एक कर्मठ शिष्य, एक “जल-दूत” हैं
एक पुस्तक किस प्रकार किसी व्यक्ति का समूचा जीवन, उसकी सोच, उसकी कार्यक्षमता और जीवन के प्रति अवधारणा को बदल सकती है, उसका साक्षात उदाहरण हैं गुजरात के फ़रहाद कॉण्ट्रेक्टर, जिन्हें उनकी विशिष्ट समाजसेवा के लिये “संस्कृति अवार्ड” प्राप्त हुआ है और जिनकी कर्मस्थली है सतत सूखे से प्रभावित राजस्थान की मरुभूमि। फ़रहाद जब भी कुछ कहना शुरु करते हैं, वे उस पुस्तक का उल्लेख करते हैं, सबसे पहले उल्लेख करते हैं, अपने कथन के अन्त भी उसी पुस्तक के उद्धरण देते हैं। बीच-बीच में वे पुस्तक के बारे में बताते चलते हैं, कि किस प्रकार कोई पुस्तक किसी को इतना प्रभावित कर सकती है। वे लगातार यह बताते हैं कि उन्हें जो भी नाम और सफ़लता मिली है उसके पीछे इसी पुस्तक की प्रेरणा है, उनकी जो भी कोशिश है और जितना भी कार्य है वह इस पुस्तक द्वारा दी गई अन्तर्दृष्टि के कारण ही सम्भव हुआ है।
अब आपकी उत्सुकता को जल्द से जल्द समाप्त करते हुए बताते हैं कि यह शख्स यानी फ़रहाद कॉण्ट्रेक्टर, जिन्हें राजस्थान के सूखा प्रभावित इलाकों में काम करने के लिये पुरस्कृत किया जा चुका है, वे बात करते हैं “आज भी खरे हैं तालाब” नामक पुस्तक की, जो निर्विवाद रूप से जल प्रबन्धन और जल संरक्षण के क्षेत्र में एक मिसाल मानी जाती है। इस पुस्तक के कई भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं व इसके लेखक हैं प्रख्यात गाँधीवादी श्री अनुपम मिश्र, जिन्हें फ़रहाद अपने पथप्रदर्शक और गुरु मानते हैं।
फ़रहाद उस दिन को याद करते हैं जिस दिन यह पुस्तक पहली बार उनके हाथ लगी। इसे पढ़ने से पहले फ़रहाद अन्य छोटे-मोटे काम करते थे, लेकिन इसे पढ़ते ही मानो उनका जीवन-दर्शन और कार्यपद्धति ही बदल गई। फ़रहाद गुजराती हैं और यह पुस्तक हिन्दी में है, फ़िर भी उन्होंने इस पुस्तक को धीरे-धीरे पढ़ा। इस पुस्तक को आत्मसात करते हुए वे इसके प्रशंसक भी बन गये। यह एक सामान्य उत्कण्ठा होती है कि जो पुस्तक हमें पसन्द आती है, हम उसके लेखक को जानने-समझने और उससे मिलने को बेताब हो जाते हैं। फ़रहाद भी कोई अपवाद नहीं हैं, लेकिन मन-ही-मन अनुपम मिश्र जी को अपना गुरु मान चुके फ़रहाद ने यह तय किया कि पहले वे कुछ करके दिखायेंगे, तभी गुरुदेव से रूबरू मिलेंगे। एकलव्य की तरह फ़रहाद राजस्थान के सबसे दुरूह इलाकों में तीन वर्ष तक गाँव-गाँव भटके और उसके बाद ही अपने अनुभवों के बारे में बताने के लिये अनुपम मिश्र जी से मिले। बस, इस पहली भेंट के बाद ही गुरु-शिष्य के बीच एक अटूट रिश्ता बन गया।
क्या फ़रहाद ने राजस्थान के गाँवों में जादू कर दिया? नहीं, कोई जादू नहीं… बस ग्रामीणों को उनके पूर्वजों द्वारा संरक्षित ज्ञान की याद दिलाई। “आज भी खरे हैं तालाब” पुस्तक को पढ़ने के बाद फ़रहाद बाड़मेर गये और रेतीले सुदूर गाँवों का सघन दौरा किया। उन्होंने पाया कि जो बातें पुस्तक में लिखी हुई हैं ग्रामीणों द्वारा जल का संरक्षण और उसके सिद्धान्त लगभग उसी अंदाज में पहले से ही अपनाया हुआ है, और उन्होंने महसूस किया कि जो प्राचीन ज्ञान ग्रामीणों के पास है पानी के बारे में बाँटने के लिये उससे ज्यादा ज्ञान उनके पास नहीं है। न तो ग्रामीणों को कभी किसी हाइड्रोलॉजिकल इंजीनियर, ना ही किसी सिविल इंजीनियर की आवश्यकता महसूस हुई। पानी के बारे में उनके द्वारा अपनाई गई विधियाँ सदियों से एक चमत्कार करती आ रही हैं।
आखिर पुस्तक में ऐसा क्या है? पुस्तक में सीधी-सरल भाषा में समझाया गया है कि नई वैज्ञानिक तकनीकों की राजस्थान के रेगिस्तान में बहुत ही कम सम्बद्धता है। स्थानीय ग्रामीण आसानी से उस जगह को चिन्हित कर लेते हैं जहाँ से पीने योग्य पानी मिल सके, पानी के बारे में स्थानीय लोगों का ज्ञान किताबों से कहीं अधिक वैज्ञानिक और सटीक है। है ना आश्चर्यजनक? लेकिन यही सच है। भूगर्भ विज्ञानियों और हाइड्रोलॉजिस्टों की टीम भी विभिन्न उपकरणों की मदद के बावजूद पेयजल मिलने का एकदम सही स्थान नहीं बता सकती, लेकिन स्थानीय लोग यह बता सकते हैं, जबकि मजे की बात तो यह है कि उसी पीने के पानी वाले कुंए के आसपास नमक, खारा पानी, रेत और रेत के टीले मौजूद हैं।
जब सारा ज्ञान और तकनीक स्थानीय लोगों की है, तो फ़िर सवाल उठता है कि फ़रहाद ने क्या किया? जवाब है कि कुछ खास नहीं, सिवाय इसके कि फ़रहाद ने गाँव-गाँव घूमकर गाँववालों को उनके प्राचीन ज्ञान, उनके कुँओं, प्राकृतिक जलस्रोतों के बारे में जानकारी दी, ग्रामीणों को प्रेरित किया कि वे सरकार के भरोसे न रहें और खुद ही जल का प्रबन्धन और संरक्षण करें ताकि यह आगे आने वाली पीढ़ी के लिये भी उपयोगी साबित हो सके। फ़रहाद ने पाया कि ग्रामीणों की जरूरत का मात्र 2% पेयजल ही सरकारी प्रयासों से मिलता है, सिंचाई और अन्य कामों की बात तो छोड़ ही दें। सरकार द्वारा स्थापित सारे हैण्डपम्प सूख जाते हैं, सरकारें पानी के लिये एक संरचना बनाने में लाखों रुपये खर्च कर डालती हैं और वे सभी बहुत जल्दी सूख जाते हैं।
सवाल उठता है कि आखिर सरकारें स्थानीय व्यक्तियों की मदद लेकर काम क्यों नहीं करतीं, जवाब शायद यही हो सकता है कि उसमें भ्रष्टाचार और अनियमितता की सम्भावना कम हो जाती है। ठहाका लगाते हुए फ़रहाद बताते हैं कि इन्दिरा गाँधी नहर परियोजना से राजस्थान के सुदूर रेगिस्तानी ग्रामीण इलाकों में पानी पहुँचाने का वादा किया गया था। लेकिन अधिकतर, बल्कि हमेशा ही बड़ी सरकारी योजनायें अतार्किक योजनाओं पर पैसा खर्च करती रहती हैं, क्योंकि अफ़सरों और कर्मचारियों का उसमें हित जुड़ा होता है। आज की तारीख में इन्दिरा गाँधी नहर परियोजना में रेत भर चुकी है और यह कभी भी रेगिस्तान में पानी लाने में सक्षम नहीं होगी। यह सोचना भी मूर्खता है कि रेतीले टीलों और तूफ़ानों के बीच कोई नहर टिक भी सकती है।
इन्दिरा नहर योजना तो असफ़ल सिद्ध हो चुकी है, लेकिन नर्मदा परियोजना का पानी कच्छ के रण तक पहुँचाया जा रहा है यह उदाहरण गुजरात सरकार हमेशा देती है। फ़रहाद सवाल करते हैं कि आखिर कितने दिनों तक गुजरात सरकार नर्मदा परियोजना से पानी दे सकेगी? जबकि सेटेलाईट चित्रों से स्पष्ट हो रहा है कि अमरकण्टक में ही नर्मदा सूखने की कगार पर है, और सबसे बड़ी बात तो यह कि नर्मदा का पानी कच्छ तक लाने की कीमत क्या है? नर्मदा परियोजना की अरबों की लागत की तुलना कुँओं से करके देखिये। फ़रहाद का मानना है कि इस प्रकार की बड़ी-बड़ी परियोजनायें सिर्फ़ तात्कालिक रूप से राहत पहुँचाती हैं, इनका लम्बे समय तक चल पाना अभी भविष्य के गर्भ में है। जबकि एक सिर्फ़ 50,000 रुपये में बना एक कुँआ सतत सालोंसाल पानी से लबालब रहता है और साधारण तौर पर एक बड़े कुँए की आयु सौ साल मानी जाती है।
इसावल कुँओं का पुनर्जीवन –
कुँए के पुनर्जीवन की कथा बाद में, पहले वे पाठक कुँए के बारे में जान लें, जिन्हें जानकारी नहीं है या जिन्होंने कभी कुँआ नहीं देखा। नगरो-महानगरों में रहने वालों के लिये ‘कुँआ’ का मतलब शायद एक इतिहास की बात हो, जिसे उनके बाथरूम में लगे नई डिजाइन के नल ने अपदस्थ कर दिया है, लेकिन ऐसा नहीं है। तपते रेगिस्तान के रेतीले टीलों वाले गाँवों में आपको नल नहीं मिलेंगे, वहाँ कुँए ही मिलते हैं। एक कुँआ भी समूचे गाँव की जीवन रेखा हो सकता है, रेगिस्तान में ग्रामीण जीवन इसी कुँए के चारों ओर घूमता है, चारों ओर जब रेत पसती हो, नमकीन और खारा पानी मिलता हो ऐसे में पीने के पानी का एक कुँआ एक ईश्वरीय वरदान के समान ही होता है। एक कुँआ मतलब एक उम्मीद, एक विश्वास, एक निःश्वास भरी राहत… एक कुँआ मतलब उल्लास का क्षण, उत्सव का एक मौका। इसकी कीमत वही समझ सकता है जो गाँव में रहता है। भले ही महंगी-महंगी सरकारी योजनायें भले ही दो माह में दम तोड़ दें, लेकिन एक कुँआ सदियों तक बना रहता है। इसीलिये एक कुँआ कई पीढ़ियों तक अपनी कहानी खुद कहता है।
तस्वीरें देखिये, हम जानेंगे इसावल कुँए के बारे में, जैसलमेर में यह कुँआ पूरे पचास वर्ग किलोमीटर के इलाके में एक ही है। इस प्रकार का दूसरा कुँआ पचास किलोमीटर दूर पाकिस्तान में है। यह इसावल कुँआ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था, सौ साल से भी अधिक पुराना कुँआ आसपास के गाँवों के लोगों और लगभग दस हजार मवेशियों-भेड़ों के लिये पानी का एक मुख्य स्रोत है (देखें विभिन्न चित्र)। फ़रहाद ने ग्रामीणों को एकत्रित किया, उन्हें समझाया और कुँए को पुनर्जीवन दिया। सभी ने मिलकर कुँए के आसपास छोटी-छोटी टंकी का निर्माण करवाया ताकि मवेशी वहाँ से पानी पी सकें और कुँए की भी मरम्मत की गई, इस तरह यह कुँआ अगले सौ सालों के लिये फ़िर से लगभग नया हो गया। इस सारी कवायद में सिर्फ़ 55,000 रुपये खर्च हुए, जिसमें से 22,000 रुपये का खर्च ग्रामीणों ने मिलकर ही उठा लिया। अगले सौ वर्ष में करोड़ों जानवरों और आदमियों को पानी पिलाने की कीमत का हिसाब लगाने के लिये आपको बड़ा गणितज्ञ होना आवश्यक नहीं है।
रेगिस्तान का कठोर जीवन दो बातें प्रमुखता से सिखाता है, मानवता और व्यवहार में लचीलापन। फ़रहाद ने मानवता का पाठ तो अनुराग मिश्र की पुस्तक से ही सीख लिया था, और व्यवहार का लचीलापन रेगिस्तान के गाँवों के लोगों की कठिन जीवनशैली को देखकर सीखा। वे कहते हैं कि हो सकता है भविष्य में पानी की समस्या के चलते महानगर खाली हो जायें, लेकिन राजस्थान के गाँव फ़िर भी आबाद रहेंगे…
जल प्रबन्धन सम्बन्धी रेगिस्तान का यह आँखे खोल देने वाला विलक्षण अनुभव सभी को कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है और “आत्म-अन्वेषण” के लिये भी, कि आखिर हम कहाँ जा रहे हैं?
गहरा कुँआ जिसके पानी की स्वच्छता स्पष्ट दिखाई दे रही है।
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