मानव उत्पत्ति के मूल स्थान का सौभाग्य लौटाने का दायित्व

Submitted by RuralWater on Tue, 04/21/2015 - 14:08

पृथ्वी दिवस पर विशेष


भारत ने खुद जलदान को महादान बताने वाली भारतीय जल संरक्षण संस्कृति का क्षरण किया है। इस क्षरण को रोकना ही पृथ्वी दिवस का सन्देश है। कचरा, उपभोग, अपने लिये दूसरे के संसाधनों की लूट - ये किसी के सभ्य होने के लक्षण नहीं हैं। जाहिर है कि सभ्यता के मूल गुणों को खोकर असभ्य तो हम भारतीय भी हुए ही हैं। सदुपयोग को छोड़, उपभोग की दिशा में कदम बढ़ाने और पृथ्वी का बुखार बढ़ाने वाले राष्ट्रों में अब भारत भी शामिल है। भारत की नई सरकार को भूमि बचाने से ज्यादा, भूमि का मुआवजा बढ़ाने की चिन्ता है। यूँ तो मैं सीधे-सीधे कह सकता हूँ कि 22 अप्रैल - पृथ्वी दिवस, सिर्फ संयुक्त राष्ट्र संघ अथवा संयुक्त राज्य अमेरिका से जुड़े संगठनों व देशों को पृथ्वी के प्रति दायित्व निर्वाह की याद दिलाने का मौका नहीं है; यह प्रत्येक जीव के याद करने का मौका है कि पृथ्वी के प्रति हमारा दायित्व क्या है और वह उसकी पूर्ति कैसे करें?

उपभोग और प्रकृति को नुकसान की दृष्टि से देखें तो यह दायित्व निश्चय ही विकसित देशों का ज्यादा है, किन्तु इस लेख के माध्यम से मैं यह रेखांकित करना चाहता हूँ कि मानव उत्पत्ति के मूल स्थान के लिहाज से यह दायित्व सबसे ज्यादा हिमालयी देशों का है; कारण कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति सबसे पहले हिमालय की गोद में बसे वर्तमान तिब्बत में ही हुई।

मानव उत्पत्ति का मूल : तिब्बत


श्री मनमोहन आर्य के अनुसार, आर्य समाज के प्रणेता महर्षि दयानन्द रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के आठवें समुल्लास में सृष्टि की रचना ‘त्रिविष्टप’ यानी तिब्बत पर्वत बताया गया है।

“परिमण्डलेर्मध्ये मेरुरुत्तम पर्वतः।
ततः सर्वः समुत्पन्ना वृत्तयो द्विजसत्तमः।।
हिमालयाधरनोऽम ख्यातो लोकेषु पावकः।
अर्धयोजन विस्तारः पंच योजन मायतः।।’’


चरक संहिता का उक्त सूत्र, मेरु पर्वत स्थित आधा योजन यानी चार मील चौड़े और पाँच योजन यानी चालीस मील लम्बे क्षेत्र को आदिमानव की उत्पत्ति का क्षेत्र मानती है। महाभारत कथा भी देविका के पश्चिम मानसरोवर क्षेत्र को मानव जीवन की नर्सरी मानती है। इस क्षेत्र में देविका के अलावा ऐरावती, वितस्ता, विशाला आदि नदियों का उल्लेख किया गया है। वैज्ञानिक, जिस समशीतोष्ण जलवायु को मानव उत्पत्ति का क्षेत्र मानते हैं, मानसरोवर ऐसा ही क्षेत्र है। कुल मिलाकर सृष्टि में मानव उत्पत्ति का क्षेत्र अभी तिब्बत ही प्रमाणित होता है।

जहाँ तक पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति का प्रश्न है, निस्सन्देह वह सर्वप्रथम मानव के रूप में नहीं हुई। भारतीय कालगणना के मुताबिक, मानव की उत्पत्ति सृष्टि रचना के एक करोड़, 20 लाख, 95 हजार, 989 वर्षों बाद हुई। समुद्र में प्राप्त मूँगा भित्तियों को जीवन की प्रथम नर्सरी कहा गया है। बहुत सम्भव है कि जीवन उत्पत्ति के उस काल में तिब्बती एक समुद्री क्षेत्र ही रहा होगा।

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि मूँगा भित्ती उत्पत्ति का क्षेत्र बने समुद्रों और मानव उत्पत्ति के क्षेत्र बने तिब्बत... आज इन दोनो पर ही संकट है। समुद्रों का तल बढ़ जाने के कारण दुनिया लाखों हेक्टेयर मूँगा भित्ती क्षेत्रफल खो चुकी है। मूँगा भित्तियों का खोया क्षेत्रफल कैसे लौटे? यह सुनिश्चित करने के लिये तो पृथ्वी दिवस मनाना जरूरी है ही, किन्तु तिब्बत के दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने के लिये भी पृथ्वी दिवस मनाना जरूरी है। चीन की दबंगई के चलते तिब्बत में लगातार मानवता की हत्या हो रही है। चीन की निगाह में तिब्बत में इंसान नहीं, कुछ अनुपयोगी सामान रहते हैं।

संकट में मानव उत्पत्ति के मूल स्थान का मानव


दुर्भाग्यपूर्ण है कि मानव उत्पत्ति की नर्सरी कई दशकों से ड्रैगन से अपनी आजादी के लिये संघर्ष कर रही है और उसे रास्ता ढूँढे नहीं मिल रहा। इस बन्द रास्ते का दर्द हम नई दिल्ली स्थित चीनी दूतावास के समक्ष प्रवासी तिब्बतियों के प्रदर्शन के रूप में अक्सर देखते ही हैं।

पिछले दो वर्षों में मानव उत्पत्ति के इस मूल क्षेत्र में करीब 150 तिब्बती अपने जीवन की अन्त खुद करने कोे मज़बूर हुए हैं। तिब्बत को इस मज़बूरी से कैसे निजात मिले? तिब्बत आज भी बाट जो रहा है कि उसका विकास और आजादी उसके हाथ कैसे लौटे?

निगाहें भारत की ओर


यूँ मानव उत्पत्ति का मूल स्थान होने के नाते तिब्बत, पूरी दुनिया का मूल है। इस नाते तिब्बत, पूरी दुनिया के लिये पूज्यनीय और पैतृक स्थान है। इस तरह तिब्बत का सौभाग्य सुनिश्चित करना पूरी दुनिया का दायित्व है। तिब्बत, सिर्फ चीन का नहीं हो सकता। तिब्बत को आज़ाद और अनुपम होना ही चाहिए।

यह सुनिश्चित करने के लिये तिब्बत यदि आज किसी की ओर सबसे ज्यादा देखता है, तो वह है हमारा देश भारत। वजह? तिब्बत के शरणार्थियों को सबसे ज्यादा सम्मान भारत ही देता है। इस चर्चा का एक जरूरी आयाम यह है कि चीन, तिब्बत को केन्द्र बनाकर, भारत आने वाली नदियों में कचरा और खतरा बढ़ा रहा है। इस नाते भी जरूरी है कि पृथ्वी दिवस के बहुआयामी सन्देशों को सुने और कम-से-कम तिब्बत और अपने लिये अमल करें।

भारतीय इसलिये भी मनाएँ पृथ्वी दिवस


हम भारतीयों के लिये यह अमल इसलिये भी जरूरी है, क्योंकि मूँगा भित्तियों की चिन्ता, पूरी सृष्टि के जीवन विकास पर घात की चिन्ता है। जीवन विकास के इस मूल संकट का विस्तार यह है कि गत् 40 वर्षों के छोटे से कैलेण्डर में प्रकृति के खो गए 52 फीसदी दोस्तों के रूप में खोया भारत ने भी है।

समुद्रों का तल 6 से 8 इंच बढ़ने की खबर का असर भारत के सुन्दरबन से लेकर पश्चिमी घाटों तक नुमाया है ही। दुनिया ने बाघ खोए हैं, एशिया ने सबसे ज्यादा; बावजूद इसके भारत सरकार के प्रतिनिधि कह रहे हैं कि वे भारत के बाघ, दूसरे देशों को देने को तैयार हैं। ऐसे सरकारी नुमाइन्दों को खाद्य शृंखला में बाघ का महत्व समझाना है। गोरैया को अपने आँगन और घर के रोशनदान पर वापस बसाना है। नीलगायों को उनके ठिकाने लौटाने हैं। चींटी से लेकर हाथी तक सभी को उनका जीवन जीने का हक लौटाना है।

..क्योंकि भारत से भी रुठ रहे हैं प्राकृतिक उपहारइस बीच भारत में सर्वाधिक जैवविविधता वाले गंगा जल का अमरत्व यानी अक्षुण्णता खोई है। हमारी नदियाँ, नाला बनी हैं। तालाब, सूखे कटोरे में तब्दील हुए हैं। भूजल घटा है। इंसान, अब इस घटोत्तरी का नया शिकार है। प्रकृति से दूर होती जीवनशैली के कारण भारतीयों की जिन्दगी में भी अवसाद और तनाव बढ़े हैं। मार्च-अप्रैल के इन महीनों में किसान और कश्मीर को चिन्तित होते हमने देखा ही कि जलचक्र क्यों अपना अनुशासन और तारतम्य खो रहा है। खेती पर नए तरह के संकट आते साफ दिखाई दे रहे हैं और राजनेता हैं कि श्रेय की दिखावटी दौड़ में लगे हैं। इस दौड़ को कम कर, समस्त जीव हितैषी कर्म को बढ़ाना है।

..क्योंकि भारत ने भी खोई है साँस और सेहतशोध बता रहे हैं कि हमारी साँसें घटी हैं और सेहत भी। हमें ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि दुनिया में 40 प्रतिशत मौत पानी, मिट्टी और हवा में बढ़ आए प्रदूषण की वजह से हो रही हैं। हमें होने वाली 80 प्रतिशत बीमारियों की मूल वजह पानी का प्रदूषण, कमी या अधिकता ही बताया गया है। पानी में क्रोमियम, फ्लोराइड, लेड, आयरन, नाईट्रेट, आर्सेनिक जैसे रसायन तथा बढ़ आए ई-कोलाई के कारण कैंसर, आन्त्रशोथ, फ्लोरोसिस, पीलिया, हैजा, टाइफाइड, दिमाग, साँस व तन्त्रिका तन्त्र में शिथिलता जैसी कई तरह की बीमारियाँ सामने आ रही हैं।

एक अध्ययन ने पानी के प्रदूषण व पानी की कमी को पाँच वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिये ‘नम्बर वन किलर’ करार दिया है। आँकड़े बताते हैं कि पाँच वर्ष से कम उम्र तक के बच्चों की 3.1 प्रतिशत मौत और 3.7 प्रतिशत विकलांगता का कारण प्रदूषित पानी ही है। भारत भी इसका शिकार है। स्पष्ट है कि पानी का संकट बढ़ेगा, तो जीवन विकास पर संकट गहराएगा ही। किन्तु इसका उपाय, आर ओ, फिल्टर या बोतलबन्द पानी या बाजार नहीं हो सकता।

..क्योंकि भारत भी हुआ है असभ्य


भारत ने खुद जलदान को महादान बताने वाली भारतीय जल संरक्षण संस्कृति का क्षरण किया है। इस क्षरण को रोकना ही पृथ्वी दिवस का सन्देश है। कचरा, उपभोग, अपने लिये दूसरे के संसाधनों की लूट - ये किसी के सभ्य होने के लक्षण नहीं हैं। जाहिर है कि सभ्यता के मूल गुणों को खोकर असभ्य तो हम भारतीय भी हुए ही हैं।

सदुपयोग को छोड़, उपभोग की दिशा में कदम बढ़ाने और पृथ्वी का बुखार बढ़ाने वाले राष्ट्रों में अब भारत भी शामिल है। भारत की नई सरकार को भूमि बचाने से ज्यादा, भूमि का मुआवजा बढ़ाने की चिन्ता है। हम भूमि की चिन्ता करने के लिये भी पृथ्वी दिवस का सन्देश सुनें और सुनाएँ; ताकि धरती भी बचे और धरतीवासी भी।