हम ‘पर्यावरण’ शब्द से परिचित हैं। इस शब्द का प्रयोग टेलीविजन पर, समाचार पत्रों में तथा हमारे आस-पास लोगों द्वारा प्राय: किया जाता है। हमारे बुजुर्ग हमसे कहते हैं कि अब वह पर्यावरण/वातावरण नहीं रहा जैसा कि पहले था, दूसरे कहते हैं हमें स्वस्थ पर्यावरण में काम करना चाहिए। ‘पर्यावरणीय’ समस्याओं पर चर्चा के लिए विकसित एवं विकासशील देशों के वैश्विक सम्मेलन भी नियमित रूप से होते रहते हैं। इस आलेख में हम चर्चा करेंगे कि विभिन्न कारक पर्यावरण में किस प्रकार अन्योन्यक्रिया करते हैं तथा पर्यावरण पर क्या प्रभाव डालते हैं। हम जानते है कि विभिन्न पदार्थों का चक्रण पर्यावरण में अलग-अलग जैव-भौगोलिक रासायनिक चक्रों में होता है। इन चक्रों में अनिवार्य पोषक जैसे नाइट्रोजन, कार्बन, ऑक्सीजन एवं जल एक रूप से दूसरे रूप में बदलते हैं। अब हम जानेंगे कि मनुष्य की गतिविधियाँ इन चक्रों को किस प्रकार प्रभावित करती हैं।
क्या होता है जब हम अपने अपशिष्ट पर्यावरण में डालते हैं?
अपनी दैनिक गतिविधियों में हम बहुत से ऐसे पदार्थ उत्पादित करते हैं जिन्हें फेंकना पड़ता है। इनमें से अपशिष्ट पदार्थ क्या हैं? जब हम उन्हें फेंक देते हैं तो उनका क्या होता है?
हम ‘जैव प्रक्रम’ के विषय में जानते है कि हमारे द्वारा खाए गए भोजन का पाचन विभिन्न एंजाइमों द्वारा किया जाता है। विचार कीजिये कि एक ही एंजाइम भोजन के सभी पदार्थों का पाचन क्यों नहीं करता? एंजाइम अपनी क्रिया में विशिष्ट होते हैं। किसी विशेष प्रकार के पदार्थ के पाचन/अपघटन के लिए विशिष्ट एंजाइम की आवश्यकता होती है। इसीलिए कोयला खाने से हमें ऊर्जा प्राप्त नहीं हो सकती। इसी कारण, बहुत से मानव-निर्मित पदार्थ जैसे कि प्लास्टिक का अपघटन जीवाणु अथवा दूसरे मृतजीवियों द्वारा नहीं हो सकता। इन पदार्थों पर भौतिक प्रक्रम जैसे कि ऊ
ष्मा तथा दाब का प्रभाव होता है, परंतु सामान्य अवस्था में लंबे समय तक पर्यावरण में बने रहते हैं। वे पदार्थ जो जैविक प्रक्रम द्वारा अपघटित हो जाते हैं, ‘जैव निम्नीकरणीय’ कहलाते हैं। वे पदार्थ जो इस प्रक्रम में अपघटित नहीं होते ‘अजैव निम्नीकरणीय’ कहलाते हैं। यह पदार्थ सामान्यत: अक्रिय हैं तथा लंबे समय तक पर्यावरण में बने रहते हैं अथवा पर्यावरण के अन्य सदस्यों को हानि पहुँचाते हैं।
पारितंत्र और इसके संघटक
सभी जीव जैसे कि पौधों, जंतु, सूक्ष्मजीव एवं मानव तथा भौतिक कारकों में परस्पर अन्योन्यक्रिया होती है तथा प्रकृति में संतुलन बनाए रखते हैं। किसी क्षेत्र के सभी जीव तथा वातावरण के अजैव कारक संयुक्त रूप से पारितंत्र बनाते हैं। अत: एक पारितंत्र में सभी जीवों के जैव घटक तथा अजैव घटक होते हैं। भौतिक कारक जैसे- ताप, वर्षा, वायु, मृदा एवं खनिज इत्यादि अजैव घटक हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप बगीचे में जाएँ तो आपको विभिन्न पौधों जैसे- घास, वृक्ष, गुलाब, चमेली, सूर्यमुखी जैसे फूल वाले सजावटी पौधों तथा मेंढ़क, कीट एवं पक्षी जैसे जंतु दिखाई देंगे। यह सभी सजीव परस्पर अन्योन्यक्रिया करते हैं तथा इनकी वृद्धि, जनन एवं अन्य क्रियाकलाप पारितंत्र के अजैव घटकों द्वारा प्रभावित होते हैं। अत: एक बगीचा एक पारितंत्र है। वन, तालाब तथा झील पारितंत्र के अन्य प्रकार हैं। ये प्राकृतिक पारितंत्र हैं, जबकि बगीचा तथा खेत मानव निर्मित; कृत्रिम पारितंत्र हैं।
हम जानते हैं कि जीवन निर्वाह के आधार जीवों को उत्पादक, उपभोक्ता एवं अपघटक वर्गों में बाँटा गया है। कौन-से जीव सूर्य के प्रकाश एवं क्लोरोफिल की उपस्थिति में अकार्बनिक पदार्थों से कार्बनिक पदार्थ जैसे कि, शर्करा; चीनी एवं मंड का निर्माण कर सकते हैं? सभी हरे पौधों एवं नील-हरित शैवाल जिनमें प्रकाश संश्लेषण की क्षमता होती है, इसी वर्ग में आते हैं तथा उत्पादक कहलाते हैं। सभी जीव प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अपने निर्वाह हेतु उत्पादकों पर निर्भर करते हैं? ये जीव जो उत्पादक द्वारा उत्पादित भोजन पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से निर्भर करते हैं, उपभोक्ता कहलाते हैं। उपभोक्ता को मुख्यत: शाकाहारी, मांसाहारी तथा सर्वाहारी एवं परजीवी में बाँटा गया है।
ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिए जब आप जल जीवशाला को साफ करना छोड़ दें तथा कुछ मछलियाँ एवं पौधे इसमें मर भी गए हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि क्या होता है जब एक जीव मरता है? जीवाणु और कवक जैसे सूक्ष्मजीव मृतजैव अवशेषों का अपमार्जन करते हैं। ये सूक्ष्मजीव अपमार्जक हैं क्योंकि ये जटिल कार्बनिक पदार्थों को सरल अकार्बनिक पदार्थों में बदल देते हैं जो मिट्टी; भूमि में चले जाते हैं तथा पौधों द्वारा पुन: उपयोग में लाए जाते हैं। इनकी अनुपस्थिति में मृत जंतुओं एवं पौधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या अपमार्जकों के न रहने पर भी मृदा की प्राकृतिक पुन:पूर्ति होती रहती हैं?
आहार श्रृंखला एवं जाल
जीवों की एक श्रृंखला जो एक-दूसरे का आहार करते हैं। विभिन्न जैविक स्तरों पर भाग लेने वाले जीवों की यह श्रृंखला आहार श्रृंखला का निर्माण करती हैं। आहार श्रृंखला का प्रत्येक चरण अथवा कड़ी एकपोषी स्तर बनाते हैं। स्वपोषी अथवा उत्पादक प्रथमपोषी स्तर हैं तथा सौर ऊर्जा का स्थिरीकरण करके उसे विषमपोषियों अथवा उपभोक्ताओं के लिए उपलब्ध कराते हैं। शाकाहारी अथवा प्राथमिक उपभोक्ता द्वितीयपोषी स्तर छोटे मांसाहारी अथवा द्वितीय उपभोक्ता तीसरे पोषी स्तर तथा बड़े मांसाहारी अथवा तृतीय उपभोक्ता चौथेपोषी स्तर का निर्माण करते हैं।
चित्र
हम जानते हैं कि जो भोजन हम खाते हैं, हमारे लिए ऊर्जा स्रोत का कार्य करता है तथा विभिन्न कार्यों के लिए ऊर्जा प्रदान करता है। अत: पर्यावरण के विभिन्न घटकों की परस्पर अन्योन्यक्रिया में निकाय के एक घटक से दूसरे में ऊर्जा का प्रवाह होता है। जैसा कि हम पढ़ चुके हैं, स्वपोषी सौर प्रकाश में निहित ऊर्जा को ग्रहण करके रासायनिक ऊर्जा में बदल देते हैं। यह ऊर्जा संसार के संपूर्ण जैवसमुदाय की सभी क्रियाओं के संपादन में सहायक है। स्वपोषी से ऊर्जा विषमपोषी एवं अपघटकों तक जाती है जैसा कि ‘ऊर्जा के स्रोत’ नामक पिछले आलेख में हमने जाना था कि जब ऊर्जा का एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तन होता है, तो पर्यावरण में ऊर्जा की कुछ मात्रा का अनुपयोगी ऊर्जा के रूप में ह्रास हो जाता है। पर्यावरण के विभिन्न घटकों के बीच ऊर्जा के प्रवाह का विस्तृत अध्ययन किया गया तथा यह पाया गया कि एक स्थलीय पारितंत्र में हरे पौधों की पत्तियों द्वारा प्राप्त होने वाली सौर ऊर्जा का लगभग 1% भाग खाद्य ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं। जब हरे पौधे प्राथमिक उपभोक्ता द्वारा खाए जाते हैं, ऊर्जा की बड़ी मात्रा का पर्यावरण में ऊ
ष्मा के रूप में ह्रास होता है, कुछ मात्रा का उपयोग पाचन, विभिन्न जैव कार्यों में, वृद्धि एवं जनन में होता है। खाए हुए भोजन की मात्रा का लगभग 10% ही जैव मात्रा में बदल पाता है तथा अगले स्तर के उपभोक्ता को उपलब्ध हो पाता है। अत: हम कह सकते हैं प्रत्येक स्तर पर उपलब्ध कार्बनिक पदार्थों की मात्रा का औसतन 10% ही उपभोक्ता के अगले स्तर तक पहुँचता है। क्योंकि उपभोक्ता के अगले स्तर के लिए ऊर्जा की बहुत कम मात्रा उपलब्ध हो पाती है, अत: आहार श्रृंखला सामान्यत: तीन अथवा चार चरण की होती है। प्रत्येक चरण पर ऊर्जा का ह्रास इतना अधिक होता है कि चौथेपोषी स्तर के बाद उपयोगी ऊर्जा की मात्रा बहुत कम हो जाती है।
सामान्यत: निचलेपोषी स्तर पर जीवों की संख्या अधिक होती है, अत: उत्पादक स्तर पर यह संख्या सर्वाधिक होती है। विभिन्न आहार श्रृंखलाओं की लंबाई एवं जटिलता में काफी अंतर होता है। आमतौर पर प्रत्येक जीव दो अथवा अधिक प्रकार के जीवों द्वारा खाया जाता है, जो स्वयं अनेक प्रकार के जीवों का आहार बनते हैं। अत: एक सीधी आहार श्रृंखला के बजाय जीवों के मध्य आहार संबंध शाखान्वित होते हैं तथा शाखान्वित श्रृंखलाओं का एक जाल बनाते हैं जिससे ‘आहार जाल’ कहते हैं।
चित्र
ऊर्जा प्रवाह के चित्र से दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली, ऊर्जा का प्रवाह एकदिशिक अथवा एक ही दिशा में होता है। स्वपोषी जीवों द्वारा ग्रहण की गई ऊर्जा पुन: सौर ऊर्जा में परिवर्तित नहीं होती तथा शाकाहारियों को स्थानांतरित की गई ऊर्जा पुन: स्वपोषी जीवों को उपलब्ध नहीं होती है। जैसे यह विभिन्न पोषी स्तरों पर क्रमिक स्थानांतरित होती है अपने से पहले स्तर के लिए उपलब्ध नहीं होती। आहार श्रृंखला का एक दूसरा आयाम यह भी है कि हमारी जानकारी के बिना ही कुछ हानिकारक रासायनिक पदार्थ आहार श्रृंखला से होते हुए हमारे शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। आप कक्षा 9 में पढ़ चुके हैं कि जल प्रदूषण किस प्रकार होता है। इसका एक कारण है कि विभिन्न फसलों को रोग, एवं पीड़कों से बचाने के लिए पीड़कनाशक एवं रसायनों का अत्यधिक प्रयोग करना है ये रसायन बह कर मिट्टी में अथवा जल स्रोत में चले जाते हैं। मिट्टी से इन पदार्थों का पौधों द्वारा जल एवं खनिजों के साथ-साथ अवशोषण हो जाता है तथा जलाशयों से यह जलीय पौधों एवं जंतुओं में प्रवेश कर जाते हैं। यह केवल एक तरीका है जिससे वे आहार श्रृंखला में प्रवेश करते हैं। क्योंकि ये पदार्थ अजैव निम्नीकृत हैं, यह प्रत्येक पोषी स्तर पर उतरोत्तर संग्रहित होते जाते हैं। क्योंकि किसी भी आहार श्रृंखला में मनुष्य शीर्षस्थ है, अत: हमारे शरीर में यह रसायन सर्वाधिक मात्रा में संचित हो जाते हैं। इसे ‘जैव-आवर्धन कहते हैं। यही कारण है कि हमारे खाद्यान्न-गेहूँ तथा चावल, सब्जियाँ, फल तथा मांस में पीड़क रसायन के अवशिष्ट विभिन्न मात्रा में उपस्थित होते हैं। उन्हें पानी से धोकर अथवा अन्य प्रकार से अलग नहीं किया जा सकता।
हमारे क्रियाकलाप और पर्यावरण
हम सब पर्यावरण का समेकित भाग हैं। पर्यावरण में परिवर्तन हमें प्रभावित करते हैं तथा हमारे क्रियाकलाप/गतिविधियाँ हमारे चारों ओर के पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। हम जानते हैं कि हमारे क्रियाकलाप पर्यावरण को किस प्रकार प्रभावित करते हैं। इस भाग में हम पर्यावरण संबंधी दो समस्याओं के विषय में विस्तार से चर्चा करेंगे, वे हैं- ओजोन परत का अपक्षय तथा अपशिष्ट निपटान।
ओजोन परत तथा अपक्षय
ओजोन के अणु ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से बनते हैं जबकि सामान्य ऑक्सीजन जिसके विषय में हम प्राय: चर्चा करते हैं, कि अणु में दो परमाणु होते हैं। जहाँ ऑक्सीजन सभी प्रकार के वायविक जीवों के लिए आवश्यक है, वहीं ओजोन एक घातक विष है। परंतु वायुमंडल के ऊ
परी स्तर में ओजोन एक आवश्यक प्रकार्य संपादित करती है। यह सूर्य से आने वाले पराबैंगनी विकिरण से पृथ्वी को सुरक्षा प्रदान करती है। यह पराबैंगनी विकिरण जीवों के लिए अत्यंत हानिकारक है।
उदाहरणत:, यह गैस मानव में त्वचा का वैंफसर उत्पन्न करती हैं। वायुमंडल के उच्चतर स्तर पर पराबैंगनी विकिरण के प्रभाव से ऑक्सीजन अणुओं से ओजोन बनती है। उच्च ऊर्जा वाले पराबैंगनी विकिरण ऑक्सीजन अणुओं को विघटित कर स्वतंत्र ऑक्सीजन परमाणु बनाते हैं। ऑक्सीजन के ये स्वतंत्र परमाणु संयुक्त होकर ओजोन बनाते हैं जैसा कि समीकरण में दर्शाया गया है।
ओजोन
1980 से वायुमंडल में ओजोन की मात्रा में तीव्रता से गिरावट आने लगी। क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन सीएफसी जैसे मानव संश्लेषित रसायनों को इसका मुख्य कारक माना गया। इनका उपयोग रेफ्रिजरेटर शीतलन एवं अग्निशमन के लिए किया जाता है। 1987 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यूएनईपी में सर्वानुमति बनी कि सीएफसी के उत्पादन को 1986 के स्तर पर ही सीमित रखा जाए।
कचरा प्रबंधन
किसी भी नगर एवं कस्बे में जाने पर चारों ओर कचरे के ढेर दिखाई देते हैं। किसी पर्यटन स्थल पर जाइए, हमें विश्वास है कि वहाँ पर बड़ी मात्रा में खाद्य पदार्थों की खाली थैलियाँ इधर-उधर फैली हुई दिख जाएगी। पिछली कक्षाओं में हमने स्वयं द्वारा उत्पादित इस कचरे से निपटान के उपायों पर चर्चा की है। आइए, इस समस्या पर अधिक गंभीरता से ध्यान दें। हमारी जीवन शैली में सुधार के साथ उत्पादित कचरे की मात्रा भी बहुत अधिक बढ़ गई है। हमारी अभिवृत्त में परिवर्तन भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता है। हम प्रयोज्य निवर्तनीय वस्तुओं का प्रयोग करने लगे हैं। पैकेजिंग के तरीकों में बदलाव से अजैव निम्नीकरणीय वस्तु के कचरे में पर्याप्त वृद्धि हुई है। आपके विचार में इन सबका हमारे पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ सकता है?