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सप्रेस/सीएसई, डाउन टू अर्थ फीचर्स, सितंबर 2012
नवीन एवं नवीकृत ऊर्जा मंत्रालय ने जीबीआई योजना वर्ष 2009 में प्रारंभ की थी, जिसमें पवन चक्की से ग्रिड को दी जाने वाली विद्युत की प्रत्येक यूनिट पर 50 पैसे का भुगतान होना था और इसके अलावा साफ ऊर्जा की आपूर्ति हेतु विकासकर्ता को उच्च दर पर शुल्क की भरपाई का प्रावधान शामिल था। जीबीआई परियोजना सरकार की अन्य प्रोत्साहन योजनाओं के अतिरिक्त थी। ए.डी. को सन् 1990 के दशक में लागू किया गया था। पिछले वर्ष की पहली तिमाही के मुकाबले इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में पवन ऊर्जा क्षेत्र में धीमी वृद्धि दर्ज की गई है। पिछले वर्ष इसी अवधि के मुकाबले इस वर्ष क्षेत्र में 100 मेगावाट कम क्षमता वृद्धि हुई है। अधिक चिंता की बात यह है कि वर्ष 2012 की पहली तिमाही में तमिलनाडु में, जहां सर्वाधिक पवन ऊर्जा का उत्पादन होता है, वहां क्षमता संवर्द्धन में आधे से अधिक की और राजस्थान में भी जबरदस्त कमी आई है। वहीं केंद्रीय नवीन एवं नवीकृत ऊर्जा मंत्रालय इन आंकड़ों से संतुष्ट है और उसका कहना है कि समय के साथ क्षमता में सुधार हो जाएगा। इस वर्ष अप्रैल से जून की अवधि में कुल 291.7 मेगावाट क्षमता वृद्धि हुई जबकि इसकी तुलना में पिछले वर्ष यह वृद्धि 394.7 मेगावाट थी। भारतीय पवन ऊर्जा एसोसिएशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वी. सुब्रमण्यम का कहना है कि इस वर्ष कुल 1200 मेगावाट से अधिक क्षमता स्थापित हो पाने की संभावना नहीं है। गत वर्ष स्थापित क्षमता 3200 मेगावाट थी जबकि वर्ष 2010-11 में यह 2350 मेगावाट थी।
उद्योग पिछले काफी समय से इस अशुभ या डरावनी स्थिति के बारे में अपनी चिंता से अवगत कराते रहे हैं। इसी वजह से मंत्रालय ने एक अगस्त को एक सभा का आयोजन किया था। उद्योग ने इसमें क्षमता में वृद्धि में गिरावट के कई कारण गिनाए थे, जिसमें उत्सर्जन आधारित प्रोत्साहन (जी.बी.आई.) और त्वरित मूल्य ह्रास या घटाव (ए.डी.) का वापस लिया जाना मुख्य था। नवीन एवं नवीकृत ऊर्जा मंत्रालय ने जीबीआई योजना वर्ष 2009 में प्रारंभ की थी, जिसमें पवन चक्की (विंड मिल) से ग्रिड को दी जाने वाली विद्युत की प्रत्येक यूनिट पर 50 पैसे का भुगतान होना था और इसके अलावा साफ ऊर्जा की आपूर्ति हेतु विकासकर्ता को उच्च दर पर शुल्क की भरपाई (फीड इन टेरिफ) का प्रावधान शामिल था। जीबीआई परियोजना सरकार की अन्य प्रोत्साहन योजनाओं के अतिरिक्त थी। ए.डी. को सन् 1990 के दशक में लागू किया गया था। ए.डी. के अंतर्गत ऐसी कंपनियां जो कि पवन ऊर्जा संयंत्रों में निवेश करेगी, उन्हें पहले वर्ष में निवेश की गई पूंजी पर 80 प्रतिशत तब बचत की अनुमति थी।
जीबीआई की अवधि मार्च 2012 में समाप्त हो गई और इसे पुनः प्रारंभ नहीं किया गया। मंत्रालय के अधिकारी ने अपना नाम गुप्त रखते हुए कहा कि ए.डी. की वजह से इस क्षेत्र में पवन चक्कियां लग रहीं थीं और 70 प्रतिशत ऊर्जा संवर्द्धन भी इसी योजना के माध्यम से हो रहा था। लेकिन इसकी वजह से घटिया गुणवत्ता वाली पवन चक्कियां स्थापित हुई और इसी वजह से हमें देश के बेहतरीन पवन ऊर्जा स्थलों से भी हाथ धोना पड़ा। स्थापित क्षमता में कमी के अन्य कारण विशिष्ट राज्यों से संबंधित है। तमिलनाडु में राज्य के स्वामित्व वाली इकाई ने पवन ऊर्जा उत्पादकों का पिछले एक वर्ष से उनके बकाया का भुगतान नहीं किया है। तमिलनाडु राज्य विद्युत बोर्ड ने हाल ही मं् बकाया का भुगतान प्रारंभ किया है। तमिलनाडु डिस्काम के निदेशक (वित्त) जी. राजगोपाल का कहना है कि ‘कुल 1500 करोड़ रुपए के बकाया में से 700 करोड़ रुपए दिए गए हैं।’ राजस्थान में भी भुगतान में देरी हो रही है क्योंकि वहां भी राज्य स्वामित्व वाली इकाई पर पैतालिस हजार करोड़ का कर्जा है। उद्योग के स्रोत का कहना है ‘इसी अनिश्चितता की वजह से बैंके पवन ऊर्जा परियोजनाओं को ऋण देने से हिचकिचा रही हैं।’
वही मंत्रालय इस स्थिति से कतई विचलित नहीं है। एक अधिकारी का कहना है ‘हम यह स्वीकार करते हैं कि इस वर्ष का क्षमता संवर्द्धन पिछले वर्ष से कम होगा। लेकिन ए.डी. के समाप्त होने से केवल गंभीर प्रतिस्पर्धी ही इस क्षेत्र में प्रवेश करेंगे। इस वर्ष की पहली तिमाही के भले ही 291.7 मेगावाट की ही वृद्धि हुई हो लेकिन हमें प्रसन्नता है कि केवल गंभीर उद्यमियों ने ही इस क्षेत्र में प्रवेश किया है।’ उनका यह भी कहना था कि वर्ष 2010-11 के असाधारण क्षमता वृद्धि के पीछे का कारण यह था कि इसी वर्ष मार्च में ए.डी. का समय समाप्त हो रहा था इसलिए उद्योग में पवन चक्कियां स्थापित करने की होड़ मच गई। गंभीर उद्यमियों को प्रोत्साहित करने के लिए हम शीघ्र ही जीबीआई पुनः लागू करने के लिए चर्चा कर रहे हैं।’ मंत्रालय के सूत्रों का कहना है विकासकर्ताओं के पास ग्रिड को आपूर्ति के लिए 150 मेगावाट क्षमता तैयार पड़ी है लेकिन वे जीबीआई के पुनः प्रारंभ होने की रास्ता देख रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है इस कथन में सत्यता नहीं है कि क्षमता के गिरने में ए.डी. के वापस लिए जाने का योगदान है। अगर यही मामला था तो वर्ष 2010-11 की पहली तिमाही में स्थापित क्षमता केवल 203 मेगावाट ही क्यों थी?
उद्योग पिछले काफी समय से इस अशुभ या डरावनी स्थिति के बारे में अपनी चिंता से अवगत कराते रहे हैं। इसी वजह से मंत्रालय ने एक अगस्त को एक सभा का आयोजन किया था। उद्योग ने इसमें क्षमता में वृद्धि में गिरावट के कई कारण गिनाए थे, जिसमें उत्सर्जन आधारित प्रोत्साहन (जी.बी.आई.) और त्वरित मूल्य ह्रास या घटाव (ए.डी.) का वापस लिया जाना मुख्य था। नवीन एवं नवीकृत ऊर्जा मंत्रालय ने जीबीआई योजना वर्ष 2009 में प्रारंभ की थी, जिसमें पवन चक्की (विंड मिल) से ग्रिड को दी जाने वाली विद्युत की प्रत्येक यूनिट पर 50 पैसे का भुगतान होना था और इसके अलावा साफ ऊर्जा की आपूर्ति हेतु विकासकर्ता को उच्च दर पर शुल्क की भरपाई (फीड इन टेरिफ) का प्रावधान शामिल था। जीबीआई परियोजना सरकार की अन्य प्रोत्साहन योजनाओं के अतिरिक्त थी। ए.डी. को सन् 1990 के दशक में लागू किया गया था। ए.डी. के अंतर्गत ऐसी कंपनियां जो कि पवन ऊर्जा संयंत्रों में निवेश करेगी, उन्हें पहले वर्ष में निवेश की गई पूंजी पर 80 प्रतिशत तब बचत की अनुमति थी।
जीबीआई की अवधि मार्च 2012 में समाप्त हो गई और इसे पुनः प्रारंभ नहीं किया गया। मंत्रालय के अधिकारी ने अपना नाम गुप्त रखते हुए कहा कि ए.डी. की वजह से इस क्षेत्र में पवन चक्कियां लग रहीं थीं और 70 प्रतिशत ऊर्जा संवर्द्धन भी इसी योजना के माध्यम से हो रहा था। लेकिन इसकी वजह से घटिया गुणवत्ता वाली पवन चक्कियां स्थापित हुई और इसी वजह से हमें देश के बेहतरीन पवन ऊर्जा स्थलों से भी हाथ धोना पड़ा। स्थापित क्षमता में कमी के अन्य कारण विशिष्ट राज्यों से संबंधित है। तमिलनाडु में राज्य के स्वामित्व वाली इकाई ने पवन ऊर्जा उत्पादकों का पिछले एक वर्ष से उनके बकाया का भुगतान नहीं किया है। तमिलनाडु राज्य विद्युत बोर्ड ने हाल ही मं् बकाया का भुगतान प्रारंभ किया है। तमिलनाडु डिस्काम के निदेशक (वित्त) जी. राजगोपाल का कहना है कि ‘कुल 1500 करोड़ रुपए के बकाया में से 700 करोड़ रुपए दिए गए हैं।’ राजस्थान में भी भुगतान में देरी हो रही है क्योंकि वहां भी राज्य स्वामित्व वाली इकाई पर पैतालिस हजार करोड़ का कर्जा है। उद्योग के स्रोत का कहना है ‘इसी अनिश्चितता की वजह से बैंके पवन ऊर्जा परियोजनाओं को ऋण देने से हिचकिचा रही हैं।’
वही मंत्रालय इस स्थिति से कतई विचलित नहीं है। एक अधिकारी का कहना है ‘हम यह स्वीकार करते हैं कि इस वर्ष का क्षमता संवर्द्धन पिछले वर्ष से कम होगा। लेकिन ए.डी. के समाप्त होने से केवल गंभीर प्रतिस्पर्धी ही इस क्षेत्र में प्रवेश करेंगे। इस वर्ष की पहली तिमाही के भले ही 291.7 मेगावाट की ही वृद्धि हुई हो लेकिन हमें प्रसन्नता है कि केवल गंभीर उद्यमियों ने ही इस क्षेत्र में प्रवेश किया है।’ उनका यह भी कहना था कि वर्ष 2010-11 के असाधारण क्षमता वृद्धि के पीछे का कारण यह था कि इसी वर्ष मार्च में ए.डी. का समय समाप्त हो रहा था इसलिए उद्योग में पवन चक्कियां स्थापित करने की होड़ मच गई। गंभीर उद्यमियों को प्रोत्साहित करने के लिए हम शीघ्र ही जीबीआई पुनः लागू करने के लिए चर्चा कर रहे हैं।’ मंत्रालय के सूत्रों का कहना है विकासकर्ताओं के पास ग्रिड को आपूर्ति के लिए 150 मेगावाट क्षमता तैयार पड़ी है लेकिन वे जीबीआई के पुनः प्रारंभ होने की रास्ता देख रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है इस कथन में सत्यता नहीं है कि क्षमता के गिरने में ए.डी. के वापस लिए जाने का योगदान है। अगर यही मामला था तो वर्ष 2010-11 की पहली तिमाही में स्थापित क्षमता केवल 203 मेगावाट ही क्यों थी?