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योजना, दिसंबर 2004
बांस विश्व का सबसे तेज बढ़ने वाला पौधा व सबसे लंबी घास है। अपने कद, दृढ़ता एवं मजबूती के कारण यह सभी प्रकार की घासों से अधिक उन्नत व उपयोगी है। बांस का उपयोग सदियों से मनुष्य अपने जीवन में करता आ रहा है।बांस विशाल ‘तृण-परिवार’ का महत्त्वपूर्ण सदस्य है। बांस वस्तुतः एक तरह की घास है। इसी तृण-वर्ग में गन्ना, दूब (गाँवों में पाई जाने वाली हरी घास), गेहू, जौ आदि पौधे भी आते हैं। यदि वैज्ञानिक भाषा में कहें तो यह ग्रेमिनी (Gramineae) या पोयसी (Poaceae) कुल का पौधा है। इसका वानस्पतिक नाम बंबूसा अरुंडनेसिया (Bambusa Arundinacea) है। इसका सीधा तना कलम (Culm) कहलाता है। तने में समान दूरी पर ठोस गांठें (Node) पाई जाती हैं। दो गांठों के बीच का भाग खोखला (Inter Node) होता है। रोचक तथ्य यह है कि बांस विश्व का सबसे तेज बढ़ने वाला पौधा व सबसे लंबे घास है। अपने कद, दृढ़ता एवं मजबूती के कारण यह सभी प्रकार की घासों से अधिक उन्नत व उपयोगी है। बांस का उपयोग सदियों से मनुष्य अपने जीवन में करता आ रहा है। छुटपन में बांस और कागज के आधार पर बनने वाले खिलौने के रूप में, यौवन में बांसुरी, पतंग व आइसक्रीम के रूप में, धार्मिक कार्यों में अगरबत्ती के रूप में, बुढ़ापे के सहारे के रूप में तथा मरने के बाद भी श्मशान तक अरथी के रूप में इसका मनुष्य से गहरा रिश्ता है। यह जहाँ वंचित वर्ग के लिए आश्रय (आवास के रूप में) देने का काम करता है, वहीं प्रभु वर्ग के लिए उपभोक्तावादी और सजावटी वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करता है।
भारत में बांस सामान्यतः सर्वत्र उपलब्ध होने वाला पौधा है। ध्यातव्य है कि हमारे देश में लगभग 40,000 हेक्टेयर क्षेत्र में बांस के पर्याप्त विविधता भी पाई जाती है। देश में बांस की 25 से अधिक जातियाँ व लगभग 136 उपजातियाँ पाई जाती हैं जिसमें से 58 केवल पूर्वोत्तर में हैं। इन्हें स्थानीय भाषाओं में नलबांस, देवबांस, रिंगल, नरी, गोबिया, लतंग, खांग, करैल इत्यादि नामों से पुकारा जाता है। बांस उत्पादन के मामले में पूर्वोत्तर प्रमुख है; इसके बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश व कर्नाटक का स्थान आता है। यह हमारे यहाँ जंगलों में बहुलता से उगता है और प्रायः विभिन्न तरह के कार्यों के लिए उपयोग में लाया जाता है। गाँवों में लकड़ी और लोहे के विकल्प को बखूबी पूरा करता है। आज मनुष्य लकड़ी को अपनी आवश्कयता एवं उपभोग की पहली पसंद बनाकर जंगलों एवं वृक्षों की अंधाधुंध कटाई कर रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में अगर हम देखें तो लकड़ी के विकल्प के रूप में बांस पर्यावरण संतुलन में अपनी महती भूमिका निभा सकता है। अभी तक लकड़ी के विकल्प के न होने का रोना रोया जा रहा था, लेकिन वस्तुतः यह विकल्प की अनदेखी करना है। आज हमारे पास बांस की बहुलता है। आवश्यकता है लकड़ी के विकल्प के रूप में इसके उपयोग के संबंध में लोगों को जानकारी देने तथा दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ मानव को इसे अपनाने के लिए प्रेरित करने की।
पारंपरिक रूप से वन्य-जीवन के अभिन्न अंग के रूप में बांस अब हरे सोने में बदल चुका है। इसकी असीम आर्थिक संभावनाओं की गूंज संपूर्ण विश्व में सुनाई पड़ रही है, तभी तो सातवीं विश्व बांस काँग्रेस का आयोजन अपनी संपूर्ण भव्यता के साथ दिनांक 27 फरवरी से 4 मार्च, 2004 तक दिल्ली में किया गया। बांस का विश्व अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान है। अतः बांस के व्यापार में भारत को प्रमुखता से स्थापित करने, व्यापार की संभावनाओं के दोहन करने और भारत को एक गंतव्य देश के रूप में बढ़ावा देने के उद्देश्य से ही सरकार ने काँग्रेस की मेजबानी की। एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में बांस के आंतरिक और बाहरी उपभोग का संयुक्त मूल्य लगभग 10 अरब डालर तक पहुँच जाने की संभावना है। बांस क्षेत्र में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अहम भूमिका है। वर्तमान में चीन का बांस उद्योग 25 हजार करोड़ से अधिक है। योजना के अनुसार भारत का बांस उद्योग लगभग 2043 हजार करोड़ रुपए का है, लेकिन बाजार की संभावना इससे दुगुनी अर्थात 4463 करोड़ रुपए की है। इस क्षेत्र की वृद्धि दर 15 से 20 प्रतिशत की है। इसे देखते हुए ऐसा माना जा रहा है कि आगामी 10 वर्षों में अर्थात 2015 तक यह उद्योग 26 हजार करोड़ रुपए का हो जाएगा, जो चीन के बराबर है। योजनाकारों ने ऐसे संभावित क्षेत्रों का पता लगाया है, जहाँ बांस का बेहतर ढंग से उपयोग किया जा सकता है :
1. शूट (105 करोड़),
2. बोर्ड (1000 करोड़),
3. फ्लोरिंग बोर्ड (200 करोड़),
4. कागज-उद्योग (900 करोड़),
5. भवन-निर्माण (550 करोड़),
6. फर्नीचर (380 करोड़),
7. सड़क निर्माण (274 करोड़),
8. अगरबत्ती, माचिस, आइसक्रीम आदि (200 करोड़)।
संप्रति बांस की माँग 26.67 मिलियन टन की है, जबकि आपूर्ति मात्र 13.47 मिलियन टन ही है। इस आपूर्ति का भी अधिकांश भाग अनावश्यक कार्यों में खप जाता है, जबकि इसके उपयोग के उचित प्रबंधन से इससे कहीं अधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है। प्रबंधन के अभाव में प्रतिहेक्टेयर उत्पादन कम होता है। इसलिए आवश्यकता है एक सुनिश्चित नीति अपनाकर उस पर अमल करने की, जिससे बांस के क्षेत्र में आगे बढ़ा जा सके। बांस के क्षेत्र में अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए ही योजना आयोग ने एक कार्यनीति बनाई है, जिसके अनुसार नेशनल मिशन ऑन बैम्बू टेक्नोलॉजी एंड ट्रेड डेवलपमेंट की स्थापना अप्रैल, 2003 में की गई। इसका प्रमुख कार्य बांस विकास के क्षेत्र में आई रुकावटों को दूर करना है।
भूकंप प्रभावित देश जापान के जन-जीवन में बांस का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसका उपयोग वहाँ भवन-निर्माण से लेकर खान-पान व कुटीर उद्योग में बहुतायत से किया जाता है। इसी को दृष्टि में रखकर भारत में भी इसके विभिन्न प्रकार के उपभोग की संभावना बढ़ी है, यद्यपि वैदिक काल से ही भारत में दवा और इमारती कार्य में इसका उपयोग किया जा रहा है। खाद्य-पदार्थ के रूप में, लघु एवं कुटीर उद्योग, पैकिंग उद्योग, कागज उद्योग इत्यादि क्षेत्रों में भी इसका उपयोग हो रहा है।
एक अनुमान के अनुसार रामायण में संजीवनी के रूप में जिस जड़ी का उल्लेख है, वह बांस से ही प्राप्त हुई थी। वैदिक काल से इसका उपयोग दमा, खांसी व हड्डी जोड़ने के सहायक के रूप में किया जाता है। चरक और सुश्रुति ने भी बांस को विभिन्न आयुर्वेदिक दवाओं के रूप में प्रयुक्त किए जाने का उल्लेख किया है। चाइनीज एक्यूपंचर में भी बांस का प्रयोग होता है। बांस के स्राव को कड़ा करके दमा व खांसी का इलाज किया जाता है। इसका एक कमोत्तेजक औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसी से वंशलोचन नामक एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक औषधि भी प्राप्त होती है। संभवतः इसीलिए भारतीय परंपरा में निःसंतान दंपति बांसेश्वर भगवान की पूजा बांस के प्रतीक के रूप में करते हैं। चीन में काले बांस की जड़ से गुर्दे की बीमारी का इलाज किया जाता है। इसके रस से बुखार दूर किया जाता है। गाँवों में पशु चिकित्सा में बांस की पत्ती का प्रमुखता से उपयोग किया जाता है। मादा पशुओं को प्रसव के समय बांस की पत्तियाँ खिलाई जाती हैं। वर्तमान में इसके अन्य विविध बीमारियों के इलाज में प्रयुक्त होने के संबंध में अनुसंधान चल रहा है।
बांस का प्रयोग पेय एवं खाद्य पदार्थ बनाने में प्रमुखता के साथ किया जाता है। आज बांस का जूस अपने आयुर्वेदिक गुणों के कारण लोकप्रिय है। बांस के पत्तों से निर्मित यह गहरे भूरे रंग का द्रव्य है, जिसे निकालने व साफ करने में उच्च श्रेणी की तकनीकी का उपयोग किया जाता है। इस जूस में फेनोल एसिड, फ्लैवोनौयडस, इन्नर इस्टर्स, एंथ्राक्वीनोन्स, पॉलीसक्कारइड्, अमीनोएसिड, पेप्टासाइड्स, मैंगनीज, जिंक और सेलेनियम जैसे सक्रिय यौगिक पाये जाते हैं। डिब्बे में आकर्षक पैकिंग में ये जूस चीन, हांगकांग और जापान के रेस्टोरेंट में प्रचुरता से मिलते हैं। इसी तरह बांस के पत्ते को बीयर बनाते समय उसमें मिलाने से बांस का बीयर तैयार होता है। ध्यातव्य है कि बांस की पत्तियाँ बहुत गरम होती हैं। अधिक समय तक इसके सेवन से खून में लिपिड की मात्रा घटती है, हृदय मजबूत होता है और इंसान की उम्र बढ़ती है।
बांस की जड़ में भूमिगत कंद (राइजोम) ही बांस का नया तना निकलता है, जिसे बांस का शूट कहा जाता है। इसे सतह पर दिखते ही काट लिया जाता है। इसे ताजा या प्रोसेस करके खाया जाता है। सूखे हुए व ताजे शूट वैसे ही स्वाद लेकर खाए जाते हैं, जबकि इसको लंबे समय तक उपयोग में लाने हेतु स्वादिष्ट अचार भी बनाया जाता है। ताजे बांस का शूट कुरकुरा व मीठा होता है। इस शूट में प्याज के बराबर पौष्टिक तत्व उपलब्ध रहता है। इसमें फाइबर की मात्रा भी प्रचुरता में होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार बांस के शूट कैंसर रोकने में भी प्रभावी होते हैं। अपने इन्हीं गुणों के कारण यह दक्षिण-एशियाई देशों में पर्याप्त लोकप्रिय है। इसमें विटामिन, सेल्युलोज, अमीनो अम्ल, और अन्य तत्व प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। इसके उपभोग से भूख बढ़ती है, रक्तचाप व कोलेस्ट्राल घटाने में भी सहायता मिलती है। बांस के शूट में 90 प्रतिशत पानी होता है और इसकी अच्छ पैदावार के लिए पर्याप्त पानी की आवश्यकता होती है। बांस का शूट ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकता है। वर्षा ऋतु में जब अन्य फसलों की पैदावार नहीं होती, तब यह ग्रामीणों के अतिरिक्त रोजगार का विकल्प बनकर उनकी आमदनी बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
भारत में उपलब्ध बांसों की अधिकतर किस्मों के शूट खाने योग्य होते हैं। यद्यपि बड़े शूट का 40 से 50 प्रतिशत हिस्सा ही खाने योग्य होता है और छोटे शूट में यह मात्रा और घट जाती है। शूट का आकार व कड़वाहट विभिन्न किस्मों में अलग-अलग होते हैं। शूट के उत्पादन के आधार पर बांस की किस्मों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है। एक क्लंपिंग और दूसरा रनिंग। क्लंपिंग किस्म के बांसों के शूट की पैदावार मई के बाद, जबकि रनिंग किस्म की पैदावार वसंत ऋतु में होती है। शूट उत्पादित करने वाली बांस की किस्में भारत के सभी राज्यों में पाई जाती हैं। अतः इसके व्यावसायिक उपयोग के लिए शूट प्रोसेसिंग यूनिट सभी स्थानों पर आसानी से स्थापित हो सकती हैं। इस रूप में बांस का शूट कच्चे बांस की तुलना में अधिक आमदनी का साधन हो सकता है। देश के पूर्वोत्तर भाग में रहने वाली जन-जातियाँ बांस के शूट व बीजों को नियमित रूप से खाती हैं और वहाँ के बाजारों में इनकी पर्याप्त माँग भी रहती है।
भवन निर्माण में बांस बहुत लोकप्रिय है। गाँव में यह लोहे/इस्पात का महत्त्वपूर्ण विकल्प है। अपने लचीलेपन और मनचाहे आकार में काटने की सुगमता के कारण इसका उपयोग टट्टर, छप्पर व खपरैल के घरों में प्रचुरता के साथ किया जाता है। जापान में लोग बांस से ही संपूर्ण मकान बना लेते हैं, जो वहाँ के नित्य प्रति के भूकंपों के झटको के खतरे से बचे रहने में सहायक होते हैं। ऊंची इमारतों को बनाने में बांस का ढाँचा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यद्यपि स्टील के ढांचे की तुलना में यह कम टिकाऊ होता है, लेकिन स्टील के मुकाबले इसमें लागत केवल छह प्रतिशत आती है साथ ही इसे लगाने व हटाने में सुगमता है। बांस के ढांचे को और टिकाऊ तथा उपयोगी बनाने के लिए इसे तकनीकी रूप से अधिक विकसित किया जाना चाहिए। संप्रति 13.47 मिलियन टन बांस की खपत की तुलना में 3.4 मिलियन टन का उपयोग ही मकान बनाने में होता है।
भारत के पूर्वोत्तर राज्यों सहित अनेक भागों में बांस के लट्ठे का उपयोग नदियों पर पुल बनाने में भी किया जाता है। सदियों से बांस का इस्तेमाल घरों के खिड़की-दरवाजे बनाने के लिए भी हो रहा है। पर्यावरण मित्र घर के रूप में बांस का विकल्प प्लास्टिक, स्टील और सीमेंट के स्थान पर महत्त्वपूर्ण है। मजबूत इमारती सामान होने के कारण भवन-निर्माण के कई पहलुओं में बांस का उपयोग हो सकता है, जैसे छतों को सहारा देने वाला ढाँचा, छत तैयार करने के लिए बांस की नालीदार चादर, बांस की जाली, बांस के बोर्ड (जिसका उपयेाग पार्टीशन व पैनल बनाने में किया जाता है), खिड़की-दरवाजों की चौखट एवं शटर, फ्लोरिंग टाइल्स, प्रारंभिक ढाँचा, पुल व सीढि़याँ इत्यादि।
उद्योगों में बांस का महत्त्वपूर्ण उपयोग कागज-उद्योग में किया जा रहा है। बांस की बनी लुगदी कागज-उद्योग को नया आधर प्रदान कर रही है। इसके अतिरिक्त अन्य लघु व घरेलू उद्योग में इसका बेहतरीन उपयोग किया जा सकता है। बांस को चीरकर छोटी-छोटी तीलियां बनाकर उसका उपयोग अगरबत्ती, पेंसिल, माचिस, टूथ-पिक, चॉपस्टिक्स आदि में किया जा सकता है। अगरबत्ती उद्योग का तो बांस महत्त्वपूर्ण आधार है। इसका केंद्र कर्नाटक है। इस उद्योग का बाजार 1800 करोड़ रुपए का है, जिसकी प्रतिवर्ष वृद्धि-दर 20 प्रतिशत है। अगरबत्ती का उत्पादन प्रतिवर्ष एक मिलियन टन होता है। एक किलो अगरबत्ती के निर्माण में बांस का उपयोग 7 से 8 प्रतिशत होता है और पूरे अगरबत्ती उद्योग में बांस का योगदान लगभग 135 करोड़ रुपए का है।
लगभग एक मिलियन टन बांस का प्रयोग आइसक्रीम, पतंग, पटाखे, लाठी-डंडे, मछली पकड़ने वाले उपकरण, टोपियाँ, टोकरियाँ, चटाइयाँ, कुर्सियाँ, पंखे, बांसुरी, खिलौने इत्यादि में किया जाता है। संप्रति इसमें बांस की खपत 40 करोड़ है, जबकि अच्छे तकनीक का उपयोग कर इसका बाजार 186 करोड़ रुपए तक बढ़ाया जा सकता है। पेंसिल उद्योग इस समय 800 करोड़ रुपए का है। इसमें पाँच बड़ी कंपनियाँ लगी है, जिसमें हिंदुस्तान पेंसिल का बाजार के 80 प्रतिशत भाग पर कब्जा है। सरकार के प्रोत्साहन व उच्च तकनीक का उपयोग कर बड़ी आसानी से लकड़ी की जगह बांस का प्रयोग किया जा सकता है।
स्वतंत्रता के समय तक माचिस-उद्योग पर विदेशी कंपनियों का एकाधिकार था, लेकिन सरकार के प्रोत्साहन व खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन (KVIC) के सहयोग से माचिस-उद्योग के क्षेत्र में कई कुटीर उद्योग की इकाइयाँ स्थापित हुईं। इस समय देश का 70 प्रतिशत उत्पादन कुटीर-उद्योग के सहारे है, जिसकी आर्थिक सहभागिता 80 करोड़ रुपए की है। माचिस की तीलियाँ लकड़ी की बनती हैं, लेकिन इसके लिए बांस महत्त्वपूर्ण विकल्प हो सकता है। आई.पी.आई.आर.टी.आई. (IPIRTI) ने बांस के परखच्चे से तीली बनाने की तकनीक विकसित की है, जो सभी आवश्यक मानकों पर खरी उतरी है।
पैकेजिंग-उद्योग में बांस को अभी भी दोयम दर्जे का माना जाता है। इसके दो कारण हैं : पहला, यह लकड़ी के मुकाबले महंगा होता है और दूसरा, कील ठोंकते ही फट जाता है, फिर भी उत्कृष्ट तकनीक का उपयोग कर इसका पैकेजिंग-उद्योग में आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है।
पूर्वोत्तर क्षेत्र में बांस आकर्षक हस्तशिल्प उद्योग के रूप में विकसित हो चुका है।
बांस एक पर्यावरण हितैषी पौधा है। यह बहुत ही परिवर्तनशील है। इसे विकसित होने में बहुत कम समय लगता है। इसे 3 से 5 साल का होने पर काट सकते हैं, जबकि अन्य पेड़ 25 से 50 साल का होने पर ही उपयोगी हो पाते हैं। यह धरती के सबसे तेजी से बढ़ने वाला पौधा है। इसकी कुछ प्रजातियाँ एक दिन में 8 से.मी. से 40 से.मी. तक बढ़ती देखी गई हैं। बढ़वार का विश्व रिकॉर्ड एक जापानी किस्म के बांस ने बनाया है, जिसने मात्र 24 घंटे में लगभग सवा मीटर की बढ़वार दिखाई। तीव्र वृद्धि के कारण लकड़ी की तुलना में इसका उत्पादन 25 गुना अधिक होता हैं। बांस की कटाई और तीन महीने के अंदर पुनः तैयार होने से पर्यावरण पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता। बांस के बागानों में लगाई गई लागत तीन से पाँच साल में निकल आती है जबकि अन्य वृक्षों में यह अवधि लगभग 15 साल है। बांस की कटाई उसके तने के जड़ से होती है। जड़ से पुनः नया शूट निकलने से उसका थोड़े दिन बाद ही व्यावसायिक उपयोग किया जा सकता है।
पर्यावरण संरक्षण में इसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। बांस के पौधे मिट्टी की उपजाऊ ऊपरी परत का संरक्षण करते हैं, क्योंकि इसके आपस में जुड़े हुए भूमिगत कंद भूमि की ऊपरी सतह को अपनी जगह पर मजबूती से संजोए रहते हैं। बांस की लगातार गिरती पत्तियाँ वन भूमि पर चादर-सी फैली रहती हैं, इसलिए नमी का संरक्षण भी रहता है। साथ ही तेज वर्षा के समय ये पत्तियाँ ढाल बनकर भूमि की उपजाऊ ऊपरी परत का संरक्षण करती है। बांस के पौधों में हवा में उपलब्ध कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने की अच्छी क्षमता है। इसके झुरमुट प्रकाश की तीव्रता को कम करते हैं और खतरनाक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा भी प्रदान करते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि बांस के पौधे अन्य वृक्षों के मुकाबले हवा में अधिक ऑक्सीजन छोड़ते हैं। बांस के पौधों में बंजर भूमि को सुधारने की अच्छी क्षमता पाई गई है। बांस के वनों को प्रकृति विज्ञानी कुदरत की प्राकृतिक सफाई प्रणाली का अंग मानते हैं, क्योंकि यह प्रदूषण को पौध-पोषकों में बदल देता है, जिससे मूल्यवान फसलें पनपती हैं। बांस ऊर्जा उत्पादन में भी अपना योगदान करता है। बांस से कागज बनाने से हरे-भरे पेड़-पौधों के विनाश पर रोक लगती है। इस प्रकार हम अनुभव कर सकते हैं कि बांस किस प्रकार पर्यावरण संरक्षण में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहा है।
बांस मजबूत औद्योगिक आधार, पर्यावरण-मित्र तथा आवास-निर्माण के क्षेत्र में इस्पात और प्लास्टिक का अच्छा व किफायती विकल्प होने के साथ-साथ लघु-उद्योगों, हस्तशिल्पों, अगरबत्तियों, चिकित्सा उपयोगों और अन्य तमाम क्षेत्रों में भारी संभावनाओं से परिपूर्ण है। इसके बावजूद भारत में इस उद्योग के संसाधन की उपलब्धता और इसके उपयोग में अधिक सामंजस्य स्थापित नही हो पाया है। इतना महत्त्वपूर्ण व उपयोगी पौधा होने के बावजूद बांस के साथ एक समस्या भी जुड़ी हुई है। यह समस्या बांस के सामूहिक पुष्पन के संबंध में है। आमतौर पर फूल और फल लोगों को खुशहाली, सुख और समृद्धि प्रदान करते हैं, लेकिन बांस पुष्पन, अकाल, दुख और गरीबी का पर्याय समझा जाता है। यद्यपि बांस फूलों के मामले में बहुत कंजूस हैं। इसमें 15-20 साल के अंतराल के बाद ही फूल लगते हैं। कुछ जातियाँ ऐसी भी हैं, जिनमें 120 वर्ष बाद फूल खिलते हैं। लेकिन रोचक तथ्य यह है कि जब बांस के झुरमुट में फूल खिलना आरंभ होता है, तो यह उम्र के किसी भेद-भाव के बिना पूरे झुरमुट में एक साथ खिलता है। इसे ही सामूहिक पुष्पन कहा जाता है। बांस के जीवन में एक बार ही फूल खिलते हैं। फूल खिलने के बाद झुरमुट के सभी वृक्ष एक साथ काल-कवलित भी हो जाते हैं। और इसके बाद शुरू होता है सामूहिक पुष्पन विनाश का चरण। दरअसल सामूहिक पुष्पन के तुरंत बाद पूरे क्षेत्र में बांस के बीज बिखर जाते हैं। बांस के फूल देखने में जई की बाली जैसे होते हैं, जिसमें धान जैसे छोटे-छोटे बीज पाए जाते हैं। बांस के ये बीज चूहों का प्रिय आहार है। इसके खाने से उनकी प्रजनन क्षमता में तीव्र वृद्धि होती है। फलतः चूहों की संख्या तेजी से बढ़ती है। जब बांस का बीज खत्म हो जाता है, तो ये चूहे सीधे किसानों के खेत-खलिहानों पर हल्ला बोल देते हैं। देखते-देखते चूहे सारी फसल और खलिहान नष्ट कर देते हैं। और इसके बाद अकाल और महामारी का दौर शुरू होता है।
बांस के सामूहिक पुष्पन से अभी तक बीसवीं शताब्दी के दो बड़े अकाल पड़ चुके हैं। पहला अकाल 1910-13 के बीच बांस में आए सामूहिक पुष्पन के बाद पड़ा था। दूसरा अकाल 1959 में मिजोरम, त्रिपुरा और असम की बरक घाटी में बांस के सामूहिक पुष्पन के बाद देखा गया था। यह अकाल इतना भयंकर था कि इसने पूर्वोत्तर को विद्रोही बना दिया। मिजो-विद्रोह बांस के इसी सामूहिक पुष्पन के उपरांत बड़े अकाल का परिणाम माना जाता है। अब इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में ही वर्ष 2003-04 से मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर इत्यादि राज्यों में बांस में फूल खिलने लगे हैं, जिससे सरकार से लेकर आम जनता तक चिंतित हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान पुष्पन पूर्वोत्तर के लगभग 18 हजार वर्ग कि.मी. में विस्तृत बांस के झुरमुट में फैलेगा। मौजूदा सामूहिक पुष्पन को मिजो भाषा में मौ-तम कहा जाता है, जबकि 2012 ई. में जिस सामूहिक पुष्पन की आशंका व्यक्त की जा रही है, उसे थिंग-तम नाम दिया गया है। इस समय नीलोकैना बंबूसॉयडीज नामक प्रजाति में पुष्पन हो रहा है और मिजोरम से बांस के फूलने और चूहों की संख्या में वृद्धि की सूचना आने लगी है।
बांस से संबंधित एक भ्रांति इसके अतिज्वलनशील और लकड़ी का विकल्प साबित न होने की है। किंतु वास्तविकता यह है कि लकड़ी के विकल्प के रूप में बांस का प्रयोग आसानी से हो सकता है। लकड़ी का अधिक उपयोग कागज की लुगदी, प्लाइबोर्ड, भवन निर्माण व फर्नीचर में होता है। बेहतर तकनीक से औद्योगिक उत्पादन कर उपर्युक्त क्षेत्रों में आसानी से बांस को विकल्प के रूप में प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बांस मजबूत औद्योगिक आधार, पर्यावरण-मित्र तथा आवास-निर्माण के क्षेत्र में इस्पात और प्लास्टिक का अच्छा व किफायती विकल्प होने के साथ-साथ लघु-उद्योगों, हस्तशिल्पों, अगरबत्तियों, चिकित्सा उपयोगों और अन्य तमाम क्षेत्रों में भारी संभावनाओं से परिपूर्ण है। इसके बावजूद भारत में इस उद्योग के संसाधन की उपलब्धता और इसके उपयोग में अधिक सामंजस्य स्थापित नही हो पाया है। एक व्यावहारिक परेशानी यह है कि बांस की अधिकता तो जंगलों और दूर-दराज के गाँवों के समीप है, जबकि इससे संबंधित जो उद्योग हैं भी, वे विकसित क्षेत्रों में हैं। अतः जंगली क्षेत्रो से उत्पाद केंद्र तक इन्हें ढोकर लाना पर्याप्त महंगा साबित हो जाता है। इसके अतिरिक्त उत्पादन बढ़ाने के लिए प्राकृतिक बांसों के प्रबंधन, इन्हें रोकने के लिए अपेक्षित प्रौद्योगिकी, नई पीढ़ी के उत्पादों का उत्पादन और कच्चे माल की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित कराने की ओर भी कम ध्यान दिया गया है। बांस के विकास में नवीनतम जानकारी की कमी भी एक रुकावट है। उपयोगकर्ता समूह की आवश्यकता के अनुरूप अपेक्षित प्रजातियों के बांस-रोपन को बढ़ाना भी संभव नहीं हो पा रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर भी बांस की विभिन्न प्रजातियों से संबंधित कोई डायरेक्टरी नहीं है।
इन्हीं सब समस्याओं और इसके व्यावसायिक उपयोग को लेकर नई दिल्ली में सातवीं विश्व बांस काँग्रेस का 27 फरवरी 2004 से मार्च 2004 तक, आयोजन किया गया। यह काँग्रेस प्रत्येक तीसरे वर्ष आयोजित होती है। इस काँग्रेस में 200 से ऊपर विदेशी प्रतिनिधियों और लगभग 750 भारतीय प्रतिनिधियों ने भाग लिया। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस विश्व बांस काँग्रेस का उद्घाटन तथा उपराष्ट्रपति श्री भैरो सिंह शेखावत ने इसका समापन किया। दोनों नेताओं ने इस बात पर बल दिया कि आगामी बर्षों में बांस को लकड़ी के विकल्प के रूप में विकसित करने के साथ-साथ इसकी व्यावसायिक संभावनाओं को और बढ़ाया जाए। इस काँग्रेस के साथ-साथ इंडियन हैंडीक्राप्ट व गिफ्ट स्प्रिंग फेयर का भी आयोजन किया गया। इस क्षेत्र से लगभग 6,000 आयातक व खरीददार जुड़े हैं। इन लोगों को भी बांस के विभिन्न उत्पाद और इस व्यवसाय से जुड़े लोगों से संपर्क का अवसर मिला।
इस बांस काँग्रेस में आए प्रतिनिधियों ने बांस से संबंधित ज्वलंत समस्याओं को सामने रखा। इस क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं के समाधान हेतु आपस में सलाह-मशविरा किया। साथ ही इसने अंतरराष्ट्रीय व भारतीय व्यापारियों को एक दूसरे से मिलने का मंच प्रदान किया। इस बांस काँग्रेस में इस बात पर विशेष जोर दिया गया कि लकड़ी के विकल्प के रूप में बांस को किस प्रकार प्रतिस्थापित किया जाए। विश्व बांस काँग्रेस का मुख्य लाभ यह रहा कि इसने निवेशकों, उपयोगकर्ता समूहों और कुशल कलाकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक लांचिंग पैड का काम किया। साथ ही इस बैठक ने इस उभरते उद्योग के विभिन्न साझेदारों और समूहों को वैज्ञानिक रूप से शिक्षित करने और जागरूक बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इस काँग्रेस में बांस के सामूहिक पुष्पन, सामूहिक विनाश और अकाल के संबंध में भी विचार-विमर्श किया गया। विद्वानों ने इससे निपटने के लिए उचित प्रबंधन की आवश्यकता बताई। यह सुझाव दिया गया कि प्रजनन द्वारा बांस के नए पौधे तैयार किए जाएँ और इन्हें पुराने झुरमुट की जगह तुरंत रोप दिया जाए, ताकि वन पारिस्थितिकी पर विपरीत प्रभाव न पड़े। प्रयास यह हो कि इस दौरान वनों से बांस के बीज इकट्ठा कर लिए जाएँ। बाजार में इसकी अच्छी माँग है, जो अतिरिक्त आमदनी का एक महत्त्वपूर्ण आयाम हो सकता है। वैज्ञानिक अध्ययन और उचित प्रबंधन द्वारा इस बात का विशेष ध्यान दिया जाए कि इन पौधों को पुष्पवन का अवसर ही न दिया जाए। एक बार पुष्पन प्रारंभ होने पर अन्य पौधों की पुष्पन पूर्व कटाई करके उनको व्यावसायिक उपयोग में लाया जाए या फिर किसी भी पौधे को 10-12 वर्ष से अधिक बढ़ने ही न दिया जाए। भारतीय वानिकी अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद तथा जोरहाट स्थित इसका सहयोग संस्थान वर्षा वन अनुसंधान को सामूहिक रूप से रणनीति बनाकर स्थानीय आबादी को इसके प्रति जागरूक बनाने का प्रयास करना चाहिए।
इस काँग्रेस के आयोजन का प्रमुख उद्देश्य यह था कि भारत बांस उद्योग के क्षेत्र में औद्योगिक रूप से स्थापित देश के मुकाबले में अपने को तैयार करे। इसीलिए सरकार बांस विकास के क्षेत्र में निजी कंपनियों के निवेश को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत बदलाव लाने की सोच रही है। योजना आयोग सिद्धांत रूप से बांस को बागवानी फसल की सूची में सम्मिलित करने पर सहमत हो गया है। इसका परिणाम यह होगा कि इससे सभी प्रजाति के बांसों के विकास को बढ़ावा मिलेगा। बांस काँग्रेस से यह बात उभरकर आई कि भारत के गाँवों में गरीब व कामगारों के लिए बांस को रोजगार पैदा करने वाले महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में विकसित किया जाए। एक नीति के अनुसार बांस को उगाने व काटने का काम गाँव का आम मजदूर करे व प्रोसेसिंग, उत्पादन एवं वितरण संबंधी अन्य सारी गतिविधियाँ निजी कंपनियाँ तथा उद्योगपति करें। सरकार की भूमिका इन समस्त कार्यों के पर्यवेक्षण की होगी। इस क्षेत्र में रोजगार को बढ़ावा देने के लिए यह सुझाव दिया गया कि वन व अन्य क्षेत्रों में बांस की रोपाई सुनिश्चित की जाए, बांस को केंद्र बनाकर प्लाईवुड उद्योग को पुनः स्थापित किया जाए (सर्वोच्च न्यायालय लकड़ी की बिक्री पर प्रतिबंध लगा चुका है) तथा हस्तकला, कुटीर व लघु उद्योगों का विस्तार किया जाए। एक अनुमान के अनुसार इससे लाखों को रोजगार मिलेगा। इस बार की काँग्रेस बांस विकास के पाँच प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित रही। ये थे—लकड़ी के विकल्प के रूप में बांस को अपनाना, बांस का औद्योगिक बाजार, बांस को बेहतर उत्पाद बनाने की तकनीक, समाज व पर्यावरण पर इसका प्रभाव तथा सूचना एवं संचार का साधन।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यावरण-मित्र के रूप में बांस जहाँ भूमि की जैविक उर्वरा शक्ति को अक्षुण्ण रखकर प्राकृतिक सफाई का कार्य करता है, वहीं लघु, कुटीर एवं हस्तशिल्प उद्योग के क्षेत्र में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास हेतु एक वैकल्पिक आधार प्रदान करता है।
[लेखक कालीचरण डिग्री कॉलेज, लखनऊ में एशियन कल्चर (इतिहास विभाग) विषय के प्रवक्ता हैं।]
भारत में बांस सामान्यतः सर्वत्र उपलब्ध होने वाला पौधा है। ध्यातव्य है कि हमारे देश में लगभग 40,000 हेक्टेयर क्षेत्र में बांस के पर्याप्त विविधता भी पाई जाती है। देश में बांस की 25 से अधिक जातियाँ व लगभग 136 उपजातियाँ पाई जाती हैं जिसमें से 58 केवल पूर्वोत्तर में हैं। इन्हें स्थानीय भाषाओं में नलबांस, देवबांस, रिंगल, नरी, गोबिया, लतंग, खांग, करैल इत्यादि नामों से पुकारा जाता है। बांस उत्पादन के मामले में पूर्वोत्तर प्रमुख है; इसके बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश व कर्नाटक का स्थान आता है। यह हमारे यहाँ जंगलों में बहुलता से उगता है और प्रायः विभिन्न तरह के कार्यों के लिए उपयोग में लाया जाता है। गाँवों में लकड़ी और लोहे के विकल्प को बखूबी पूरा करता है। आज मनुष्य लकड़ी को अपनी आवश्कयता एवं उपभोग की पहली पसंद बनाकर जंगलों एवं वृक्षों की अंधाधुंध कटाई कर रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में अगर हम देखें तो लकड़ी के विकल्प के रूप में बांस पर्यावरण संतुलन में अपनी महती भूमिका निभा सकता है। अभी तक लकड़ी के विकल्प के न होने का रोना रोया जा रहा था, लेकिन वस्तुतः यह विकल्प की अनदेखी करना है। आज हमारे पास बांस की बहुलता है। आवश्यकता है लकड़ी के विकल्प के रूप में इसके उपयोग के संबंध में लोगों को जानकारी देने तथा दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ मानव को इसे अपनाने के लिए प्रेरित करने की।
पारंपरिक रूप से वन्य-जीवन के अभिन्न अंग के रूप में बांस अब हरे सोने में बदल चुका है। इसकी असीम आर्थिक संभावनाओं की गूंज संपूर्ण विश्व में सुनाई पड़ रही है, तभी तो सातवीं विश्व बांस काँग्रेस का आयोजन अपनी संपूर्ण भव्यता के साथ दिनांक 27 फरवरी से 4 मार्च, 2004 तक दिल्ली में किया गया। बांस का विश्व अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान है। अतः बांस के व्यापार में भारत को प्रमुखता से स्थापित करने, व्यापार की संभावनाओं के दोहन करने और भारत को एक गंतव्य देश के रूप में बढ़ावा देने के उद्देश्य से ही सरकार ने काँग्रेस की मेजबानी की। एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में बांस के आंतरिक और बाहरी उपभोग का संयुक्त मूल्य लगभग 10 अरब डालर तक पहुँच जाने की संभावना है। बांस क्षेत्र में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अहम भूमिका है। वर्तमान में चीन का बांस उद्योग 25 हजार करोड़ से अधिक है। योजना के अनुसार भारत का बांस उद्योग लगभग 2043 हजार करोड़ रुपए का है, लेकिन बाजार की संभावना इससे दुगुनी अर्थात 4463 करोड़ रुपए की है। इस क्षेत्र की वृद्धि दर 15 से 20 प्रतिशत की है। इसे देखते हुए ऐसा माना जा रहा है कि आगामी 10 वर्षों में अर्थात 2015 तक यह उद्योग 26 हजार करोड़ रुपए का हो जाएगा, जो चीन के बराबर है। योजनाकारों ने ऐसे संभावित क्षेत्रों का पता लगाया है, जहाँ बांस का बेहतर ढंग से उपयोग किया जा सकता है :
1. शूट (105 करोड़),
2. बोर्ड (1000 करोड़),
3. फ्लोरिंग बोर्ड (200 करोड़),
4. कागज-उद्योग (900 करोड़),
5. भवन-निर्माण (550 करोड़),
6. फर्नीचर (380 करोड़),
7. सड़क निर्माण (274 करोड़),
8. अगरबत्ती, माचिस, आइसक्रीम आदि (200 करोड़)।
संप्रति बांस की माँग 26.67 मिलियन टन की है, जबकि आपूर्ति मात्र 13.47 मिलियन टन ही है। इस आपूर्ति का भी अधिकांश भाग अनावश्यक कार्यों में खप जाता है, जबकि इसके उपयोग के उचित प्रबंधन से इससे कहीं अधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है। प्रबंधन के अभाव में प्रतिहेक्टेयर उत्पादन कम होता है। इसलिए आवश्यकता है एक सुनिश्चित नीति अपनाकर उस पर अमल करने की, जिससे बांस के क्षेत्र में आगे बढ़ा जा सके। बांस के क्षेत्र में अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए ही योजना आयोग ने एक कार्यनीति बनाई है, जिसके अनुसार नेशनल मिशन ऑन बैम्बू टेक्नोलॉजी एंड ट्रेड डेवलपमेंट की स्थापना अप्रैल, 2003 में की गई। इसका प्रमुख कार्य बांस विकास के क्षेत्र में आई रुकावटों को दूर करना है।
बांस पर आधारित उद्योग
भूकंप प्रभावित देश जापान के जन-जीवन में बांस का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसका उपयोग वहाँ भवन-निर्माण से लेकर खान-पान व कुटीर उद्योग में बहुतायत से किया जाता है। इसी को दृष्टि में रखकर भारत में भी इसके विभिन्न प्रकार के उपभोग की संभावना बढ़ी है, यद्यपि वैदिक काल से ही भारत में दवा और इमारती कार्य में इसका उपयोग किया जा रहा है। खाद्य-पदार्थ के रूप में, लघु एवं कुटीर उद्योग, पैकिंग उद्योग, कागज उद्योग इत्यादि क्षेत्रों में भी इसका उपयोग हो रहा है।
दवा के रूप में
एक अनुमान के अनुसार रामायण में संजीवनी के रूप में जिस जड़ी का उल्लेख है, वह बांस से ही प्राप्त हुई थी। वैदिक काल से इसका उपयोग दमा, खांसी व हड्डी जोड़ने के सहायक के रूप में किया जाता है। चरक और सुश्रुति ने भी बांस को विभिन्न आयुर्वेदिक दवाओं के रूप में प्रयुक्त किए जाने का उल्लेख किया है। चाइनीज एक्यूपंचर में भी बांस का प्रयोग होता है। बांस के स्राव को कड़ा करके दमा व खांसी का इलाज किया जाता है। इसका एक कमोत्तेजक औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसी से वंशलोचन नामक एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक औषधि भी प्राप्त होती है। संभवतः इसीलिए भारतीय परंपरा में निःसंतान दंपति बांसेश्वर भगवान की पूजा बांस के प्रतीक के रूप में करते हैं। चीन में काले बांस की जड़ से गुर्दे की बीमारी का इलाज किया जाता है। इसके रस से बुखार दूर किया जाता है। गाँवों में पशु चिकित्सा में बांस की पत्ती का प्रमुखता से उपयोग किया जाता है। मादा पशुओं को प्रसव के समय बांस की पत्तियाँ खिलाई जाती हैं। वर्तमान में इसके अन्य विविध बीमारियों के इलाज में प्रयुक्त होने के संबंध में अनुसंधान चल रहा है।
खाद्य पदार्थ के रूप में
बांस का प्रयोग पेय एवं खाद्य पदार्थ बनाने में प्रमुखता के साथ किया जाता है। आज बांस का जूस अपने आयुर्वेदिक गुणों के कारण लोकप्रिय है। बांस के पत्तों से निर्मित यह गहरे भूरे रंग का द्रव्य है, जिसे निकालने व साफ करने में उच्च श्रेणी की तकनीकी का उपयोग किया जाता है। इस जूस में फेनोल एसिड, फ्लैवोनौयडस, इन्नर इस्टर्स, एंथ्राक्वीनोन्स, पॉलीसक्कारइड्, अमीनोएसिड, पेप्टासाइड्स, मैंगनीज, जिंक और सेलेनियम जैसे सक्रिय यौगिक पाये जाते हैं। डिब्बे में आकर्षक पैकिंग में ये जूस चीन, हांगकांग और जापान के रेस्टोरेंट में प्रचुरता से मिलते हैं। इसी तरह बांस के पत्ते को बीयर बनाते समय उसमें मिलाने से बांस का बीयर तैयार होता है। ध्यातव्य है कि बांस की पत्तियाँ बहुत गरम होती हैं। अधिक समय तक इसके सेवन से खून में लिपिड की मात्रा घटती है, हृदय मजबूत होता है और इंसान की उम्र बढ़ती है।
बांस की जड़ में भूमिगत कंद (राइजोम) ही बांस का नया तना निकलता है, जिसे बांस का शूट कहा जाता है। इसे सतह पर दिखते ही काट लिया जाता है। इसे ताजा या प्रोसेस करके खाया जाता है। सूखे हुए व ताजे शूट वैसे ही स्वाद लेकर खाए जाते हैं, जबकि इसको लंबे समय तक उपयोग में लाने हेतु स्वादिष्ट अचार भी बनाया जाता है। ताजे बांस का शूट कुरकुरा व मीठा होता है। इस शूट में प्याज के बराबर पौष्टिक तत्व उपलब्ध रहता है। इसमें फाइबर की मात्रा भी प्रचुरता में होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार बांस के शूट कैंसर रोकने में भी प्रभावी होते हैं। अपने इन्हीं गुणों के कारण यह दक्षिण-एशियाई देशों में पर्याप्त लोकप्रिय है। इसमें विटामिन, सेल्युलोज, अमीनो अम्ल, और अन्य तत्व प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। इसके उपभोग से भूख बढ़ती है, रक्तचाप व कोलेस्ट्राल घटाने में भी सहायता मिलती है। बांस के शूट में 90 प्रतिशत पानी होता है और इसकी अच्छ पैदावार के लिए पर्याप्त पानी की आवश्यकता होती है। बांस का शूट ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकता है। वर्षा ऋतु में जब अन्य फसलों की पैदावार नहीं होती, तब यह ग्रामीणों के अतिरिक्त रोजगार का विकल्प बनकर उनकी आमदनी बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
भारत में उपलब्ध बांसों की अधिकतर किस्मों के शूट खाने योग्य होते हैं। यद्यपि बड़े शूट का 40 से 50 प्रतिशत हिस्सा ही खाने योग्य होता है और छोटे शूट में यह मात्रा और घट जाती है। शूट का आकार व कड़वाहट विभिन्न किस्मों में अलग-अलग होते हैं। शूट के उत्पादन के आधार पर बांस की किस्मों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है। एक क्लंपिंग और दूसरा रनिंग। क्लंपिंग किस्म के बांसों के शूट की पैदावार मई के बाद, जबकि रनिंग किस्म की पैदावार वसंत ऋतु में होती है। शूट उत्पादित करने वाली बांस की किस्में भारत के सभी राज्यों में पाई जाती हैं। अतः इसके व्यावसायिक उपयोग के लिए शूट प्रोसेसिंग यूनिट सभी स्थानों पर आसानी से स्थापित हो सकती हैं। इस रूप में बांस का शूट कच्चे बांस की तुलना में अधिक आमदनी का साधन हो सकता है। देश के पूर्वोत्तर भाग में रहने वाली जन-जातियाँ बांस के शूट व बीजों को नियमित रूप से खाती हैं और वहाँ के बाजारों में इनकी पर्याप्त माँग भी रहती है।
भवन निर्माण में
भवन निर्माण में बांस बहुत लोकप्रिय है। गाँव में यह लोहे/इस्पात का महत्त्वपूर्ण विकल्प है। अपने लचीलेपन और मनचाहे आकार में काटने की सुगमता के कारण इसका उपयोग टट्टर, छप्पर व खपरैल के घरों में प्रचुरता के साथ किया जाता है। जापान में लोग बांस से ही संपूर्ण मकान बना लेते हैं, जो वहाँ के नित्य प्रति के भूकंपों के झटको के खतरे से बचे रहने में सहायक होते हैं। ऊंची इमारतों को बनाने में बांस का ढाँचा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यद्यपि स्टील के ढांचे की तुलना में यह कम टिकाऊ होता है, लेकिन स्टील के मुकाबले इसमें लागत केवल छह प्रतिशत आती है साथ ही इसे लगाने व हटाने में सुगमता है। बांस के ढांचे को और टिकाऊ तथा उपयोगी बनाने के लिए इसे तकनीकी रूप से अधिक विकसित किया जाना चाहिए। संप्रति 13.47 मिलियन टन बांस की खपत की तुलना में 3.4 मिलियन टन का उपयोग ही मकान बनाने में होता है।
भारत के पूर्वोत्तर राज्यों सहित अनेक भागों में बांस के लट्ठे का उपयोग नदियों पर पुल बनाने में भी किया जाता है। सदियों से बांस का इस्तेमाल घरों के खिड़की-दरवाजे बनाने के लिए भी हो रहा है। पर्यावरण मित्र घर के रूप में बांस का विकल्प प्लास्टिक, स्टील और सीमेंट के स्थान पर महत्त्वपूर्ण है। मजबूत इमारती सामान होने के कारण भवन-निर्माण के कई पहलुओं में बांस का उपयोग हो सकता है, जैसे छतों को सहारा देने वाला ढाँचा, छत तैयार करने के लिए बांस की नालीदार चादर, बांस की जाली, बांस के बोर्ड (जिसका उपयेाग पार्टीशन व पैनल बनाने में किया जाता है), खिड़की-दरवाजों की चौखट एवं शटर, फ्लोरिंग टाइल्स, प्रारंभिक ढाँचा, पुल व सीढि़याँ इत्यादि।
लघु एवं कुटीर उद्योग
उद्योगों में बांस का महत्त्वपूर्ण उपयोग कागज-उद्योग में किया जा रहा है। बांस की बनी लुगदी कागज-उद्योग को नया आधर प्रदान कर रही है। इसके अतिरिक्त अन्य लघु व घरेलू उद्योग में इसका बेहतरीन उपयोग किया जा सकता है। बांस को चीरकर छोटी-छोटी तीलियां बनाकर उसका उपयोग अगरबत्ती, पेंसिल, माचिस, टूथ-पिक, चॉपस्टिक्स आदि में किया जा सकता है। अगरबत्ती उद्योग का तो बांस महत्त्वपूर्ण आधार है। इसका केंद्र कर्नाटक है। इस उद्योग का बाजार 1800 करोड़ रुपए का है, जिसकी प्रतिवर्ष वृद्धि-दर 20 प्रतिशत है। अगरबत्ती का उत्पादन प्रतिवर्ष एक मिलियन टन होता है। एक किलो अगरबत्ती के निर्माण में बांस का उपयोग 7 से 8 प्रतिशत होता है और पूरे अगरबत्ती उद्योग में बांस का योगदान लगभग 135 करोड़ रुपए का है।
लगभग एक मिलियन टन बांस का प्रयोग आइसक्रीम, पतंग, पटाखे, लाठी-डंडे, मछली पकड़ने वाले उपकरण, टोपियाँ, टोकरियाँ, चटाइयाँ, कुर्सियाँ, पंखे, बांसुरी, खिलौने इत्यादि में किया जाता है। संप्रति इसमें बांस की खपत 40 करोड़ है, जबकि अच्छे तकनीक का उपयोग कर इसका बाजार 186 करोड़ रुपए तक बढ़ाया जा सकता है। पेंसिल उद्योग इस समय 800 करोड़ रुपए का है। इसमें पाँच बड़ी कंपनियाँ लगी है, जिसमें हिंदुस्तान पेंसिल का बाजार के 80 प्रतिशत भाग पर कब्जा है। सरकार के प्रोत्साहन व उच्च तकनीक का उपयोग कर बड़ी आसानी से लकड़ी की जगह बांस का प्रयोग किया जा सकता है।
स्वतंत्रता के समय तक माचिस-उद्योग पर विदेशी कंपनियों का एकाधिकार था, लेकिन सरकार के प्रोत्साहन व खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन (KVIC) के सहयोग से माचिस-उद्योग के क्षेत्र में कई कुटीर उद्योग की इकाइयाँ स्थापित हुईं। इस समय देश का 70 प्रतिशत उत्पादन कुटीर-उद्योग के सहारे है, जिसकी आर्थिक सहभागिता 80 करोड़ रुपए की है। माचिस की तीलियाँ लकड़ी की बनती हैं, लेकिन इसके लिए बांस महत्त्वपूर्ण विकल्प हो सकता है। आई.पी.आई.आर.टी.आई. (IPIRTI) ने बांस के परखच्चे से तीली बनाने की तकनीक विकसित की है, जो सभी आवश्यक मानकों पर खरी उतरी है।
पैकेजिंग-उद्योग में बांस को अभी भी दोयम दर्जे का माना जाता है। इसके दो कारण हैं : पहला, यह लकड़ी के मुकाबले महंगा होता है और दूसरा, कील ठोंकते ही फट जाता है, फिर भी उत्कृष्ट तकनीक का उपयोग कर इसका पैकेजिंग-उद्योग में आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है।
पूर्वोत्तर क्षेत्र में बांस आकर्षक हस्तशिल्प उद्योग के रूप में विकसित हो चुका है।
पर्यावरण और बांस
बांस एक पर्यावरण हितैषी पौधा है। यह बहुत ही परिवर्तनशील है। इसे विकसित होने में बहुत कम समय लगता है। इसे 3 से 5 साल का होने पर काट सकते हैं, जबकि अन्य पेड़ 25 से 50 साल का होने पर ही उपयोगी हो पाते हैं। यह धरती के सबसे तेजी से बढ़ने वाला पौधा है। इसकी कुछ प्रजातियाँ एक दिन में 8 से.मी. से 40 से.मी. तक बढ़ती देखी गई हैं। बढ़वार का विश्व रिकॉर्ड एक जापानी किस्म के बांस ने बनाया है, जिसने मात्र 24 घंटे में लगभग सवा मीटर की बढ़वार दिखाई। तीव्र वृद्धि के कारण लकड़ी की तुलना में इसका उत्पादन 25 गुना अधिक होता हैं। बांस की कटाई और तीन महीने के अंदर पुनः तैयार होने से पर्यावरण पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता। बांस के बागानों में लगाई गई लागत तीन से पाँच साल में निकल आती है जबकि अन्य वृक्षों में यह अवधि लगभग 15 साल है। बांस की कटाई उसके तने के जड़ से होती है। जड़ से पुनः नया शूट निकलने से उसका थोड़े दिन बाद ही व्यावसायिक उपयोग किया जा सकता है।
पर्यावरण संरक्षण में इसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। बांस के पौधे मिट्टी की उपजाऊ ऊपरी परत का संरक्षण करते हैं, क्योंकि इसके आपस में जुड़े हुए भूमिगत कंद भूमि की ऊपरी सतह को अपनी जगह पर मजबूती से संजोए रहते हैं। बांस की लगातार गिरती पत्तियाँ वन भूमि पर चादर-सी फैली रहती हैं, इसलिए नमी का संरक्षण भी रहता है। साथ ही तेज वर्षा के समय ये पत्तियाँ ढाल बनकर भूमि की उपजाऊ ऊपरी परत का संरक्षण करती है। बांस के पौधों में हवा में उपलब्ध कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने की अच्छी क्षमता है। इसके झुरमुट प्रकाश की तीव्रता को कम करते हैं और खतरनाक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा भी प्रदान करते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि बांस के पौधे अन्य वृक्षों के मुकाबले हवा में अधिक ऑक्सीजन छोड़ते हैं। बांस के पौधों में बंजर भूमि को सुधारने की अच्छी क्षमता पाई गई है। बांस के वनों को प्रकृति विज्ञानी कुदरत की प्राकृतिक सफाई प्रणाली का अंग मानते हैं, क्योंकि यह प्रदूषण को पौध-पोषकों में बदल देता है, जिससे मूल्यवान फसलें पनपती हैं। बांस ऊर्जा उत्पादन में भी अपना योगदान करता है। बांस से कागज बनाने से हरे-भरे पेड़-पौधों के विनाश पर रोक लगती है। इस प्रकार हम अनुभव कर सकते हैं कि बांस किस प्रकार पर्यावरण संरक्षण में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहा है।
बांस मजबूत औद्योगिक आधार, पर्यावरण-मित्र तथा आवास-निर्माण के क्षेत्र में इस्पात और प्लास्टिक का अच्छा व किफायती विकल्प होने के साथ-साथ लघु-उद्योगों, हस्तशिल्पों, अगरबत्तियों, चिकित्सा उपयोगों और अन्य तमाम क्षेत्रों में भारी संभावनाओं से परिपूर्ण है। इसके बावजूद भारत में इस उद्योग के संसाधन की उपलब्धता और इसके उपयोग में अधिक सामंजस्य स्थापित नही हो पाया है। इतना महत्त्वपूर्ण व उपयोगी पौधा होने के बावजूद बांस के साथ एक समस्या भी जुड़ी हुई है। यह समस्या बांस के सामूहिक पुष्पन के संबंध में है। आमतौर पर फूल और फल लोगों को खुशहाली, सुख और समृद्धि प्रदान करते हैं, लेकिन बांस पुष्पन, अकाल, दुख और गरीबी का पर्याय समझा जाता है। यद्यपि बांस फूलों के मामले में बहुत कंजूस हैं। इसमें 15-20 साल के अंतराल के बाद ही फूल लगते हैं। कुछ जातियाँ ऐसी भी हैं, जिनमें 120 वर्ष बाद फूल खिलते हैं। लेकिन रोचक तथ्य यह है कि जब बांस के झुरमुट में फूल खिलना आरंभ होता है, तो यह उम्र के किसी भेद-भाव के बिना पूरे झुरमुट में एक साथ खिलता है। इसे ही सामूहिक पुष्पन कहा जाता है। बांस के जीवन में एक बार ही फूल खिलते हैं। फूल खिलने के बाद झुरमुट के सभी वृक्ष एक साथ काल-कवलित भी हो जाते हैं। और इसके बाद शुरू होता है सामूहिक पुष्पन विनाश का चरण। दरअसल सामूहिक पुष्पन के तुरंत बाद पूरे क्षेत्र में बांस के बीज बिखर जाते हैं। बांस के फूल देखने में जई की बाली जैसे होते हैं, जिसमें धान जैसे छोटे-छोटे बीज पाए जाते हैं। बांस के ये बीज चूहों का प्रिय आहार है। इसके खाने से उनकी प्रजनन क्षमता में तीव्र वृद्धि होती है। फलतः चूहों की संख्या तेजी से बढ़ती है। जब बांस का बीज खत्म हो जाता है, तो ये चूहे सीधे किसानों के खेत-खलिहानों पर हल्ला बोल देते हैं। देखते-देखते चूहे सारी फसल और खलिहान नष्ट कर देते हैं। और इसके बाद अकाल और महामारी का दौर शुरू होता है।
बांस के सामूहिक पुष्पन से अभी तक बीसवीं शताब्दी के दो बड़े अकाल पड़ चुके हैं। पहला अकाल 1910-13 के बीच बांस में आए सामूहिक पुष्पन के बाद पड़ा था। दूसरा अकाल 1959 में मिजोरम, त्रिपुरा और असम की बरक घाटी में बांस के सामूहिक पुष्पन के बाद देखा गया था। यह अकाल इतना भयंकर था कि इसने पूर्वोत्तर को विद्रोही बना दिया। मिजो-विद्रोह बांस के इसी सामूहिक पुष्पन के उपरांत बड़े अकाल का परिणाम माना जाता है। अब इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में ही वर्ष 2003-04 से मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर इत्यादि राज्यों में बांस में फूल खिलने लगे हैं, जिससे सरकार से लेकर आम जनता तक चिंतित हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान पुष्पन पूर्वोत्तर के लगभग 18 हजार वर्ग कि.मी. में विस्तृत बांस के झुरमुट में फैलेगा। मौजूदा सामूहिक पुष्पन को मिजो भाषा में मौ-तम कहा जाता है, जबकि 2012 ई. में जिस सामूहिक पुष्पन की आशंका व्यक्त की जा रही है, उसे थिंग-तम नाम दिया गया है। इस समय नीलोकैना बंबूसॉयडीज नामक प्रजाति में पुष्पन हो रहा है और मिजोरम से बांस के फूलने और चूहों की संख्या में वृद्धि की सूचना आने लगी है।
बांस से संबंधित एक भ्रांति इसके अतिज्वलनशील और लकड़ी का विकल्प साबित न होने की है। किंतु वास्तविकता यह है कि लकड़ी के विकल्प के रूप में बांस का प्रयोग आसानी से हो सकता है। लकड़ी का अधिक उपयोग कागज की लुगदी, प्लाइबोर्ड, भवन निर्माण व फर्नीचर में होता है। बेहतर तकनीक से औद्योगिक उत्पादन कर उपर्युक्त क्षेत्रों में आसानी से बांस को विकल्प के रूप में प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बांस मजबूत औद्योगिक आधार, पर्यावरण-मित्र तथा आवास-निर्माण के क्षेत्र में इस्पात और प्लास्टिक का अच्छा व किफायती विकल्प होने के साथ-साथ लघु-उद्योगों, हस्तशिल्पों, अगरबत्तियों, चिकित्सा उपयोगों और अन्य तमाम क्षेत्रों में भारी संभावनाओं से परिपूर्ण है। इसके बावजूद भारत में इस उद्योग के संसाधन की उपलब्धता और इसके उपयोग में अधिक सामंजस्य स्थापित नही हो पाया है। एक व्यावहारिक परेशानी यह है कि बांस की अधिकता तो जंगलों और दूर-दराज के गाँवों के समीप है, जबकि इससे संबंधित जो उद्योग हैं भी, वे विकसित क्षेत्रों में हैं। अतः जंगली क्षेत्रो से उत्पाद केंद्र तक इन्हें ढोकर लाना पर्याप्त महंगा साबित हो जाता है। इसके अतिरिक्त उत्पादन बढ़ाने के लिए प्राकृतिक बांसों के प्रबंधन, इन्हें रोकने के लिए अपेक्षित प्रौद्योगिकी, नई पीढ़ी के उत्पादों का उत्पादन और कच्चे माल की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित कराने की ओर भी कम ध्यान दिया गया है। बांस के विकास में नवीनतम जानकारी की कमी भी एक रुकावट है। उपयोगकर्ता समूह की आवश्यकता के अनुरूप अपेक्षित प्रजातियों के बांस-रोपन को बढ़ाना भी संभव नहीं हो पा रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर भी बांस की विभिन्न प्रजातियों से संबंधित कोई डायरेक्टरी नहीं है।
इन्हीं सब समस्याओं और इसके व्यावसायिक उपयोग को लेकर नई दिल्ली में सातवीं विश्व बांस काँग्रेस का 27 फरवरी 2004 से मार्च 2004 तक, आयोजन किया गया। यह काँग्रेस प्रत्येक तीसरे वर्ष आयोजित होती है। इस काँग्रेस में 200 से ऊपर विदेशी प्रतिनिधियों और लगभग 750 भारतीय प्रतिनिधियों ने भाग लिया। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस विश्व बांस काँग्रेस का उद्घाटन तथा उपराष्ट्रपति श्री भैरो सिंह शेखावत ने इसका समापन किया। दोनों नेताओं ने इस बात पर बल दिया कि आगामी बर्षों में बांस को लकड़ी के विकल्प के रूप में विकसित करने के साथ-साथ इसकी व्यावसायिक संभावनाओं को और बढ़ाया जाए। इस काँग्रेस के साथ-साथ इंडियन हैंडीक्राप्ट व गिफ्ट स्प्रिंग फेयर का भी आयोजन किया गया। इस क्षेत्र से लगभग 6,000 आयातक व खरीददार जुड़े हैं। इन लोगों को भी बांस के विभिन्न उत्पाद और इस व्यवसाय से जुड़े लोगों से संपर्क का अवसर मिला।
इस बांस काँग्रेस में आए प्रतिनिधियों ने बांस से संबंधित ज्वलंत समस्याओं को सामने रखा। इस क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं के समाधान हेतु आपस में सलाह-मशविरा किया। साथ ही इसने अंतरराष्ट्रीय व भारतीय व्यापारियों को एक दूसरे से मिलने का मंच प्रदान किया। इस बांस काँग्रेस में इस बात पर विशेष जोर दिया गया कि लकड़ी के विकल्प के रूप में बांस को किस प्रकार प्रतिस्थापित किया जाए। विश्व बांस काँग्रेस का मुख्य लाभ यह रहा कि इसने निवेशकों, उपयोगकर्ता समूहों और कुशल कलाकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक लांचिंग पैड का काम किया। साथ ही इस बैठक ने इस उभरते उद्योग के विभिन्न साझेदारों और समूहों को वैज्ञानिक रूप से शिक्षित करने और जागरूक बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इस काँग्रेस में बांस के सामूहिक पुष्पन, सामूहिक विनाश और अकाल के संबंध में भी विचार-विमर्श किया गया। विद्वानों ने इससे निपटने के लिए उचित प्रबंधन की आवश्यकता बताई। यह सुझाव दिया गया कि प्रजनन द्वारा बांस के नए पौधे तैयार किए जाएँ और इन्हें पुराने झुरमुट की जगह तुरंत रोप दिया जाए, ताकि वन पारिस्थितिकी पर विपरीत प्रभाव न पड़े। प्रयास यह हो कि इस दौरान वनों से बांस के बीज इकट्ठा कर लिए जाएँ। बाजार में इसकी अच्छी माँग है, जो अतिरिक्त आमदनी का एक महत्त्वपूर्ण आयाम हो सकता है। वैज्ञानिक अध्ययन और उचित प्रबंधन द्वारा इस बात का विशेष ध्यान दिया जाए कि इन पौधों को पुष्पवन का अवसर ही न दिया जाए। एक बार पुष्पन प्रारंभ होने पर अन्य पौधों की पुष्पन पूर्व कटाई करके उनको व्यावसायिक उपयोग में लाया जाए या फिर किसी भी पौधे को 10-12 वर्ष से अधिक बढ़ने ही न दिया जाए। भारतीय वानिकी अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद तथा जोरहाट स्थित इसका सहयोग संस्थान वर्षा वन अनुसंधान को सामूहिक रूप से रणनीति बनाकर स्थानीय आबादी को इसके प्रति जागरूक बनाने का प्रयास करना चाहिए।
इस काँग्रेस के आयोजन का प्रमुख उद्देश्य यह था कि भारत बांस उद्योग के क्षेत्र में औद्योगिक रूप से स्थापित देश के मुकाबले में अपने को तैयार करे। इसीलिए सरकार बांस विकास के क्षेत्र में निजी कंपनियों के निवेश को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत बदलाव लाने की सोच रही है। योजना आयोग सिद्धांत रूप से बांस को बागवानी फसल की सूची में सम्मिलित करने पर सहमत हो गया है। इसका परिणाम यह होगा कि इससे सभी प्रजाति के बांसों के विकास को बढ़ावा मिलेगा। बांस काँग्रेस से यह बात उभरकर आई कि भारत के गाँवों में गरीब व कामगारों के लिए बांस को रोजगार पैदा करने वाले महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में विकसित किया जाए। एक नीति के अनुसार बांस को उगाने व काटने का काम गाँव का आम मजदूर करे व प्रोसेसिंग, उत्पादन एवं वितरण संबंधी अन्य सारी गतिविधियाँ निजी कंपनियाँ तथा उद्योगपति करें। सरकार की भूमिका इन समस्त कार्यों के पर्यवेक्षण की होगी। इस क्षेत्र में रोजगार को बढ़ावा देने के लिए यह सुझाव दिया गया कि वन व अन्य क्षेत्रों में बांस की रोपाई सुनिश्चित की जाए, बांस को केंद्र बनाकर प्लाईवुड उद्योग को पुनः स्थापित किया जाए (सर्वोच्च न्यायालय लकड़ी की बिक्री पर प्रतिबंध लगा चुका है) तथा हस्तकला, कुटीर व लघु उद्योगों का विस्तार किया जाए। एक अनुमान के अनुसार इससे लाखों को रोजगार मिलेगा। इस बार की काँग्रेस बांस विकास के पाँच प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित रही। ये थे—लकड़ी के विकल्प के रूप में बांस को अपनाना, बांस का औद्योगिक बाजार, बांस को बेहतर उत्पाद बनाने की तकनीक, समाज व पर्यावरण पर इसका प्रभाव तथा सूचना एवं संचार का साधन।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यावरण-मित्र के रूप में बांस जहाँ भूमि की जैविक उर्वरा शक्ति को अक्षुण्ण रखकर प्राकृतिक सफाई का कार्य करता है, वहीं लघु, कुटीर एवं हस्तशिल्प उद्योग के क्षेत्र में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास हेतु एक वैकल्पिक आधार प्रदान करता है।
[लेखक कालीचरण डिग्री कॉलेज, लखनऊ में एशियन कल्चर (इतिहास विभाग) विषय के प्रवक्ता हैं।]