पर्यावरण पर हो 'धरती-धर्म संसद‘

Submitted by Editorial Team on Fri, 06/10/2022 - 13:40
Source
04 Jun 2022, हस्तक्षेप, सहारा समय

पर्यावरण पर हो 'धरती-धर्म संसद। फोटो - indiawaterportal flicker

मानव के भौतिक विकास ने पर्यावरण को सर्वाधिक प्रभावित किया है। जीवों की चार कोटियां हैं–जरायुज‚ अण्डज‚ उद्भज और स्वेदज। भारतीय जीवन पद्धति में विकास के क्रम में जीवों की ये चारों कोटियां केंद्र में रही हैं। परन्तु दुर्भाग्यवश कथित आधुनिकता और भौतिक सुखों के प्रति बढ़ती लिप्सा के कारण मानव ने पर्यावरण को ताक पर रख दिया है। आधुनिक भौतिक विकास और वैश्वीकरण से आज समग्र विश्व प्रभावित है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। यही कारण है कि जिनके पूर्वज पृथ्वी पर कुछ भी क्रियाकलाप संपन्न करने से पहले प्रार्थना करते थे कि हे पृथ्वी हम जो भी खनन इत्यादि कार्य तेरे अंदर करें उसकी तू शीघ्र ही भरपाई कर ले–‘यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु'‚ आज उन्हीं को पृथ्वी ही नहीं अपितु प\चतkव को भी प्रदूषित करने में किि\चत संकोच नहीं है। उत्तरोत्तर विकास सहज प्रवृत्ति है परन्तु विकास एकरेखीय नहीं होना चाहिए और न ही विकास के क्रम में मानव के अतिरिक्त प्रकृति के अन्य तkवों की अनदेखी होनी चाहिए। इस अनदेखी के परिणाम भयंकर होते हैं‚ और आज समग्र मानवता उन दुष्परिणामों का सामना कर रही है। 

आज भौतिक विकास की अंधाधुंध दौड़ में मानव के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विकास की गति थम सी गई है। यही कारण है कि प्रदूषणजनित अनेक समस्यायों का संपूर्ण विश्व प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सामना कर रहा है। शहरीकरण‚ औद्योगीकरण‚ वनोन्मूलन‚ रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग से व्यापक स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण हो रहा है। पृथ्वी से हरीतिमा निरंतर सिकुड़ रही है और ताप लगातार बढ़ रहा है। आर्कटिक और अंटार्कटिका में हिम पिघल रहा है। वैश्विक तापन से आज विश्व का प्रत्येक क्षेत्र प्रभावित है। यदि दो डिग्री भी तापमान बढ़ गया तो प्रलय की आशंका है‚ और अनेक क्षेत्रों के जलमग्न होने की संभावना है। जलवायु पर दृष्टिपात करें तो वर्षा और वर्षण की आवृत्ति‚ मात्रा और मार्ग में भी परिवर्तन आया है। बाढ़‚ भूस्खलन‚ भू–अपरदन में वृद्धि हुई है। फसल चक्र व फसलोत्पादन में परिवर्तन व जैव विविधता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। जो परिवर्तन शताब्दियों में होना चाहिए वो दशकों में हो रहा है। परिवर्तन की गति इतनी तीव्र है कि उसे रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर किए जा रहे अनेक प्रयत्न ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहे हैं।  

समाज में नहीं पर्याप्त जागरूकता 

शासन–प्रशासन समय–समय पर अपनी योजनाओं एवं गतिविधियों द्वारा पर्यावरण प्रदूषण को कम करने हेतु प्रयासरत हैं। स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस कार्य में लगी हुई हैं। परन्तु गंभीरता से देखा जाए तो आज भी पर्यावरण प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तन को लेकर सामान्य समाज में पर्याप्त जागरूकता का अभाव है। भारतीय परंपरा में प्रत्येक गतिविधि के केंद्र में 'धर्म' रहा है। हिंदू जीवन में जन्म से लेकर मृत्युपयÈत समस्त संस्कारों में प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सहभाव व सद्भाव परिलक्षित होता है। पर्यावरण का प्रत्येक तkव चाहे वह वृक्ष या वनस्पतियां हों अथवा जीव–जन्तु‚ भारतीय जीवन में कहीं न कहीं अपना सम्माननीय स्थान पाते हैं। प्रत्यक्ष रूप से सर्वथा अनुपयोगी समझा जाने वाला मदार और धतूरा यहां शिव का प्रिय है‚ तो विषधर नाग उनका कंठहार है‚ खूंखार हिंसक जीव सिंह माता दुर्गा का वाहन है। मूषक और मयूर‚ जो फसल को प्रत्यक्ष हानि पहंुचाते हैं‚ क्रमशः गणेश व काÌतकेय के वाहन हैं। अनेक लताओं और खर–पतवारों में भी यहां देवी–देवता का वास माना जाता है। हजार बार उच्छिन्न करने पर पुनः उग आने वाली दूर्वा के बिना बिटिया की विदाई अकल्पनीय है। असंख्य जीवों को आश्रय देने वाले पीपल‚ बरगद‚ पाकड़‚ गूलर‚ नीम जैसे विशालकाय‚ जनोपयोगी वृक्षों में यहां देवत्व की प्रतिष्ठा है। इन वृक्षों को काटना वÌजत ही नहीं अपितु पाप भी है। सोमवती अमावस्या को महिलाएं पीपल के नीचे पूजा करती हैं‚ और वटसावित्री को बरगद की पूजा की जाती है। आमलकी एकादशी को आंवले के नीचे भोजन पकाने की परंपरा रही है। भारतीय समाज इन वृक्षों और वनस्पतियों के संरक्षण के प्रति आज भी जागरूक है‚ और अपने इस धर्म से विचलित नहीं होता।

एकांगी समाधान नहीं 

चूंकि आज संकट वैश्विक है‚ और समस्या इतनी बड़ी है कि उसका केवल एकांगी समाधान संभव नहीं। आज पर्यावरण के समस्त घटकों स्थावर‚ जंगम‚ जलचर‚ थलचर‚ नभचर सभी के संरक्षण पर ध्यान देने की आवश्यकता है। भौतिक विकास को पूरी तरह रोकना संभव नहीं है पर उसकी गति को तनिक संयमित तो किया ही जा सकता है। सरकार पर्यावरण को लेकर जागरूक है‚ और वैश्विक मंचों पर पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को सदैव प्रकट करती रहती है। पर्यावरण प्रदूषण कम करने के लिए सरकार ने अनेक योजनाओं का प्रवर्तन भी किया है। 

आज पर्यावरण संरक्षण हेतु व्यापक जनजागरूकता की आवश्यकता है‚ मानवकेंद्रित विकास का रुûख प्रकृतिकेंद्रित विकास की ओर मोड़ने की आवश्यकता है। मानव को इस दंभ से बाहर आना होगा कि वही सर्वशक्तिमान है। उसे प्रकृति की शक्ति को समझकर उसके प्रति विनम्र भाव प्रदÌशत करते हुए प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर लगाम लगानी होगी। इसीलिए आज पर्यावरण के प्रत्येक पक्ष को धर्म से जोड़कर संरक्षित करने पर बल देने की आवश्यकता भी है। समय आ गया है जब ‘तेन त्यक्तेन भु\जीथाः' अर्थात त्यागपूर्वक भोग के मार्ग का अनुगम करना ही होगा। 

संध्या होते ही पौधों की पत्तियां न तोड़ने वाली भारतीय जनता आज भी प्रकृति व पर्यावरण के प्रति पर्याप्त संवेदनशील है। बस आवश्यकता है नई चुनौतियों और आवश्यकताओं के अनुरूप पर्यावरण–संरक्षण के घटकों की व्याख्या करने एवं उस संदर्भ में उसे जागरूक करने की। जो कार्य सरकारी योजनाएं एवं स्वयंसेवी संस्थाएं नहीं कर सकतीं‚ उस कार्य को विभिन्न धर्मों के धर्माचार्य अपने अनुयायियों का आह्वान कर बड़ी सरलता से संपन्न करवा सकते हैं। अतः आज पर्यावरण पर एक धर्म संसद होनी चाहिए जिसमें भारत ही नहीं अपितु वैश्विक पर्यावरणीय व जलवायवीय समस्याओं और उनके समाधान पर मंथन होना चाहिए। सभी धर्मों‚ मतों–मतांतरों के आचार्यों‚ प्रबोधकों को इस हेतु एक साथ आना चाहिए। ऐसा करने से निश्चय ही जो अब तक नहीं सधा है‚ वह बड़ी सरलता से साधा जा सकता है‚ और भारत अपने कार्यों के माध्यम से संपूर्ण विश्व का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। 

लेखिका गार्गी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में असि. प्रोफेसर हैं।