1950 में असम में आये तीव्र भूकम्प (8.5 रिक्टर स्केल) के बाद से राज्य में बाढ़ एवं भूक्षरण में तीव्रता आई है। तब से अब तक पाँच से छह हजार वर्ग किलोमीटर भूमि नदियों से हुए क्षरण की वजह से घट चुकी है। इसने राज्य मेें लाखों लोगों को भूमिहीन और बेघर कर दिया है। पूर्वोत्तर के भू-क्षरण और भू-स्खलन से प्रभावित लोगों के पुनर्वास के लिये आवश्यक है कि यहाँ प्राकृतिक आपदा की परिभाषा के अन्तर्गत भू-क्षरण को शामिल किये जाएँ और इस आधार पर राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष से मुआवजा दिये जाने के लिये दिशा-निर्देश जारी किये जाएँ।
भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, सिक्किम और त्रिपुरा समेत आठ राज्य हैं। इस समस्त क्षेत्र का कुल क्षेत्रफल 2,62,179 वर्ग किलोमीटर है। भारत के कुछ राज्य जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश या महाराष्ट्र से तुलना करें तो क्षेत्रफल के आधार पर इनमें से प्रत्येक राज्य पूर्वोत्तर के इस सम्पूर्ण क्षेत्र के मुकाबले अधिक बड़े हैं।भारत के शेष हिस्सों के साथ पूर्वोत्तर भारत भौगोलिक रूप से पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी क्षेत्र के निकट एक पतले से गलियारे के माध्यम से जुड़ा हुआ है, जिसे आमतौर पर चिकन नेक कहा जाता है। पूर्वोत्तर की सीमा पाँच देशों से मिलती है। ये देश हैं- बांग्लादेश, भूटान, चीन, नेपाल और म्यांमार। पूर्वोत्तर की केवल तीस से पैंतीस प्रतिशत भूमि ही समतल है।
यह मुख्यतया तीन घाटियों- ब्रह्मपुत्र, बराक और इम्फाल घाटियों के रूप में हैं। शेष भूभाग पहाड़ी क्षेत्र है। पूर्वोत्तर क्षेत्र की लगभग तीन चौथाई भूमि ऐसी है, जिसकी राजस्व की दृष्टि से सर्वेक्षण अर्थात नाप-जोख या जमाबन्दी नहीं हुई है। इस तरह से यहाँ ऐसी विशाल भूमि है जिसके भू-स्वामित्व का कोई लेखा-जोखा, प्रमाणीकृत भू-रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।
पूर्वोत्तर की आबादी में पिछली शताब्दी की शुरुआत की तुलना में असामान्य वृद्धि हुई है। भारत की जनसंख्या 1901 में (जब पाकिस्तान और बांग्लादेश, भारत का ही अंग थे) 29 करोड़ से अधिक थी, उस समय पूर्वोत्तर के इस क्षेत्र की जनसंख्या महज 44 लाख थी। अब 2011 तक इस क्षेत्र की आबादी बढ़कर 450 लाख हो चुकी है।
इस बीच 1901 के समय भारत में सम्मिलित भूभागों को जोड़कर यहाँ की कुल जनसंख्या 15600 लाख या 156 करोड़ (भारत की जनसंख्या 121 करोड़, पाकिस्तान की 18 करोड़ और बांग्लादेश की 17 करोड़) हो गई है। इस प्रकार 1901 के समय जो भारत था उसकी जनसंख्या में तब से 2011 के बीच 5.4 गुना वृृद्धि हुई है। पूर्वोत्तर की आबादी इस अवधि में दस गुना से अधिक बढ़ गई है। यहाँ जनसंख्या की इस अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी का कारण आस-पास के इलाकों से लोगों का निरन्तर आ बसना है। इसका एक नतीजा यह है कि यहाँ जो थोड़ी बहुत कृषि योग्य भूमि है, उसका औसत रकबा घटकर एक हेक्टेयर रह गया है।
पूर्वोत्तर क्षेत्र की सही तस्वीर तब तक स्पष्ट नहीं हो सकती जब तक यहाँ की कुछ प्राकृतिक स्थिति पर कुछ और विस्तार से नजर नहीं डाली जाय। यहाँ भारी वर्षा होती है और यहाँ से दुनिया की सबसे बड़ी नदी ब्रह्मपुत्र बहती है जिसमें सत्तर से अधिक प्रमुख सहायक नदियाँ मिलती हैं। पूर्वोत्तर में औसत वार्षिक वर्षा दो हजार पाँच सौ मिलीमीटर से अधिक है।
यहाँ ब्रह्मपुत्र नदी के दूर तक फैले किनारे और तुलनात्मक रूप से संकीर्ण घाटी क्षेत्र, अत्यधिक वर्षा के कारण नदी का विशाल पाट (ब्रह्मपुत्र और बराक), नियमित रूप से आने वाली बाढ़, भू-क्षरण और भूस्खलन, नदी के साथ बहकर आने वाली रेत का जमाव ज्यादा हो रहा है, जिनकी वजह से यहाँ कृषि योग्य उपजाऊ भूमि लगातार कम होती जा रही है और जोत का औसत आकार घटता जा है।
1950 में असम में आये तीव्र भूकम्प (8.5 रिक्टर स्केल) के बाद से राज्य में बाढ़ एवं भूक्षरण में तीव्रता आई है। तब से अब तक पाँच से छह हजार वर्ग किलोमीटर भूमि नदियों से हुए क्षरण की वजह से घट चुकी है। इसने राज्य मेें लाखों लोगों को भूमिहीन और बेघर कर दिया है। पूर्वोत्तर के भू-क्षरण और भू-स्खलन से प्रभावित लोगों के पुनर्वास के लिये आवश्यक है कि यहाँ प्राकृतिक आपदा की परिभाषा के अन्तर्गत भू-क्षरण को शामिल किये जाएँ और इस आधार पर राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (Staste Disaster Response Funds) से मुआवजा दिये जाने के लिये दिशा-निर्देश जारी किये जाएँ। इस क्षेत्र में इसकी तत्काल आवश्यकता है।
इन प्राकृतिक और मानव निर्मित (प्रवासन) कारणों के बावजूद, पूर्वोत्तर की आर्थिक स्थिति विभाजन के समय देश के बाकी हिस्सों के समतुल्य थी। लेकिन 1947 के बाद से निम्नलिखित प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं ने पूर्वोत्तर की स्थितियों को आकस्मिक तौर पर परिवर्तित कर दिया है और इसने इस क्षेत्र में विकास को बाधित भी किया है। ये घटनाएँ हैं।
1. देश का विभाजन- जब पूर्वोत्तर को बाकी देश में जोड़ने वाली प्रमुख सड़क, रेल और नदी मार्ग की सम्पर्क व्यवस्था अचानक भंग हो गई।
2. 1962 का चीनी अतिक्रमण- जब चीनी सेना ने अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश किया (उस समय नेफा अर्थात पूर्वोत्तर सीमा क्षेत्र) और इसके बाद वह स्वतः वापस लौट गई। जाहिर है इस घटनाक्रम ने निजी निवेशकों के मन में यहाँ बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश करने में हिचक उत्पन्न हो गई। सही हो या गलत, पर एक तरह का भाव उत्पन्न हो गया कि यहाँ बड़े पैमाने पर निवेश के लिये कुछ समय इन्तजार किया जा सकता है।
3. 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम- जब बांग्लादेश से शरणार्थी के रूप मे करोड़ों लोग पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में आ गए। हालांकि अधिकांश शरणार्थियों को बांग्लादेश लौटा दिया गया था, लेकिन बांग्लादेश की सीमावर्ती पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में बड़े पैमाने पर जनसांख्यिकीय परिवर्तन हो गया है। पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक के अन्त से असम, मेघालय त्रिपुरा और मणिपुर जैसे राज्यों में उग्रवाद की समस्याएँ प्रारम्भ हो चुकी हैं। नागालैण्ड और मिजोरम तो वैसे भी पिछली शताब्दी के पाँचवें और साठ के दशक से उग्रवाद से प्रभावित रहे हैं। इस क्षेत्र में केन्द्रीय और राज्य सरकारों के प्रयासों और विभिन्न कार्यों के कारण यहाँ अब उग्रवाद उतनी बड़ी चिन्ता का विषय नहीं रहा।
पूर्वोत्तर क्षेत्र में पिछले चार दशकों के दौरान अधिकारियों के सम्मुख स्वयं को प्रस्तुत कर चुके हजारों अप्रवासियों का समुचित पुनर्वास इस क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति है।
पूर्वोत्तर के मूल निवासियों की संख्या हालांकि लगभग तीन करोड़ से कम है, वे सौ से अधिक समूहों में विभक्त हैं। इनमें से कई समूह ऐसे भी हैं, जिनकी जनसंख्या बीस हजार प्रति समूह से भी कम है। ऐसे अनेक छोटे-छोटे जातीय समूह हैं जो हाशिए पर आते जा रहे हैं।
उपरोक्त प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक चुनौतियोंं के अतिरिक्त पूर्वोत्तर भारत के लिये कुछ अन्य प्रमुख चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं-
1. कम कृषि उत्पादकता (लगभग 2000 किलो चावल प्रति हेक्टेयर) चावल (धान) इस क्षेत्र की मुख्य फसल है।
2. कम फसल तीव्रता (लगभग 1.5)।
3. असिंचित भूमि की प्रचुरता एवं सिंचाई सुविधाओं की कमी।
4. रासायनिक उर्वरकों का कम प्रयोग।
5. बैंक ऋण सुविधाओं की कमी। पूर्वोत्तर में पूर्वोत्तर ऋण एवं जमा अनुपात पचास प्रतिशत से कम है।
6. सभी क्षेत्रों में किसानों के लिये वर्ष भर प्रमाणित बीज और अच्छी गुणवत्ता वाली रोपण सामग्री की उपलब्धता अपर्याप्त होना।
7. गोदामों, भण्डारण और कोल्ड स्टोरेज आदि सुविधाओं की अपर्याप्तता।
8. कुछ-कुछ जगहों को छोड़कर क्षेत्र में अच्छी तरह से सुसज्जित आधुनिक बाजार या मंडियों का अभाव।
9. राष्ट्रीय औसत की तुलना में प्रति व्यक्ति बिजली की कम खपत।
10. सिंचाई के लिये बिजली का बहुत कम उपयोग।
11. लौह, एल्यूमीनियम, तांबे, जस्ता, टिन, सीसा और निकेल आदि जैसे औद्योगिक रूप से उपयोगी धातुओं के अयस्कों तथा अभ्रक और सल्फर आदि जैसे पदार्थों की अनुलब्धता।
12. अच्छी गुणवत्ता वाले कोयले के बड़े भण्डार अनुपलब्धता। पूर्वोत्तर में वर्तमान मे जो कोयला पाया जाता है उसमें सल्फर की मात्रा की प्रतिशत अक्सर अधिक होता है जिसकी वजह से यह कोयला उद्योग में उपयोग के लिये अनुपयुक्त होता है।
13. पॉलिटेक्निक और इंजीनियरिंग, चिकित्सा और नर्सिंग आदि के अध्ययन-प्रशिक्षण के लिये उच्च स्तरीय संस्थानों की अपर्याप्तता।
14. सम्पूर्ण पूर्वोत्तर क्षेत्र में शिक्षक-प्रशिक्षक एक और बड़ा विषय है। इस क्षेत्र में शिक्षा के सामान्य मानक के समग्र सुधार के लिये इस ओर तुरन्त ध्यान दिये जाने की बहुत अधिक आवश्यकता है। पूर्वोत्तर में स्कूलों में गणित और विज्ञान पढ़ाने के लिये भी इस दिशा में विशेष प्रयास किये जाने की जरूरत है।
15. चार रिफाइनरी और दो पेट्रोकेमिकल परिसरों को छोड़कर बड़े उद्योगों की अनुपस्थिति...आदि।
असम और पूर्वोत्तर राज्य में पिछली शताब्दी की शुरुआत से रेल लाइन, चाय उद्यान और तेल और चावल की मिलों की अच्छी खासी संख्या रही है। लेकिन, पिछले कुछ दशकों में पूर्वोत्तर के सम्पूर्ण क्षेत्र में सड़क, रेल और हवाई सम्पर्क और दूरसंचार के क्षेत्र में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। पिछले दो दशकों में यहाँ कई नए विश्वविद्यालय, मेडिकल कॉलेज और इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित हुए हैं। अब एक आईआईटी और आईआईएम भी है।
इस क्षेत्र मेें प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय राष्ट्रीय औसत का लगभग 70 प्रतिशत है। क्षेत्र की साक्षरता दर (74.48) राष्ट्रीय दर (74.04) के बराबर है।
आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी उपरोक्त समस्याओं की वजह से पूर्वोत्तर अपेक्षाकृत अधिक पिछड़ा है। व्यापक स्तर पर विनिर्माण औद्योगिक आधार के गैर मौजूदगी के कारण इस क्षेत्र का भविष्य मुख्य रूप से निम्न क्षेत्रों के विकास पर निर्भर है;-
1. कृषि जिसके अन्तर्गत बागवानी और फूलों की खेती सम्मिलित है।;
2. दुग्ध उद्योग;
3. बकरी पालन;
4. सुअर पालन;
5. कुक्कुट पालन;
6. बत्तख पालन;
7. मत्स्य पालन;
8. खाद्य और मांस प्रसंस्करण;
9. पर्यटन;
10. रेशम उत्पादन एवं बुनाई हथकरघा तथा धागे के उत्पादन तथा डिजाइन में सुधार के माध्यम से कपड़ा उत्पादन में वृद्धि;
11. जैविक चाय, जैविक खाद्य मशरूम और शहद का उत्पादन;
12. डिब्रूगढ़ मेें ब्रह्मपुत्र क्रैकर और पॉलिमर लिमिटेड में निर्मित उच्च और निम्न घनत्व वाले पॉलिथीन से प्लास्टिक के सामान का उत्पादन;
13. बाँस, गन्ना, जूट, धान की भूसी और औषधीय पौधे यहाँ भारी संख्या में हैं। इन पर आधारित लघु और मंझौले स्तर के उद्योगों को स्थापित करना;
14. स्थानीय रूप से उपलब्ध अदरक और हल्दी की गुणवत्ता में सुधार और पैकेजिंग के लिये उद्योगों का विकास;
15. स्थानीय नदियों और जल प्रपातों के माध्यम से उपलब्ध प्रचुर मात्रा में पानी का उपयोग पनबिजली उत्पन्न करने और सिंचाई सुविधाओं का प्रबन्धन;
16. वस्त्रों, फार्मास्यूटिकल्स, कागज और चीनी आदि बनाने के लिये उद्योगों की स्थापना (अत्यधिक वर्षा के कारण मृदा में नमी की वजह से पूर्वोत्तर में गन्ने, दाल, तिलहन और अॉर्किड जैसे बहुमूल्य फूलों के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिये पूर्वोत्तर बहुत उपयुक्त है);
17. नर्सिंग, चिकित्सा सहायकों, औषधि निर्माण संस्थानों और ट्रांसफार्मरों और टेलीविजन, एयर कंडीशनर, कम्प्यूटर, कपड़े धोने की मशीन, मोटर वाहन और रेफ्रिजरेटर आदि की तरह की वस्तुओं की मरम्मत के लिये पर्याप्त संख्या में पॉलिटेक्निक की स्थापना;
पूर्वोत्तर भारत सांस्कृतिक रूप से अत्यधिक समृद्ध है। यहाँ के युवा संगीत, नृत्य और पेंटिग इत्यादि क्षेत्र में विशेष रूप से अत्यन्त प्रतिभावान हैं। यदि गायन, नृत्य और विभिन्न संगीत वाद्ययंत्र बजाने के लिये पर्याप्त संख्या में विद्यालयों की स्थापना की जाय, तो युवाओं को इन क्षेत्रों में काफी संख्या में रोजगार उपलब्ध हो सकता है।
अगर उपरोक्त क्षेत्रों में बड़े स्तर पर निवेश की व्यवस्था की जाती है तो स्थानीय लोगों के लिये पर्याप्त रोजगार विकसित हो सकते हैं। इसी प्रकार यहाँ उत्पन्न होने वाली फसलों की सघनता को बढ़ाया जाय तो यह बढ़कर दो या ढाई गुना अधिक हो सकती है। इस क्षेत्र मेें बैंक की शाखाओं की संख्या को बढ़ाना, ऋण की उपलब्धता तथा जमा खातों की संख्या आदि को अनुपातिक तौर पर अधिक तेजी से बढ़ाना होगा। पूर्वोत्तर के लोगों के पूर्ण वित्तीय और डिजिटल समावेश को लाने के लिये इस क्षेत्र में टेली कनेक्टिविटी में सुधार की भी तत्काल आवश्यकता है।
वर्तमान में केन्द्र सरकार ने इस क्षेत्र का समग्र एवं समावेशी विकास करने के लिये कई अत्यन्त प्रशंसनीय कदम उठाए हैं। केन्द्र ने ‘एक्ट ईस्ट नीति’ पर जोर देना और इस दिशा मेें आगे बढ़ने के साथ इन क्षेत्र की जनता में नई उम्मीदों को संचार किया है। दक्षिण पूर्व एशियाई देशों, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान के लिये भारत के इस अंचल को सुगम करना, इस प्रकार पूर्वोत्तर को एक हब के रूप में विकसित करने की योजना को कार्यरूप देने के लिये आवश्यक है कि केन्द्र इस क्षेत्र को आर्थिक रूप से अधिक गतिशील और समृद्ध बनाए। उपरोक्त देशों को पूर्वोत्तर के साथ सड़क, रेल लाइन, नदी के मार्ग और हवा के माध्यम से जोेड़ने के क्रम में पूर्वोत्तर से लोगों का आना-जाना, माल एवं असबाब का आवागमन बढ़ेगा और इसके साथ स्वतः ही तकनीक और विचारों के आदान- प्रदान एवं प्रवाह में वृद्धि होगी। उपरोक्त देशों के लोगों के लिये, पूर्वोत्तर में धार्मिक, पारिस्थितिकीय, साहसिक और चिकित्सीय, पर्यटन के लिये व्यवस्थाएँ विकसित की जा सकती हैं। इससे पूर्वोत्तर एवं अन्य आस-पास के क्षेत्र के लोग, जिनमें उपरोक्त देश भी सम्मिलित हैं, के मध्य परस्पर सांस्कृतिक और शैक्षणिक सम्बन्धों में भी सुधार होगा।
विकास का लाभ का सम्बन्धित क्षेत्रों में उचित और न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करने के लिये, पूर्वोत्तर के छोटे-छोटे स्थानीय जातीय समूहों के हित में तत्काल कुछ खास कदम उठाने आवश्यक हैं। मीडिया में यह पहले से ही बताया जा चुका है कि पूर्वोत्तर में बसे हुए ग्यारह जातीय समूहों की भाषाएँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन ग्यारह भाषाओं को बोलने वालों की संख्या सिमट कर दस हजार से कम हो गई है। इस बात पर खास तौर पर गौर किया जाना जरूरी है कि यहाँ के स्थानीय छोटे-छोटे और हाशिए पर सिमट आये जाति समूह विकास की प्रक्रिया में छूट न जाय।
पूर्वोत्तर का प्रदूषण मुक्त वातावरण और यहाँ के नौजवानों की बड़ी संख्या, जो धाराप्रवाह अंग्रेजी में बातचीत करने में सक्षम है, विकास के लिये सकारात्मक कारक हैं। इस क्षेत्र में इलेक्ट्रॉनिक उद्योगों और बीपीओ स्थापित करने की दिशा में ये कारक नीति-निर्माताओं के लिये बहुत मददगार है सकते हैं।
पूर्वोत्तर में भयंकर बेरोजगारी भी है। इसके समाधान के लिये रेलवे, राष्ट्रीयकृत बैंकों, असम राइफल्स सहित केन्द्रीय अर्ध सैन्य बलों, एयरलाइंस, तेल रिफाइनरी और अन्य बड़े केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में पूर्वोत्तर के युवाओं को भर्ती करने के लिये विशेष प्रयास किये जाने चाहिए।
कुल मिलाकर, पूर्वोत्तर में कृषि, उद्योग और व्यापार के विकास के लिये प्रोत्साहन देने के लिये भूमि सुधार बेहद जरूरी है। इसके अन्तर्गत वन रहित क्षेत्रों का राजस्व के लिये सर्वेक्षण कर भू-अभिलेखों को तैयार किया जाना तथा प्रचलित कानून के अनुसार सभी पात्र व्याक्तियों को भू-स्वामित्व के अधिकार प्रदान किया जाना सम्मिलित है।
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