लेखक
मसला था घर में नलों में आने वाले पानी की कीमतें बढ़ाने के फैसले के विरोध का, बड़े-बड़े नेता एकत्र हुए थे व उनका कहना था कि स्थानीय निकाय का यह कदम गरीब की कमर तोड़ देगा। उन सभी नेताओं के सामने प्लास्टिक की बोतलों में पानी रखा हुआ था, जिसके एक लीटर की कीमत होती है, कम-से-कम पन्द्रह रुपए।
वहीं दिल्ली में घर पर नलों से आने वाले एक हजार लीटर पानी के दाम बामुश्किल चार रुपए होता है, जो पानी नेताजी पी रहे थे उसके दाम सरकारी सप्लाई के पानी से शायद चार हजार गुणा ज्यादा है, लेकिन स्वच्छ, नियमित पानी की माँग करने के बनिस्पत दाम करने के लिये हल्ला-गुल्ला करने वाले असल में बोतलबन्द पानी की उस विपणन व्यवस्था के सहयात्री हैं जो जल जैसे प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी, परिवेश में प्लास्टिक घेालने जैसे अपराध और जल के नाम पर जहर बाँटने का काम धड़ल्ले से वैध तरीके से कर रहे हैं।
क्या कभी सोचा है कि जिस बोतलबन्द पानी का हम इस्तेमाल कर रहे हैं उसका एक लीटर तैयार करने के लिये कम-से-कम चार लीटर पानी बर्बाद किया जाता है। प्लास्टिक बोतलों का जो अम्बार जमा हो रहा है उसका महज बीस फीसदी ही पुनर्चक्रित होता है, कीमतें तो ज्यादा हैं ही; इसके बावजूद जो जल परोसा जा रहा है, वह उतना सुरक्षित नहीं है, जिसकी अपेक्षा उपभोक्ता करता है।
कहने को पानी कायनात की सबसे निर्मल देन है और इसके सम्पर्क में आकर सब कुछ पवित्र हो जाता है। विडम्बना है कि आधुनिक विकास की कीमत चुका रहे नैसर्गिक परिवेश में पानी पर सबसे ज्यादा विपरीत असर पड़ा है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज पानी को निर्मल रखने के प्रयासों की जगह बाजार के फेर में फँस कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है।
देश की राजधानी दिल्ली से बिल्कुल सटा हुआ इलाका है शालीमार गार्डन, यह गाज़ियाबाद जिले में आता है, बीते एक दशक के दौरान यहाँ जमकर बहुमंजिला मकान बने, देखते-ही-देखते आबादी दो लाख के करीब पहुँच गई। यहाँ नगर निगम के पानी की सप्लाई लगभग ना के बराबर है। हर अपार्टमेंट के अपने नलकूप हैं और पूरे इलाके का पानी बेहद खारा है। यदि पानी को कुछ घंटे बाल्टी में छोड़ दें तो उसके ऊपर सफेद परत और तली पर काला-लाल पदार्थ जम जाएगा।
यह पूरी आबादी पीने के पानी के लिये या तो अपने घरों में आरओ का इस्तेमाल करती है या फिर बीस लीटर की केन की सप्लाई लेती है। यह हाल महज शालीमार गार्डन के ही नहीं हैं, वसुन्धरा, वैशाली, इन्दिरापुरम, राजेन्द्र नगर तक की दस लाख से अधिक आबादी के यही हाल है। फिर नोएडा, गुड़गाँव व अन्य एनसीआर के शहरों की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। यह भी ना भूलें कि दिल्ली की एक चौथाई आबादी पीने के पानी के लिये पूरी तरह बोतलबन्द कैन पर निर्भर है।
यह बात सरकारी रिकार्ड का हिस्सा है कि राष्ट्रीय राजधानी और उससे सटे शहरों में 10 हजार से अधिक बोतलबन्द पानी की इकाइयाँ सक्रिय हैं और इनमें से अधिकांश 64 लाइसेंसयुक्त निर्माताओं के नाम का अवैध उपयोग कर रही हैं। यह चिन्ता की बात है कि सक्रिय इकाइयाँ ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड (बीआईएस) की अनुमति के बगैर यह काम कर रही हैं। इस तरह की अवैध इकाइयाँ झुग्गियों और दिल्ली, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के शहरों की तंग गलियों से चलाई जा रही हैं।
वहाँ पानी की गुणवत्ता के मानकों का पालन शायद ही होता है। यही नहीं पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने वाले सरकारी अधिकारी भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाते हैं। कुछ दिनों पहले ईस्ट दिल्ली म्यूनिसिपल कारपोरेशन के दफ्तर में जो बोतलबन्द पानी सप्लाई किया जाता है, उसमें से एक बोतल में काक्रोच मिले थे। जाँच के बाद पता चला कि पानी की सप्लाई करने वाला अवैध धन्धा कर रहा हैै। उस इकाई का तो पता भी नहीं चल सका क्योंकि किसी के पास उसका कोई रिकार्ड ही नहीं है।
औद्योगिकीकरण के साथ ही 19वीं सदी में अमेरिका और यूरोप बोतलबन्द पानी का बाजार पैदा हो गया था। बोतलबन्द पानी की पहली कम्पनी पोलैंड स्प्रिंग बॉटल्ड वाटर’ 1945 में पोलैंड के मैनी शहर में लगी। भारत में बोतलबन्द पानी की शुरुआत 1965 में इटलीवासी सिग्नोर फेलिस की कम्पनी ‘बिसलरी’ ने मुम्बई महानगर से की थी। शुरुआत में सिग्नल वाटर की बोतल शीशे की बनी होती थी।
इस समय भारत में इस कम्पनी के आठ प्लांट और 11 फ्रेंचाइजी कम्पनियाँ है। भारत के कुल बोतलबन्द पानी के व्यापार के 60 प्रतिशत पर बिसलरी का कब्जा है। इस समय देश में बोतलबन्द पानी का व्यापार करने वाली करीब 200 कम्पनियाँ और 1200 बॉटलिंग प्लांट वैध हैं। इस आँकड़े में पानी का पाउच बेचने वाली और दूसरी छोटी कम्पनियाँ शामिल नहीं है।
इस समय भारत में बोतलबन्द पानी का कुल व्यापार 14 अरब 85 करोड़ रुपए का है। यह देश में बिकने वाले कुल बोतलबन्द पेय का 15 प्रतिशत है। बोतलबन्द पानी का इस्तेमाल करने वाले देशों की सूची में भारत 10वें स्थान पर है। भारत में 1999 में बोतलबन्द पानी की खपत एक अरब 50 करोड़ लीटर थी, 2004 में यह आँकड़ा 500 करोड़ लीटर का पहुँच गया। आज यह दो अरब लीटर के पार है।
यह बात सही है कि बोतलबन्द पानी में बीमारियाँ फैलाने वाला पैथोजेनस नामक बैक्टीरिया नहीं होता है, लेकिन पानी से अशुद्धियाँ निकालने की प्रक्रिया के दौरान पानी में ब्रोमेट क्लोराइट और क्लोरेट नामक रसायन खुद-ब-खुद मिल जाते हैं। ये रसायन प्रकृतिक पानी में होते ही नहीं हैं। भारत में ऐसा कोई नियमक नहीं है जो बोतलबन्द पानी में ऐसे केमिकल्स की अधिकतम सीमा को तय करे। उल्लेखनीय है कि वैज्ञाानिकों ने 18 अलग-अलग ब्रांड के बोतलबन्द पानी की जाँच की थी।
एक नए अध्ययन में कहा गया कि पानी भले ही बहुत ही स्वच्छ हो लेकिन उसकी बोतल के प्रदूषित होने की सम्भावनाएँ बहुत ज्यादा होती है और इस कारण उसमें रखा पानी भी प्रदूषित हो सकता है। बोतलबन्द पानी की कीमत भी सादे पानी की तुलना में अधिक होती है, इसके बावजूद इसके संक्रमण का एक स्रोत बनने का खतरा बरकरार रहता है।
बोतलबन्द पानी की जाँच बहुत चलताऊ तरीके से होती है। महीने में महज एक बार इसके स्रोत का निरीक्षण किया जाता है, रोज नहीं होता है। एक बार पानी बोतल में जाने और सील होने के बाद यह बिकने से पहले महीनों स्टोर रूम में पड़ा रह सकता है। फिर जिस प्लास्टिक की बोतल में पानी है, वह धूप व गर्मी के दौरान कई जहरीले पदार्थ उगलती है और जाहिर है कि उसका असर पानी पर ही होता है।
घर में बोतलबन्द पानी पीने वाले एक चौथाई मानते हैं कि वे बोतलबन्द पानी इसलिये पीते हैं क्योंकि यह सादे पानी से ज्यादा अच्छा होता है लेकिन वे इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि नगर निगम द्वारा सप्लाई पानी को भी कठोर निरीक्षण प्रणाली के तहत रोज ही चेक किया जाता है। सादे पानी में क्लोरीन की मात्रा भी होती है जो बैक्टीरिया के खतरे से बचाव में कारगर है।जबकि पेक्ड बोतल में क्लोरीन की तरह कोई पदार्थ होता नहीं है। उल्टे रिवर ऑस्मोसिस के दौरान प्राकृतिक जल के कई महत्त्वपूर्ण लवण व तत्व नष्ट हो जाते हैं।
बोतलबन्द पानी से उपजे संकट में सबसे बड़ा तो प्लास्टिक का योगदान है। हर दिन छोटी पैकिंग की करोड़ों बोतलें कूड़े में आ रही हैं और यह सर्वविदित है कि प्लास्टिक नष्ट नहीं होती है व उससे ज़मीन, पानी, हवा सब कुछ बुरी तरह प्रभावित होते हैं। ऐसे ही संकट को अमेरिका के सेनफ्रांसिस्को शहर ने समझा। वहाँ कई महीनों सार्वजनिक बहस चलीं। इसके बाद निर्णय लिया गया कि शहर में कोई भी बोतलबन्द पानी नहीं बिकेगा।
प्रशासन ही थोड़ी-थेाड़ी दूरी पर स्वच्छ परिशोधित पानी के नल के लगवाएगा तथा हर जरूरतमन्द वहाँ से पानी भर सकता है। लोगों का विचार था कि जो जल प्रकृति ने उन्हें दिया है उस पर मुनाफाखोरी नहीं होना चाहिए। भारत की परम्परा तो प्याऊ, कुएँ, बावड़ी और तालाब खुदवाने की रही है। हम पानी को स्रोत से शुद्ध करने के उपाय करने की जगह उससे कई लाख गुणा महंगा बोतलबन्द पानी को बढ़ावा दे रहे है।
पानी की तिजारत करने वालों की आँख का पानी मर गया है तो प्यासे लोगों से पानी की दूरी बढ़ती जा रही है। पानी के व्यापार को एक सामाजिक समस्या और अधार्मिक कृत्य के तौर पर उठाना जरूरी है वरना हालात हमारे संविधान में निहित मूल भावना के विपरीत बनते जा रहे हैं जिसमें प्रत्येक को स्वस्थ तरीके से रहने का अधिकार है व पानी के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।
वहीं दिल्ली में घर पर नलों से आने वाले एक हजार लीटर पानी के दाम बामुश्किल चार रुपए होता है, जो पानी नेताजी पी रहे थे उसके दाम सरकारी सप्लाई के पानी से शायद चार हजार गुणा ज्यादा है, लेकिन स्वच्छ, नियमित पानी की माँग करने के बनिस्पत दाम करने के लिये हल्ला-गुल्ला करने वाले असल में बोतलबन्द पानी की उस विपणन व्यवस्था के सहयात्री हैं जो जल जैसे प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी, परिवेश में प्लास्टिक घेालने जैसे अपराध और जल के नाम पर जहर बाँटने का काम धड़ल्ले से वैध तरीके से कर रहे हैं।
क्या कभी सोचा है कि जिस बोतलबन्द पानी का हम इस्तेमाल कर रहे हैं उसका एक लीटर तैयार करने के लिये कम-से-कम चार लीटर पानी बर्बाद किया जाता है। प्लास्टिक बोतलों का जो अम्बार जमा हो रहा है उसका महज बीस फीसदी ही पुनर्चक्रित होता है, कीमतें तो ज्यादा हैं ही; इसके बावजूद जो जल परोसा जा रहा है, वह उतना सुरक्षित नहीं है, जिसकी अपेक्षा उपभोक्ता करता है।
कहने को पानी कायनात की सबसे निर्मल देन है और इसके सम्पर्क में आकर सब कुछ पवित्र हो जाता है। विडम्बना है कि आधुनिक विकास की कीमत चुका रहे नैसर्गिक परिवेश में पानी पर सबसे ज्यादा विपरीत असर पड़ा है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज पानी को निर्मल रखने के प्रयासों की जगह बाजार के फेर में फँस कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है।
देश की राजधानी दिल्ली से बिल्कुल सटा हुआ इलाका है शालीमार गार्डन, यह गाज़ियाबाद जिले में आता है, बीते एक दशक के दौरान यहाँ जमकर बहुमंजिला मकान बने, देखते-ही-देखते आबादी दो लाख के करीब पहुँच गई। यहाँ नगर निगम के पानी की सप्लाई लगभग ना के बराबर है। हर अपार्टमेंट के अपने नलकूप हैं और पूरे इलाके का पानी बेहद खारा है। यदि पानी को कुछ घंटे बाल्टी में छोड़ दें तो उसके ऊपर सफेद परत और तली पर काला-लाल पदार्थ जम जाएगा।
यह पूरी आबादी पीने के पानी के लिये या तो अपने घरों में आरओ का इस्तेमाल करती है या फिर बीस लीटर की केन की सप्लाई लेती है। यह हाल महज शालीमार गार्डन के ही नहीं हैं, वसुन्धरा, वैशाली, इन्दिरापुरम, राजेन्द्र नगर तक की दस लाख से अधिक आबादी के यही हाल है। फिर नोएडा, गुड़गाँव व अन्य एनसीआर के शहरों की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। यह भी ना भूलें कि दिल्ली की एक चौथाई आबादी पीने के पानी के लिये पूरी तरह बोतलबन्द कैन पर निर्भर है।
यह बात सरकारी रिकार्ड का हिस्सा है कि राष्ट्रीय राजधानी और उससे सटे शहरों में 10 हजार से अधिक बोतलबन्द पानी की इकाइयाँ सक्रिय हैं और इनमें से अधिकांश 64 लाइसेंसयुक्त निर्माताओं के नाम का अवैध उपयोग कर रही हैं। यह चिन्ता की बात है कि सक्रिय इकाइयाँ ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड (बीआईएस) की अनुमति के बगैर यह काम कर रही हैं। इस तरह की अवैध इकाइयाँ झुग्गियों और दिल्ली, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के शहरों की तंग गलियों से चलाई जा रही हैं।
वहाँ पानी की गुणवत्ता के मानकों का पालन शायद ही होता है। यही नहीं पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने वाले सरकारी अधिकारी भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाते हैं। कुछ दिनों पहले ईस्ट दिल्ली म्यूनिसिपल कारपोरेशन के दफ्तर में जो बोतलबन्द पानी सप्लाई किया जाता है, उसमें से एक बोतल में काक्रोच मिले थे। जाँच के बाद पता चला कि पानी की सप्लाई करने वाला अवैध धन्धा कर रहा हैै। उस इकाई का तो पता भी नहीं चल सका क्योंकि किसी के पास उसका कोई रिकार्ड ही नहीं है।
औद्योगिकीकरण के साथ ही 19वीं सदी में अमेरिका और यूरोप बोतलबन्द पानी का बाजार पैदा हो गया था। बोतलबन्द पानी की पहली कम्पनी पोलैंड स्प्रिंग बॉटल्ड वाटर’ 1945 में पोलैंड के मैनी शहर में लगी। भारत में बोतलबन्द पानी की शुरुआत 1965 में इटलीवासी सिग्नोर फेलिस की कम्पनी ‘बिसलरी’ ने मुम्बई महानगर से की थी। शुरुआत में सिग्नल वाटर की बोतल शीशे की बनी होती थी।
इस समय भारत में इस कम्पनी के आठ प्लांट और 11 फ्रेंचाइजी कम्पनियाँ है। भारत के कुल बोतलबन्द पानी के व्यापार के 60 प्रतिशत पर बिसलरी का कब्जा है। इस समय देश में बोतलबन्द पानी का व्यापार करने वाली करीब 200 कम्पनियाँ और 1200 बॉटलिंग प्लांट वैध हैं। इस आँकड़े में पानी का पाउच बेचने वाली और दूसरी छोटी कम्पनियाँ शामिल नहीं है।
इस समय भारत में बोतलबन्द पानी का कुल व्यापार 14 अरब 85 करोड़ रुपए का है। यह देश में बिकने वाले कुल बोतलबन्द पेय का 15 प्रतिशत है। बोतलबन्द पानी का इस्तेमाल करने वाले देशों की सूची में भारत 10वें स्थान पर है। भारत में 1999 में बोतलबन्द पानी की खपत एक अरब 50 करोड़ लीटर थी, 2004 में यह आँकड़ा 500 करोड़ लीटर का पहुँच गया। आज यह दो अरब लीटर के पार है।
औद्योगिकीकरण के साथ ही 19वीं सदी में अमेरिका और यूरोप बोतलबन्द पानी का बाजार पैदा हो गया था। बोतलबन्द पानी की पहली कम्पनी पोलैंड स्प्रिंग बॉटल्ड वाटर’ 1945 में पोलैंड के मैनी शहर में लगी। भारत में बोतलबन्द पानी की शुरुआत 1965 में इटलीवासी सिग्नोर फेलिस की कम्पनी ‘बिसलरी’ ने मुम्बई महानगर से की थी। शुरुआत में सिग्नल वाटर की बोतल शीशे की बनी होती थी। इस समय भारत में इस कम्पनी के आठ प्लांट और 11 फ्रेंचाइजी कम्पनियाँ है। भारत के कुल बोतलबन्द पानी के व्यापार के 60 प्रतिशत पर बिसलरी का कब्जा है।
पर्यावरण को नुकसान कर, अपनी जेब में बड़ा सा छेद कर हम जो पानी खरीद कर पीते हैं, यदि उसे पूरी तरह निरापद माना जाए तो यह गलतफहमी होगी। कुछ महीनों पहले भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर के एनवायरनमेंटल मानिटरिंग एंड एसेसमेंट अनुभाग की ओर से किए गए शोध में बोतलबन्द पानी में नुकसानदेह मिले थे। हैरानी की बात यह है कि यह केमिकल्स कम्पनियों के लीनिंग प्रोसेस के दौरान पानी में पहुँचे हैं।यह बात सही है कि बोतलबन्द पानी में बीमारियाँ फैलाने वाला पैथोजेनस नामक बैक्टीरिया नहीं होता है, लेकिन पानी से अशुद्धियाँ निकालने की प्रक्रिया के दौरान पानी में ब्रोमेट क्लोराइट और क्लोरेट नामक रसायन खुद-ब-खुद मिल जाते हैं। ये रसायन प्रकृतिक पानी में होते ही नहीं हैं। भारत में ऐसा कोई नियमक नहीं है जो बोतलबन्द पानी में ऐसे केमिकल्स की अधिकतम सीमा को तय करे। उल्लेखनीय है कि वैज्ञाानिकों ने 18 अलग-अलग ब्रांड के बोतलबन्द पानी की जाँच की थी।
एक नए अध्ययन में कहा गया कि पानी भले ही बहुत ही स्वच्छ हो लेकिन उसकी बोतल के प्रदूषित होने की सम्भावनाएँ बहुत ज्यादा होती है और इस कारण उसमें रखा पानी भी प्रदूषित हो सकता है। बोतलबन्द पानी की कीमत भी सादे पानी की तुलना में अधिक होती है, इसके बावजूद इसके संक्रमण का एक स्रोत बनने का खतरा बरकरार रहता है।
बोतलबन्द पानी की जाँच बहुत चलताऊ तरीके से होती है। महीने में महज एक बार इसके स्रोत का निरीक्षण किया जाता है, रोज नहीं होता है। एक बार पानी बोतल में जाने और सील होने के बाद यह बिकने से पहले महीनों स्टोर रूम में पड़ा रह सकता है। फिर जिस प्लास्टिक की बोतल में पानी है, वह धूप व गर्मी के दौरान कई जहरीले पदार्थ उगलती है और जाहिर है कि उसका असर पानी पर ही होता है।
घर में बोतलबन्द पानी पीने वाले एक चौथाई मानते हैं कि वे बोतलबन्द पानी इसलिये पीते हैं क्योंकि यह सादे पानी से ज्यादा अच्छा होता है लेकिन वे इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि नगर निगम द्वारा सप्लाई पानी को भी कठोर निरीक्षण प्रणाली के तहत रोज ही चेक किया जाता है। सादे पानी में क्लोरीन की मात्रा भी होती है जो बैक्टीरिया के खतरे से बचाव में कारगर है।जबकि पेक्ड बोतल में क्लोरीन की तरह कोई पदार्थ होता नहीं है। उल्टे रिवर ऑस्मोसिस के दौरान प्राकृतिक जल के कई महत्त्वपूर्ण लवण व तत्व नष्ट हो जाते हैं।
बोतलबन्द पानी से उपजे संकट में सबसे बड़ा तो प्लास्टिक का योगदान है। हर दिन छोटी पैकिंग की करोड़ों बोतलें कूड़े में आ रही हैं और यह सर्वविदित है कि प्लास्टिक नष्ट नहीं होती है व उससे ज़मीन, पानी, हवा सब कुछ बुरी तरह प्रभावित होते हैं। ऐसे ही संकट को अमेरिका के सेनफ्रांसिस्को शहर ने समझा। वहाँ कई महीनों सार्वजनिक बहस चलीं। इसके बाद निर्णय लिया गया कि शहर में कोई भी बोतलबन्द पानी नहीं बिकेगा।
प्रशासन ही थोड़ी-थेाड़ी दूरी पर स्वच्छ परिशोधित पानी के नल के लगवाएगा तथा हर जरूरतमन्द वहाँ से पानी भर सकता है। लोगों का विचार था कि जो जल प्रकृति ने उन्हें दिया है उस पर मुनाफाखोरी नहीं होना चाहिए। भारत की परम्परा तो प्याऊ, कुएँ, बावड़ी और तालाब खुदवाने की रही है। हम पानी को स्रोत से शुद्ध करने के उपाय करने की जगह उससे कई लाख गुणा महंगा बोतलबन्द पानी को बढ़ावा दे रहे है।
पानी की तिजारत करने वालों की आँख का पानी मर गया है तो प्यासे लोगों से पानी की दूरी बढ़ती जा रही है। पानी के व्यापार को एक सामाजिक समस्या और अधार्मिक कृत्य के तौर पर उठाना जरूरी है वरना हालात हमारे संविधान में निहित मूल भावना के विपरीत बनते जा रहे हैं जिसमें प्रत्येक को स्वस्थ तरीके से रहने का अधिकार है व पानी के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।