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दैनिक भास्कर, 27 मई 2013
हमारे यहां गंगा, यमुना व अन्य कई नदियों को पूजनीय माना जाता है। यह मान्यता आज भी जीवंत है कि गंगा स्नान करने से जीवन भर के पाप धुल जाते हैं। इस विश्वास को लेकर बड़े-बड़े कुंभ आयोजित किए जाते हैं व करोड़ों लोग हर साल गंगा में जाकर डुबकी लगाते हैं। परंतु उसी गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियों में हमारे शहरों के सीवर उड़ेले जा रहे हैं। प्राचीन समय से पारंपरिक रूप से भारत में नारी, नदी, पशु खासतौर पर गाय और हमारे धर्मस्थल यानी मंदिरों को पूजनीय माना जाता रहा और उनका विशेष ख्याल रखा जाता था। किंतु वर्तमान समय में ऐसा कुचक्र चला है कि लोगों ने इन सभी की अपने हाथों दुर्दशा कर रखी है। यह घोर निंदनीय और चिंताजनक है।
गाय को ही लीजिए - पारंपरिक रूप से हिंदू समाज में गाय को मां का दर्जा दिया गया है और उसे पूजनीय माना जाता रहा है। घर में बनने वाली पहली रोटी गोमाता को खिलाकर ही परिवार स्वयं कुछ खाता था। आज देश के हर छोटे-बड़े शहर में हमें गोमाता कूड़े के ढेर में कचरा खाती दिखती है। भूख से बेहाल गाय प्लास्टिक की थैलियां तक खाने को मजबूर हैं। यह हाल केवल उन गायों का ही नहीं है, जिन्हें दूध बंद होने की अवस्था में उनके मालिक लावारिस छोड़ देते हैं, बल्कि उन गायों का भी है जो दूध तो देती हैं, परंतु भैंस की तुलना में कम देती हैं। इसलिए उनके मालिक उन्हें भरपेट चारा देने की जरूरत नहीं समझते। देश के कई हिस्सों में देसी गाय दुर्लभ होती जा रही है और उसकी जगह अमेरिका की जर्सी गाय ने ले ली है। अमेरिकन गाय को भले ही हिंदू समाज पूजनीय न मानता हो, पर कम से कम उसके मालिक उसे चारा तो भरपेट खिलाते हैं, क्योंकि वह दूध अच्छा देती है। इस अवहेलना की वजह से देसी गाय, जिसे हम भारतीय संस्कृति का पूजनीय प्रतीक मानते हैं, की नस्ल में भारी गिरावट आई है। जबकि देसी गाय का दूध अमृत तुल्य है।
गोहत्या को लेकर जहर उगलने वालों और दंगे-फसाद भड़काने वालों की भी कमी नहीं है, पर अपनी गाय माता की सेवा व रक्षा करने वालों की तादाद कम होती जा रही है। मेरे पड़ोस में एक गो-चिंतक कूड़े के ढेर से गोमाता को कचरा खाने की बदहाली से बचाने हेतु एक रेहड़ी पर स्टील के बड़े-बड़े ड्रम रखवाकर मोहल्ले में घुमवाते हैं - इस संदेश के साथ कि गृहिणियां अपना बचा-खुचा जूठा भोजन, सूखी रोटियां, फलों व सब्जियों के छिलके उन ड्रमों में भूख से बेहाल गोमाताओ के भोजन के लिए डाल दें। एक ओर तो यह बहुत ही सराहनीय कार्य लगता है, परंतु दूसरी ओर यह सोचकर मन दुखता है कि जिस देश में परंपरा रही है कि हर गृहिणी रसोई में बनने वाली पहली रोटी गाय को खिलाकर ही अन्य सदस्यों को भोजन कराती थी, आज उसका ऐसा निरादर। जिस देश में किसी समय गाय की पूजा और चारा डाले बिना घर में खाना नहीं पकता था, आज हम उसी गोमाता को रसोई का बचा-खुचा, सड़ा-गला खाना देने में भी आलस करते हैं - कौन अलग थैलियों में आम या केले के छिलकों को दरवाजे तक ले जाए? विडंबना देखिए कि आज जिस आटे में कीड़ा लग गया हो, उसे गाय के आगे डाल दिया जाता है।
यही हाल इस देश की नदियों का है। हमारे यहां गंगा, यमुना व अन्य कई नदियों को पूजनीय माना जाता है। यह मान्यता आज भी जीवंत है कि गंगा स्नान करने से जीवन भर के पाप धुल जाते हैं। इस विश्वास को लेकर बड़े-बड़े कुंभ आयोजित किए जाते हैं व करोड़ों लोग हर साल गंगा में जाकर डुबकी लगाते हैं। परंतु उसी गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियों में हमारे शहरों के सीवर उडेले जा रहे हैं। हमारी 'पूजनीय' नदियां आज इतनी विषैली और मैली हो चुकी हैं कि उनमें जलीय जीवों का अस्तित्व समाप्त हो रहा है। गंगा-यमुना के तटों पर और पानी में तैरता इतना कचरा मिलेगा कि दुर्गंध के कारण उसके पास खड़ा होना मुश्किल हो जाता है।
ऐसी ही दुर्दशा और उपेक्षा के शिकार हमारे मंदिर हैं। दुनिया में शायद ही किसी और धर्म के पूजा स्थल इतने बदहाल होंगे। इन मंदिरों में चढ़ावे की कोई कमी नहीं, भक्तों की भारी भीड़ व लंबी कतारें लगी होती हैं, पर साफ-सफाई का ध्यान रखने की सुध किसी को नहीं। उन पुजारियो को भी नहीं, जो वहां विराजमान देवी-देवताओं की सेवा के लिए ही रखे गए हैं। कृष्ण नगरी वृंदावन व शिवनगरी वाराणसी धार्मिक स्थलों में बहुत महत्व रखते हैं। पर उन शहरों की गंदगी, खुले सीवर की भयंकर बदबू शर्मसार कर देती है।
भारतीय समाज स्त्री को पूजनीय मानने का दावा करता है, हर स्त्री को ब्रह्मांड की महाशक्ति का साक्षात रूप मानता है। परंतु वही समाज आज बेटियों के जन्म पर मातम मनाने के लिए व उनकी भ्रूण हत्या के लिए विश्वभर में कुख्यात है। वही पुरुष जो मंदिर में जाकर देवी-देवताओं का पूजन व तरह-तरह के कर्मकांड करता है, घर में अपनी बेटी, बहन, मां या पत्नी के साथ दुर्व्यवहार करने में जरा भी हिचक महसूस नहीं करता।
कहने को स्त्री घर की लक्ष्मी है। बहन और भाई का रिश्ता पवित्र बंधन है। पर बहन को पारिवारिक संपत्ति में हिस्सा देने की बात पर खून-खराबे की नौबत आ जाती है। संपत्ति से बेदखल करने के बावजूद बेटियों को 'बोझ' माना जाता है क्योंकि शादी में दहेज देना पड़ता है। वही भाई जो बहन से राखी बंधवाकर उसकी रक्षा का वादा करता है, उसी बहन के विधवा होने पर या पति के घर से निकाल दिए जाने पर मायके में रहने का अधिकार देने को तैयार नहीं होता, क्योंकि मां-पिता का घर सिर्फ भाइयों और भाभियों की मिल्कियत बन जाता है। वही परिवार जो नवरात्र में कन्या पूजन करता है, अगले ही दिन अल्ट्रासाउंड टेस्ट करा अजन्मी बेटी की गर्भपात द्वारा हत्या कराने से नहीं चूकता।
ऐसे अनेक उदाहरण सिद्ध करते हैं कि समाज के बहुत अधिक लोग अपने धर्म और संस्कृति के मूल सिद्धांतों से केवल रिचुअल के जरिये जुड़े हैं और रिचुअल भी ज्यादातर फिल्मी ढंग के होते जा रहे हैं। आए दिन हमारे समाज सुधारक सरकार से नए-नए उल्टे सीधे, औने-पौने कानूनों की मांग करते रहते हैं। क्यों न यह मांग की जाए कि ऐसे लोगों को पूजा के अधिकार से वंचित कर दिया जाए, जब तक वह इस बात को फिर से आत्मसात नहीं करते कि हमारी संस्कृति में 'पूजनीय' शब्द के सही मायने क्या रहे हैं और उसके साथ क्या-क्या जिम्मेदारियां जुड़ जाती हैं। पूजा के हकदार वही लोग हैं, जो 'पूजनीय' शब्द की गरिमा का पालन करने की क्षमता रखते हैं।
प्रख्यात समाज शास्त्री और सीएसडीएस में प्रोफेसर
गाय को ही लीजिए - पारंपरिक रूप से हिंदू समाज में गाय को मां का दर्जा दिया गया है और उसे पूजनीय माना जाता रहा है। घर में बनने वाली पहली रोटी गोमाता को खिलाकर ही परिवार स्वयं कुछ खाता था। आज देश के हर छोटे-बड़े शहर में हमें गोमाता कूड़े के ढेर में कचरा खाती दिखती है। भूख से बेहाल गाय प्लास्टिक की थैलियां तक खाने को मजबूर हैं। यह हाल केवल उन गायों का ही नहीं है, जिन्हें दूध बंद होने की अवस्था में उनके मालिक लावारिस छोड़ देते हैं, बल्कि उन गायों का भी है जो दूध तो देती हैं, परंतु भैंस की तुलना में कम देती हैं। इसलिए उनके मालिक उन्हें भरपेट चारा देने की जरूरत नहीं समझते। देश के कई हिस्सों में देसी गाय दुर्लभ होती जा रही है और उसकी जगह अमेरिका की जर्सी गाय ने ले ली है। अमेरिकन गाय को भले ही हिंदू समाज पूजनीय न मानता हो, पर कम से कम उसके मालिक उसे चारा तो भरपेट खिलाते हैं, क्योंकि वह दूध अच्छा देती है। इस अवहेलना की वजह से देसी गाय, जिसे हम भारतीय संस्कृति का पूजनीय प्रतीक मानते हैं, की नस्ल में भारी गिरावट आई है। जबकि देसी गाय का दूध अमृत तुल्य है।
गोहत्या को लेकर जहर उगलने वालों और दंगे-फसाद भड़काने वालों की भी कमी नहीं है, पर अपनी गाय माता की सेवा व रक्षा करने वालों की तादाद कम होती जा रही है। मेरे पड़ोस में एक गो-चिंतक कूड़े के ढेर से गोमाता को कचरा खाने की बदहाली से बचाने हेतु एक रेहड़ी पर स्टील के बड़े-बड़े ड्रम रखवाकर मोहल्ले में घुमवाते हैं - इस संदेश के साथ कि गृहिणियां अपना बचा-खुचा जूठा भोजन, सूखी रोटियां, फलों व सब्जियों के छिलके उन ड्रमों में भूख से बेहाल गोमाताओ के भोजन के लिए डाल दें। एक ओर तो यह बहुत ही सराहनीय कार्य लगता है, परंतु दूसरी ओर यह सोचकर मन दुखता है कि जिस देश में परंपरा रही है कि हर गृहिणी रसोई में बनने वाली पहली रोटी गाय को खिलाकर ही अन्य सदस्यों को भोजन कराती थी, आज उसका ऐसा निरादर। जिस देश में किसी समय गाय की पूजा और चारा डाले बिना घर में खाना नहीं पकता था, आज हम उसी गोमाता को रसोई का बचा-खुचा, सड़ा-गला खाना देने में भी आलस करते हैं - कौन अलग थैलियों में आम या केले के छिलकों को दरवाजे तक ले जाए? विडंबना देखिए कि आज जिस आटे में कीड़ा लग गया हो, उसे गाय के आगे डाल दिया जाता है।
यही हाल इस देश की नदियों का है। हमारे यहां गंगा, यमुना व अन्य कई नदियों को पूजनीय माना जाता है। यह मान्यता आज भी जीवंत है कि गंगा स्नान करने से जीवन भर के पाप धुल जाते हैं। इस विश्वास को लेकर बड़े-बड़े कुंभ आयोजित किए जाते हैं व करोड़ों लोग हर साल गंगा में जाकर डुबकी लगाते हैं। परंतु उसी गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियों में हमारे शहरों के सीवर उडेले जा रहे हैं। हमारी 'पूजनीय' नदियां आज इतनी विषैली और मैली हो चुकी हैं कि उनमें जलीय जीवों का अस्तित्व समाप्त हो रहा है। गंगा-यमुना के तटों पर और पानी में तैरता इतना कचरा मिलेगा कि दुर्गंध के कारण उसके पास खड़ा होना मुश्किल हो जाता है।
ऐसी ही दुर्दशा और उपेक्षा के शिकार हमारे मंदिर हैं। दुनिया में शायद ही किसी और धर्म के पूजा स्थल इतने बदहाल होंगे। इन मंदिरों में चढ़ावे की कोई कमी नहीं, भक्तों की भारी भीड़ व लंबी कतारें लगी होती हैं, पर साफ-सफाई का ध्यान रखने की सुध किसी को नहीं। उन पुजारियो को भी नहीं, जो वहां विराजमान देवी-देवताओं की सेवा के लिए ही रखे गए हैं। कृष्ण नगरी वृंदावन व शिवनगरी वाराणसी धार्मिक स्थलों में बहुत महत्व रखते हैं। पर उन शहरों की गंदगी, खुले सीवर की भयंकर बदबू शर्मसार कर देती है।
भारतीय समाज स्त्री को पूजनीय मानने का दावा करता है, हर स्त्री को ब्रह्मांड की महाशक्ति का साक्षात रूप मानता है। परंतु वही समाज आज बेटियों के जन्म पर मातम मनाने के लिए व उनकी भ्रूण हत्या के लिए विश्वभर में कुख्यात है। वही पुरुष जो मंदिर में जाकर देवी-देवताओं का पूजन व तरह-तरह के कर्मकांड करता है, घर में अपनी बेटी, बहन, मां या पत्नी के साथ दुर्व्यवहार करने में जरा भी हिचक महसूस नहीं करता।
कहने को स्त्री घर की लक्ष्मी है। बहन और भाई का रिश्ता पवित्र बंधन है। पर बहन को पारिवारिक संपत्ति में हिस्सा देने की बात पर खून-खराबे की नौबत आ जाती है। संपत्ति से बेदखल करने के बावजूद बेटियों को 'बोझ' माना जाता है क्योंकि शादी में दहेज देना पड़ता है। वही भाई जो बहन से राखी बंधवाकर उसकी रक्षा का वादा करता है, उसी बहन के विधवा होने पर या पति के घर से निकाल दिए जाने पर मायके में रहने का अधिकार देने को तैयार नहीं होता, क्योंकि मां-पिता का घर सिर्फ भाइयों और भाभियों की मिल्कियत बन जाता है। वही परिवार जो नवरात्र में कन्या पूजन करता है, अगले ही दिन अल्ट्रासाउंड टेस्ट करा अजन्मी बेटी की गर्भपात द्वारा हत्या कराने से नहीं चूकता।
ऐसे अनेक उदाहरण सिद्ध करते हैं कि समाज के बहुत अधिक लोग अपने धर्म और संस्कृति के मूल सिद्धांतों से केवल रिचुअल के जरिये जुड़े हैं और रिचुअल भी ज्यादातर फिल्मी ढंग के होते जा रहे हैं। आए दिन हमारे समाज सुधारक सरकार से नए-नए उल्टे सीधे, औने-पौने कानूनों की मांग करते रहते हैं। क्यों न यह मांग की जाए कि ऐसे लोगों को पूजा के अधिकार से वंचित कर दिया जाए, जब तक वह इस बात को फिर से आत्मसात नहीं करते कि हमारी संस्कृति में 'पूजनीय' शब्द के सही मायने क्या रहे हैं और उसके साथ क्या-क्या जिम्मेदारियां जुड़ जाती हैं। पूजा के हकदार वही लोग हैं, जो 'पूजनीय' शब्द की गरिमा का पालन करने की क्षमता रखते हैं।
प्रख्यात समाज शास्त्री और सीएसडीएस में प्रोफेसर