धि की रिपोर्ट सच हो गई,...अगले एक दशक में 10 फीसदी अधिक वर्षा का आकलन यदि झूठा नहीं हुआ, तो समुद्रों का जलस्तर 90 सेंटीमीटर तक बढ़ जायेगा; तटवर्ती इलाके डूब जाएंगे, आदि आदि जैसे विनाशकारी नतीजे तो आएंगे ही.. धरती पर जीवन की नर्सरी कहे जाने वाली मूंगा भित्तियां पूरी तरह नष्ट हो जाएंगी। तब जीवन बचेगा... इस बात की गारंटी कौन दे सकता है?दुर्योग है कि मानव प्रकृति का नियंता बनना चाहता है। वह भूल गया है कि प्रकृति अपना नियमन खुद करती है। मनु स्मृति के प्रलय खंड में प्रलय आने से पूर्व लंबे समय तक अग्नि वर्षा और फिर सैकड़ों वर्ष तक बारिश ही बारिश का जिक्र किया गया है; वैसे लक्षणों की शुरुआत हम अभी फिर देख ही रहे हैं। कहीं यह एक अंत का प्रारंभ तो नहीं? खुद ही सवाल कीजिए और खुद ही जवाब ढूंढिए कि इस परिदृश्य में मेरी भूमिका क्या है? इसी से प्रकृति और राष्ट्र के बचाव का दरवाज़ा खुलेगा; वरना प्रकृति ने तो संकेत कर दिया है।
बीमार होती धरतीनिजी ज़रूरतों को घटाए और भोग की जीवन शैली को बदले बगैर इस भूमिका को बदला नहीं जा सकता है। अपने घरों में तरह-तरह के मशीनी उपाय बढ़ाकर हम समझ रहे हैं कि हमने प्रकृति के क्रोध के प्रति अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा ली है। लेकिन सच यह है कि हमारे शरीर व मन की प्रतिरोधक क्षमता घट रही है। थोड़ी सी गर्मी, सर्दी, बीमारी और संताप सहने की हमारी प्राकृतिक प्रतिरोधक शक्ति कम हुई है। अब न सिर्फ हमारा शरीर, मन और समूची अर्थव्यवस्था अलग-अलग तरह के एंटीबायोटिक्स पर जिंदा हैं। ग़ौरतलब है कि बढ़ रहे भोग के चलन के मुताबिक तो कल हमारे लिए ऐसी तीन पृथ्वियों के संसाधन भी कम पड़ जाएंगे। आज संकट साझा है... पूरी धरती का है; अतः प्रयास भी सभी को साझे करने होंगे। समझना होगा कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक करने से नहीं, बल्कि भारत की वसुधैव कुटुंबकम की पुरातन अवधारणा को लागू करने से ही यह पृथ्वी और इसका जीवन बच पायेगा। यह नहीं चलने वाला कि विकसित को साफ रखने के लिए वह अपना कचरा विकासशील देशों में बहाएं।
यदि हम सचमुच प्रकृति के ग़ुलाम नहीं बनना चाहते, तो जरूरी है कि प्रकृति को अपना ग़ुलाम बनाने का हठ और दंभ छोड़े। टेस्ट ट्युब बेबी का जनक बनने में वक्त न गंवाएं। अजन्मी बच्चियों को बेमौत मारने का अपराध न करें। कुदरत को जीत लेने में लगी प्रयोगशालाओं को प्रकृति से प्राप्त सौगातों को और अधिक समृद्ध, सेहतमंद व संरक्षित करने वाली धाय मां में बदल दें। नदियों को तोड़ने, मरोड़ने और बांधने की नापाक कोशिश न करें। पानी, हवा और जंगलों को नियोजित करने की बजाय प्राकृतिक रहने दें। बाढ़ और सुखाड़ के साथ जीना सीखें। जीवन शैली, उद्योग, विकास, अर्थव्यवस्था आदि आदि के नाम पर जो कुछ भी करना चाहते हैं, करें... लेकिन प्रकृति के चक्र में कोई अवरोध या विकार पैदा किए बगैर। इसमें असंतुलन पैदा करने की मनाही है। हम प्रकृति को न छेड़ेंगे, प्रकृति हमें नहीं छेड़ेगी। हम प्रकृति से जितना लें, उसी विन्रमता और मान के साथ उसे उतना और वैसा लौटाएं भी। यही साझेदारी है और मर्यादित भी। इसे बनाए बगैर प्रकृति के गुस्से से बचना संभव नहीं। बचें! धरती की डाक भूलें नहीं। याद रखें कि वक्त कम ही है।
अभी पिछले बरस ही तीन दिन की प्रलयंकारी बारिश ने मुंबई शहर का सीवर तंत्र व ज़मीनी ढांचों की उनकी औकात बता दी। गंगा के गोमुखी स्रोत वाला ग्लेशियर का टुकड़ा चटक कर अलग हो गया था। अमरनाथ के शिवलिंग के रूप-स्वरूप पर खतरा मंडराता ही रहता है। हिमालयी ग्लेशियरों का 2077 वर्ग किमी का रकबा पिछले 50 सालों में सिकुड़कर लगभग 500 वर्ग किमी कम हो ही गया है। सुनामी का कहर अभी हमारे जेहन में जिंदा ही है। तमाम नदियां सूखकर नाला बन ही रही हैं। भूजल में आर्सेनिक, फ्लोराइड के अलावा भारी धातुओं के इलाके बढ़ ही रहे हैं। हमारे पूर्व केंद्रीय जल संसाधन मंत्री ने कहा ही था कि भारत में उपयोगी जल की उपलब्धता एक तिहाई हो गई है।
जिस अमेरिका में पहले वर्ष में 5-7 समुद्री चक्रवात का औसत था, उसकी संख्या 25 से 30 हो गई है। न्यू आर्लिएंस नामक शहर ऐसे ही चक्रवात में नेस्तनाबूद हो गया। लू ने फ्रांस में हजारों को मौत दी। कायदे के विपरीत आबूधाबी में बर्फ की बारिश हुई। जमे हुए ग्रीनलैंड की बर्फ भी अब पिघलने लगी है। पिछले दशक की तुलना में धरती के समुद्रों का तल 6 से 8 इंच बढ़ गया है। दुनिया के कई देश कई टापुओं को खो चुके हैं। यदि इस सदी में 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापमान वृद्धि की रिपोर्ट सच हो गई,...अगले एक दशक में 10 फीसदी अधिक वर्षा का आकलन यदि झूठा नहीं हुआ, तो समुद्रों का जलस्तर 90 सेंटीमीटर तक बढ़ जायेगा; तटवर्ती इलाके डूब जाएंगे, आदि आदि जैसे विनाशकारी नतीजे तो आएंगे ही.. धरती पर जीवन की नर्सरी कहे जाने वाली मूंगा भित्तियां पूरी तरह नष्ट हो जाएंगी। तब जीवन बचेगा... इस बात की गारंटी कौन दे सकता है?दुर्योग है कि मानव प्रकृति का नियंता बनना चाहता है। वह भूल गया है कि प्रकृति अपना नियमन खुद करती है। मनु स्मृति के प्रलय खंड में प्रलय आने से पूर्व लंबे समय तक अग्नि वर्षा और फिर सैकड़ों वर्ष तक बारिश ही बारिश का जिक्र किया गया है; वैसे लक्षणों की शुरुआत हम अभी फिर देख ही रहे हैं। कहीं यह एक अंत का प्रारंभ तो नहीं? खुद ही सवाल कीजिए और खुद ही जवाब ढूंढिए कि इस परिदृश्य में मेरी भूमिका क्या है? इसी से प्रकृति और राष्ट्र के बचाव का दरवाज़ा खुलेगा; वरना प्रकृति ने तो संकेत कर दिया है।

यदि हम सचमुच प्रकृति के ग़ुलाम नहीं बनना चाहते, तो जरूरी है कि प्रकृति को अपना ग़ुलाम बनाने का हठ और दंभ छोड़े। टेस्ट ट्युब बेबी का जनक बनने में वक्त न गंवाएं। अजन्मी बच्चियों को बेमौत मारने का अपराध न करें। कुदरत को जीत लेने में लगी प्रयोगशालाओं को प्रकृति से प्राप्त सौगातों को और अधिक समृद्ध, सेहतमंद व संरक्षित करने वाली धाय मां में बदल दें। नदियों को तोड़ने, मरोड़ने और बांधने की नापाक कोशिश न करें। पानी, हवा और जंगलों को नियोजित करने की बजाय प्राकृतिक रहने दें। बाढ़ और सुखाड़ के साथ जीना सीखें। जीवन शैली, उद्योग, विकास, अर्थव्यवस्था आदि आदि के नाम पर जो कुछ भी करना चाहते हैं, करें... लेकिन प्रकृति के चक्र में कोई अवरोध या विकार पैदा किए बगैर। इसमें असंतुलन पैदा करने की मनाही है। हम प्रकृति को न छेड़ेंगे, प्रकृति हमें नहीं छेड़ेगी। हम प्रकृति से जितना लें, उसी विन्रमता और मान के साथ उसे उतना और वैसा लौटाएं भी। यही साझेदारी है और मर्यादित भी। इसे बनाए बगैर प्रकृति के गुस्से से बचना संभव नहीं। बचें! धरती की डाक भूलें नहीं। याद रखें कि वक्त कम ही है।