आर्कटिक में भारतीय वैज्ञानिक अनुसन्धान - एक अवलोकन

Submitted by Editorial Team on Thu, 07/20/2017 - 11:51

आर्कटिक क्षेत्र


भारत का हिमाद्री रिसर्च स्टेशनभारत का हिमाद्री रिसर्च स्टेशनपृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में आर्कटिक वृत (66°33' उत्तर) के उत्तरी क्षेत्र को आर्कटिक कहा जाता है। यह पृथ्वी के लगभग 1/6 भाग पर फैला है। आर्कटिक क्षेत्र के अन्तर्गत पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव, ध्रुव के आसपास का आर्कटिक या उत्तरी ध्रुवीय महासागर और इससे जुड़े आठ आर्कटिक देशों कनाडा, ग्रीनलैंड, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका (अलास्का), आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड के भूखण्ड शामिल हैं।

आर्कटिक महासागर


आर्कटिक महासागर आंशिक रूप से साल भर बर्फ की एक विशाल परत से आच्छादित रहता है और शीतकाल के दौरान लगभग पूर्ण रूप से बर्फ से ढँक जाता है। इस महासागर का तापमान और लवणता मौसम के अनुसार बदलती रहती है, क्योंकि इसकी बर्फ पिघलती और जमती रहती है। पाँच प्रमुख महासागरों में से इसकी औसत लवणता सबसे कम है और ग्रीष्म काल में यहाँ की लगभग 50% बर्फ पिघल जाती है।

आर्कटिक पर अधिकार


अन्तरराष्ट्रीय कानूनों के तहत वर्तमान में उत्तरी ध्रुव या आर्कटिक महासागरीय क्षेत्र पर किसी भी देश का अधिकार नहीं है। जिस तरह 1959 की अंटार्कटिक संधि के तहत दक्षिणी ध्रुव अर्थात अंटार्कटिका का प्रयोग अनन्‍य रूप से शान्तिपूर्ण प्रयोजनों के लिये किया जाता है। आर्कटिक के लिये इस तरह की कोई अन्तरराष्ट्रीय व्‍यवस्‍था नहीं है। यह अवश्य है कि इससे संलग्न देश अपनी सीमाओं के 200 समुद्री मील (370 किमी) तक के अनन्य आर्थिक क्षेत्र तक सीमित हैं और इसके आगे के क्षेत्र का प्रशासन इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (आईएसए) के अन्तर्गत आता है।

इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (आईएसए) किंग्स्टन, जमैका में स्थित एक अन्तरसरकारी संस्था है, जिसे दुनिया के अन्तरराष्ट्रीय समुद्र तट क्षेत्रों के सभी खनिज सम्बन्धी गतिविधियों को अन्तरराष्ट्रीय समुद्री कानून के तहत व्यवस्थित एवं नियंत्रित का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। 25 जुलाई 2016 तक अन्तरराष्ट्रीय सीबेड अथॉरिटी के एक सौ अढ़सठ (168) सदस्य हैं, जिनमें से भारत भी एक है।

अन्तरराष्ट्रीय आर्कटिक परिषद


अन्तरराष्ट्रीय आर्कटिक परिषद आठ सदस्य देशों अमेरिका, कनाडा, रूस, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नार्वे और स्वीडन का एक ऐसा अग्रणी अन्तर-सरकारी मंच है, जो आम आर्कटिक मुद्दों पर आर्कटिक राज्यों, आर्कटिक स्वदेशी समुदायों और अन्य आर्कटिक निवासियों के मध्य सहयोग, समन्वयन और बातचीत को बढ़ावा देने के साथ-साथ आर्कटिक में विशेष रूप सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण के मुद्दों पर कार्य करने के लिये प्रतिबद्ध है।

अन्तरराष्ट्रीय आर्कटिक परिषद की स्थापना 1996 में ओटावा घोषणा के तहत की गई थी। इसे आर्कटिक देशज लोगों के आर्थिक एवं सामाजिक और सांस्‍कृतिक कल्‍याण को बढ़ावा देने का कार्य भी सौंपा गया है। इसके छह कार्य समूह हैं (क) आर्कटिक संदूषक कार्य योजना (एसीएपी); (ख) आर्कटिक निगरानी एवं मूल्‍यांकन कार्यक्रम (एएमएपी); (ग) आर्कटिक क्षेत्र के जीव जन्तुओं एवं वनस्‍पतियों का संरक्षण (सीएएफएफ); (घ) आपातकालीन रोकथाम, तत्‍परता एवं प्रत्युत्तर (ईपीपीआर); (ङ.) आर्कटिक समुद्री पर्यावरण का संरक्षण (पीएएमई) और (च) सम्पोषणीय विकास कार्य समूह (एसडीडब्‍ल्‍यूजी)। आर्कटिक परिषद के एजेंडा में पोत परिवहन, समुद्री सीमाओं के विनियमन, तलाशी एवं बचाव की जिम्‍मेदारियों से सम्बन्धित मुद्दे तथा आर्कटिक हिम के पिघलने सम्बन्धी प्रतिकूल प्रभाव को दूर करने के लिये रणनीतियाँ तैयार करने सम्बन्धित मुद्दे भी शामिल होते हैं।

आर्कटिक काउंसिल के स्थायी प्रतिभागियों में अलेउत इंटरनेशनल एसोसिएशन (एआईए), आर्कटिक अथाबास्कन काउंसिल (एएसी), ग्विच 'इन काउंसिल इंटरनेशनल (जीसीआई), इनुइट सरकमपोलर काउंसिल (आईसीसी), रशियन एसोसिएशन ऑफ इण्डीजीनस पीपल्स ऑफ द नार्थ (रैपान) और सामी काउंसिल (एससी) शामिल हैं। अन्तरराष्ट्रीय आर्कटिक परिषद ने अपनी आर्कटिक रेसिलिएंस रिपोर्ट-2016 में आर्कटिक की बर्फ के बुरी तरह पिघलने के आँकड़े विश्व के समक्ष प्रस्तुत किये हैं।

आर्कटिक पर दुनिया भर के शोध


आर्कटिक महासागर की बर्फ का पिघलना विश्व पर्यावरण और जलवायु में बदलाव का मुख्य संकेत माना जा रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी एक ऐसी वैश्विक प्रणाली है, जिसमें समस्त वैज्ञानिक विधाएँ परस्पर सम्बद्ध हैं। अनेक प्रतिष्ठित वैश्विक एजेंसियाँ जैसे अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा, आर्कटिक सर्किल फोरम या आर्कटिक काउंसिल, अमेरिका का नेशनल स्नो एंड आइस डाटा सेंटर (एनएसआईडीसी), कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी का पोलर ओशन फिजिक्स विभाग, जर्मन रिसर्च एजेंसी अल्फ्रेड वागनर इंस्टीट्यूट, फ्रांस का पॉल एमिली विक्टर पोलर इंस्टीट्यूट, यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो बाउल्डर का इंस्टीट्यूट ऑफ आर्कटिक एंड अल्पाइन रिसर्च (आईएनएसटीएएआर) आदि आकर्टिक पर लगातार शोध कर रहे हैं।

आर्कटिक महासागर

भारत के आर्कटिक सम्बन्ध


यूँ तो सन 1920 में सबसे पहले भारत ने ‘स्‍वालबार्ड संधि’ पर हस्‍ताक्षर करके आर्कटिक के साथ अपने रिश्ते जोड़ लिये थे। लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ दशकों से वैश्विक तापन के कारण आर्कटिक क्षेत्र अन्तरराष्‍ट्रीय समुदाय के लिये उभरती चुनौतियों के रूप में उभरा है, उस दृष्टिकोण से भारत ने भी आर्कटिक क्षेत्र के वैज्ञानिक, पर्यावरणीय, वाणिज्यिक एवं सामरिक हितों को ध्यान में रखकर अपने सम्बन्धों को नवीन दिशा देना प्रारम्भ किया है।

इस दिशा में आगे बढ़ते हुए भारत ने सन 2007 में ध्रुवीय विज्ञान के अग्रणी क्षेत्रों जैसे हिमनद विज्ञान, वातावरणीय विज्ञान, जीव विज्ञान और जलवायु परिवर्तन पर केन्द्रित आर्कटिक अनुसन्धान कार्यक्रम शुरू किये। इसके लिये भारत ने अगस्‍त 2007 के प्रथम सप्‍ताह में प्रथम भारतीय आर्कटिक महासागर वैज्ञानिक अभियान भेजा। इससे सम्बद्ध वैज्ञानिक कार्यों के लिये भारत ने आर्कटिक में नॉर्वे के स्‍पिट्सबर्गन द्वीप के नी-अलसण्ड स्‍थित अन्तरराष्‍ट्रीय आर्कटिक अनुसन्धान सुविधा का प्रयोग किया। साथ ही एक स्टेशन इमारत लीज पर ली, जिसका उपयोग शोध बेस स्टेशन के रूप में किया जा रहा है।

भारत ने 2008 में विभिन्न क्षेत्रों में वैज्ञानिक समन्वयन और सहयोग के लिये नार्वेजियन पोलर इंस्टीट्यूट (एनपीआई) के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये। इसी समय से भारत नी-अलसण्ड में वैज्ञानिक परियोजनाओं पर सभी सदस्य देशों को समन्वयन व परामर्श देने के लिये उत्तरदायी शीर्ष निकाय नी-अलसण्ड साइंस मेनेजर्स कमेटी (एनवायएसएमएसी) का भी सदस्य बना। वर्ष 2012 में भारत को अन्तरराष्‍ट्रीय आर्कटिक विज्ञान समिति (आईएएससी) की परिषद के लिये चुना गया। 1 मई, 2013 को किरूना, नार्वे में आर्कटिक काउंसिल की आठवीं द्विवार्षिक मंत्री स्‍तरीय बैठक में आर्कटिक परिषद के लिये भारत को प्रेक्षक का दर्जा प्रदान किया गया।

भारत का आर्कटिक अनुसन्धान स्टेशन - हिमाद्री


भारत द्वारा लीज पर लिये गए आर्कटिक स्टेशन का नाम हिमाद्री रखा गया है। इस तरह स्पिट्जबर्गन, स्वालबार्ड, नॉर्वे में स्थित हिमाद्री भारत का पहला आर्कटिक अनुसन्धान केन्द्र है, जिसे भारत के दूसरे आर्कटिक अभियान के दौरान जून 2008 में स्थापित किया गया था। यह उत्तर ध्रुव से 1,200 किलोमीटर (750 मील) की दूरी पर स्थित है। वास्तव में आर्कटिक के नी-अलसण्ड के अन्तर्गत आने वाले इस अन्तरराष्ट्रीय भारतीय आर्कटिक अनुसन्धान बेस का उद्घाटन 1 जुलाई, 2008 को किया गया था। भारत विश्व का ग्यारहवाँ देश बना जिसने आर्कटिक क्षेत्र में स्थायी अनुसन्धान स्टेशन स्थापित किया।

लगभग 1.25 करोड़ रुपयों की लागत में बनाए गए 220 वर्गमीटर (2400 वर्गफुट) क्षेत्रफल वाले हिमाद्री स्टेशन में कम्प्यूटर रूम, स्टोर रूम, ड्राइंग रूम और इंटरनेट सहित अन्य सुविधाओं सहित कुल चार कमरे हैं। इसमें सामान्य परिस्थितियों में अधिक-से-अधिक आठ वैज्ञानिक रह सकते हैं। यहाँ रहने के लिये अभियानदल के सदस्यों को विशेष रूप से ध्रुवीय भालू से स्वयं को बचाने के लिये राइफलों के साथ शूटिंग का प्रशिक्षण दिया जाता है।

2008 से लगातार भारतीय आर्कटिक कार्यक्रम के अन्तर्गत हर साल भारतीय आर्कटिक अभियान भेजे जा रहे हैं। इन अभियानों में देश के विभिन्न संस्थानों, संगठनों और विश्वविद्यालयों के अनेक वैज्ञानिक भाग लेते हैं। इन कार्यक्रमं का समन्वयन व कार्यान्वयन भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की ओर से राष्ट्रीय अंटार्कटिक एवं समुद्री अनुसन्धान केन्द्र (एनसीएओआर), गोवा द्वारा किया जाता है।

भारतीय आर्कटिक अनुसन्धान


आर्कटिक में समसामयिक वैज्ञानिक अनुसन्धानों में भारतीय भागीदारी तेजी से बढ़ रही है। भारत एक सहयोगी सदस्य के रूप में एसआईओएस (स्वालबार्ड इंटिग्रेटेड ऑब्जर्वेशन सिस्टम) में शामिल हुआ और आर्कटिक क्षेत्र के विशिष्ट फ्जोर्ड कांग्सफ्जोर्डेन के पर्यवेक्षण के लिये प्रमुख रूप से दीर्घकालिक पहल की शुरुआत की। सन 2007 से प्रतिवर्ष लगातार गर्मियों में और सर्दियों में भारत के अलग-अलग संस्थानों से वैज्ञानिक दल हिमाद्री में जाकर शोध करते हैं।

प्रारम्भ से ही देश के बड़े-बड़े संस्थानों जैसे राष्ट्रीय अंटार्कटिक एवं समुद्री अनुसन्धान केन्द्र (एनसीएओआर), भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई), बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान (बीएसआईपी), राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (एनपीएल) सहित मणिपुर, शास्त्रा, बर्धवान और शान्ति निकेतन विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों ने भारतीय आर्कटिक कार्यक्रमों में अपनी सक्रिय भागीदारी बनाई हुई है। वे आर्कटिक में पर्यावरण विज्ञान, हिमनद विज्ञान, ध्रुवीय विज्ञान, भूगर्भशास्त्र जैसे विषयों पर शोध कर रहे हैं।

आर्कटिक में भारत की विभिन्न वैज्ञानिक गतिविधियों के प्रदर्शन हेतु जून 2010 में भारतीय आर्कटिक वेब पोर्टल http://210.212.160.135:5050/website/index.html का आरम्भ किया गया। शुरू शुरू में भारतीय वैज्ञानिकों ने आर्कटिक जल व तलछटों में विशेष रूप से फास्फेट विलेयकों, आर्कटिक स्थानों/फ्जोर्डों से पृथककृत समुद्री वाइबियास और अन्य जीवों की आनुवांशिक विविधता के सन्दर्भ में विषमपोषी जीवाणुओं की विविधता के मूल्यांकन हेतु अध्ययन किये। आर्कटिक में किये जा रहे भारतीय हिमनदीय अन्वेषण वेस्ट्रेब्रोगेरब्रीन और समुद्र जीव वैज्ञानिक अध्ययन कांग्सफ्जोर्डेन पर केन्द्रित होते हैं।

आर्कटिक पर कई देशों ने अपना रिसर्च सेंटर स्थापित किया हैआर्कटिक अनुसन्धान सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण शोध अध्ययनों को बढ़ावा देने के लिये 2014 में आर्कटिक के ग्रूवेबादेत में पूर्ण रूप से प्रचालमान वातावरणीय विज्ञान वेधशाला स्थापित की गई। एक अन्य महत्त्वपूर्ण भारतीय आर्कटिक उपलब्धि बहु-संवेदक नौबंध वेधशालाओं इण्डआर्क-1 और इण्डआर्क-2, को कांग्सफ्जार्डेन में को सफलतापूर्वक स्थापित किया जाना भी है। इन वेधशालाओं में असतत गहराइयों वाले अतिविशिष्ट अत्याधुनिक समुद्र वैज्ञानिक संवेदक लगे हुए हैं जिनके द्वारा फ्जोर्ड के समुद्र जल तापमान, लवणता, प्रवाह और अन्य महत्त्वपूर्ण प्राचलों के वास्तविक आँकड़ों को एकत्रित किया जा सकता है।

इनसे प्राप्त तापमान, लवणता, धाराओं और घुलित ऑक्सीजन (डीओ) के उच्च विभेदी आँकड़ों द्वारा आर्कटिक जल सर्वेक्षण और उसकी गत्यात्मकता के साथ-साथ वहाँ की सशक्त मौसमीयता और ग्रीष्मकालीन स्तरीकरण के विकास को समझा जा सकता है। ध्रुवीय जलचक्र और उसके विभिन्न घटकों को समझने के लिये नी-अलसण्ड में भारत ने विभिन्न उपकरणों जैसे अवक्षेपण के मापन हेतु माइक्रोवेव रेन रडार (एमआरआर), मेघ विशेषताओं का अध्ययन करने के लिये सीलोमीटर और वायुमण्डलीय तापमान तथा आर्द्रता परिच्छेदों के अभिलेखन हेतु माइक्रोवेव रेडियोमीटर आदि की भी स्थापना की है।

भारत के सन्दर्भ में आर्कटिक शोधों का महत्त्व


आर्कटिक क्षेत्र और आर्कटिक महासागर भारत के लिये विशेष महत्त्व है, क्योंकि ध्रुवीय पर्यावरणीय प्रक्रिया और भारतीय मानसून के मध्य गहरा सम्बन्ध है। आर्कटिक महासागर भारतीय मानसूनी पवनों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित करता है। भारत की अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि पर निर्भर है और भारतीय कृषि मानसून पर। ऐसे में आर्कटिक में किये जा रहे वातावरणीय शोध जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाओं में बदलाव तथा भारतीय उपमहाद्वीप पर वायुमण्डलीय प्रक्रियाओं को स्पष्ट रूप से समझने में बहुत ही लाभकारी साबित हो सकते हैं।

आर्कटिक में होने वाले प्रत्येक प्राकृतिक परिवर्तन का असर पूरे विश्व की प्रकृति पर पड़ता है। ऐसे में आर्कटिक क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किये जा रहे विविध शोधकार्य न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण विश्व की दृष्टि से भी प्रासंगिक हैं। भारतीय वैज्ञानिक आर्कटिक के माध्यम से प्रकृति में हो रहे जलवायुवीय परिवर्तनों और भूमण्डलीय तापन व महासागरीय प्रवृत्तियों का निरन्तर अध्ययन कर रहे हैं। वे इन पर्यवेक्षणों का उपयोग कुछ ऐसे पर्यावरणीय प्रादर्शों को तैयार करने में कर रहे हैं, जिससे पृथ्वी पर जटिल, परिवर्तित पर्यावरण को समझने, उसके स्पष्टीकरण एवं आवश्यक पूर्वानुमानों को लगाने में सहायता मिल सके।

सही मायनों में देखा जाये तो आर्कटिक अनुसन्धानों से एक बात सामने आई है कि इन शोधों से निकले परिणामों में सम्पूर्ण मानवता को लाभांवित करने, प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग के मार्गदर्शन में और पृथ्वी की सुरक्षा के साथ-साथ वैश्विक आर्थिक एवं सामाजिक प्रभाव पैदा करने की क्षमता समाहित है। अतः निश्चित रूप से आर्कटिक का गहन अध्ययन भारतीय वैज्ञानिकों के लिये समय-संगत है।