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पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया। दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा।
आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है। इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एण्ड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बन्द कर देना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने कहा कि विज्ञान ने अपनी बात रख दी है।
इसमें कोई सन्देह नहीं है। अब नेताओं को कार्रवाई करनी चाहिए। हमारे पास बहुत समय नहीं है। मून ने कहा, जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है। इसके लिए तुरन्त और बड़े पैमाने पर कार्रवाई किए जाने की जरूरत है।
दुनिया भर में मौसम का मिजाज बिगड़ा हुआ है। औद्योगिक क्रान्ति के दुष्परिणामस्वरूप दुनिया भर के लोग प्रकृति का कहर झेलने को मजबूर हैं। 23 साल पहले 1992 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज बना था। तभी से जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों पर चर्चा शुरू हुई, लेकिन अब तक हम इन खतरों से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति पर क्रियान्वयन शुरू नहीं हो पाया है। जो भी निर्णय हुए, केवल सैद्धान्तिक स्तर पर ही टिके हैं। उनका जमीनी धरातल पर उतरना बाकी है।
अनुसन्धानकर्ताओं ने आगाह किया है कि वायु में बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड तथा परमाणु विस्फोटों से होने वाले विकिरण के उच्चतम तापक्रम की रोकथाम की व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र होनी चाहिए अन्यथा विनाश तय है।
नेचर क्लाइमेट चेंज एण्ड अर्थ सिस्टम साइंस डाटा जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार बीते साल के दौरान चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में क्रम से 28, 16 और 11 फीसद की हिस्सेदारी है जबकि भारत का आँकड़ा सात फीसद है। इसमें बताया गया है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत की हिस्सेदारी 1.8 टन है जबकि अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन की प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी क्रम से 17.2 टन, 7.3 और 6.6 टन है। यह रिपोर्ट ब्रिटेन के ईस्ट एंजलिया विश्वविद्यालय के ग्लोबल कार्बन परियोजना द्वारा किए गए एक अध्ययन पर आधारित है।
पिछले कई सालों से क्योटो प्रोटोकॉल की धज्जियाँ उड़ाई गई हैं। कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने के लिए विकसित और विकासशील देशों के बीच अभी तक सहमति नहीं बन पाई है। विकसित देश अपनी जिम्मेदारी विकासशील देशों पर थोपना चाहते हैं। जबकि कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वही है।
ज्याफिजिकल रिसर्च लेटर्स नामक शोध-पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार धरती का तापमान लगातार बढ़ने के कारण ही अण्टार्कटिका और ग्रीनलैण्ड के बाद विश्व में बर्फ के तीसरे सबसे बड़े भण्डार माने जाने वाले कनाडा के ग्लेशियरों पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं। अगर यही हाल रहा तो इन ग्लेशियरों के पिघलने से दुनिया भर के समुद्रों का जलस्तर बढ़ जाएगा।
हिमालय ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहे हैं और 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएँगे। 1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं। परन्तु इस अत्यन्त गम्भीर मुद्दे पर दुनिया बहुत कम चिंतित दिख रही है।
जलवायु परिवर्तन पलायन की बड़ी वजह भी बनने जा रहा है। इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फाॅर माइग्रेशन ने अनुमान लगाया है कि 2050 तक तकरीबन 20 करोड़ लोगों का पलायन जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा। वहीं कुछ और संगठनों का मानना है कि 2050 तक यह संख्या 70 करोड़ तक हो सकती है क्योंकि 2050 तक दुनिया की आबादी बढ़कर 9 अरब तक पहुँच जाने का अनुमान है। इसका मतलब यह है कि उस समय तक दुनिया की कुल आबादी में से आठ फीसदी लोग प्रदूषण की वजह से पलायन की मार झेल रहे होंगे।
टिकाऊ विकास का यह अकेला रास्ता आज भी उतना ही अपरिहार्य है, जितना 23 वर्ष पहले था। आज विश्व की जनसंख्या सात अरब से अधिक हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग और तापमान में वृद्धि लगातार जारी है। जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है और प्राकृतिक संसाधनों के स्रोत सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिन्ताएँ बढ़ रही हैं। इसके बावजूद हमने कथित विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है। टिकाऊ विकास की चुनौती आज भी हमारे सामने बनी हुई है।
पर्यावरण के मुद्दे पर दुनिया भर में सरकारें कितनी संजीदा है और इसको लेकर उन्होंने अब तक क्या किया है इसको समझने के लिए थोड़ा सा फ्लैश बैक में चलते हैं आज से ठीक 23 साल पहले वर्ष 1992 में पृथ्वी के अस्तित्व पर मँडरा रहे संकट और जीवों के सतत् विकास की चिन्ताओं से निपटने के लिए साझी रणनीति बनाने के उद्देश्य से दुनियाभर के नेता ब्राजील के शहर रियो डि जेनेरो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन में एकत्र हुए थे।
दुनिया के 172 देशों के प्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यावरण और विकास के मुद्दों पर आयोजित इस वैश्विक सम्मेलन में शिरकत की थी। इस सम्मलेन में जमा हुए पूरी दुनिया के नेता पृथ्वी के अधिक सुरक्षित भविष्य के लिए जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से निपटने के लिए एक महत्वपूर्ण योजना पर सहमत हुए थे। इस सम्मेलन में यूएनएफसीसीसी- यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेटिक चेंज पर सहमति बनी।
पर्यावरण को बचाने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल भी इसी सम्मेलन का परिणाम था। इसमें वे जबरदस्त आर्थिक विकास और बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं के साथ हमारी धरती के सबसे मूल्यवान संसाधनों जमीन, हवा और पानी के संरक्षण का सन्तुलन बनाना चाहते थे। इस बात को लेकर सभी सहमत थे कि इसका एक ही रास्ता है - पुराना आर्थिक मॉडल तोड़कर नया मॉडल खोजा जाए। उन्होंने इसे टिकाऊ विकास का नाम दिया था। दो दशक बाद हम फिर भविष्य के मोड़ पर खड़े हैं।
मानवता के सामने आज भी वही चुनौतियाँ हैं, अब उनका आकार और भी बड़ा हो गया है। 23 साल बाद यह संकल्प पूरा होता नहीं दिखाई देता। जिसकी वजह से दुनिया के शीर्ष नेताओं ने रियो डि जेनेरो में पृथ्वी सम्मेलन में भागीदारी की थी।
बीते साल फिर लीमा में ऐसा ही सम्मेलन हुआ ड्राफ्ट बने, घोषणाएँ हुई लेकिन वास्तविक धरातल पर कुछ नहीं हुआ। असली बात यह है कि अमेरिका सहित कई विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश अपने उद्योग-धन्धों की रफ्तार कम करें और कार्बन उत्सर्जन के स्तर को तेजी से नीचे लेकर आएँ। जबकि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन कटौती के मामले में अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहें हैं।
वर्तमान आर्थिक नीतियों ने विश्व की जनसंख्या के साथ मिलकर पृथ्वी की नाज़ुक परिस्थिति पर अभूतपूर्व दबाव डाला है। जिसकी वजह से अब हमें यह मानना ही होगा कि सब कुछ जलाकर और खपाकर हम सम्पन्नता के रास्ते पर नहीं बढ़ते रह सकते। इसके बावजूद हमने उस सहज समाधान को अपनाया नहीं है। टिकाऊ विकास का यह अकेला रास्ता आज भी उतना ही अपरिहार्य है, जितना 23 वर्ष पहले था।
आज विश्व की जनसंख्या सात अरब से अधिक हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग और तापमान में वृद्धि लगातार जारी है। जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है और प्राकृतिक संसाधनों के स्रोत सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिन्ताएँ बढ़ रही हैं। इसके बावजूद हमने कथित विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है। टिकाऊ विकास की चुनौती आज भी हमारे सामने बनी हुई है।
जलवायु परिवर्तन और कार्बन उत्सर्जन को लेकर पेरू की राजधानी लीमा में बीते साल 1 दिसम्बर से 14 दिसम्बर 2014 तक 194 देशों के प्रतिनिधि पर्यावरण के बदलाव पर चर्चा करने के लिए जमा हुए थे। 12 दिसम्बर तक निर्धारित ये सम्मेलन समय से दो दिन अधिक चला। भारत समेत 194 देशों ने वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के राष्ट्रीय संकल्पों के लिए आम सहमति वाला प्रारूप स्वीकार कर लिया, जिसमें भारत की चिन्ताओं का समाधान किया गया है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के मुकाबले के लिए पेरिस में होने वाले एक नए महत्वाकांक्षी और बाध्यकारी करार पर हस्ताक्षर का रास्ता साफ हो गया।
इस शिखर सम्मेलन का आयोजन युनाइडेट नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेंट चेंज (यूएनएफसीसीसी) द्वारा किया गया था जिसमें दुनिया भर के राजनीतिज्ञों, राजनयिक, जलवायु कार्यकर्ता और पत्रकारों ने भाग लिया। इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य नई जलवायु परिवर्तन सन्धि के लिए मसौदा तैयार करना था, ताकि पेरिस में होने वाली वार्ता में सभी देश सन्धि पर हस्ताक्षर कर सकें और हर देश को कानूनी रूप से बाध्य एक सन्धि के लिए राजी करना था, ताकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घट सके और 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल को नए मसौदे से बदला जा सके।
इस नए समझौते की मूल बात यह है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों पर डाल दी गई है। इसके पहले 1997 में हुई क्योटो सन्धि में उत्सर्जन में कटौती की ज़िम्मेदारी केवल अमीर देशों पर डाली गई थी। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण प्रमुख क्रिस्टियाना फिगुरेज ने कहा कि लीमा में अमीर और गरीब दोनों तरह के देशों की जिम्मेदारी तय करने का नया तरीका खोजा गया है। यह बड़ी सफलता है।
इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर धनी देशों पर दबाव बढ़ाते हुए भारत ने कहा है कि दुनियाभर में गरीबों के विकास की खातिर विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। भारत ने जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना करने को विकासशील देशों की मदद के लिए विकसित राष्ट्रों से प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण व वित्तीय मदद देने की माँग भी की।
पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने साफ कहा कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के सम्बन्ध में भारत ने समय सीमा स्वीकार नहीं किया। हालांकि भारत ने खुद ही कई ऐसे कदम उठाए हैं जिससे जलवायु परिवर्तन को थामा जा सकेगा। जावड़ेकर ने कहा कि विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन भारत के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। ऐसे में इन देशों को अपने उत्सर्जन में कटौती करनी चाहिए।
वैसे भी भारत सहित विकासशील देशों में गरीबों की संख्या अधिक है, उन्हें विकास की जरूरत है। इसलिए विकासशील देश अपने उत्सर्जन में कटौती नहीं कर सकते। अमेरिका और चीन की तरह भारत अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कोई समय सीमा भी तय नहीं करेगा। फिलहाल भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन चीन की अपेक्षा काफी कम है।
अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर अक्सर आमने-सामने नजर आने वाले विकसित और विकासशील देश एक बार फिर इसी मुद्रा में नजर आए । लीमा में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में शिरकत कर रहे देश मोटे तौर पर दो धड़ों में बँट गए। एक तरफ विकसित देशों के धड़े में यूरोपीय संघ के देश और जापान खुलकर अपना पक्ष रख रहे थे वहीं दूसरी तरफ ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन ने भी बेसिक के नाम से यहाँ अपना अलग मंच बना लिया।
लीमा शिखर सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद और विवाद एक बार फिर खुल कर सामने आ गए। जिसकी वजह से सम्मेलन में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हुई। सारे वार्ताकार अन्ततः इस बात पर सहमत हुए कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए। कार्बन उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है।
1992 में रियो डि जेनेरो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक कोई भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी। आज जरुरत है ठोस समाधान की, इसके लिए एक निश्चित समय सीमा में लक्ष्य तय होने चाहिए।
पिछले 2 दशक में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 20 जलवायु सम्मेलन हो चुके हैं लेकिन अब तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर पेरिस में होने वाली शिखर बैठक में कुछ ठोस नतीजे सामने आए जिससे पूरी दुनिया को राहत मिल सके। वर्तमान परिवेश में आज जरुरत इस बात की है कि हम भविष्य के लिए ऐसा नया रास्ता चुनें जो सम्पन्नता के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं तथा मानव मात्र के कल्याण के बीच सन्तुलन रख सके।
हमें यह बात हमेशा याद रखना होगा कि पृथ्वी हर आदमी की जरूरत को पूरा कर सकती है लेकिन किसी एक आदमी के लालच को नहीं। कुल मिलाकर हमें यह बात अच्छी तरह से समझनी होगी कि पर्यावरण संरक्षण और पूँजीवाद साथ साथ नहीं चल सकता।
आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है। इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एण्ड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बन्द कर देना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने कहा कि विज्ञान ने अपनी बात रख दी है।
इसमें कोई सन्देह नहीं है। अब नेताओं को कार्रवाई करनी चाहिए। हमारे पास बहुत समय नहीं है। मून ने कहा, जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है। इसके लिए तुरन्त और बड़े पैमाने पर कार्रवाई किए जाने की जरूरत है।
कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया
दुनिया भर में मौसम का मिजाज बिगड़ा हुआ है। औद्योगिक क्रान्ति के दुष्परिणामस्वरूप दुनिया भर के लोग प्रकृति का कहर झेलने को मजबूर हैं। 23 साल पहले 1992 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज बना था। तभी से जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों पर चर्चा शुरू हुई, लेकिन अब तक हम इन खतरों से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति पर क्रियान्वयन शुरू नहीं हो पाया है। जो भी निर्णय हुए, केवल सैद्धान्तिक स्तर पर ही टिके हैं। उनका जमीनी धरातल पर उतरना बाकी है।
अनुसन्धानकर्ताओं ने आगाह किया है कि वायु में बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड तथा परमाणु विस्फोटों से होने वाले विकिरण के उच्चतम तापक्रम की रोकथाम की व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र होनी चाहिए अन्यथा विनाश तय है।
नेचर क्लाइमेट चेंज एण्ड अर्थ सिस्टम साइंस डाटा जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार बीते साल के दौरान चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में क्रम से 28, 16 और 11 फीसद की हिस्सेदारी है जबकि भारत का आँकड़ा सात फीसद है। इसमें बताया गया है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत की हिस्सेदारी 1.8 टन है जबकि अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन की प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी क्रम से 17.2 टन, 7.3 और 6.6 टन है। यह रिपोर्ट ब्रिटेन के ईस्ट एंजलिया विश्वविद्यालय के ग्लोबल कार्बन परियोजना द्वारा किए गए एक अध्ययन पर आधारित है।
पिछले कई सालों से क्योटो प्रोटोकॉल की धज्जियाँ उड़ाई गई हैं। कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने के लिए विकसित और विकासशील देशों के बीच अभी तक सहमति नहीं बन पाई है। विकसित देश अपनी जिम्मेदारी विकासशील देशों पर थोपना चाहते हैं। जबकि कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वही है।
ज्याफिजिकल रिसर्च लेटर्स नामक शोध-पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार धरती का तापमान लगातार बढ़ने के कारण ही अण्टार्कटिका और ग्रीनलैण्ड के बाद विश्व में बर्फ के तीसरे सबसे बड़े भण्डार माने जाने वाले कनाडा के ग्लेशियरों पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं। अगर यही हाल रहा तो इन ग्लेशियरों के पिघलने से दुनिया भर के समुद्रों का जलस्तर बढ़ जाएगा।
हिमालय ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहे हैं और 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएँगे। 1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं। परन्तु इस अत्यन्त गम्भीर मुद्दे पर दुनिया बहुत कम चिंतित दिख रही है।
पलायन की बड़ी वजह
जलवायु परिवर्तन पलायन की बड़ी वजह भी बनने जा रहा है। इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फाॅर माइग्रेशन ने अनुमान लगाया है कि 2050 तक तकरीबन 20 करोड़ लोगों का पलायन जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा। वहीं कुछ और संगठनों का मानना है कि 2050 तक यह संख्या 70 करोड़ तक हो सकती है क्योंकि 2050 तक दुनिया की आबादी बढ़कर 9 अरब तक पहुँच जाने का अनुमान है। इसका मतलब यह है कि उस समय तक दुनिया की कुल आबादी में से आठ फीसदी लोग प्रदूषण की वजह से पलायन की मार झेल रहे होंगे।
टिकाऊ विकास का यह अकेला रास्ता आज भी उतना ही अपरिहार्य है, जितना 23 वर्ष पहले था। आज विश्व की जनसंख्या सात अरब से अधिक हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग और तापमान में वृद्धि लगातार जारी है। जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है और प्राकृतिक संसाधनों के स्रोत सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिन्ताएँ बढ़ रही हैं। इसके बावजूद हमने कथित विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है। टिकाऊ विकास की चुनौती आज भी हमारे सामने बनी हुई है।
बातें नहीं, क्रियान्वयन जरूरी
पर्यावरण के मुद्दे पर दुनिया भर में सरकारें कितनी संजीदा है और इसको लेकर उन्होंने अब तक क्या किया है इसको समझने के लिए थोड़ा सा फ्लैश बैक में चलते हैं आज से ठीक 23 साल पहले वर्ष 1992 में पृथ्वी के अस्तित्व पर मँडरा रहे संकट और जीवों के सतत् विकास की चिन्ताओं से निपटने के लिए साझी रणनीति बनाने के उद्देश्य से दुनियाभर के नेता ब्राजील के शहर रियो डि जेनेरो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन में एकत्र हुए थे।
दुनिया के 172 देशों के प्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यावरण और विकास के मुद्दों पर आयोजित इस वैश्विक सम्मेलन में शिरकत की थी। इस सम्मलेन में जमा हुए पूरी दुनिया के नेता पृथ्वी के अधिक सुरक्षित भविष्य के लिए जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से निपटने के लिए एक महत्वपूर्ण योजना पर सहमत हुए थे। इस सम्मेलन में यूएनएफसीसीसी- यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेटिक चेंज पर सहमति बनी।
पर्यावरण को बचाने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल भी इसी सम्मेलन का परिणाम था। इसमें वे जबरदस्त आर्थिक विकास और बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं के साथ हमारी धरती के सबसे मूल्यवान संसाधनों जमीन, हवा और पानी के संरक्षण का सन्तुलन बनाना चाहते थे। इस बात को लेकर सभी सहमत थे कि इसका एक ही रास्ता है - पुराना आर्थिक मॉडल तोड़कर नया मॉडल खोजा जाए। उन्होंने इसे टिकाऊ विकास का नाम दिया था। दो दशक बाद हम फिर भविष्य के मोड़ पर खड़े हैं।
मानवता के सामने आज भी वही चुनौतियाँ हैं, अब उनका आकार और भी बड़ा हो गया है। 23 साल बाद यह संकल्प पूरा होता नहीं दिखाई देता। जिसकी वजह से दुनिया के शीर्ष नेताओं ने रियो डि जेनेरो में पृथ्वी सम्मेलन में भागीदारी की थी।
बीते साल फिर लीमा में ऐसा ही सम्मेलन हुआ ड्राफ्ट बने, घोषणाएँ हुई लेकिन वास्तविक धरातल पर कुछ नहीं हुआ। असली बात यह है कि अमेरिका सहित कई विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश अपने उद्योग-धन्धों की रफ्तार कम करें और कार्बन उत्सर्जन के स्तर को तेजी से नीचे लेकर आएँ। जबकि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन कटौती के मामले में अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहें हैं।
वर्तमान आर्थिक नीतियों ने विश्व की जनसंख्या के साथ मिलकर पृथ्वी की नाज़ुक परिस्थिति पर अभूतपूर्व दबाव डाला है। जिसकी वजह से अब हमें यह मानना ही होगा कि सब कुछ जलाकर और खपाकर हम सम्पन्नता के रास्ते पर नहीं बढ़ते रह सकते। इसके बावजूद हमने उस सहज समाधान को अपनाया नहीं है। टिकाऊ विकास का यह अकेला रास्ता आज भी उतना ही अपरिहार्य है, जितना 23 वर्ष पहले था।
आज विश्व की जनसंख्या सात अरब से अधिक हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग और तापमान में वृद्धि लगातार जारी है। जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है और प्राकृतिक संसाधनों के स्रोत सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिन्ताएँ बढ़ रही हैं। इसके बावजूद हमने कथित विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है। टिकाऊ विकास की चुनौती आज भी हमारे सामने बनी हुई है।
लीमा शिखर सम्मेलन
जलवायु परिवर्तन और कार्बन उत्सर्जन को लेकर पेरू की राजधानी लीमा में बीते साल 1 दिसम्बर से 14 दिसम्बर 2014 तक 194 देशों के प्रतिनिधि पर्यावरण के बदलाव पर चर्चा करने के लिए जमा हुए थे। 12 दिसम्बर तक निर्धारित ये सम्मेलन समय से दो दिन अधिक चला। भारत समेत 194 देशों ने वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के राष्ट्रीय संकल्पों के लिए आम सहमति वाला प्रारूप स्वीकार कर लिया, जिसमें भारत की चिन्ताओं का समाधान किया गया है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के मुकाबले के लिए पेरिस में होने वाले एक नए महत्वाकांक्षी और बाध्यकारी करार पर हस्ताक्षर का रास्ता साफ हो गया।
इस शिखर सम्मेलन का आयोजन युनाइडेट नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेंट चेंज (यूएनएफसीसीसी) द्वारा किया गया था जिसमें दुनिया भर के राजनीतिज्ञों, राजनयिक, जलवायु कार्यकर्ता और पत्रकारों ने भाग लिया। इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य नई जलवायु परिवर्तन सन्धि के लिए मसौदा तैयार करना था, ताकि पेरिस में होने वाली वार्ता में सभी देश सन्धि पर हस्ताक्षर कर सकें और हर देश को कानूनी रूप से बाध्य एक सन्धि के लिए राजी करना था, ताकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घट सके और 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल को नए मसौदे से बदला जा सके।
इस नए समझौते की मूल बात यह है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों पर डाल दी गई है। इसके पहले 1997 में हुई क्योटो सन्धि में उत्सर्जन में कटौती की ज़िम्मेदारी केवल अमीर देशों पर डाली गई थी। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण प्रमुख क्रिस्टियाना फिगुरेज ने कहा कि लीमा में अमीर और गरीब दोनों तरह के देशों की जिम्मेदारी तय करने का नया तरीका खोजा गया है। यह बड़ी सफलता है।
शिखर सम्मेलन में भारत का पक्ष
इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर धनी देशों पर दबाव बढ़ाते हुए भारत ने कहा है कि दुनियाभर में गरीबों के विकास की खातिर विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। भारत ने जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना करने को विकासशील देशों की मदद के लिए विकसित राष्ट्रों से प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण व वित्तीय मदद देने की माँग भी की।
पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने साफ कहा कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के सम्बन्ध में भारत ने समय सीमा स्वीकार नहीं किया। हालांकि भारत ने खुद ही कई ऐसे कदम उठाए हैं जिससे जलवायु परिवर्तन को थामा जा सकेगा। जावड़ेकर ने कहा कि विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन भारत के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। ऐसे में इन देशों को अपने उत्सर्जन में कटौती करनी चाहिए।
वैसे भी भारत सहित विकासशील देशों में गरीबों की संख्या अधिक है, उन्हें विकास की जरूरत है। इसलिए विकासशील देश अपने उत्सर्जन में कटौती नहीं कर सकते। अमेरिका और चीन की तरह भारत अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कोई समय सीमा भी तय नहीं करेगा। फिलहाल भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन चीन की अपेक्षा काफी कम है।
दो धड़ों में बँटी दुनिया
अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर अक्सर आमने-सामने नजर आने वाले विकसित और विकासशील देश एक बार फिर इसी मुद्रा में नजर आए । लीमा में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में शिरकत कर रहे देश मोटे तौर पर दो धड़ों में बँट गए। एक तरफ विकसित देशों के धड़े में यूरोपीय संघ के देश और जापान खुलकर अपना पक्ष रख रहे थे वहीं दूसरी तरफ ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन ने भी बेसिक के नाम से यहाँ अपना अलग मंच बना लिया।
लीमा शिखर सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद और विवाद एक बार फिर खुल कर सामने आ गए। जिसकी वजह से सम्मेलन में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हुई। सारे वार्ताकार अन्ततः इस बात पर सहमत हुए कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए। कार्बन उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है।
शिखर सम्मेलनों के अधूरे लक्ष्य
1992 में रियो डि जेनेरो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक कोई भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी। आज जरुरत है ठोस समाधान की, इसके लिए एक निश्चित समय सीमा में लक्ष्य तय होने चाहिए।
पिछले 2 दशक में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 20 जलवायु सम्मेलन हो चुके हैं लेकिन अब तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर पेरिस में होने वाली शिखर बैठक में कुछ ठोस नतीजे सामने आए जिससे पूरी दुनिया को राहत मिल सके। वर्तमान परिवेश में आज जरुरत इस बात की है कि हम भविष्य के लिए ऐसा नया रास्ता चुनें जो सम्पन्नता के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं तथा मानव मात्र के कल्याण के बीच सन्तुलन रख सके।
हमें यह बात हमेशा याद रखना होगा कि पृथ्वी हर आदमी की जरूरत को पूरा कर सकती है लेकिन किसी एक आदमी के लालच को नहीं। कुल मिलाकर हमें यह बात अच्छी तरह से समझनी होगी कि पर्यावरण संरक्षण और पूँजीवाद साथ साथ नहीं चल सकता।