ग्रीन आजकल फैशन में है। इस साल इन्वायरनमेंट डे पर मीडिया में जितनी कवरेज दिखी, वह बेमिसाल थी। हालांकि ग्लोबल वॉर्मिंग पर दुनिया के देश किसी समझौते पर नहीं पहुंच पाए और न ही ऐसी उम्मीद है कि धरती को इस सबसे बड़े खतरे से उबारने का तरीका जल्द ही खोजा जा सकेगा, लेकिन इन्वायरनमेंट को लेकर इस दौरान मचे शोर ने जागरूकता कई गुना बढ़ा दी है। लोग अपने लेवल पर धरती को बचाने की जुगत करने लगे हैं, सरकारी प्रोग्रामों में तो यह एक परमानेंट मुद्दा बन ही गया है। इसका कमाल देखिए कि जयराम रमेश आज सबसे ज्यादा खबरों में रहनेवाले मिनिस्टर हैं, जबकि पांच साल पहले उनकी मिनिस्ट्री में होना सजा माना जाता था।
लेकिन हरे से मुहब्बत का यही दौर बताता है कि हम सबसे नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। जल्द ही इन्वायरनमेंट के मुद्दे शौक नहीं, मजबूरी में बदल जाएंगे। ऐसा होने भी लगा है, हम उसे महसूस कर भी रहे हैं, हर आम-ओ-खास की जिंदगी में खतरे के साए पड़ रहे हैं और उस लिहाज से हमारी सारी जागरूकता, यह शोर और तैयारी कुछ भी नहीं है। कुछ भी नहीं।
धरती बदल चुकी है। वह वैसी हरी-भरी साफ और खूबसूरत नहीं रही, जैसी उसे होना चाहिए था। लेकिन हमने उसकी कीमत पर जो संपन्नता हासिल की है, वह हमें इस लायक बना रही है कि गंदे कर दिए गए पानी को हम अपने पैसे से साफ कर दें, जहरीली फसलों के असर को महंगी दवाओं से मिटा दें, पास से खो गई हरियाली के बदले में किसी टूर ऑपरेटर से कुदरत का अनुभव खरीद लें। हम कह सकते हैं कि कोई बात नहीं, तरक्की की कीमत तो चुकानी ही होती है। अगर हमारी जेब में पैसा आता रहे तो हम धरती की घटती नेमतों की कहीं-न-कहीं से तो भरपाई कर ही लेंगे। कुदरत के नुकसान पर बहुत ज्यादा रोना-गाना घटिया दर्जे की भावुकता माना जाता है। इस मंत्र पर यकीन रखने वाले अब भी मजॉरिटी में होंगे कि तरक्की के लिए इन्वायरनमेंट की कुर्बानी तो देनी ही होगी।
तरक्की से दुश्मनी मोल ले, ऐसा बेवकूफ कौन होगा? इंसानियत की पहली जरूरत है वे तमाम सुख और सुविधाएं, जो उसे जीने की तकलीफों से निजात दिलाती हों। चांद रोटी की जगह नहीं ले सकता और सभ्यता जंगलों में नहीं पलती। भीड़ भरे शहर इंसान को हमेशा गांवों के सुकून से ज्यादा प्यारे लगते रहेंगे। तरक्की के लिए जमीन, पानी और हवा का इस्तेमाल करना होगा। जब तक इंसान को अच्छा लगता रहे, वह यह सौदा जारी रख सकता है। यहां तक कि वह चाहे तो सारी धरती को खोकर उन शीशे और स्टील के शहरों में बस सकता है, जो पारदर्शी डोम से ढके होते हैं और जिनकी कल्पना साइंस फैंटेसी में दिखती रहती है।
काश यह सच होता! दिक्कत यह है कि इंसान कुदरत से परे या ऊपर नहीं है। वह उसी से निकला है, वैसे ही जैसे कोई कंकड़, पेड़ या केंचुआ। आप अपनी शर्त पर बहुत कुछ बदल सकते हैं। मसलन, जमीन नहीं है तो फसलें फैक्ट्री में तैयार की जा सकती हैं, जीने के लिए खाने की जरूरत खत्म की जा सकती है। अगर पेट्रोल के कुएं सूख गए हैं, तो बिजली से काम चला सकते हैं। हवा को साफ किया जा सकता है। जिंदगी को इस तरह ढाला जा सकता है कि हमें इस पृथ्वी की जरूरत ही नहीं रहे।
लेकिन, एक मामूली-सी चीज से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता - पानी।
धरती की नेमतों में पानी ऐसी चीज है, जिससे हमारा जन्म हुआ है। हमारा हर तत्व उसमें घुलकर जिंदा होता है। उसकी हमें हमेशा जरूरत पड़ती है और काफी मात्रा में पड़ी है। ऐसा कोई तरीका नहीं है कि हम पानी के बिना रह जाएं, जब तक कि हम लकड़ी या पत्थर में नहीं बदल जाते। उसे साफ किया जा सकता है, लेकिन अगर वह इस लायक हो तो। हम हाइड्रोजन और ऑक्सिजन के एटम जोड़कर उसे फैक्ट्री में तैयार नहीं कर सकते। करने बैठे तो वह इतना महंगा हो जाएगा कि उसे पीया नहीं जा सकेगा।
हवा के बाद पानी है, जो सबसे इफरात में है। धरती की सतह पर 70 फीसदी पानी है। लेकिन यह सारा पानी या तो समुंदर में नमक के साथ मिला पड़ा है या बर्फ के तौर पर सूख चुका है। महज एक फीसदी है, जिसे हम सब लाखों बरसों से इस्तेमाल कर रहे हैं।पानी के ये फैक्ट आपने पहले भी पढ़े होंगे, लेकिन इनके पीछे मौजूद डरावने सच को महसूस कीजिए। हर तरफ पानी है, लेकिन हमारे काम का नहीं। अपने एक पर्सेंट के बाहर हम डाका डालना चाहें तो पानी धरती की सबसे कीमती चीज हो जाएगा। वह वैसे भी होनेवाला है, क्योंकि अपने एक पर्सेंट को भी हमने दांव पर लगा दिया है। पानी जल्द ही दुनिया की सबसे नाजुक चीज बनने जा रहा है, जिसके लिए इंसान किसी भी हद तक जा सकते हैं।
आपने यह कहावत सुनी होगी, अगला वर्ल्ड वॉर पानी के लिए होगा। हमें उसका इंतजार करने की जरूरत नहीं है। जंग शुरू हो चुकी है। इन गर्मियों में देश के कई शहरों-कस्बों में पानी के झगड़े में जितनी मौतें हुई हैं, पहले कभी नहीं हुईं।
जल्द ही नदियों में पानी नहीं रह जाएगा। पहाड़, जो हमें पानी देते थे, सूख चुके हैं। धरती के भीतर पानी खत्म हो रहा है। इस पानी पर फैल रहे नए शहरों में अकाल बस आने ही वाला है। इंसानियत पानी के सामने हारने वाली है। जल प्रलय शायद यही हो!
पानी को जिस इज्जत की दरकार है, वह उसे नहीं मिल रहा। इससे पहले कि वॉटर इमरजेंसी लागू करने की नौबत आए, उसे बचाने की जंग शुरू हो जानी चाहिए। हमारा अगला वर्ल्ड वॉर किसी और से नहीं, खुद के खिलाफ होने जा रहा है।
लेकिन हरे से मुहब्बत का यही दौर बताता है कि हम सबसे नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। जल्द ही इन्वायरनमेंट के मुद्दे शौक नहीं, मजबूरी में बदल जाएंगे। ऐसा होने भी लगा है, हम उसे महसूस कर भी रहे हैं, हर आम-ओ-खास की जिंदगी में खतरे के साए पड़ रहे हैं और उस लिहाज से हमारी सारी जागरूकता, यह शोर और तैयारी कुछ भी नहीं है। कुछ भी नहीं।
धरती बदल चुकी है। वह वैसी हरी-भरी साफ और खूबसूरत नहीं रही, जैसी उसे होना चाहिए था। लेकिन हमने उसकी कीमत पर जो संपन्नता हासिल की है, वह हमें इस लायक बना रही है कि गंदे कर दिए गए पानी को हम अपने पैसे से साफ कर दें, जहरीली फसलों के असर को महंगी दवाओं से मिटा दें, पास से खो गई हरियाली के बदले में किसी टूर ऑपरेटर से कुदरत का अनुभव खरीद लें। हम कह सकते हैं कि कोई बात नहीं, तरक्की की कीमत तो चुकानी ही होती है। अगर हमारी जेब में पैसा आता रहे तो हम धरती की घटती नेमतों की कहीं-न-कहीं से तो भरपाई कर ही लेंगे। कुदरत के नुकसान पर बहुत ज्यादा रोना-गाना घटिया दर्जे की भावुकता माना जाता है। इस मंत्र पर यकीन रखने वाले अब भी मजॉरिटी में होंगे कि तरक्की के लिए इन्वायरनमेंट की कुर्बानी तो देनी ही होगी।
तरक्की से दुश्मनी मोल ले, ऐसा बेवकूफ कौन होगा? इंसानियत की पहली जरूरत है वे तमाम सुख और सुविधाएं, जो उसे जीने की तकलीफों से निजात दिलाती हों। चांद रोटी की जगह नहीं ले सकता और सभ्यता जंगलों में नहीं पलती। भीड़ भरे शहर इंसान को हमेशा गांवों के सुकून से ज्यादा प्यारे लगते रहेंगे। तरक्की के लिए जमीन, पानी और हवा का इस्तेमाल करना होगा। जब तक इंसान को अच्छा लगता रहे, वह यह सौदा जारी रख सकता है। यहां तक कि वह चाहे तो सारी धरती को खोकर उन शीशे और स्टील के शहरों में बस सकता है, जो पारदर्शी डोम से ढके होते हैं और जिनकी कल्पना साइंस फैंटेसी में दिखती रहती है।
काश यह सच होता! दिक्कत यह है कि इंसान कुदरत से परे या ऊपर नहीं है। वह उसी से निकला है, वैसे ही जैसे कोई कंकड़, पेड़ या केंचुआ। आप अपनी शर्त पर बहुत कुछ बदल सकते हैं। मसलन, जमीन नहीं है तो फसलें फैक्ट्री में तैयार की जा सकती हैं, जीने के लिए खाने की जरूरत खत्म की जा सकती है। अगर पेट्रोल के कुएं सूख गए हैं, तो बिजली से काम चला सकते हैं। हवा को साफ किया जा सकता है। जिंदगी को इस तरह ढाला जा सकता है कि हमें इस पृथ्वी की जरूरत ही नहीं रहे।
लेकिन, एक मामूली-सी चीज से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता - पानी।
धरती की नेमतों में पानी ऐसी चीज है, जिससे हमारा जन्म हुआ है। हमारा हर तत्व उसमें घुलकर जिंदा होता है। उसकी हमें हमेशा जरूरत पड़ती है और काफी मात्रा में पड़ी है। ऐसा कोई तरीका नहीं है कि हम पानी के बिना रह जाएं, जब तक कि हम लकड़ी या पत्थर में नहीं बदल जाते। उसे साफ किया जा सकता है, लेकिन अगर वह इस लायक हो तो। हम हाइड्रोजन और ऑक्सिजन के एटम जोड़कर उसे फैक्ट्री में तैयार नहीं कर सकते। करने बैठे तो वह इतना महंगा हो जाएगा कि उसे पीया नहीं जा सकेगा।
हवा के बाद पानी है, जो सबसे इफरात में है। धरती की सतह पर 70 फीसदी पानी है। लेकिन यह सारा पानी या तो समुंदर में नमक के साथ मिला पड़ा है या बर्फ के तौर पर सूख चुका है। महज एक फीसदी है, जिसे हम सब लाखों बरसों से इस्तेमाल कर रहे हैं।पानी के ये फैक्ट आपने पहले भी पढ़े होंगे, लेकिन इनके पीछे मौजूद डरावने सच को महसूस कीजिए। हर तरफ पानी है, लेकिन हमारे काम का नहीं। अपने एक पर्सेंट के बाहर हम डाका डालना चाहें तो पानी धरती की सबसे कीमती चीज हो जाएगा। वह वैसे भी होनेवाला है, क्योंकि अपने एक पर्सेंट को भी हमने दांव पर लगा दिया है। पानी जल्द ही दुनिया की सबसे नाजुक चीज बनने जा रहा है, जिसके लिए इंसान किसी भी हद तक जा सकते हैं।
आपने यह कहावत सुनी होगी, अगला वर्ल्ड वॉर पानी के लिए होगा। हमें उसका इंतजार करने की जरूरत नहीं है। जंग शुरू हो चुकी है। इन गर्मियों में देश के कई शहरों-कस्बों में पानी के झगड़े में जितनी मौतें हुई हैं, पहले कभी नहीं हुईं।
जल्द ही नदियों में पानी नहीं रह जाएगा। पहाड़, जो हमें पानी देते थे, सूख चुके हैं। धरती के भीतर पानी खत्म हो रहा है। इस पानी पर फैल रहे नए शहरों में अकाल बस आने ही वाला है। इंसानियत पानी के सामने हारने वाली है। जल प्रलय शायद यही हो!
पानी को जिस इज्जत की दरकार है, वह उसे नहीं मिल रहा। इससे पहले कि वॉटर इमरजेंसी लागू करने की नौबत आए, उसे बचाने की जंग शुरू हो जानी चाहिए। हमारा अगला वर्ल्ड वॉर किसी और से नहीं, खुद के खिलाफ होने जा रहा है।