वोट बैंक के चक्कर में होती है पर्यावरण की उपेक्षा
चुनावी चकाचौंध में पानी हुआ बेमानी
दिल्ली और एनसीआर का क्षेत्र बेहद तेज रफ्तार से कंक्रीट के जंगल में तब्दील होता जा रहा है। इसके लिए राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं। राजनेताओं ने बिल्डरों से मिलीभगत कर पूरे एनसीआर क्षेत्र को कंक्रीट के जंगल में तब्दील कर दिया है। ऐसी ही एक कोशिश फिर से की जा रही है। इस बार इन नेताओं और बिल्डरों के निशाने पर अरावली है। लेकिन इस कोशिश को नहीं रोका गया तो इसके बाद एनसीआर के अन्य क्षेत्रों में भी यह खतरा बढ़ सकता है। देश का मूड चुनावमय है। आम आदमी से लेकर खास आदमी तक सभी पर आम चुनावों का खुमार तारी है। कोई इसके इतर कुछ बोलने-सुनने की जहमत नहीं उठाना चाह रहा है। इसी खुमारी के बीच एक बार और जल संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाने वाला अंतरराष्ट्रीय जल दिवस अपना संदेश देने लोगों के सामने है। यह दिवस भी अन्य दिवसों की तरह ही बीत जाएगा और लोगों के मन मस्तिष्क पर तारी चुनावी की खुमारी भी क्षणिक अंतराल पर उतर जाएगी। लेकिन हमारे नीति-नियंता से लेकर आम आदमी तक अगर विश्व जल दिवस के संदेशों का मर्म समझने में नाकाम रहे तो ताजिंदगी और भावी पीढ़ियों तक को इसका खामियाजा भुगतने को तैयार रहना पड़ सकता है।
देश-दुनिया में पानी की समस्या बताने की अब जरूरत नहीं पड़ती है। पानी की महत्ता प्यास लगने पर ही मालूम होती है। दुनिया का कोई तरल इसका विकल्प नहीं हो सकता है। देश में पानी की समस्या गंभीर रूप ले चुकी है। आबादी बढ़ने के साथ प्रति व्यक्ति पानी उपलब्धता में तेजी से कमी आई है। 2001 के दौरान जो प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1816 घन मीटर थी, वह दस साल बाद यानी 2011 में घटकर 1545 घनमीटर रह गई। शहरी विकास मंत्रालय के आकंड़ों पर गौर करें तो देश के 32 शहरों में से 22 शहर रोजाना के स्तर पर पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। इनमें से जमशेदपुर, कानपुर, आसनसोल, धनबाद, मेरठ, फरीदाबाद, विशाखापत्तनम, मदुरै और हैदराबाद जैसे वे शहर भी शामिल हैं जहां इस समस्या के खड़ी होने पर किसी को भी हैरत हो सकती है।
लोकसभा चुनाव अभियान तेजी से बढ़ रहा है। सभी राजनैतिक दल के लोग जनता को लुभाने के लिए तमाम विषयों पर बोल और उन्हें ठीक करने का दावा कर रहे हैं। लेकिन पानी की समस्या किसी भी नेता का भाषण में जगह नहीं बना पा रही है। शायद यह उनकी प्राथमिकता में नहीं है जबकि उन्हें मालूम है कि चुनावी गति के साथ जैसे-जैसे गर्मी उबाल मारेगी, जनता को पानी के लिए त्राहिमाम करने पर विवश होना पड़ेगा।
सरकारें बदलीं फिर भी नहीं बुझी प्यास
दिल्ली में कई सरकारें आईं और गईं। केंद्र में भी सरकारें बदलीं। जनता ने भाजपा, कांग्रेस यहां तक कि दिल्ली में आप (आम आदमी पार्टी) को भी मौका दिया। फिर भी दिल्ली वासियों की प्यास नहीं बुझी। अब भी दिल्ली पानी की किल्लत से जूझ रही है। गर्मियों में पानी के बूंद बूंद को तरसते लोग मारपीट पर उतारू हो जाते हैं। अब भी यहां के 45 फीसद इलाकों में जल बोर्ड के पाइप लाइन का नेटवर्क नहीं है। लिहाजा भूजल के दोहन से जल स्तर नीचे गिर रहा है। इन कारणों से यहां पानी वोट बैंक का जरिया बन चुका है। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने इसे अपने राजनीतिक फायदे के लिए भुनाया।
सूबे की राजनीति से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक दिल्ली में पानी किल्लत पर खूब शोर हुआ। पर हमेशा राजनीतिक मंसूबे आड़े आ गए। इसलिए पानी नहीं मिल पाया। दिल्ली में पानी की मांग और आपूर्ति में भारी अंतर है। 1050 एमजीडी पानी की मांग की जगह 838 एमजीडी उपलब्ध हो पाता है। इस तरह 222 एमजीडी पानी की कमी है। मुनक नहर बनकर तैयार है। मुनक नहर से 80 एमजीडी पानी दिल्ली आना है। पर हरियाणा पानी देने को तैयार नहीं। इस मसले पर हरियाणा व दिल्ली सरकार के बीच कई बार बातचीत हो चुकी है।
करीब पांच साल से यह लंबित पड़ा है। यह मामला प्रधानमंत्री कार्यालय भी गया। फिर भी दिल्ली को पानी नहीं मिला। दिल्ली में 55 फीसद इलाकों में ही जल बोर्ड का पाइप लाइन नेटवर्क है। 45 फीसद इलाकों में नेटवर्क नहीं है। इसमें सबसे ज्यादा दक्षिणी दिल्ली, दक्षिणी पश्चिमी दिल्ली के इलाके प्रभावित हैं। इस कारण इन इलाकों में ट्यूबवेल से भूजल निकालकर आपूर्ति होता है। इसका असर भूजल स्तर पर पड़ रहा है। यही वजह है कि दिल्ली कैंट, द्वारका, वसंत कुंज जैसे इलाकों में सबसे ज्यादा भूजल स्तर नीचे गिरा है।
हाल ही में आम आदमी पार्टी की सरकार ने भी दिल्ली में हर परिवार को प्रतिमाह 20 किलोलीटर (20 हजार लीटर) पानी मुफ्त देने का प्रावधान कर दिया है। जानकारों का कहना है कि एक तो पानी की कमी है दूसरा इस प्रावधान से भी पानी की बर्बादी होगी। गर्मी बढ़ने पर पानी के लिए त्रहि-त्रहि मचेगी।
दिल्ली में पानी की मांग | 1050 एमजीडी |
पानी की उपलब्धता | 838 एमजीडी |
कमी | 222 एमजीडी |
कहां से कितना पानी | |
यमुना | 468 एमजीडी |
गंगा | 240 एमजीडी |
रिसाइकिल प्लांट | 30 एमजीडी |
भूजल | 100 एमजीडी |
कुल कनेक्शन | 1947654 |
मीटर वाले कनेक्शन | 1592605 |
बगैर मीटर कनेक्शन | 351089 |
लगभग घरेलू कनेक्शन | 1700000 |
बल्क कनेक्शन | 3960 |
चालू मीटर वाले कनेक्शन | 856000 |
दिल्ली और एनसीआर का क्षेत्र बेहद तेज रफ्तार से कंक्रीट के जंगल में तब्दील होता जा रहा है। इसके लिए राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं। राजनेताओं ने बिल्डरों से मिलीभगत कर पूरे एनसीआर क्षेत्र को कंक्रीट के जंगल में तब्दील कर दिया है। ऐसी ही एक कोशिश फिर से की जा रही है। इस बार इन नेताओं और बिल्डरों के निशाने पर अरावली है। लेकिन इस कोशिश को नहीं रोका गया तो इसके बाद एनसीआर के अन्य क्षेत्रों में भी यह खतरा बढ़ सकता है। अरावली जैसे पर्यावरणीय क्षेत्र (इको-जोन) दिल्ली सहित पूरे एनसीआर क्षेत्र के लिए हवा साफ करने वाले फेफड़े का काम करते हैं, लेकिन अब प्रस्ताव है कि अरावली इको-जोन में पर्यटन की दृष्टि से निर्माण की इजाजत दी जाए। इस क्षेत्र में फ्लोर एरिया रेशियो (एफएआर) बढ़ाने के प्रस्ताव को लगभग मंजूरी दी जाने वाली है। एनसीआर योजना बोर्ड के सदस्य इस प्रस्ताव का विरोध नहीं कर रहे हैं, जो बेहद चिंता की बात है। हरियाणा सरकार की पूरी कोशिश है कि यह प्रस्ताव पास हो जाए। हालांकि इको-जोन में निर्माण की इजाजत पर्यटन के नाम पर मांगी जा रही है, लेकिन इसका सीधा-सीधा मकसद बिल्डरों को फायदा पहुंचाना है और इससे कंक्रीट का जंगल और बढ़ जाएगा।
नोएडा-गाजियाबाद के लोगों को भी इसका विरोध इसलिए करना चाहिए, क्योंकि अरावली के बाद यह आफत उनके क्षेत्र में आने वाली है। यमुना के साथ लगते इको-जोन पर पर्यटन के बहाने निर्माण की इजाजत मिल सकती है। राजनेता अपने वोट बैंक के चक्कर में इको जोन में मकान बनाने वालों को राहत देने की बात करते हैं। यमुना-हिंडन की जमीन पर बनी कालोनियों की नियमित करने की कोशिश की जा रही है।
पर्यावरण संरक्षण के लिए जनता को ही आगे आना होगा। अपना घोषणापत्र तैयार करना पड़ेगा, जिसमें पर्यावरण का नाश करके विकास करने की राजनेताओं की सोच का नकारना होगा। नेताओं को यह बताना होगा कि विकास जरूरी है, लेकिन सतत (सस्टेनेबल) विकास को प्रमुखता देनी होगी। इसका भरोसा देने वाले दलों को ही लोग वोट देंगे, तब सरकारें पर्यावरण संरक्षण के प्रति गंभीरता से काम करेंगी।
विकास के मुद्दे पर पूरी तरह भ्रमित हैं राजनेता
अध्ययन बताते हैं कि दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण की वजह से होने वाली बीमारियां मौत का सबसे बड़ा कारण बन गई है। बावजूद इसके राजनीतिक एजेंडे में पर्यावरण संरक्षण को प्रमुखता न दिया जाना बेहद दुख का विषय है। विकास के मुद्दे पर राजनेता पूरी तरह भ्रमित हैं। उन्हें लगता है कि फ्लाईओवर या चौड़ी सड़कें बना कर वह लोगों को फायदा पहुंचा रहे हैं, लेकिन वह केवल गाड़ियों के चलने का इंतजाम कर रहे हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह मान्यता बदल रही है। विदेशों में अब लोगों के चलने का इंतजाम किया जा रहा है, ना कि गाड़ियों के चलने का। लोगों के चलने से आशय यह है कि सार्वजनिक परिवहन सेवा का अधिक से अधिक विस्तार किया जा रहा है। साथ ही, लोगों को पैदल या साइकिल से चलने के लिए सुरक्षित माहौल दिया जा रहा है, परंतु दिल्ली-एनसीआर में इस मॉडल को नहीं अपनाया जा रहा है।
दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण गाड़ियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि है। अकेले दिल्ली में 1300 गाड़ियां रोजाना सड़क पर उतर रही हैं। यह हाल तब है, जबकि दिल्ली-एनसीआर में कोर्ट के आदेश के बाद सीएनजी का इस्तेमाल हो रहा है। बावजूद इसके वाहनों से होने वाले प्रदूषण में कमी नहीं आई है। इसका बड़ा कारण डीजल वाहनों की संख्या बढ़ना है। ऐसा नहीं है कि पर्यावरण संरक्षण को लेकर लोगों में समझ या चिंता नहीं है, लेकिन यह समझ और चिंता जिस स्तर पर होनी चाहिए, उतनी नहीं है। लोगों की यह चिंता राजनीतिक दलों को समझ में आनी चाहिए, तब ही वो अपने एजेंडे में पर्यावरण को शामिल करेंगे। इसके लिए जनता को जागरूक करना होगा। यह जिम्मा स्वयंसेवी संगठनों को उठाना होगा। लोगों को निजी गाड़ियों के इस्तेमाल में कमी लाकर पर्यावरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी प्रदर्शित करनी होगी।
जब भी स्वास्थ्य के विषय पर बात होती है तो इसके पीछे छिपे कारणों पर बात नहीं होती। दिल्ली-एनसीआर में लोग बीमार ही न हों, इसके लिए जरूरी है कि लोगों को स्वच्छ पर्यावरण दिया जाए। लेकिन इसके समाधान को लेकर समझ की बेहद कमी है। सरकारों को यह भी समझना होगा कि विकास के ढांचे में बदलाव किया जाए।
फैलते गए कंक्रीट के जंगल, प्रदूषित हो गया नदियों का पानी
गौतमबुद्धनगर जिले में पिछले सात साल में विकास के नाम पर कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं। औद्योगिक विकास के लिए बने गौतमबुद्धनगर जिले में पिछले सात साल में विकास के नाम पर कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं। औद्योगिक विकास के लिए बने नोएडा को आवासीय नगरी में तब्दील कर दिया गया। गगनचुंबी इमारतों से जिला पट गया।
इन सब के बीच पर्यावरण संरक्षण पीछे छूट गया। जहां पहले जंगल था, वहां इमारतों का अंबार लग गया। धड़ल्ले से पेड़ों को काट दिया गया। वाटर रिचार्ज की संभावनाएं विकास के नाम पर खत्म कर दी गई। नदियां भी बुरी तरह प्रदूषित हो गईं। कंक्रीट के फुटपाथ बना दिए गए, जिससे वर्षा का पानी जमीन के बजाए नाले में जाने लगा। इसी का नतीजा है कि जिले के तापमान में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। जलस्तर में लगातार गिरावट आ रही है। एक सर्वे के अनुसार नोएडा के सेक्टर 23 में सर्वाधित जल स्तर पर गिरावट आ रही है।
जल तक पहुंच
दुनिया में 76.8 करोड़ लोग उन्नत किस्म के पेयजल स्रोतों से दूर हैं। जबकि 2.5 अरब लोगों को बेहतर साफ सफाई नहीं उपलब्ध है।
बिजली तक पहुंच
1.3 अरब से ज्यादा की आबादी बिजली से महरूम है और 2.6 अरब लोग ठोस ईंधनों पर भोजन बनाने को अभिशप्त हैं।
शुद्ध बिजली
पनबिजली ऊर्जा उत्पादन का सबसे बड़ा नवीकृत स्रोत है। 2035 तक दुनिया के कुल बिजली उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी 16% होगी
जीवाश्म ईंधन से प्रदूषण
15-18 अरब घन मीटर स्वच्छ जल स्रोत हर साल जीवाश्म ईंधनों यानी पेट्रो और कोयले के उत्पादन से दूषित होते हैं।
जल में निवेश
केवल विकासशील देशों को जल, साफ सफाई और संशोधन पर 2015 तक 103 अरब डॉलर की रकम हर साल खर्च करनी होगी।
जल यातायात
जल के माध्यम से यातायात में सड़क की अपेक्षा तीन गुना कम ऊर्जा खपत होती है जबकि रेलवे के मुकाबले 40 फीसद कम ऊर्जा लगती है।
समस्या
सियासत में भी माल वही बिकता है जो बिकाऊ होता है। महंगाई, भ्रष्टाचार, महिला सुरक्षा, आवास, सड़क आदि लोकलुभावन मुद्दों को लेकर लड़े जाने वाले चुनावों में पर्यावरण संरक्षण या प्रदूषण से पर्यावरण को बढ़ते खतरों को लेकर कभी चर्चा नहीं की जाती। यमुना की बदहाली को लेकर लच्छेदार भाषण भले दिए जाते हों लेकिन विभिन्न राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में इस नदी की सफाई का जिक्र महज दिखावटी ही होता है। पर्यावरण राजनीतिक दलों के एजेंडे में कहीं नहीं है।
कारण
दिल्ली-एनसीआर में ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी चुनाव विशेष में यमुना के प्रदूषण अथवा यहां के रिज में बढ़ते अतिक्रमण को मुद्दा बनाया गया हो। निजी वाहनों की बढ़ती तादाद और पूरे शहर में बढ़ते शोर-शराबे को लेकर भी कभी कोई नेता कोई चुनाव नहीं हारा। मतदाताओं ने भी इस मुद्दे को प्राथमिकता नहीं दी। सड़क के लिए गांव के गांव ने मतदान का बहिष्कार किया, लेकिन यमुना के लिए कभी ऐसा नहीं हुआ।
समाधान
पर्यावरण को लेकर लगातार जारी आंदोलनों ने आम लोगों के बीच इसके संरक्षण को लेकर जागरूकता तो जरूर बढ़ाई है लेकिन वह दिन आना बाकी है जब कोई चुनाव पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर लड़ा जाए। जब नेता इसी मुद्दे पर चुनाव हारने लगेंगे, तभी उन्हें इसकी असली अहमियत समझ में आएगी। नेताओं को भी चाहिए कि शहर की बेहतरी के लिए पूरी गंभीरता से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम करें।
बढ़ रहा है कंक्रीट का जंगल
वर्ष 1992 | वर्ष 2012 | परिवर्तन | |
निर्मित क्षेत्र | 2.76 लाख हेक्टेयर | 3.72 लाख हेक्टेयर | 35% वृद्धि |
कृषि भूमि | 26.65 लाख हेक्टेयर | 26.45 लाख हेक्टेयर | 1% घटा |
हरित क्षेत्र | 1.45 लाख हेक्टेयर | 1.12 लाख हेक्टेयर | 23% घटा |
वेटलैंड | 2.91 लाख हेक्टेयर | 2.34 लाख हेक्टेयर | 20% घटा |
जलाशय | 0.24 लाख हेक्टेयर | 0.23 लाख हेक्टेयर | 6% घटा |
स्रोत : राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना बोर्ड
वन क्षेत्र
राष्ट्रीय औसत | 21 फीसद |
एनसीआर | 6.2 फीसद |
दिल्ली | 19.9 फीसद |
हरियाणा उपक्षेत्र | 3.5 फीसद |
उत्तर प्रदेश उपक्षेत्र | 2.6 फीसद |
राजस्थान उपक्षेत्र | 14.6 फीसद |
वायु प्रदूषण
राज्य | सल्फर डाइऑक्साइड | नाइट्रोजन डाइऑक्साइड | पीएम 10 (धूलकण) |
दिल्ली | 6 | 75 | 268 |
हरियाणा | 18 | 58 | 159 |
उ.प्र. | 10 | 42 | 136 |
राजस्थान | 13 | 22 | 310 |
प्राधिकरण की विकास नीति में भी पर्यावरण संरक्षण का ध्यान जरूरी है। लेकिन ऐसा है नहीं। ग्रुप हाउसिंग की वजह से पर्यावरण को बहुत नुकसान हुआ है। मैंने इस संबंध में समय-समय पर प्राधिकरण को सचेत भी किया है।
सुरेंद्र नागर, गौतमबुद्धनगर के सांसद
प्राधिकरण ने बिल्डरों को फायदा पहुंचाने के लिए पर्यावरण संरक्षण को दरकिनार कर दिया। इस संबंध में कई बार प्राधिकरण अधिकारियों को आगाह किया गया, जिससे पर्यावरण की रक्षा हो सके। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
डॉ. महेश शर्मा, विधायक नोएडा