विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष दुनिया में 50 करोड़ लोग दूषित जल से भयानक रोगों की चपेट में आते हैं। प्रदूषित जल में हैजा, पेचिश, पीलिया, अतिसार आदि संक्रामक रोगों के कीटाणु बसते हैं। प्रदूषित जल की वजह से विकासशील देशों में हर पांच में से चार दुधमुंहे बच्चे बीमारी का शिकार हो जाते हैं। भारत में 80 फीसद बीमारी प्रदूषित जल के कारण होती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि यदि प्रदूषण की वर्तमान स्थिति पर रोक नहीं लगाई गई तो सन 2000 तक देश के अधिकांश नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। और 21वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में उनका जल इतना प्रदूषित हो जाएगा कि उससे दुर्गंध फैलेगी। दरअसल नदियों का गंदाजल समुद्र में मिलकर प्रदूषण को ज्यादा फैला रहा है। हिंद महासागर में इस समय इतनी भयंकर स्तर पर प्रदूषण जारी है कि अगर यही क्रम रहा तो शीघ्र ही वह विश्व के सबसे प्रदूषित महानगरों की कोटि में आ जाएगा। समुद्रों में विसर्जित होने वाली गंदगी औद्योगिक अवशेष और आणविक परीक्षण व्यापक स्तर पर सागरों को प्रदूषित कर रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि सामुद्रिक खाद्य (सीफूड) के उत्पादन में 30 फीसद से अधिक की गिरावट आई है। आणविक अस्त्रों के परीक्षण से जल में रेडियोधर्मिता का प्रसार हो रहा है। और समुद्र की सतह पर तेल की जमा हो रही परतों से वर्षा प्रभावित हो रही है।
6100 किलोमीटर लंबी भारतीय समुद्र तट रेखा पर अवस्थित भारत के नगर प्रदूषित जल संकट की भयंकर गिरफ्त में हैं। ‘भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र’ द्वारा किए गए एक परीक्षण के अनुसार समुद्र में गिरने वाले दूषित जल के कारण पानी विषाक्त होता जा रहा है। और इससे मछलियों सहित अन्य समुद्री जीवो में पारे की मात्रा काफी बढ़ गई है। प्रतिदिन समुद्र तटों पर 4.2 बिलियन गैलन गंदगी विसर्जित होती है। कीटनाशक तथा अन्य रसायन और डीडीटी आदि बड़ी मात्रा में नदियों के द्वारा सागर में मिल जाते हैं। नवीनतम वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार डीडीटी से कैंसर, ट्यूमर होता है। इसलिए पश्चिमी देशों में इसका उपयोग पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया गया है। मगर भारत समेत अनेक विकासशील देशों में मलेरिया उन्मूलन हेतु अभी भी भारी मात्रा में इसका उपयोग किया जाता है।
परिवहन व्यय से बचने के लिए अनेक उद्योग सागर तटों पर लगाए जा रहे हैं। पर उनके अवशेषों को अलग कहीं फेंकने के बजाय सागर में ही बहाया आ रहा है। औद्योगिक इकाइयों से होने वाले प्रदूषण का ही परिणाम है कि बंगाल की खाड़ी में पानी में पारा तथा अन्य विषैले पदार्थों की मात्रा में तीव्रता से बढ़ोतरी हो रही है। परीक्षणों में यह पाया गया है कि हिंद महासागर के समुद्री जीवों में जिंक, निकल, कोबाल्ट, मैग्नीज ऐसे तत्वों की मात्रा बढ़ गई है।
पर प्रदूषण के इस खतरे का हमारे पास क्या विकल्प है? ‘केंद्रीय जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण बोर्ड’ ने बहुत पहले जल प्रदूषण से संभावित खतरों की चेतावनी दे दी थी। बावजूद इसके आज तक इस दिशा में कोई ठोस तथा प्रभावी कार्यवाही नहीं की जा सकी है। जल प्रदूषण को रोकने के लिए एक कानून ‘जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण अधिनियम 1974’ लागू किया गया है। पर यह अधूरा कानून है, तथा इसके द्वारा किसी भी अपराधी को दंडित नहीं किया जा सकता। इसमें व्यावहारिक पहलुओं का समावेश तथा प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है। ‘केंद्रीय जल आयोग’ द्वारा जल प्रदूषण के संकट से निपटने के लिए कुछ कारगर तथाव्यावहारिक सुझाव जरूर दिए गए हैं। जिनमें ग्रामीण क्षेत्रों में पक्के कुओं तथा शौचालय तथा कूड़ा घरों का निर्माण एवं शहरी क्षेत्रों में जल की बर्बादी रोकने के लिए गंदे जल को शोधित करने का सुझाव है। पर इन पर गंभीरता से अमल करना अभी बाकी है।
जल प्रदूषण पर रोकथाम के लिए काफी धनराशि की जरूरत होगी और उसका प्रभाव निश्चित रूप से हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। देश के 142 प्रथम श्रेणी के नगरों में जल शोधन के बाद पानी नदी में प्रवाहित किए जाने की व्यवस्था पर कर्च 1180 करोड़ पर आ गया है। साथ ही खतरे से जूझने के लिए नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों की भी जरूरत है। उत्तर प्रदेश समेत विभिन्न राज्यों में जल प्रदूषण अधिनियम लागू करके उसके क्रियान्वयन हेतु केंद्र सरकार द्वारा नए विभागों का खोला जाना, इस दिशा में सार्थक कदम माना जा सकता है। ‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ द्वारा निर्मित 15 वर्षीय योजना का पिछले वर्ष सूत्रपात किया गया है, जो तीन चरणों में पूरी होगी। शहरों में भूमिगत नालियों के निर्माण होती योजना आयोग ने अट्ठारह सौ पचास करोड़ का प्रावधान छठीं पंचवर्षीय योजना में किया है, जो कि उचित निर्णय है।
लेकिन यह उम्मीद करना बेकार है कि सिर्फ सरकारी स्तर पर प्रयास करके ही प्रदूषण को रोका जा सकता है। इसके लिए गैर सरकारी संस्थाओं और आम जनता को आगे आना होगा। इस संदर्भ में बनारस और होशंगाबाद का उदाहरण काफी प्रेरणादायक है। बनारस में नगरपालिका के एक दर्जन भूतपूर्व सभासदों ने भूतपूर्व विधायक शंकर प्रसाद जायसवाल के नेतृत्व में एक आंदोलन चला रखा है। जिसके परिणाम स्वरुप बनारस नगर महापालिका को गंगा में मिलने वाले नालों का पानी उस पार ले जाने की व्यवस्था करनी पड़ रही है। श्री जायसवाल के नेतृत्व में चलाए जा रहे इस आंदोलन के कारण लोगों में काफी चेतना आई है और अचरज नहीं होगा कि यदि निकट भविष्य में कम से कम बनारस में गंगा में मिलने वाली गंदगी पूरी तरह से बंद हो जाए। बनारस की भांति ही मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर के जागरूक नागरिक नागरिकों ने ‘नर्मदा बचाओ अभियान’ शुरू किया है और वहां पर यह अभियान 1979 से जारी है और इसमें भारी जनसमर्थन के कारण स्थानीय निकाय को नर्मदा में मिलने वाली शहरी गंदगी को रोकने के लिए कार्रवाई करनी पड़ी है। क्या अन्य शहरों के लोग भी इस उदाहरण से इन उदाहरणों से प्रेरणा लेंगे।
इससे पहले के लेख को पढ़ने के लिए इस लिंक को दबाएं :- सावधान! जो पानी आप पी रहे हैं, वह प्रदूषित है